आज दोपहर ओम भाई से हुसैन साहब के बारे में बात हो रही थी। उन्होंनेएक बात कही कि हुसैन के लिए भारत की नागरिकता का त्याग करनाइतना ही महत्व रखता है जितना कि उनका जूता – चप्पल न पहनना ।हुसैन अच्छे कलाकार हैं. ढेर सारे दूसरे कलाकारों की तरह. ये उठता हैकि हुसैन को किन वजहों से भारत और भारतीयता का त्याग करने मेंहिचक नहीं हुई । और कौन सी वजहों से वे पिछले चार सालों सेस्वनिर्वासित जीवन बिता रहे थे, दुबई में।
1 क्या हुसैन के खिलाफ कोई फतवा जारी हुआ जान से मारने का?
2. क्या हुसैन पर देश में कभी कोई जानलेवा हमला किया गया?
3. क्या हुसैन ने देवी देवताओं के आपत्तिजनक चित्र नहीं बनाए?
4. क्या उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाइयों के अलावा कोई समांतर दबाव था?
5. क्या उनकी पीड़ा तसलीमा नसरीन से बड़ी थी?
6. क्या उनके सरोकार तसलीमा नसरीन से ज्यादा थे?
इन सारे सवालों का जवाब न है। तो फिर हुसैन को भारत की नागरिकता क्यों छोड़नी पड़ी। तमाम असहमतियों केबावजूद भी मुझे अपने देश पर गुरूर होता है दोस्त, कुछ कुछ वैसा ही जैसा अपने मां बाप पर होता है। मुझे तो देशफांसी पर भी चढ़ा दे तो भी उसका मलाल नहीं होगा और हुसैन तो ऐसे कोई बौद्धिक और प्रगतिशील भी नहीं ठहरेकि उनका इन चीजों पर यकीन ही न हो।
चित्रकला में अपनी सीमित समझ के लिए माफी मांगते हुए मैं कहना चाहूंगा की हुसैन ने अपनी कलासे देश को जोदिया और बदले में जो लिया उसका भी आकलन होना चाहिए।
मुझे अपनी ये राय सार्वजनिक करने में दुःख हो रहा है की दरअसल मकबूल फिदा हुसैन एक औसत दर्जे केकलाकर, कुंठित और अपने अंतस में कट्टरपंथी व्यक्तित्व का नाम है। मैंने हज़ार बार अपनी इस राय को बदलने कीकोशिश की होगी और हुसैन साहब ने अपनी हरकतों से लाख बार मुझे इससे रोक दिया।
अपनों के बीच जाकर रहने के उनके फैसले पर मुझे कोई अचरज नहीं हुआ है। और मुझे उस सवाल के जवाब काआज भी इंतज़ार है की मुस्लिम प्रतीकों के इस्तेमाल के दौरान हुसैन साहब की प्रगतिशीलता और कल्पनाशीलताकहाँ घुस जाती है।
लुईस ग्लुक की कविताऍं
16 घंटे पहले
21 comments:
आपकी बात से पूर्ण सहमत और इन अपने देश के घोंचुओ से क्षुब्द !
सिरे से असहमत। वक्त का टोटा है, लंबी बात की गुंजाइश छोड रहा हूं। फिर कहता हूं- सिरे से असहमत
कभी भी बात करने के लिए एकदम तैयार हूं चाहे फोन पर चाहे ब्लाग पर
संदीप जी, आपने बिलकुल सही कहा. हुसैन एक यौन कुंठित कट्टरपंथी है. जिस देश ने उसको सब कुछ दिया, जिस धरती ने उसे ९१ बरस पला -पोसा, उसके प्रति न तो उसमे श्रद्धा है न ही प्रेम. वह एक प्रचार और पैसे का भूखा भेड़िया है जिसमे न स्त्रियों के प्रति सम्मान है न ही हिन्दू धर्म के प्रति. कतारी नागरिकता की सूचना भेजना भी एक प्रचार का हथकंडा ही है और हमारे यहाँ की सेकुलर रुदालियाँ तो बुक्के फाड़ने के मौके के इन्तेजार में ही बैठी रहती हैं सो छाती कूटना भी शुरू हो चुका है............
nice
sandeep sire se sahamat
आप के माध्यम से इन सेकुलर रुदालिओं से एक प्रशन है। 'क्या वे वैसी कला कृति जिनकी वज़ह से वे इस देश से भागे ,अपनी माँ कि बनवा कर अपने ड्राइंग रूम में लगायेंगे।
हैरान हूँ !!
