डॉ सेन : जरूरी सवाल उठाने की मिली सजा

बहुत खतरनाक समय है। बिनायक सेन सत्ता के दमन के ताज़ा उदाहरण नहीं बल्कि एक और उदाहरण भर रह गए हैं। क्या लिखा जाये? क्या कहा जाये? शर्म आती है यह कहते हुए की देश में लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार है। डॉ सेन का कुसूर क्या था यह अभी स्थापित होना बाकी है है और उनको हत्यारों अधमों को दी जाने वाली सज़ा सुना दी गयी है। दैनिक भास्कर में आज डॉ सेन पर एमजे अकबर और रामचंद्र गुहा के दो लेख प्रकाशित हुए हैं। उन्हें यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ - ब्लॉगर

जरूरी सवाल उठाने की मिली सजा
रामचंद्र गुहा
1991 में शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर दी गई। अब उनके साथी बिनायक सेन को आजीवन कैद का पुरस्कार दिया गया है। डॉ सेन ने जीवन में एक गोली भी नहीं दागी है। उन्हें तो यह भी नहीं पता होगा कि बंदूक थामते कैसे हैं।ती स साल पुराने अपने उस कृत्य पर मुझे आज भी खेद होता है, जब मैंने एक महान व्यक्ति को नींद से जगा दिया था। मैं नई दिल्ली में एक कांफ्रेंस में स्वयंसेवी के रूप में मौजूद था। हम छात्रों से कहा गया कि हम धनबाद के सांसद एके रॉय को बुलाकर लाएं, जो उस वक्त विट्ठलभाई पटेल हाउस स्थित अपने क्वार्टर में थे। खनन उद्योग धनबाद की अर्थव्यवस्था की बुनियाद है और इस शहर से रॉय निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीते थे। उनके चुनाव प्रचार के लिए खुद खनन श्रमिकों द्वारा राशि जुटाई गई थी। अपनी ईमानदारी के लिए पहचाने जाने वाले श्रमिक नेता रॉय ने दिल्ली के लुटियंस के किसी बंगले या साउथ एवेन्यू के शानदार फ्लैट में रहने के स्थान पर पार्लियामेंट स्ट्रीट पर स्थित इस भवन के एक कमरे में बसेरा बनाना उचित समझा था।हमने रिसेप्शन पर मिस्टर रॉय के कमरे का नंबर पूछा, लिफ्ट से ऊपर पहुंचे और उनके दरवाजे पर दस्तक दी। किसी ने जवाब नहीं दिया। हमने फिर दरवाजा खटखटाया। हमें वहां से लौट आना था और आयोजकों को कह देना था कि सांसद महोदय कमरे में नहीं हैं। लेकिन हम नौजवान थे और अपने उत्साह का प्रदर्शन करना चाहते थे। हम लगातार दरवाजा खटखटाते रहे। आखिर दरवाजा खुला। हमारे सामने खादी का कुर्ता-पायजामा पहने एक व्यक्ति खड़े थे और वे अपनी आंखें मल रहे थे। उन्होंने बड़ी शालीनता से हमारी बातें सुनीं और फिर हमें बताया कि उनके सांसद मित्र और मेजबान रॉय अभी-अभी कहीं बाहर गए हैं।जिन्हें हमने नींद से जगा दिया था, वे शंकर गुहा नियोगी थे और शायद एक लंबी ट्रेन यात्रा के बाद आराम कर रहे थे। गुहा नियोगी मूलत: बंगाल के थे। बाद में वे भिलाई चले आए और असंगठित श्रमिकों के साथ काम करने लगे। शोषण से पीड़ित श्रमिक गुहा नियोगी के नेतृत्व में एकजुट हुए और बेहतर वेतन की मांग करने लगे। गुहा नियोगी की चिंताओं का दायरा केवल आर्थिक मामलों तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने श्रमिकों के लिए अस्पताल और उनके बच्चों के लिए स्कूल खुलवाए। श्रमिकों की पत्नियों की सहायता से नशा विरोधी अभियान चलाया। गुहा नियोगी की गरिमा और उनकी प्रतिबद्धता के चलते मध्यवर्ग के कई पेशेवर उनसे जुड़े। इन्हीं में से एक थे बिनायक सेन। बिनायक सेन ने वैल्लोर विश्वविद्यालय के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज से स्वर्ण पदक प्राप्त किया था। 80 के दशक के प्रारंभ में वे छत्तीसगढ़ चले आए थे। वे तभी से छत्तीसगढ़ में हैं और उन्होंने हर पृष्ठभूमि के मरीजों की देखभाल की है। बिनायक सेन ने अपने आदर्श गुहा नियोगी की ही तरह अन्य क्षेत्रों में भी काम किया। वे आदिवासियों के सामाजिक अधिकारों के प्रति सचेत हुए, जो बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे थे और जिनके बच्चे प्राथमिक शिक्षा तक से महरूम थे।वर्ष 1991 में शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर दी गई। अब लगभग बीस सालों बाद उनके मित्र और साथी डॉ बिनायक सेन को आजीवन कैद का पुरस्कार दिया गया है। डॉ सेन ने अपने जीवन में कभी एक गोली भी नहीं दागी है। उन्हें तो शायद यह भी पता नहीं होगा कि बंदूक को थामा कैसे जाता है। उन्होंने माओवादियों की हिंसा की स्पष्ट भत्र्सना की है। उन्होंने सशस्त्र क्रांतिकारियों की गतिविधियों को ‘अमान्य और अस्थायी निदान’ भी बताया था। छत्तीसगढ़ सरकार की नजर में डॉ बिनायक सेन का कसूर यह है कि उन्होंने माओवादी विद्रोहियों को नियंत्रित करने के लिए अख्तियार किए जाने वाले भ्रष्ट और क्रूर तरीकों पर सवाल उठाने का साहस किया था। वर्ष 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा गठित की गई सतर्कता सेना ने दंतेवाड़ा, बीजापुर और बस्तर जिलों में कड़ा रुख अख्तियार किया था। नक्सलवाद से निपटने के नाम पर सेना ने घरों और कुछ मौकों पर तो पूरे गांव को फूंक दिया था। उन्होंने आदिवासी महिलाओं के साथ र्दुव्‍यवहार किया और पुरुषों को प्रताड़ना दी। नतीजा यह रहा कि हजारों आदिवासियों को अपना घरबार छोड़कर जाना पड़ा, जिनका माओवादियों से कोई ताल्लुक नहीं था।डॉ बिनायक सेन पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने सतर्कता सेना की ज्यादतियों के बारे में अवगत कराया था। डॉ सेन द्वारा लगाए गए आरोप गलत नहीं थे, क्योंकि मैंने स्वयं कुछ गणमान्यजनों (जिनमें बीजी वर्गीस, हरिवंश जैसे सम्मानीय संपादक और इंफोसिस पुरस्कार विजेता नंदिनी सुंदर भी शामिल हैं) के साथ उस क्षेत्र का दौरा किया था और सरकार के अपराधों को दर्ज किया था। डॉ सेन को एक ऐसे तंत्र द्वारा दोषी ठहराया गया है, जिसे मतिभ्रम के शिकार राजनेताओं द्वारा चंद भ्रमित पुलिस अफसरों की मदद से संचालित किया जाता है। निश्चित ही डॉ बिनायक सेन को सुनाई गई सजा को उच्चतर अदालतों में चुनौती दी जाएगी और ऐसा होना भी चाहिए। डॉ सेन की बहादुर पत्नी ने कहा है कि ‘एक तरफ जहां गैंगस्टर और घपलेबाज आजाद घूम रहे हों, वहां एक ऐसे व्यक्ति को देशद्रोही ठहराया जाना एक शर्मनाक स्थिति है, जिसने देश के गरीबों की तीस साल तक सेवा की है।’ मुझे लगता है सभी प्रबुद्ध भारतीय उनके इस मत से सहमत होंगे।

