हे परम पिता साहित्य को सर्वज्ञों से बचाओ...


कल शाम त्रिवेणी सभागार में हिंदी अकादमी ने राजेंद्र यादव के साथ संवाद का एक अनूठा कार्यक्रम आयोजित किया ‘इन दिनों’। कार्यक्रम की रूपरेखा के अनुरूप पहले तो राजेंद्र जी ने श्रोताओं को बताया कि इन दिनों उनके दिलो दिमाग में क्या चल रहा है। उन्होंने बताया कि किस तरह उन्होंने हंस को महज किस्से कहानियों की पत्रिका न रहने देकर विचार और विमर्श का मासिक बनाया और इसके लिए उन्हें क्या-क्या सहना सुनना पड़ा।
राजेंद्र जी ने कहा कि किस तरह दलित और खासकर स्त्री विमर्श को लेकर उनकी धज्जियां उड़ाई गईं। उन्होंने एक तरह से स्वीकारोक्तियों के सहारे अपने तर्क रखे। इसके बाद डाक्टर अजय नावरिया और अर्चना वर्मा ने उनसे सवाल जवाब किए। अर्चना वर्मा के सवाल तो हालांकि राजेंद्र महिमाख्यान ही लगे लेकिन नावरिया ने जरूर कुछ ऐसी बातें रखीं जिनसे राजेंद्र जी कतिपय असहज दिखाई दिए।

खैर मेरे उद्देश्य इन बातों के विस्तार में जाना नहीं है बल्कि मैं एक और विशय पर बात करना चाहता हूं जो प्रायः हिंदी साहित्य के आयोजनों की सबसे बड़ी कमजोरी होती है।

मेरी ठीक अगली कतार में हिंदी के इन दिनों उपेक्षित युवा लेखक और उनके चार छह मित्रों का दल बैठा था जिसमें एकाधिक रंगमंच अभिनेत्रियां भी थीं। उन बंदों को हर बात पर हंसी आ रही थी। दरअसल वे सर्वज्ञ प्रतीत हो रहे थे। उन्होंने पूरे कार्यक्रम का कूड़ा करके रख दिया। व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए ऐसे कार्यक्रमों की उपयोगिता यह होती है कि अगर कोई नई बात जानने को मिल जाए तो कम से कम कुछ पन्नों का निबंध या कहें किसी किताब को पढ़ने में खर्च होने वाला समय बच जाता है।

तो मेरे आगे जो दस्ता बैठा हुआ था। उसने पूरे कार्यक्रम का नाश कर दिया। सर्वज्ञों को सब पता था और उन्हें राजेंद्र यादव, नावरिया, वर्मा सबकी बातों पर केवल और केवल हंसी आ रही थी। इतना ही नहीं एक दो सुधी श्रोताओं ने उन्हें टोका तो वे लगभग मारपीट तक पर उतारू हो गए। बाद में पता चला कि गिरोह का नेतृत्व जो युवा सज्जन कर रहे थे वे कभी हंस के चहेते लेखक थे लेकिन अब हंस ने उन्हें आंख से गिरा दिया है।

उनकी तड़प मुझे समझ में आती है लेकिन मेरी सलाह है ऐसे सर्वज्ञों को की यदि उन्हें सब पता है तो कृपया वे अपने घरों में बैठें और हम अबोधों को कुछ ज्ञानार्जन करनें दें..................