एक मानसिक रूप से विकृत अवसत दर्जे के चित्रकार का इतना ऊपर उठाना और इतना अहमियत पाना…
९५ साल का यह घटिया कलकार कुछ भी कर गुजरा और लोगों ने इसे हाथों में ही उठाये रखा…देवी-देवताओं की पेटिंग की बात तो अपनी जगह है की…कभी माधुरी दीक्षित, कभी उर्मिला और कभी अमृता राव के बारे में जो दिल में आया कह जाना और उसपर से तुर्रा यह कि अभेनेत्रियाँ भी फूल कर कुप्पा हुई, हिन्दुओं को कोई फर्क नहीं पड़ा और इस्लाम से भी कोई पाबन्दी नहीं…
यह सब कुछ भारत में ही हो सकता है…अब वो क़तर में किसी शेख की बेटी के बारे में बोल के दिखाए तो देखेंगे उसकी हिम्मत….
और हिन्दुओं के तो यही लछन हैं…जो हिन्दू के पक्षधर हैं वो कट्टरवादी और जो मुसलमानों के पक्षधर उनको सेकुलर कहा जाता है…आजकल यही फैशन है…
अच्छा है एक गलीज गई भारत से अब वो बुड्ढा कतर में कतरा बन कतरानशीन हो जाए…आमीन…
'' ...मैंने हज़ार बार अपनी इस राय को बदलने कीकोशिश की होगीऔर
हुसैन साहब ने अपनी हरकतों से लाख बार मुझे इससे रोकदिया। ''
---------------- मैंने भी यही कोशिश की पर , मुझे हर बार निराश होना पड़ा ...
हुसैन की कला के बहुत दोहरे और छिछले मानदंड हैं ...
'इंटेलेक्चुअल' का औदार्य है ही नहीं उनके यहाँ ...
देश को कितना दिया , इस मूल्यांकन की कसौटी पर उनके पास कुछ
नहीं है - सिवाय विवादों और अपमान(एक ख़ास धर्म का ) के ! सुन्दर लिखा आपने | आभार !
यह बुढ़ऊ तो पूरा लम्पट है , मानसिक विकृति का जीता जागता नमूना है ये !
ख़ैर आपने अपने मानसिक दिवालियेपन का पूरा और स्पष्ट परिचय दे दिया है। आपकी कला की समझ कितनी विकृत और घटिया है इसका उदाहरण ढूंढने की ज़रूरत नहीं। वैसे आपकी नज़र में गांधी क्या थे जो बुढौती में दो युवा लड़कियों के कंधे पर हांथ रखके चलते थे, ब्रह्मा जो अपनी बेटी सरस्वती के साथ संसर्ग करने के चलते अपूज्य हुए, बेटी की उम्र की लड़की के साथ घटिया दृश्य करने वाला अमिताभ…क्या हैं ये सब लोग? कला और कला का मंतव्य समझने के लिये बहुत गहरी वस्तुपरकता और समझदारी की ज़रूरत होती है।
और पैसे कमाने के लिये ग्रीन कार्ड के लिये, ब्रिटिश नागरिकता के लिये लार टपकाने वाले पूंजीपतियों के बारे में क्या सोचते हैं आप? घुटने के इलाज़ के लिये अमेरिका जाने वालों पर क्यूं नहीं लिखते…क्या उनके आवारागर्दियों और नशाख़ोरी के किस्से कम हैं?