दोहरे मापदंडों वाला हमारा लोकतंत्र
एम जे अकबर

मैं बिनायक सेन के राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं, लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए। भारत दोहरे मापदंडों वाले लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है। भारत एक अजीब लोकतंत्र बनकर रह गया है, जहां बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है और डकैत खुलेआम ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते हैं। सरकारी खजाने पर डाका डालने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए भी सरकार को खासी तैयारी करनी पड़ती है। जब आखिरकार उन पर ‘धावा’ बोला जाता है, तब तक उन्हें पर्याप्त समय मिल चुका होता है कि वे तमाम सबूतों को मिटा दें। आखिर वह व्यक्ति कोई मूर्ख ही होगा, जो तीन साल पहले हुए टेलीकॉम घोटाले के सबूतों को इतनी अवधि तक अपने घर में सहेजकर रखेगा। तीन साल क्या, सबूतों को मिटाने के लिए तो छह महीने भी काफी हैं। क्योंकि इस अवधि में पैसा या तो खर्च किया जा सकता है, या उसे किसी संपत्ति में परिवर्तित किया जा सकता है या विदेशी बैंकों की आरामगाह में भेज दिया जा सकता है। राजनेताओं-उद्योगपतियों का गठजोड़ कानून से भी ऊपर है। अगर भारत का सत्ता तंत्र बिनायक सेन को कारावास में भेजने के बजाय उन्हें फांसी पर लटका देना चाहे, तो वह यह भी कर सकता है। बिनायक ने एक बुनियादी नैतिक गलती की है और वह यह कि वे गरीबों के पक्षधर हैं। हमारे आधिपत्यवादी लोकतंत्र में इस गलती के लिए कोई माफी नहीं है। सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और यकीनन रमन सिंह के लिए इस बार का क्रिसमस वास्तव में ‘मेरी क्रिसमस’ होगा। कांग्रेस और भाजपा दो ऐसे राजनीतिक दल हैं, जो फूटी आंख एक-दूसरे को नहीं सुहाते। वे तकरीबन हर मुद्दे पर एक-दूसरे से असहमत हैं। लेकिन नक्सल नीति पर वे एकमत हैं। नक्सल समस्या का हल करने का एकमात्र रास्ता यही है कि नक्सलियों के संदेशवाहकों को रास्ते से हटा दो। मीडिया इस गठजोड़ का वफादार पहरेदार है, जो उसके हितों की रक्षा इतनी मुस्तैदी से करता है कि खुद गठजोड़ के आकाओं को भी हैरानी हो। गिरफ्तारी की खबर रातोरात सुर्खियों में आ गई। प्रेस ने तथ्यों की पूरी तरह अनदेखी कर दी। हमें नहीं बताया गया कि बिनायक सेन के विरुद्ध लगभग कोई ठोस प्रमाण नहीं पाया गया था। अभियोजन ने गैर जमानती कारावास के दौरान बिनायक के दो जेलरों को पक्षविरोधी घोषित कर दिया था। सरकारी वकीलों की तरह जेलर भी सरकार की तनख्वाह पाने वाले नुमाइंदे होते हैं। लेकिन दो पुलिसवालों ने भी मुकदमे को समर्थन देने से मना कर दिया। एक ऐसा पत्र, जिस पर दस्तखत भी नहीं हुए थे और जो जाहिर तौर पर कंप्यूटर प्रिंट आउट था, न्यायिक प्रणाली के संरक्षकों के लिए इस नतीजे पर पहुंचने के लिए पर्याप्त साबित हुआ कि बिनायक सेन उस सजा के हकदार हैं, जो केवल खूंखार कातिलों को ही दी जाती है।बिनायक सेन स्कूल में मेरे सीनियर थे। वे तब भी एक विनम्र व्यक्ति थे और हमेशा बने रहे, लेकिन वे अपनी राजनीतिक धारणाओं के प्रति भी हमेशा प्रतिबद्ध रहे। मैं उनके राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं, लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए। भारत धीरे-धीरे दोहरे मापदंडों वाले एक लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है। जहां विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए हमारा कानून उदार है, वहीं वंचित तबके के लोगों के लिए यही कानून पत्थर की लकीर बन जाता है। यह विडंबनापूर्ण है कि बिनायक सेन को सुनाई गई सजा की खबर क्रिसमस की सुबह अखबारों में पहले पन्ने पर थी। हम सभी जानते हैं कि ईसा मसीह का जन्म 25 दिसंबर को नहीं हुआ था। चौथी सदी में पोप लाइबेरियस द्वारा ईसा मसीह की जन्म तिथि 25 दिसंबर घोषित की गई, क्योंकि उनके जन्म की वास्तविक तिथि स्मृतियों के दायरे से बाहर रहस्यों और चमत्कारों की धुंध में कहीं गुम गई थी। क्रिसमस एक अंतरराष्ट्रीय त्यौहार इसलिए बन गया, क्योंकि वह जीवन को अर्थवत्ता देने वाले और सामाजिक ताने-बाने को समरसतापूर्ण बनाने वाले कुछ महत्वपूर्ण मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। ये मूल्य हैं शांति और सर्वकल्याण की भावना, जिसके बिना शांति का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। सर्वकल्याण की भावना किसी धर्म-मत-संप्रदाय से बंधी हुई नहीं है। क्रिसमस की सच्ची भावना का सबसे अच्छा प्रदर्शन पहले विश्व युद्ध के दौरान कुछ ब्रिटिश और जर्मन सैनिकों ने किया था, जिन्होंने जंग के मैदान में युद्धविराम की घोषणा कर दी थी और एक साथ फुटबॉल खेलकर और शराब पीकर अपने इंसान होने का सबूत दिया था। अलबत्ता उनकी हुकूमतों ने उन्हें जंग पर लौटने का हुक्म देकर उन्हें फिर से उस बर्बरता की ओर धकेल दिया, जिसने यूरोप की सरजमीं को रक्तरंजित कर दिया था।यदि काल्पनिक सबूतों के आधार पर बिनायक सेन जैसों को दोषी ठहराया जाने लगे तो हिंदुस्तान में जेलें कम पड़ जाएंगी। ब्रिटिश राज में गांधीवादी आंदोलन के दौरान ऐसा ही एक नारा दिया गया था। यह संदर्भ सांयोगिक नहीं है, क्योंकि हमारी सरकार भी नक्सलवाद के प्रति साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक रवैया अख्तियार करने लगी है।

जूलियन असांज होने का क्या मतलब है?


चंदन के ब्लाग नई बात पर जूलियन असांज पर एक शानदार पोस्ट है, यह बात वहां फौरी प्रतिक्रिया के तौर पर लिखी थी। यहां उसे थोड़ा विस्तार देने की कोशिश है।


जूलियन पॉल असांज के बारे में बात करने का इससेबेहतर समय नहीं हो सकता। एक ऐसे समय में जबकिदेश का घोटालाकाल और देश में पत्रकारिता जगत केस्वयंभू ) नायकों का पतनकाल पूरे चरम पर है। बरसों बरस में करीने से गढ़ीगई मूर्तियों का ऐसा काला कुरूपसच सामने रहा है कि देखते उबकाई आती है। दुनिया बदलने का सपना लेकर पत्रकारिता की दुनिया में आईएक पूरी पीढ़ी मजबूरन या तो तर्जुमे को जीवन का आखिरी सच मान बैठी है या फिर पीआर एजेंसी से मिलने वालीकैब और उसके सस्ते महंगे तोहफों को जाहिर है। जूलियन असांज नामक का आदमी दरअसल तराशा हुआ ऐसाचकाचौंध आईना है जिसमें हममें से कई अपनी काली शक्लें देखने में डर रहे हैं। सारी दुनिया में गंध मचाने वालेअमेरिका केलिए मेरे पास कोई गाली नहीं है तो यह भी उतना ही सच है कि असांज के जज्बे के बारे में कुछ भीकहने के लिए भी मेरे पास शब्दों का अभाव है। अगर कुछ है तो सिर्फ सम्मान है। असांज के काम को महज खोजीपत्रकारिता या ऐसे ही किसी और सनसनीखेज शब्द में नहीं बांधा जा सकता। उन्होंने जो जीवन स्वेच्छा से चुना हैउसे हममें से अधिकांश मजबूरी में भी जीना नहीं चाहेंगे। शायद यही अंतर उन्हें असांज बनाता है। (

रही बात अमेरिका की तो मुझे नहीं लगता कि उस नामुराद देश के पास इतना धैर्य है कि वह असांज को सजासुनाने के लिए किसी प्रक्रिया की प्रतीक्षा करेगा। किसी भी दिन असांज को गोली लगने या किसी दुर्घटना में उनकीमौत की खबर सकती है और हमें इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहना होगा।लेकिन एक फर्क तो आया हैइस दरमियान। दुनिया के किसी कोने में जब भी कभी,शोषण, सच्चाई, साहस की बात होगी तो वह दरअसलजूलियन असांज की बात होगी।हमेशा की तरह एक बार फिर वही चिरपरिचित खेल चालू हो गया है झूठ के साथसच्ची लड़ाई में कथित नैतिकता को हथियार बनाकर सच को परास्त कर देने काखेल। हमें उम्मीद करनी चाहिएकि हर बार की तरह जूलियन असांज एक बार फिर विजेता होकर निकलेंगे और अगर ऐसा नहीं भी होता है तो भीसच्चाई का जो पत्थर वो फेंक चुके हैं वह समय के गर्भ में जाकर ठहरेगा और एक ऐसी पूरी पीढ़ी तैयार करेगा जोझूठ और अन्याय की आंखों में आंखें डालकर उनका प्रतिकार करेगी।

नेहा का मरना खबर नहीं है

रायपुर की 16 साल की नेहा की मौत किसी के लिए खबर नहीं है। आज के अखबारों ने उसे एक कालम जगह बख्शी है। क्योंकि नीरा राडिया, बरखा दत्त एंड कंपनी के सामने नेहा की जान की कोई कीमत नहीं। मेरी इस पोस्ट का मकसद केवल इतना है कि नेहा की मौत की जो वजह है वह शायद हमारे महानगरों में रहने वाले बहुतेरे लोगों की समझ में ही न आए लेकिन मैं चाहता हूं यह खबर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे ताकि वे तय कर पाएं कि उनके अंदर कितनी इंसानियत बाकी है। यह जान लेना बहुत जरूरी है कि नेहा ने अपनी जान क्यों दे दी।

दरअसल रायपुर में रहने वाली 16 साल की नेहा हमारे आपके घर कि किसी भी किशोरी की तरह रही होगी। जिसकी आंखों में सपने होंगे दिल में उम्मीदें लेकिन एक अंतर था। वह देश के 40 करोड़ मध्यम वर्गीय लोगों में से नहीं थी। उसका परिवार बेहद गरीब था। इतना गरीब कि उसके घर में अपना बाथरूम तक नहीं था। नतीजतन नेहा के परिवार को खुले में नहाना पड़ता था। उसके पिता का देहांत हो चुका था। घर में मां के अलावा छोटा भाई था। समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों के मुताबिक नेहा के साथ पढ़ने वाले दो छात्र उसे लगातार छेड़ा करते थे जिन्हें रोकने वाला कोई नहीं था। बहरहाल समाचार पत्रों में घटना के पीछे दिए गए एक दूसरे कारण को पढ़कर मुझे अपनी बेबसी पर बहुत गुस्सा आया। इन दोनों हरामजादों के साथ साथ पूरे मोहल्ले के मर्दों को रोज सुबह उसी समय छत की सैर का ध्यान आया करता था जिस समय नेहा खुले में नहा रही होती थी। रोज रोज की इस शर्मिंदगी की कीमत नेहा ने अपनी जान देकर चुकाई