जो देश अपने कलाकारों का सम्मान नहीं कर सकता उसका पतन तय हैं…
अशोक जी अपनी मानसिक हालत के लिए मुझे आपके प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है। न ही मैंने कला की समझ का कोई डंका अपनी पोस्ट में पीटा है। किसी के बारे में अपनी समझ बनाने के लिए भी मैं अब आपके पास आउंगा क्या सलाह लेने के लिए। रही बात गांधी, ब्रहृमा व अमिताभ की तो उन पर जब लिखना होगा लिखूंगा ही। कलाकारों का सम्मान करने का देश ने ठीका उठा रखा है क्या। आप जैसे लोग पिछले साठ साल से देश के पतन की रुदाली गा रहे हैं लेकिन वो कम्बख्त है कि धता बताने पर तुला हुआ है। आपके ब्लाग पर आता रहा हूं। पत्र पत्रिकाअो व ब्लागों पर आपकी कमेंट देखता रहा हूं आपकी समझ का कायल हूं।
सादर
हुसैन के समर्थक एल०आर०गांधी जी के प्रश्न का उत्तर दें. गुलामी आई तो भी ऐसे ही लोगों के कारण. मिली तो क्रान्तिवीर और हिन्दू साम्प्रदायिकों के कारण जिन्होंने अपने सीस कटा दिये लेकिन झुकाये नहीं. और अब खोने जा रही है तो उसके पीछे भी ऐसे ही पढ़े-लिखे धर्मानिरपेक्षी ही हैं.
sahi likha he... jise bharat s pyaar nahi uski yaha koi jarurat nahi...
बिल्कुल संदीप आप बेशक़ हवा में अपनी समझ बनायें लेकिन जब उसे पब्लिक करें तो आलोचना झेलने की हिम्मत रखें। महाभारत और रामायण की पेंटिंग सीरीज़ बनाने वाले, होली की अद्भुत व्यंजना वाली पेंटिंग बनाने वाले ( इसकी तुलना अश्लील राधा-कृष्ण पद लिखने वाले विद्यापतियों और बिहारी से कीजिये) और भारत के तमाम नये कलाकारों को प्रोत्साहित करने वाले के बारे में आप कुछ भी लिखें और कोई दूसरा सवाल भी नहीं उठाये। जिसे कला की समझ न हो उसे हुसैन के स्तर के किसी कलाकार के बारे में ऐसी ओछी बातें कहनी चाहिये क्या? रहा सवाल क़तर की नागरिकता का तो वे मांगने नहीं गये थे बल्कि उन्हें आफ़र ्की गयी है। और हां कलाकारों के सम्मान का ठेका अगर देश ने नहीं लिया है तो क्या यह देश केवल नेताओं, भ्रष्ट पूंजीपतियों और हत्यारों को सम्मानित करने वाला लोकतंत्र है?
और हां अगर इस्लाम के बारे में आप जानकारी रखते तो जानते कि वहां तो कलाकारी ही गुनाह है…तो अगर कोई कलाकार तस्वीरें बना रहा है तो वह कट्टरपंथी हो ही नहीं सकता। और भारतीय नागरिक जी आज़ादी के पहले अंग्रेज़ों की चरणवंदना करने वाले, सावरकर और बाजपेयी की तरह माफ़ी मांगने वाले और देश के भीतर बांटो और राज्य करो की अंग्रेज़ों की नीति को लागू करने में सहयोग करने वाले आज़ादी के बाद अचानक देशभक्त बन गये। वैसे इनके भाई-बंधु अब भी पूंजीपतियों की चरण वंदना करके परंपरा निभा ही रहे हैं। इनकी देशभक्ति बस अल्पसंख्यकों की सरंक्षित हत्या के समय उभरती है। सीस कब किसने कटाये और क्यूं कटाये यह जानने के लिये इतिहास के पन्ने पलटिये!