क्या कहना चाहते हैं टाटा

समें कोई शक नहीं कि रतन टाटा देश के सबसे प्रतिष्ठिïत उद्योगपतियों में से एक हैं। ऐसे में जब वह कहते हैं कि एक निजी विमानन कंपनी को सरकारी स्वीकृति दिलाने के लिए उन्हें एक केंद्रीय मंत्री को 15 करोड़ रुपये बतौर घूस देने की सलाह दी गई थी तो जाहिर है कि इससे जुड़ा हर व्यक्ति बात को गंभीरता से लेगा। यह कोई हल्की टिप्पणी नहीं है।
बहरहाल दुखद पहलू यह है कि मीडिया के कुछ हलकों में चर्चा है कि यह भ्रष्टाचार को उजागर करने का मामला है, मगर ऐसा कतई नहीं है। अगर टाटा ने उस मंत्री का नाम लिया होता और उस मांग को उसी समय सार्वजनिक कर दिया होता तो जरूर ऐसा माना जा सकता था। टाटा अब भी वैसा कुछ नहीं कर रहे हैं, उनकी कही बात को महज शिकायत के तौर पर लिया जा सकता है जिसके जरिए वह अपना नैतिक स्तर ऊंचा बनाए रखना चाहते हैं।
अगर टाटा संबंधित मंत्री का नाम लेते तो उन्हें इसका श्रेय मिलता और उन छोटे कारोबारियों तथा आम नागरिकों का नैतिक साहस बढ़ता जो रोज ऐसी परिस्थितियों से दो चार होते हैं। मौजूदा सरकार के एक मंत्री से भी टाटा को शिकायत है लेकिन उन्होंने यहां भी उसे सार्वजनिक नहीं करने का फैसला किया। अब अगर टाटा के कद के कारोबारी ऐसे लोगों पर हमला तो करना चाहते हैं मगर चोट खाने से डरते हैं तो फिर आम आदमी से क्या उम्मीद की जाए? इन दिनों अनेक उद्योगपति निजी बातचीत में सार्वजनिक जीवन के भ्रष्टाचार का जिक्र करते हैं लेकिन किसी का नाम लेने से बचते हैं। ऐसे संस्थान जो निजी तौर पर मंत्रियों द्वारा घूस मांगने की शिकायत करते हैं, किसी न किसी तरह उन्हीं मंत्रियों को सम्मानित कर गौरवान्वित महसूस करते हैं। हर घूस लेने वाले को आखिर कोई न कोई तो घूस देता ही है। वह भी समान रूप से दोषी है। आम लोगों के मामले में तो यह बात समझ में आती है कि सत्ता में बैठे लोगों से डर लगता है लेकिन कम से कम प्रभावी और ताकतवर अग्रणी कारोबारी तो बिना किसी भय अथवा पक्षपात के भ्रष्ट लोगों के खिलाफ बिगुल फूंक ही सकते हैं। अगर प्रमुख कारोबारी मिलकर यह निर्णय ले लें कि वे रिश्वत नहीं देंगे और रिश्वत मांगने वालों को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करेंगे तो शायद इसका रिश्वत लेने और देने वाले लोगों पर असर पड़ता। उदाहरण के लिए अगर टाटा समय पर संबंधित मंत्री का नाम ले लेते और उसके बाद अपनी निजी विमानन कंपनी लाते तो इससे ऐसे दूसरे मंत्रियों को रोकने में मदद मिलती जो करदाता के पैसों से दूसरों को अनुचित लाभ पहुंचाकर किसी तरह बच निकले होंगे। खामोश रहकर टाटा ने न तो कोई बहादुरी का काम किया, न ही बेहतर प्रशासन की दिशा में कोई मदद पहुंचाई। इस सप्ताह उनकी ऊपरी तौर पर की गई टिप्पणी और उसके बाद सफाइयां भी आई हैं, इससे उनका कद छोटा हुआ है।भ्रष्टाचार के हालिया खुलासों और उसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कुछ निर्णायक कदमों ने देश के लोगों में प्रशासनिक पारदर्शिता की इच्छा जगा दी है। देश के मध्यवर्ग में क्रोध की लहर चल रही है। सार्वजनिक जीवन और ऊंचे स्तर पर भ्रष्टाचार की बात उजागर होने पर और कई लोगों की गरदन नप सकती है। वक्त आ गया है कि भारतीय उद्योग जगत से जुड़े प्रमुख लोग जो बेहतर प्रशासन में यकीन रखते हैं, मुंह खोलें और सरकार में उन लोगों का हाथ मजबूत करें जो कार्रवाई तो करना चाहते हैं लेकिन उनके पास इसके लिए जरूरी सूचना नहीं होती। भ्रष्टाचार उजागर करने के मामले में श्री टाटा जैसे उद्योगपतियों को अब निर्भय होकर स्पष्ट रुख अपना लेना चाहिए।
संपादकीय
बिजनेस स्टैंडर्ड

धूमिल का जन्मदिन

अभी अभी एक फेसबुक मित्र ने याद दिलाया कि आज जनकवि धूमिल का जन्मदिन है। ज्यादा भूमिका बांधने की इच्छा नहीं है: पढ़िए उनकी एक कविता मोचीराम

राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।

और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।

यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।

‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो।’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।

एक जूता और है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।

मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

मारियो वर्गास लिओसा को साहित्य का नोबेल

पेरू के लेखक मारियो वर्गास लिओसा को इस साल साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है.
74 वर्षीय लिओसा उपन्यासकार, समालोचक और पत्रकार हैं.
वो लातिन अमरीका के सबसे लोकप्रिय साहित्यकारों में से एक हैं.
नोबेल समिति ने उनके साहित्यिक योगदान की जमकर तारीफ़ की है और उन्हें जन्मजात प्रतिभाशाली कहानी लेखक बताया है.
उसका कहना है कि उनका लेखन पाठकों के दिल को छू जाता है.
मारियो वर्गास लिओसा ने कहा कि उन्हें पुरस्कार का समाचार पाकर थोड़ा अचंभा हुआ क्योंकि इसके पहले भी उन्हें कई बार इसके लिए नामांकित किया गया था.
उनका कहना था कि उन्होंने सोचा कि शायद ये एक मजाक हो.
लिओसा टाइम ऑफ़ द हीरो और कंवेर्शेसन इन कैथ्रेडल जैसे रचनाओं से 1960 में दुनिया की नज़र में आए.
उन्होंने 30 से अधिक उपन्यास और लेख लिखे हैं. इसके अलावा एक स्तंभकार के रूप में भी उन्होंने वंचित तबके को स्वर देने की कोशिश की है.
एक दौरे में वो पेरू में राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल थे, लेकिन 1993 में उन्होंने स्पेन की नागरिकता ग्रहण कर ली।
(बीबीसी हिंदी से साभार)

इंटरनेट पर फैल रहा है हिंदी का संसार

अंतरजाल से हिंदी मिला रही है कदमताल। अंतरजाल यानी इंटरनेट जिसे आमतौर पर 'नेट के नाम से जाना जाता है, उसने हिंदीभाषियों को एक बेहतरीन तोहफा भेंट किया है। इंटरनेट ने दुनिया भर की कई भाषाओं को समृद्घ किया है और हिंदी भी इसी प्लेटफॉर्म पर सवार होकर विकास की नई रफ्तार पकड़ रही है। जो लोग गला-फाड़ अंदाज में हिंदी के खात्मे की बात करते हैं, इंटरनेट पर हिंदी के प्रसार ने उनकी जुबान बंद करने में मदद की है।

एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक हिंदी बहुत जल्द इंटरनेट पर अंग्रेजी और चीनी (मंदारिन) भाषा के बाद सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा बन जाएगी। इसके तेज विकास का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अभी तक यह इंटरनेट पर इस्तेमाल की जाने वाली शीर्ष 10 भाषाओं में भी नहीं है। ङ्क्षहदी ने इस नए माध्यम पर कई प्रतिमान स्थापित किए हैं। इंटरनेट पर हिंदी की लोकप्रियता बढ़ाने में ब्लॉगिंग का अहम योगदान रहा है। वर्ष 2003 में जहां ङ्क्षहदी भाषा का पहला ब्लॉग आलोक कुमार नाम के एक तकनीकी विशेषज्ञ ने '9-2-11 नाम से बनाया। आज इनकी संख्या एक लाख से ऊपर निकल चुकी है। इन ब्लॉगों में से 15-20 हजार को सक्रिय और 5 से 6 हजार को अतिसक्रिय की श्रेणी में रखा जा सकता है। ब्लॉगों ने व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के माध्यम से कहीं आगे बढ़कर कई मकसदों के लिए सामाजिक मंच बनने तक की दूरी तय कर ली है। मौजूदा दौर में हिंदी में सामुदायिक ब्लॉगों के अलावा साहित्य, संस्कृति और सिनेमा जैसे विषयों पर कई ब्लॉग सक्रिय हैं। इन ब्लॉगों पर सामाजिक मुद्दों की भी खूब धूम रहती है।


माइक्रोसॉफ्ट मोस्ट वैल्युएबल प्रोफेशनल पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके वरिष्ठï चिठ्ठाकार रविशंकर श्रीवास्तव के मुताबिक दुनिया भर में बड़ी संख्या में हिंदी भाषियों और हिंदी सेवियों की मौजूदगी को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इंटरनेट पर हिंदी का भविष्य उज्जवल है। श्रीवास्तव इंटरनेट पर हिंदी के प्रसार के काम में लगे हैं। यह हिंदी की ताकत ही है जिसने तमाम अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं को अपने तमाम अंकों को इंटरनेट पर जारी करने के लिए मजबूर कर दिया है। 'हंस, 'कथादेश, 'तद्भव नया ज्ञानोदय समेत तमाम प्रकाशित होने वाली गंभीर साहित्यिक पत्रिकाओं के ई संस्करणों के अलावा 'अभिव्यक्ति, 'अनुभूति 'रचनाकर, 'हिंदीनेस्ट, 'कविता कोश सहित हिंदी ब्लॉग और वेबसाइटों पर तमाम स्तरीय देशी विदेशी साहित्य महज एक क्लिक की दूरी पर उपलब्घ है।

आमतौर पर वेब पत्रिकाओं में पहले से छपी हुई सामग्री ही पढऩे को मिलती है। इस मिथक को तोड़ते हुए ज्ञानपीठ युवालेखन पुरस्कार से सम्मानित युवा कथाकार चंदन पांडेय ने अपनी नई कहानी 'रिवॉल्वर एक वेब पत्रिका 'सबद पर जारी कर एक नई पहल की।

सोशल नेटवर्किंग और मोबाइल- ऑर्कुट, फेसबुक के अलावा तमाम नेटवर्किंग वेबसाइट पर हिंदी का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है।मोबाइल में हिंदी सॉफ्टवेयर की उपलब्धता ने लोगों का काम और अधिक आसान कर दिया है। सीएसडीएस (सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज) ने भी इंटरनेट पर हिंदी के शुरुआती विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है। सीएसडीएस के भाषायी विकास कार्यक्रम से जुड़े इतिहासकार रविकांत शर्मा के मुताबिक शुरुआत में इंटरनेट पर हिंदी देखने के लिए जहां किसी भी फॉन्ट की इमेज (पीडीएफ) ही इस्तेमाल की जा सकती थी।

जिस समय इंटरनेट पर हिंदी के लिए काम कर रहे सरकारी संस्थान टीआईडीएल (टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट फॉर इंडियन लैंग्वेज) और सी-डैक जैसे सरकारी विभाग तमाम अव्यावहारिक कोशिशें कर रहे थे, उस दौरान सीएसडीएस ने हिंदी के इस्तेमाल से संबंधित तमाम सॉफ्टवेयर बनाकर उनका मुफ्त वितरण शुरू कर दिया था।

हाथ फेर दें और सभी कुछ

आप पुनीत से मिलेंगे तो मेरे इस हंसमुख युवा दोस्त की आँखों में एक अजीब सा खलल दिखेगा आप को। उसका एक मासूम सा सपना है जिसे करोडो आँखें अलग अलग समय में देखती रही हैं । वो इस दुनिया से खुश नहीं है और एक दिन इसे बदल देना चाहता है। पुनीत को पढना अच्छा लगता है। वहबहुत अच्छी कवितायेँ लिखता है, रंगकर्म उसे बहुत प्रिय है। इन दिनों वह मायएफएम इंदौर में स्क्रिप्टराईटर है ।

हाथ फेर दें और सभी कुछ
मिट जाए साधो
अपना दिल है रेत का टीला
थोडे़ है साधो
इस पगडंडी पे निकले है
मुड़ कैसे जाएँ
हमने कितने सारे रस्ते
छोडे़ है साधो
पहले अल्हड़ और मिजाजी
हाथी जैसे थे
अब राजाजी की परेड के
घोडे़ है साधो
सोच रहे है कैसे वापस
चिपका के आएं
उसके लिए जो इतने तारे
तोडे़ है साधो

मुक्तिबोध की पत्‍नी का रायपुर में निधन

रायपुर। कवि मुक्तिबोध की पत्‍नी शांता मुक्तिबोध का निधन गुरुवार रात हो गया। उनकी उम्र 88 वर्ष थी। वे लंबे समय से अस्वस्थ चल रही थीं। शुक्रवार सुबह 11 बजे उनका अंतिम संस्कार रायपुर के देवेंद्र नगर श्मशानघाट में किया गया। वे रमेश, दिवाकर, गिरीश व दिलीप मुक्तिबोध की मां थीं। उन्हें मुखाग्नि उनके कनिष्ठ पुत्र गिरीश मुक्तिबोध ने दी।
हिंदी कविता के शीर्ष गजानन माधव मुक्तिबोध के संघर्ष के दिनों में शांता जी ने उनका हर वक्‍त साथ दिया। इस बात का जिक्र हरिशंकर परसाई, नेमिचंद जैन, अशोक वाजपेयी जैसे साहित्यकारों ने अपने संस्मरणों में किया है। पति के निधन के बाद बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के साथ उनको मुकाम दिलाने में शांता जी ने अहम भूमिका निभायी।
अंतिम संस्कार में छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के अध्यक्ष व वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर, दैनिक देशबंधु के स्वामी व प्रधान संपादक ललित सुरजन, प्रेस क्लब अध्यक्ष अनिल पुसदकर, सहारा चैनल के छत्तीसगढ़ ब्यूरो प्रमुख रुचिर गर्ग, छत्तीसगढ़ राज्य बीज एवं कृषि विकास निगम के अध्यक्ष श्याम बैस, ब्रेवरेज कार्पोरेशन के पूर्व अध्यक्ष सच्चिदानंद उपासने, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विवि के कुलपति सच्चिदानंद जोशी, छत्तीसगढ़ जनसंपर्क विभाग के संचालक उमेश द्विवेदी, नवभारत रायपुर के पूर्व संपादक अनल शुक्ल, नई दुनिया रायपुर के महाप्रबंधक मनोज त्रिवेदी, दैनिक भास्कर के केके सिंह, दैनिक नेशनल लुक के संपादक प्रशांत शर्मा, अधिवक्ता व साहित्यकार कनक तिवारी, पत्रकार व साहित्यकार प्रभाकर चौबे, छत्तीसगढ़ पाठ्यपुस्तक निगम के महाप्रबंधक सुभाष मिश्र, इप्टा छत्तीसगढ़ के महासचिव अरुण काठोटे सहित बड़ी संख्या में पत्रकार, साहित्यकार व गणमान्य नागरिक मौजूद थे।
(साभार : मोहल्ला लाइव )

वकील करो

वकील करो-
अपने हक के लिए लड़ो |
नहीं तो जाओ
मरो |

2

रटो, ऊँचे स्वर में,
बातें ऊँची-ऊँची
न सही दैनिक पत्रों से लेकर,
खादी के उजले मंचों से
दिन के,
तो रेस्तराओं-गोष्ठियों में ही
उन्हें सुनाते पाये जाओ,
बड़े-बड़े नेताओं के नाम
गाते पाए जाओ!

फिर
हो अगर हिम्मत तो
डटो : यानी-के चोर बाजार में
अपनी साख
जमाओ |

खिलाओ हज़ारों, तो
लाखों कमाओ!
और क्या, हाँ, फिर
सट्टे-फ़स्ट क्लास होटेल-
ठेके-या कि एलेक्शन में
पूंजी लगाओ,
और दो... ‘बड़े-बड़ों’ के बीच में बैठकर...
शान से मूँछों पर ताव!
हाँ, कानी उँगली पे अपनी गाँधी-टोपी
नचाए, नचाए, नचाए जाओ!

3

और आर्ट-
क्या है ? औरत
की जवानी के
सौ बहाने : उसके
सौ
‘फ़ॉर्म’:
जो उसपे झूमे, अदा करो
वही पार्ट :
-इसका भी एक बाज़ार है
समझे न ?

ब्यूटी मार्ट |
इसके माने:
नये से नये मरोड़
दो
रंगों को अंगों को
जिस्म-सी
फिसलती
लाइनों को
सीने में घुलते
शेडों को |

इसमें भी, खोजो तो,
गहरे से गहरे
आदिम
नशों का तोड़
है,
समझे इस कला की
फ़िलासफ़ी?
इसी शराब के
दौर चलाओ,
और ‘आगे’
और ‘आगे’
और ‘आगे’
जाओ
-जाओ !

और देश को ले जाओ
(पता नहीं कहाँ !)

समझे, मेरे
अत्याधुनिक भाई ? !

(- शमशेर बहादुर सिंह)

२५ साल का इंतज़ार और नाटकनुमा न्याय


कभी-कभी लगता है की शहर भी अपने लोगों की तरह हमें कर्ज़दार बनाते हैं. आज भोपाल गैस त्रासदी पर अदालत का मज़ाकनुमा फैसला आने के बाद मुझे लग रहा है की भोपाल के गले से लिपट के रो लूँ. शायद उसका मन भी कुछ हल्का हो जाये. १५००० से ज्यादा मौतों और २५ साल के मानसिक संत्रास की सज़ा २ साल. वाह रे न्याय...

दोहराने की जरूरत नहीं की भोपाल गैस त्रासदी उन घटनाओं का नतीज़ा था जिन्हें किसी भी मोड़ पर थोड़ी चौकसी बरत के रोका जा सकता था. उसके लिए किसी खास उपकरण की जरूरत नहीं थी बस थोडा चौकन्ना मानव मस्तिष्क काफी होता.

२/३ दिसंबर की उस दरमियानी रात मौत सफ़ेद बादलों का रूप धर के जिंदादिल भोपाल की रगों में पैबस्त हुई. और शहर चुपचाप नींद में ही मौत की चादर ओढने लगा। युनियन कार्बाइड कारखाने से रिसी जहरीली मिथाइल आइसोसायनेट गैस के कारण हजारों लोग मारे गये अनेक लोग स्थायी रूप से विकलांग हो गये । भोपाल गैस त्रासदी पूरी दुनिया के औद्योगिक इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना मानी जाती है। उस सुबह यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर ‘सी’ में हुए रिसाव से बने गैस के बादल को हवा के झोंके अपने साथ बहाकर ले जा रहे थे और लोग मौत की नींद सोते जा रहे थे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर तीन हजार लोग मारे गये थे। हालांकि गैरसरकारी स्रोत मानते हैं कि ये संख्या करीब तीन गुना ज्यादा थी। मौतों का ये सिलसिला बरसों चलता रहा। इस दुर्घटना के शिकार लोगों की संख्या हजारों तक बतायी जाती है।

फैसले के बाद भोपाल गैस पीड़ितों का मामला उठाने वाले अब्दुल जब्बार ने कहा कि पहले औद्योगिक त्रासदी हुई और अब न्यायिक त्रासदी हो रही है। घटना के बारे में पहली पूर्व चेतावनी देने वाले पत्रकार राजकुमार केसवानी का कहना है की ये न्याय की दिशा में पहल कदम है। पर ये लापरवाही का मामला नहीं बल्कि जनसंहार का मामला है।
भोपाल शहर पर चौथाई सदी पहले बीते उस हादसे के निशाँ ढूँढने आप को बहुत दूर नहीं चलना पड़ता. बुजुर्गों के चेहरों पर, माओं आँखों में और नवजात बच्चों की किस्मत पर वारेन एंडरसन ने जो सियाही पोती थी वो जस की तस है.
भोपाल शहर में दो साल रहा। उसने सच्चे दोस्त दिए. कुछ ऐसे रिश्ते दिए जो आजीवन साथ रहने हैं. लेकिन माफ़ करना भोपाल हम तुम्हारे लिए वो नहीं कर पाए जो कर सकते थे... जो हमें करना चाहिए था.
(लेख में कुछ तथ्यात्मक बातें बीबीसी की वेबसाइट से साभार )

साए में धूप

इससे पहले की आप अपनी रोजाना की जद्दो जहद को अंतिम समझ लें.इन तस्वीरों को गौर से देखिये..ये तस्वीरें मैंने पिछले साल के जाड़ों में इंदौर से ४०-४५ किमी की दूरी पर ली थीं।



यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है

चलो यहाँ चलें और उम्रभर के लिए
न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफर के लिए








क्या होता अगर कोलंबस भाई की शादी हो गयी होती...