मुझे पता था कि आपका गरिष्ठ डोज मिलेगा मुझे। पूरी उम्मीद थी कि ज्ञानवाणी प्रसारित-प्रकाशित होगी। मैं अपनी इस टिप्पणी के माध्यम से सभी ब्लागरों से अनुरोध कर देता हूं कि वे किसी विषय पर अपनी समझ बनाने के पहले आप की अमूल्य राय अवशय लें नहीं तो उन्हें भी मानसकि स्वास्थ का प्रमाणपत्र आप बिना मांगे जारी कर दोगे।चलिए ये जानकारी भी मिलीकि हुसैन समेत तमाम कलाकारों ने अपना स्तर बताने का ठेका भी आपको दे रखा है। हुसैन को कट्टरपंथी कहना भूल थी चलिए अब सुधार लेता हूं। वह लोकप्रियता के लिए किसी भी स्तर तक चला जाने वाला एक चित्रकार है। उसकी बानगी वो कभी जूते उतारकर देता है कभी नागरिकता उतार कर। रही बात देश व उसके सम्मान की तो तमाम अतिक्रांतिकारी साथियों को देख चुका हूं देश व देश की अवधारणा तक नकार चुकने के बाद जब कोई ब्लाग प्रोफाइल गोरखपुर देवरिया का दिखता है तो कैसे मचमचाते हुए पहुंचते हैं । मेरे लिए इतना ही काफी है छवि बनाने के लिए
सादर आपका
धन्यवाद तर्क न होने पर और असहमति व्यक्त होने पर आप ने जिस भाषा और लहजे में जवाब दिया है वह मेरी पहली टिप्पणी को सत्यापित करता ही है। यहां हुसैन के बारे में घटिया बात को ब्लाग की टीआरपी बढ़ाने का माध्यम क्यों न माना जाय? वैसे अगर आप उनके जूता न पहनने के निर्णय के पीछे की घटना जानते तो यह लिखने से पहले सौ बार सोचते। पर आप तो न जानने की कसम खा रखे हैं। और आपको कुछ बताने की कोशिश करना भी कुफ़्र से कम नहीं है क्योंकि आप तो सारी आलोचनाओं, असहमतियों से परे सर्वज्ञ हैं। लगता है संघ के गोएबल्स ने भारत में सांस्कृतिक विषवमन का ठेका आपको निश्चित रूप से ही दे रखा है वरना बिना मांगे आप हुसैन के मानसिक स्वास्थ्य की जांच रिपोर्ट पेश नहीं कर रहे होते। शायद हर कलाकार को आप जैसे महान कन्सेंश कीपर के पास अपनी कलाकृति की श्लीलता प्रमाणित करनी होगी वरना आप उसे मानसिक विकृति और यौन कुन्ठा का प्रमाणपत्र जारी करेंगे। तो सक्रिय रहिये। मेरी शुभकामनायें
हुसैन पर मेरी बातें मेरी निजी राय हैं जिसे मैंने अपनी ब्लाग डायरी में सावर्वजनिक किया है। उसे मानने न मानने की बात तो मैंने किसी से नहीं की। ये अच्छा तकर्क गढ़ा है आपने कि हुसैन के पक्ष में बोलो तो कामरेड, हुसैन के खिलाफ बोलो तो संघी। यही वजह थी कि आपसे पहले मैंने किसी टिप्पणी पर कोई राय जाहिर नहीं की। आप अपनी पहली टिप्पणी की भाषा देखिए उसके बाद मुझसे तमीज की उम्मीद कीजिए। तमाम ब्लागों पर जहां आपकी सहमति नहीं रहती आप एसी ही निचले स्तर की भाषा का इस्तेमाल करते हैं लेकिन पलटवार आपको बदार्शत नही होता । मोहल्ला भी आपने इसी वजह से छोड़ा है न, मेरा ब्लाग अगर आपकी रुचि का नहीं है तो आपके पास विकल्प है आप यहां मत आइए। लेकिन आइए तो तमीज से बात कीजिए ये मेरा अनुरोध है। रही बात टीआरपी बढ़ाने की तो इस लचर - घटिया तर्क का कोई जवाब नहीं है। मेरी राजनीतिक पक्षधरता तय करने के पहले आप मेरे बारे में थोड़ी ज्यादा जानकारी जुटा लेते तो आपको सहूलियत होती। लेकिन आपको तो हर जगह निर्णय सुना देने की जल्दी पड़ी रहती है।
अब चूंकि आपने मुझे संघी ठहरा ही दिया है तो मेरा हक भी इतना तो बनता है कि कुछ निजी सवाल मैं भी आप से कर सकूं। आपकी राजनीतिक पक्षधरता से अनजान नहीं हूं। प्रलेस विवाद के दौरान पहले दौर में आपकी सक्रियता और जब बवाल काटा जाने लगा तो आपके किनारा पकड़ लेने की जानकारी भी पूरी है मुझे। उस समय आपकी पक्षधरता को क्यों सांप सूंघ गया था जब प्रलेस में तूफान आया था और तिनके उड़ रहे थे। आप पहले अपने गिरेबां में झांकिए मेरे संघी होने का फतवा बाद में दीजिएगा।
अशोक जी इस पर भी एक नजर मार लें तो बेहतर होगा
http://janatantra.com/2010/02/28/taslima-on-husain-and-salman-rushdi/#comments इस दिये गये लिंक पर तस्लीमा नसरीन लिखती हैं –
हुसेन के सरस्वती की नंगी तस्वीर बनाने को लेकर भारत में विवाद शुरू हुआ तो मैं स्वाभाविक रूप से चित्रकार की स्वाधीनता के पक्ष में थी। मुसलमानों में नास्तिकों की तादाद बहुत कम है। मैंने मकबूल फिदा हुसेन के चित्रों को हर जगह से खोज कर देखने की कोशिश की कि हिंदू धर्म के अलावा किसी और धर्म, खासकर अपने धर्म इस्लाम को लेकर उन्होंने कोई व्यंग्य किया है या नहीं! लेकिन देखा कि बिल्कुल नहीं किया है। बल्कि वे कैनवास पर अरबी में शब्दश: अल्लाह लिखते हैं। मैंने यह भी स्पष्ट रूप से देखा कि उनमें इस्लाम के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास है। इस्लाम के अलावा दूसरे किसी धर्म में वे विश्वास नहीं करते!