मेल पर आया एक चुटकुला आप सब से साझा कर रहा हूँ। मजेदार है। कृपया इसे बिना किसी वाद के चश्मे के पढ़ें और आनंद उठायें - ब्लॉगर


What If Columbus Had Been Married ?

He might never have discovered
America, because he would have had to answer all the following questions:

· Where are you going?
· With whom?
· Why?
· How are you going?
· To discover what?
· Why only you?
· What do I do when you are not here?
· Can I come with you?
· When will you be back?
· Would you have dinner at home?
· What would you bring for me?
· You deliberately made this plan without me, didnt you?
· You seem to be making a lot of these programs lately...
· Answer me why?
· I want to go to my mothers house.
· I want you to drop me there.
· I dont want to come back ever!
· What do you mean, OK?
· Why arent you stopping me?
· I dont understand what this whole discovery thing is about.
· You always do things like this.
· Last time you also did the same thing!
· Nowadays you always seem to do this kind of stuff.
· I still dont understand what else is left to be discovered!

मां


अनिल गोयल भोपाल में रहते हैं। मां पर लिखी गई उनकी कविताएं दिल को छू लेने वाली हैं। उसी चौखट से उनके कविता संग्रह का नाम है। उन्होंने इस बार एक अभिनव प्रयोग किया है संग्रह की प्रत्येक कविता के साथ इंटरनेट से डाउनलोड की गई कोई तस्वीर चस्पा है जाहिर है तस्वीर मां की ही है जो कविता के असर को कई गुना कर देती है...ब्लागर
1
विधवा बुढ़िया
अचानक हो जाती मां
पहली तारीख को
जब लाती पेंशन
जब होती
बहू को जचगी
जब देवी मां के दर्शन को
जाता सारा परिवार
करती चौकीदारी घर की
विधवा बुढ़िया
हो जाती मां


2.
मेरे ही
दूध से मिला बल
इतना
कि मुझपर ही
आजमाया गया

3.
बांझ स्त्री
कोसती है भगवान को
पूतों वाली कोसती है
खुद को

4.

कहां कहां नहीं भटके
औलाद की खातिर
कहां कहां नहीं भटकाया
औलाद ने

मंटो मेरा महबूब अफसानानिगार


मंटो के जन्मदिन पर पिछले साल यह पोस्ट लगाई थी। इस साल नया कुछ नहीं लिख सका सो उसी लेख को थोड़े हेरफेर के साथ लगा रहा हूं- ब्लागर


आज 11 मई है मेरे महबूब अफसाना निगार सआदत हसन मंटो का जन्मदिन। मंटो की एक पंक्ति है-‘‘ मिट्टी के नीचे दफन सआदत हसन मंटो आज भी यह सोचता है कि सबसे बड़ा अफसाना निगार वह खुद है या खुदा। ’’
ये इबारत पढ़कर एकबारगी आपको लगता है कि यह आदमी कितना दंभी और गुरूर में जीने वाला इंसान रहा होगा लेकिन मंटो के चाहने वाले और उन्हें जानने वालों को पता है कि मंटो का व्यक्तित्व दरअसल कैसा था।
मंटो से मेरा परिचय जिस समय हुआ उस समय मेरी उम्र इतनी नहीं थी कि मैं उनके अफसानों उनमें रखे गए विचारों को समझ पाता। उन दिनों मैं मध्यप्रदेश के सीधी जिले में रहता था। मैंने महज 13 की अवस्था में अपने शहर के राजकीय पुस्तकालय से किताब निकलवाई ‘‘ मंटो मेरा दुश्मन’’ जिसे लिखा था उपेंद्रनाथ अश्क ने। अब याद नहीं कि इस किताब को चुनने के पीछे कारण क्या था। शायद इसका उन्वान। इस पुस्तक में मंटो कि कुछ कहानियों के अलावा उनके बारे में अश्क साहब और कृशन चंदर के संस्मरण थे। मंटों की कहानियां उस समय समझ तो नहीं आईं लेकिन उन्होंने जीवन के उस पहलू से परिचय कराया जो कम से कम हमारे समाज में चर्चा के काबिल नहीं समझा जाता। थोड़ा बड़े हुए तो मंटो की कहानियों पर अपने शहर में एक चर्चा आयोजित करवाई जिसका उद्देश्य ही था उनकी कहानियों को समझना। कालेज पहुंचे तो उनकी कहानी टोबा टेक सिंह को आधार बनाकर एक नाटक यूथ फेस्टिवल में खेला गया, उसमें शायद थोड़ा इनपुट खुशवंत सिंह की ट्रेन टु पाकिस्तान से भी लिया था।

बहरहाल यहां इरादा मंटो की जीवनी सुनाने का नहीं है और उनके बारे में बाते करते हुए जाने कितने पन्ने रंगने तो बस उनके जन्मदिन पर लगा कि उन्हें याद कर लिया जाए मेरी ओर से यही उन्हें श्रद्धांजलि।


बीबीसी के सौजन्य से मंटो की कुछ लघु कथाएं


सआदत हसन मंटो की कहानियों की जितनी चर्चा बीते दशक में हुई है उतनी शायद उर्दू और हिंदी और शायद दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की कम ही हुई है.
जैसा कि राजेंद्र यादव कहते हैं चेख़व के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली यानी उन्होंने कोई उपन्यास नहीं लिखा.
कमलेश्वर उन्हें दुनिया का सर्वश्रेष्ठ कहानीकार बताते हैं.अपनी कहानियों में विभाजन, दंगों और सांप्रदायिकता पर जितने तीखे कटाक्ष मंटो ने किए उसे देखकर एक ओर तो आश्चर्य होता है कि कोई कहानीकार इतना साहसी और सच को सामने लाने के लिए इतना निर्मम भी हो सकता है लेकिन दूसरी ओर यह तथ्य भी चकित करता है कि अपनी इस कोशिश में मानवीय संवेदनाओं का सूत्र लेखक के हाथों से एक क्षण के लिए भी नहीं छूटता.
प्रस्तुत है उनकी पाँच लघु कहानियाँ -

बेखबरी का फ़ायदा
लबलबी दबी – पिस्तौल से झुँझलाकर गोली बाहर निकली.खिड़की में से बाहर झाँकनेवाला आदमी उसी जगह दोहरा हो गया.लबलबी थोड़ी देर बाद फ़िर दबी – दूसरी गोली भिनभिनाती हुई बाहर निकली.सड़क पर माशकी की मश्क फटी, वह औंधे मुँह गिरा और उसका लहू मश्क के पानी में हल होकर बहने लगा.लबलबी तीसरी बार दबी – निशाना चूक गया, गोली एक गीली दीवार में जज़्ब हो गई.चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी, वह चीख़ भी न सकी और वहीं ढेर हो गई.पाँचवी और छठी गोली बेकार गई, कोई हलाक हुआ और न ज़ख़्मी.गोलियाँ चलाने वाला भिन्ना गया.दफ़्तन सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता हुआ दिखाई दिया.गोलियाँ चलानेवाले ने पिस्तौल का मुहँ उसकी तरफ़ मोड़ा.उसके साथी ने कहा : “यह क्या करते हो?”गोलियां चलानेवाले ने पूछा : “क्यों?”“गोलियां तो ख़त्म हो चुकी हैं!”“तुम ख़ामोश रहो....इतने-से बच्चे को क्या मालूम?”

करामात
लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरु किए.लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे,कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौक़ा पाकर अपने से अलहदा कर दिया, ताकि क़ानूनी गिरफ़्त से बचे रहें.एक आदमी को बहुत दिक़्कत पेश आई. उसके पास शक्कर की दो बोरियाँ थी जो उसने पंसारी की दूकान से लूटी थीं. एक तो वह जूँ-तूँ रात के अंधेरे में पास वाले कुएँ में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा ख़ुद भी साथ चला गया.शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गये. कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं.जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया.लेकिन वह चंद घंटो के बाद मर गया.दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए उस कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था.रहे रात उस आदमी की क़ब्र पर दीए जल रहे थे.

ख़बरदार
बलवाई मालिक मकान को बड़ी मुश्किलों से घसीटकर बाहर लाए.कपड़े झाड़कर वह उठ खड़ा हुआ और बलवाइयों से कहने लगा :“तुम मुझे मार डालो, लेकिन ख़बरदार, जो मेरे रुपए-पैसे को हाथ लगाया.........!”

निरुपमा के लिए

युवा पत्रकार निरुपमा पाठक की दिल दहलाने वाली हत्या ने हमारे बीच रह रहे छदम प्रगतिशीलों के नकाब उतारदिए हैं. वो अब हत्यारी कौम के पक्ष में खुल कर सामने गए हैं. वो निरुपमा की मौत को अस्पष्ट बताते हुए कानूनी पेंच को इतनी मजबूती से उठा रहे हैं जैसे की इससे बहुत फर्क पड़ने वाला है की कौन लोग उस युवा संभावना के अंत के जिम्मेदार हैं. निरुपमा पर मेरी पिछली पोस्ट पर साथी पुनीत ने कविता के रूप में एक काव्यात्मक टिप्पणी दी. मेरे कहने पर उन्होंने अपनी उस क्षणिक प्रतिक्रिया को पूरी कविता में तब्दील किया- ब्लॉगर

जयती-जयती
के नारो से
धर्म पताकाएं
लहराई ...
भूख-लूट
क्या लाती
उनको
मुद्दो की सड़को पर भला,
जो
धर्म पे लगी
आंच ले आई ....
वाह ! महान संस्था
वाह ! महान बंधनो की
रक्त मे लिपटी कथा ....
हे महान शोध की
प्रयोगशाला
के जनो ,
हे निचुड़ जाने
को तत्पर
देवीरूपी
स्तनो .....
तेरे देवालय के भीतर ,
हुआ है जो भी
आज तलक वो ,
घटा है बाहर
तो पाबंदी ?
खुले आम अब
सींग दिखाकर ,
नाच रहे है
नंगे नंदी ...
प्रेम था तेरे
सदा सनातन ,
अनंतगामी ,
धर्म का खंभा ,
प्रेम मे ठहराव
आता है !
अब ठहर गया वो
उसके भीतर
तो काहे का
तुम्हे अचंभा ....
सोच रहा हूं
मै बस इतना
पावन था वो
पल भी कितना ..
मां ने आंचल मे
जब अपने
लेकर के
दम घोटा होगा ...
मालूम हुआ होगा
उसको ये ,
कि परिवारो
के बरगद का
तना
खोखला
सड़ा था कितना ...
उसके गर्भ मे
रखा था जो कुछ
सबके दिल से
बड़ा था कितना
...

निरूपमा हम तुम्हारी माफी के हकदार भी नहीं

सोचा नहीं था कि नए लैपटाप पर कुछ लिखते हुए इस तरह हाथ कांपेगा। 29 अप्रैल 2010 वो तारीख थी जिस दिन निरूपमा पाठक नामक एक युवा सपने का असामयिक अंत हुआ था। वो भी किसके हाथों! उसके घरवालों ने उसकी महज इसलिए हत्या कर दी क्योंकि वह एक लड़के से शादी करना चाहती थी जो विजातीय था। यह कोई छोटा अपराध नहीं था। परिवार की इज्जत बचाने के लिए इतनी कुबार्नी तो दी ही जा सकती है।

फिर इससे क्या फर्क पड़ता है कि वह अपने परिवार से बेइंतहा प्यार करती थी। जैसा कि उसने अपनी सोशल नेटवर्किंग आईडी पर भी लिख रखा है। वो आई डी जो कभी दोस्तों से मन की बातें साझा करने का जरिया हुआ करती थी अब आरआईपी के संदेशों से अटी पड़ी है लेकिन निरुपमा अब उस पर कभी लाग इन नहीं करेगी। अब उसे पुलिस खंगालेगी। तलाशे जाएंगे कातिल, उस हत्या के सुराग जिसके बारे में सबको पता है कि वो किसने की है।

निरुपमा अगर मीडियाकर्मी न होती तो शायद उसकी मौत भी देश में रोज होने वाली हजारों मौतों की तरह गुम हो जाती। लेकिन उसके साथियों ने ये नहीं होने दिया। ये सोच कर ही नफरत सी होती है कि हम एक हत्यारे समाज में रह रहे हैं। अपने आसपास ही नजर डालकर देखने की जरूरत है, आखिर कितने लोग हैं जो इस घटना के खिलाफ आवाज उठाने को तैयार हैं। उंगलियों पर गिने जा सकने वाले चंद लोगों के अलावा हमारा प्रतिनिधि समाज हत्यारों के साथ है। निरुपमा की हत्या के बाद उसकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट को लेकर जिस तरह के घपले रोज सामने आ रहे हैं डर है कि कहीं यह मामला भी आरुषि हत्याकांड की तरह जांच के अनवरत सिलसिले में न बदल जाए। वैसे भी काश एक निरूपमा, एक रूचिका या एक जेसिका को न्याय मिल जाना इस बात की गारंटी हो पाता कि हमें भविष्य में इस तरह की घटना से दो चार नहीं होना पड़ेगा।

निरूपमा की मौत का बोझ कैसे उठाओगे प्रियभांशु

टीवी पर यह कहकर कि तुम्हें निरुपमा के प्रेग्नेंट होने के बारे में कुछ भी पता नहीं था तुमने न केवल अपने प्रेम को लांक्षित किया बल्कि अपनी मर चुकी प्रेमिका को भी कठघरे में खड़ा किया है। हम कैसे मान लें कि तीन महीने का गर्भ पालने का निर्णय उसका खुद का रहा होगा प्रियभांशु। क्या उसने तुम्हें इस बारे में कुछ नहीं बताया था। फिर वो कौन सी मजबूरी है जो तुम्हें साहस के साथ सच को स्वीकारने का हौसला नहीं दे रही कि निरुपमा की कोख में तुम्हारे प्यार का अंश था।

निरूपमा की हत्या दो दिन बाद से ही तुम्हारे खिलाफ तथाकथित शुचितावादी लोगों ने मोर्चा खोल दिया था। बिना तुमसे बात किये, तुम्हारा पक्ष जाने लोगों ने दोषी करार दे दिया। तुम्हें एक खूबसूरत टैलेंटेड लड़की को अपनी प्रेमिका बनाकर दोस्तों के बीच रुआब गांठने वाली फितरत का कायर घोषित कर दिया। लेकिन प्रियभांशु तुम क्यों उन लोगों को सही ठहराने पर उतारू हो। तुमने क्यों इतने विपरीत हालात में उसे अकेली मरने के लिए हत्यारों के बीच भेज दिया। उसके लगातार आ रहे एसएमएस ने तुम्हें कोई आभास नहीं दिया कि उसके साथ क्या कुछ हो सकता है। तुम उसकी मौत का बोझ कैसे उठाओगे ।

टीवी पर निरुपमा के भाई का चेहरा फिल्म एलएसडी की पहली कहानी की नायिका श्रुति के भाई से हूबहू मिलता है। या शायद मुझे ही ऐसा लगा। जिस बच्ची को पालपोस कर इतना बड़ा किया उसका दम घोंटते हुए हाथ उसकी मां के हों या उसके भाइयों या बाप के अब कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी आंखों में अब भी अपने परिवार की इज्जत बचा ले जाने का अभिमान साफ पढ़ा जा सकता है।

निरुपमा हम तुम्हारी माफी के हकदार भी नहीं हैं। क्योंकि इस विकल्पहीन समय में हम अब भी तुम्हारे हत्यारों के साथ रहेंगे। स्थानीय पुलिस भी तुम्हारे इज्जतदार परिवार का ही साथ देगी शायद और तुम्हारी मौत का कोई निशाँ बाकी नहीं रह जाएगा लोगों के जेहन में। कोर्ट ने तुम्हारी मां को तीन दिन के लिए पैरोल पर छोड़ा है जानती हो क्यों! ताकि वो तुम्हारे अंतिम संस्कार में शामिल हो सके।

नोट: अभी पोस्ट लिखने के दौरान ही टीवी पर खबर आई है कि निरुपमा की मां की याचिका पर प्रियभांशु के खिलाफ शादी का झांसा देकर उसका यौन शोषण करने का मामला दर्ज करने का आदेश कोर्ट ने दे दिया है। अब हमें इंतज़ार करना चाहिए सुप्रीम कोर्ट की किसी नयी व्यवस्था का जिसमें शायद वो गहरे प्रेम करने वाले लोगों को शारीरिक निकटता से बचने का कोई मार्ग सुझाएगा। वर्ना कौन जाने कल को उनका हश्र भी प्रियाभांशु जैसा हो....

मार्क पोलिस का गिटार और चे-ग्वेरा (उदय प्रकाश का साक्षात्कार - 3)

ब्लाग जगत से लंबे समय तक अनुपस्थित रहने पर जो अजीब सी बेचैनी रही उसके बारे में क्या कहूं। हुआ दरअसल ये कि लंबे समय तक वफादार साथी रहा मेरा डेस्कटाप कंप्यूटर अचानक साथ छोड़ गया। ये जो पिछले लगभग १५ दिनों का अंतराल था वह डेस्कटाप की शहादत व नए लैपटाप के आगमन की खुशियों के बीच का अंतराल था। लेकिन अब जबकि लैपटाप का आना एक सप्ताह के लिए मुल्तवी सा है तो उदय प्रकाश के साक्षात्कार को टुकड़ों में पढ़ाने के अपने अपराध को आगे बढ़ा रहा हूं। वादाखिलाफी के लिए माफी क्योंकि साक्षात्कार इस बार भी पूरा नहीं हो पाया- ब्लागर

दिनेश श्रीनेत- उस दौर में जो बाकी लोग हिंदी लिख रहे थे तो वो कौन थे जिन्हें आप पसंद करते थे?
उदय प्रकाश- ईश्वर की आंख जिन्हें मैंने समर्पित की है वह हैं मोहन श्रीवास्तव। मां की मृत्यु के वक्त मेरी उम्र लगभग १२-१३ साल थी मोहन श्रीवास्तव हायर सेकंडरी में अध्यापक थे।वे लगभग संत की तरह रहते थे। उन्हें पता नहीं मेरे प्रति कैसे गहरी सहानुभूति हो गई। उन्हें यह भी पता चल गया कि इनके पिता जी अल्कोहलिक हो गए हैं तो यह लगभग अनाथ है। उन्होंने मुझे मातापिता दोनों का स्नेह दिया मैं तो लगभग उन्हीं के कारण पढ़ पाया। वे खुद भी बहुत अच्छे कवि थे। कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह, धूमिल, राजकमल चौधरी लिख रहे थे। एलेन गिन्सबर्ग उन दिनों आए थे। यह पूरा दौर था जब अज्ञेय की नई कविता का प्रभामंडल टूट रहा था, उसका अभिजात्य टूट रहा था।


दिनेश श्रीनेत- क्या उस दौर में नई कहानी के लेखक सामने आ चुके थे?
उदय प्रकाश- नई कहानी की रचनाएं मैं पढ़ रहा था। चीफ की दावत मैंने पढ़ी थी। भीष्म साहनी, अमरकांत, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह के रचना कर्म से मैं परिचित था। लेकिन मैं मूलत: कवि हूं तो मैं कविता से जी ज्यादा जुड़ा रहता था। उस समय सबको पढ़ा लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित दोस्तोयेवस्की ने किया।