हिंदुत्व के प्रति अविश्वास के चलते ही उन्होंने लक्ष्मी और सरस्वती को नंगा चित्रित किया है! क्या वे मोहम्मद को नंगा चित्रित कर सकते हैं? मुझे यकीन है, नहीं कर सकते। मुझे किसी भी धर्म के देवी-देवता या पैगंबर वगैरह को नंगा चित्रित करने में कोई हिचक नहीं है। दुनिया के हर धर्म के प्रति मेरे मन में समान रूप से अविश्वास है। मैं किसी धर्म को ऊपर रख कर दूसरे के प्रति घृणा प्रदर्शित करने, किसी के प्रति लगाव या विश्वास दिखाने की कोशिश नहीं करती।
हुसेन भी उन्हीं धार्मिक लोगों की तरह हैं जो अपने धर्म में तो विश्वास रखते हैं, पर दूसरे लोगों के उनके धर्मों में विश्वास की निंदा करते हैं। फिदा हुसेन के साथ मेरा नाम लिया जाता है। कहां वे विशाल वृक्ष और कहां मैं एक तुच्छ तिनका! दोनों में क्या मेल। कहां मैं नास्तिक और वे आस्तिक न सही, अपने ईश्वर के प्रति तो आस्तिक हैं।
फिदा हुसेन के साथ मेरी एक ही समानता है। धर्मांध लोगों के आक्रामक हो उठने के बाद लगभग एक साथ हम दोनों को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। इसके अलावा बाकी सब असमानता है। पहली असमानता तो यही है कि उन्होंने स्वेच्छा से देश छोड़ा है, मैंने स्वेच्छा से नहीं छोड़ा है। फिर मुझे अपने कोलकाता के घर से ही नहीं, समूचे भारत से बाहर कर दिया गया है। किसी कट्टरपंथी ने नहीं, बल्कि खुद सरकार ने मुझे बाहर किया। हुसेन को तो रहने के लिए विदेश में अपना घर है, मेरा नहीं है।
हुसेन की देश वापसी के लिए सरकार पूरी कोशिश कर रही है, मुझे तो न भारत सरकार लौटने दे रही है न बांग्लादेश सरकार। भारत से निकाले जाने के बाद मैंने जितनी बार भी वहां लौटने की कोशिश की, मुझे दृढ़तापूर्वक विदा कर दिया गया। हुसेन तो एक धर्म को लेकर व्यंग्य करते हैं, मैं नारी अधिकारों की बात करते हुए दुनिया के सभी धर्मों में वर्णित स्त्री विरोधी श्लोकों की आलोचना करती हूं। नारी विरोधी संस्कृति और कानून समाप्त होने चाहिए। जब धर्म की आलोचना करती हूं तो सारे धर्मों की करती हूं, ऐसा नहीं कि अपने आत्मीय और
ओह मैने यह समझा था कि ब्लाग पर टिप्पणियां उसी पोस्ट पर राय आमंत्रित करती हैं। मै भूल गया था कि इस पर कमेंट करने से पहले ब्लाग लेखक तथा अपना इतिहास बताना ज़रूरी होता है। चलिये बेहतर है कि आपने बता दिया। अब मुझे कुछ नहीं कहना है। शुभकामनायें
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