दिनेश श्रीनेत- क्या वह समय राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी कहीं आपको उद्वेलित कर रहा था?
उदय प्रकाश- मोहन श्रीवास्तव लेफ्ट थे। बाद में प्रगतिशील लेखक संघ, मध्य प्रदेश के उपाध्यक्ष भी रहे। उन्हीं के कारण मैं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी शामिल हुआ। एआईएसएफ का मैं फाउंडर हूं अपने जिले का। वो दौर बहुत सोचने समझने का था। सन ७०-७१ की मेरी डायरी का पहला पन्ना खोलें। उन दिनों मैं कालेज में था। चे-ग्वेरा का एक मित्र एल पटागो नामक कवि था।उसकी मौत हुई तो उसकी समाधि पर उसी की एक कविता चे-ग्वेरा ने खड़े होकर लिखवाई। उस कविता से शुरू होती है डायरी। १७ की उम्र में मैं चे व समूचे लैटिन अमेरिकी मूवमेंट को जानता था। हमारे गांव से ११ किमी दूर जमड़ी गांव था। वहां विभूति कुमार आए थे। खुद को गांधीवादी कहते थे। बाद में स्वीडन चले गए। उनके साथ विदेशियों का एक पूरा ग्रुप आया। इंटरनेशनल ग्रुप आफ नानवायलेंस नामक संस्था बनाई।उनके साथ के मार्क पोलिस नामक अमेरिकी लड़के से मेरी दोस्ती हो गई।वह गिटार बहुत अच्छा बजाता था। मैं १७ साल का था वह २०-२१ का। उसके पास चे कि किताब हम होंगे कामयाब थी। वह किताब मैं पूरी पढ़ गया, मैं उसकी बहादुरी से बहुत प्रभावित हुआ। जब मैं सागर आया तो शिवकुमार मिश्र वहां प्रोफेसर थे। उन्हें बहुत अचरज हुआ कि यह लड़का गांव से आया है व चे के बारे में बातें करता है।
जारी-----

यह एंड आफ एनोसेंस है (उदय प्रकाश का साक्षात्कार-2)


दिनेश श्रीनेत- आज की तारीख में या पहले भी आप रचनात्मक स्तर पर कब इतना दबाव महसूस करते हैं कि यह लगने लगे कि अब कुछ लिख ही देना चाहिए।

उदय प्रकाश- मैं तो शायद यह कहूं कि लेखक जो होता है वह 24 घंटे लेखक होता है।अगर कोई एसी व्यवस्था हो... जैसे लुई बुनुएल की बहुत अच्छी आत्मकथा है- माई लास्ट ब्रेथ। उसमें लुई ने कहा था कि 24 घंटे में आदमी को 20 घंटे सोना चाहिए व स्वप्न देखना चाहिए। बाकी चार घंटे उसे काम करना चाहिए। यह सच है कि सृजन एक स्वप्न है। येहूदा आमीखाई ने लेखक के बारे में लिखा है कि बहुत सक्रिय सर निष्क्रिय धड़ पर रखा है। जब भाषा अधिक हो जाए तो वह चैटर में बदल जाती है। हर कोई बोल रहा है। बड़बड़ा रहा है।

साहित्य में भी यह कल्ट आया है। चैटर में सारे, विशेषण, शब्द व अनुप्रास खप जाते हैं। लेकिन गंभीर डिस्कोर्स जिसमें साहित्य भी एक है। वहां भाषा खर्च नहीं हो रही है। हमारे यहां हो यह रहा है कि कोई समाजशास्त्र पर लिख रहा है तो उसे शरद जोशी सम्मान दिया जा रहा है तथा कोई पुलिस डिपार्टमेंट पर लिख कर शमशेर सम्मान पा रहा है। खेती पर लिखने वाले को मुक्तिबोध सम्मान दिया जा रहा है।

दिनेश श्रीनेत- अगर आप यह मानते हैं कि यह हमारे साहित्य का मौजूदा परिदृशय है तो फिर कहीं न कहीं हमें उसके कारणों की तरफ भी तो जाना होगा। आपके मुताबिक वे कौन से कारण हैं।

उदय प्रकाश- दरअसल एसा परिदृष्य रचा जा रहा है जिसमें साहित्यकारों के स्थान पर फेक्स को स्थापित किया जा रहा है। पहले अच्छे रचनाकार गंभीर संकटों में जीवन बिता रहे थे। अचानक साहित्यिक संस्थानों कल्चरल सेंटर के पास भरपूर पैसा आने लगा है तो उसे लपकने वालों की तादाद भी बढ़ रही है। आइडियोलाजी को दरकिनार कर वामपंथ, दक्षिणपंथ, जनवाद, प्रगतिवाद सब का मकसद है किसी तरह संस्था पर कब्जा जमाना व मनमाफिक खर्च करना। अच्छे खासे संस्थानों में हिंदी साहित्यकारों के गिरोह हैं। हालांकि गंभीर साहित्यकार उसमें शामिल नहीं हैं। यह झुंड आपस में पुरस्कार बांटता मौज मस्ती करता है।

बीते १० सालों में सवा लाख किसान आत्महत्या कर लेते हैं तो कम से कम एक लेखक को तो उत्सव नहीं मनाना चाहिए। यह एज एंड आफ एनोसेंस की है। जनता अब बेवकूफ नहीं हैं। मामूली व्यक्ति भी जानता है कि आप क्या कर रहे हैं। लेखक का काम है लिखना वह सचिन नहीं बन सकता। वह हाशिए पर रहने वाला, एकांत में कागज कलम या कम्प्यूटर पर काम करने वाला व्यक्ति है।

-(.... जारी)-

जो कमजोर हैं वो मारे जाएंगे (उदय प्रकाश का साक्षात्कार -1)


हमारे समय के सबसे सशक्त कथाकारों में से एक उदय प्रकाश का यह साक्षात्कार दिनेश श्रीनेत ने लिया है। साक्षात्कार का प्रकाशन संदर्श (अंक-14 2009) में हुआ है। हाल ही में इस पर मेरी नजर पड़ी। उदय प्रकाश की पहली रचना जो मैंने पढ़ी थी वह थी इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी में छपी कहानी पाल गोमरा का स्कूटर। उसके बाद एक सिलसिला चल निकला जो अब तक जारी है। साक्षात्कार बड़ा है अत: उसको संपादित कर आपके लिए पेश कर रहा हूं इस कोशिश के साथ की उसकी आत्मा बरकरार रहे।

दिनेश श्रीनेत- जिस दौर में आप अपने कहानी संग्रह दरियाई घोड़ा की कहानियां लिख रहे थे- तब से लेकर हाल में प्रकाशित मैंगोसिल तक समय के फैलाव में आप क्या बदलाव देखते हैं? क्या आपको लगता है कि बतौर रचनाकार आपके लिए चुनौती उत्तरोत्तर कठिन हुई है? क्या बदलते परिवेश ने आपकी रचनात्मकता पर भी कोई दबाव डाला है?

उदय प्रकाश- कोई भी रचनाकार - कथाकार समय, इतिहास स्मृति के स्तर पर, खासकर टाइम एंड मेमोरी के स्तर पर लिखता है। दरियाई घोड़ा की कहानियां भी उसके प्रकाशन से बहुत पहले लिखी गई थीं। अगर आप इन कहानियों को देखें तो समय इनमें किसी इको की तरह है। लेकिन दरियाई घोड़ा बहुत निजी स्मृति की कहानी है। वह पिता की मृत्यु पर लिखी कहानी है। इंदौर के एक अस्पताल में मेरे पिता की मृत्यु हुई थी-कैंसर से-तो वह उस घटना के आघात से-उसकी स्मृति में लिखी कहानी है। चौरासी में छपा था संग्रह। तब से अब तक दो दशक का समय बड़े टाइम चेंज का समय रहा है। मेरा मानना है कि किसी भी रचनाकार को अपनी संवेदना लगातार बचा कर रखनी चाहिए। अपने आसपास के परिवर्तन के प्रति ग्रहणशीलता लगातार बनी रहनी चाहिए। जिस मोमेंट आप उसे खो देते हैं आपकी संवेदनशीलता खत्म हो जाती है। फिर आपके पास सिर्फ नास्टेल्जिया या स्मृतियां बचती हैं। उनके सहारे आप चिठ्ठी या पर्सनल डायरी तो लिख सकते हैं कोई रचना-कोई कहानी या कविता नहीं लिख सकते।

दिनेश श्रीनेत - लेकिन क्या ये सच नहीं है कि उस समय के रचनाकार के पास आस्था के कुछ केंद्र तो बचे ही थे। भले ही वे अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे थे। मगर क्या ये सच नहीं है कि आज का लेखक एक अराजक किस्म की अनास्था के बीच सृजन कर रहा है?

उदय प्रकाश- आपको याद होगा जिस वक्त मैंने तिरिछ लिखी थी - उसी दौरान इंदिरा की हत्या व राजीव का राज्यारोहण हुआ था। राजीव नया के बड़े समर्थक थे। जैसे हिंदी कहानी में नई कहानी, नया लेखन जैसे फैशन आते-जाते रहे। तो राजीव नई शिक्षा नीति, नई अर्थनीति का नया चेहरा के अगुआ थे। विशव बैंक -अंतरराष्टीय मुद्राकोष के प्रभुत्व व हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि बनने लगी थी। निजीकरण शुरू हो गया। लोगों के बीच डि-सेंसेटाइजेशन बढ़ने लगा। मैं दिनमान में काम करता था। जो पानवाल पहले बहुत हंसकर बोलता था अब वह कैजुअल हो गया। जो चपरासी पहले अपने पत्नी बच्चों का दुखड़ा रोता था उसकी जगह आया नया चपरासी काम की बातें करता था बस। लोगों ने निजी बातें बंद कर दीं। तब मैंने तिरिछ लिखी। शुरू में बड़ा विरोध हुआ। अफवाह फैलाई गई कि यह मारक्वेज की ए क्रानकिल डेथ फोरटोल्ड की नकल है। एक कथाकार - आलोचक सज्जन ने मुझे लगभग डराते हुए कहा कि हंस अपने अगले अंक में एक पन्ने पर ओरिजिनल कहानी व दूसरे पर तिरिछ छापने जा रहा है। यकीन कीजिए मैं चुप रहा मुझे हंसी भी आई। मुझे हिंदी समाज से कुछ मिला नहीं है उन्होंने मुझे गाली या अपमान के सिवा कुछ नहीं दिया है। मैं ईमानदारी से कहूं तो घृणा करता हूं इस समाज ठीक उतनी ही जितनी वे मुझसे करते हैं। तिरिछ एक मार्मिक कथा बन पड़ी इसलिए नहीं कि उसमें पिता की मौत हो गई। यह दरअसल सिविलाइजेशन टांजेशन था। मैं कहना चाह रहा था कि अब जो अरबनाइजेशन होगा जो एक पूरी दुनिया बनेगी उसमें एक मनुष्य जो बूढ़ा है कमजोर है जिसके सेंसेज काम नहीं कर रहे। उसकी नियति मृत्यु होगी। वह बचेगा नहीं अनजाने ही मार दिया जाएगा।

दिनेश श्रीनेत- और बाद के दौर में लगभग यही संवेदनहीनता हम सबके सामने आई और यह भयावह भी होता गया।

उदय प्रकाश- बिल्कुल। अगर आप मोहनदास को देखें तो आप पाएंगे कि वह जो ग्राफ है।उत्तरोत्तर बढ़ता गया है। तो दिनेश जी मैं यह कहना चाहूंगा कि मैंने अपने समय के मनुष्य से कभी अपनी आंखें नहीं हटाईं। मेरे पास कोई पावर नहीं, कोई सत्ता नहीं, कोई पत्रिका नहीं निकालता मैं, कहीं का अफसर नही हूं। तो मैंने देखा कि सामान्य जनता के प्रति ब्यूरोक्रेसी का जो व्यवहार होता है। वही साहित्य के अंदर ब्यूरोक्रेट्स मेरे प्रति करते हैं। यदि रविभूषण यह कहते हैं कि इसने पीली छतरी वाली लड़की मे बोर्खेज की नकल की है.. उस समय मैं बीमार था और पहली बार शायद संयम खोया । पहली बार मैंने अदालत में जाने की पहल की तो ये कहने लगे कि उदय मुकदमेबाज है। तो यातो आप नकल करना स्वीकार कर लीजिए या फिर मुकदमेबाज कहलाइए। यू लेफ्ट रिव्यू और क्रिटकिल इंक्वायरी में लिखने वाले अमिताभ कुमार जो संसार के सबसे विशवसनीय माक्र्सवादी आलोचकों में से हैं वो यदि पाल गोमरा का स्कूटर, तिरिछ और मोहनदास की तारीफ करते हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह हिंदीवालों का गैंग क्या करता है।

(साक्षात्कार लंबा है इसका दूसरा हिस्सा अगले कुछ दिनों में ....)

हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही जा रही है


हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी
और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे

हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते हो
सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए

जितनी देर ऊंचा गोल गुंबद गूंजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से
गूंज थमते थमते फिर हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फंसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे

हँसो पर चुटकलों से बचो
उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हो जो किसी ने सौ साल साल पहले दिए हों

बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो
जो कि अनिवार्य हों
जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार
जहां कोई कुछ कर नहीं सकता
उस ग़रीब के सिवाय
और वह भी अकसर हँसता है

हँसो हँसो जल्दी हँसो
इसके पहले कि वह चले जाएं
उनसे हाथ मिलाते हुए
नज़रें नीची किए
उसको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे !

-रघुवीर सहाय

भगत सिंह की याद में


उनकी शहादत के 75 वर्ष पूरे होने पर

ब्रिटिश सरकार ने 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फाँसी दी तो वे केवल तेईस साल के थे। लेकिन आज तक वे हिन्दुस्‍तान के नौजवानों के आदर्श बने हुए हैं। इस छोटी सी उम्र में उन्होंने जितना काम किया और जितनी बहादुरी दिखायी, उसे केवल याद कर लेना काफी नहीं है। हम उन्हें श्रध्दांजलि देते हैं। 1926 में भगत सिंह ने नौजवान भारत सभा का गठन किया। नौजवानों का यह संगठन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शोषण के कारनामे लोगों के सामने रखने के लिए बनाया गया था। मुजफ्फर अहमद, जो कि कम्युनिस्ट पार्टी के स्थापना सदस्य थे, अठारह साल के भगत सिंह के साथ अपनी मुलाकात को याद करते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1925 में कानपुर में हुआ था और कानपुर बोल्शेविक कान्‍स्पिरेसी केस के तहत अब्दुल मजीद और मुजफ्फर अहमद गिरफ्तार कर लिए गये थे। भगत सिंह कॉमरेड अब्दुल मजीद के घर उन दोनों का सम्मान करने गये। जाहिर है, अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत से ही भगत सिंह का रुझान कम्युनिस्ट आंदोलन की तरफ था।

1930 में जब भगत सिंह जेल में थे, और उन्हें फाँसी लगना लगभग तय था, उन्होंने एक पुस्तिका लिखी, मैं नास्तिक क्यों हूँ। यह पुस्तिका कई बार छापी गयी है और खूब पढ़ी गयी है। इसके 1970 के संस्करण की भूमिका में इतिहासकार विपिन चंद्र ने लिखा है कि 1925 और 1928 के बीच भगत सिंह ने बहुत गहन और विस्‍तृत अध्ययन किया। उन्होंने जो पढ़ा, उसमें रूसी क्रांति और सोवियत यूनियन के विकास संबंधी साहित्‍य प्रमुख था। उन दिनों इस तरह की किताबें जुटाना और पढ़ना केवल कठिन ही नहीं बल्कि एक क्रांतिकारी काम था। भगत सिंह ने अपने अन्य क्रांतिकारी नौजवान साथियों को भी पढ़ने की आदत लगायी और उन्हें सुलझे तरीके से विचार करना सिखाया।

1924 में जब भगत सिंह 16 साल के थे, तो वे हिन्दुस्‍तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) में शामिल हो गये। यह एसोसिएशन सशस्त्र आंदोलन के जरिये ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खत्‍म करना चाहता था। 1927 तक HRA के अधिकतर नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे और कुछ तो फाँसी के तख्‍ते तक पहुँच चुके थे। HRA का नेतृत्‍व अब चंद्रशेखर आजाद और कुछ अन्य नौजवान साथियों के कंधों पर आ पड़ा। इनमें से प्रमुख थे भगत सिंह। 1928 बीतते भगत सिंह और उनके साथियों ने यह तयk कर लिया कि उनका अंतिम लक्ष्‍य समाजवाद कायम करना है। उन्होंने संगठन का नाम HRA से बदलकर हिन्दुस्‍तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) रख लिया। यह सोशलिस्ट शब्द संगठन में जोड़ने से एक महत्त्वपूर्ण तब्‍दीली आयी और इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ था भगत सिंह का। सोशलिज्म शब्द की समझ भगत सिंह के जेहन में एकदम साफ थी। उनकी यह विचारधारा मार्क्सवाद की किताबों और सोवियत यूनियन के अनुभवों के आधार पर बनी थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ तब तक जो सशस्त्र संघर्ष हुए थे, उन्हें भगत सिंह ने मार्क्सवादी नजरिये से गहराई से समझने की कोशिश की।

दिल्ली असेम्बली में बम फेंकने के बाद 8 अप्रैल 1929 के दिन भगत सिंह बटुकेश्वर दत्त के साथ जेल पहुँचे। बम फेंककर भागने के बजाय उन्होंने गिरफ्तार होने का विकल्प चुना। जेल में उनकी गतिविधियों का पूरा लेखा-जोखा आज हमें उपलब्ध है। उन दिनों भगत सिंह का अध्ययन ज्यादा सिलसिलेवार और परिपक्व हुआ। लेकिन अध्ययन के साथ-साथ भगत सिंह ने जेल में राजनैतिक कैदियों के साथ होने वाले बुरे सलूक के खिलाफ एक लम्बी जंग भी छेड़। यह जंग सशस्त्र क्रांतिकारी जंग नहीं थी, बल्कि गांधीवादी किस्म की अहिंसक लड़ाई थी। कई महीनों तक भगत सिंह और उनके साथी भूख हड़ताल पर डटे रहे। उनके जेल में रहते दिल्ली एसेम्बली बम कांड और लाहौर षडयंत्र के मामलों की सुनवाई हुई। बटुकेश्वर दत्त को देशनिकाले की और भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरू को फाँसी की सजा हुई।

बेहिसाब क्रूरता के बावजूद ब्रिटिश सरकार उनके हौसलों कोस्‍त नहीं कर पायी। सुश्री राज्यम सिन्हा ने अपने ति विजय कुमार सिन्हा की याद में एक किता लिखी। किताब का नाम है एक क्रांतिकारी के बलिदान की खोज। इस पुस्‍तक में उन्होंने विजय कुमार सिन्हा और उनके दोस्‍त भगत सिंह के बारे में कुछ मार्मिक बातें लिखी हैं। इन क्रांतिकारी साथियों ने कोर्ट में हथकड़ी पहनने से इन्कार कर दिया था। कोर्ट मान भी गयी, लेकिन अपने दिये हुए वादे का आदर नहीं कर पायी। जब कैदी कोर्ट में घुसे तो झड़प शुरू हो गयी और फिर बेहिसाब क्रूरता और हिंसा हुई। - जब पुलिस को यह लगा कि उनकी इज्ज पर बट्टा लग रहा है तो पठान पुलिस के विशेषस्‍ते को बुलाया गया जिन्होंने निर्दयता के साथ कैदियों को पीटना शुरू किया। पठान पुलिस दस्‍ता अपनी क्रूरता के लिए खास तौर पर जाना जाता था। भगत सिंह के ऊपर आठ पठान दरिंदे झपटे और अपने कँटीले बूटों से उन्हें ठोकर मारने लगे। यही नहीं, उनपर लाठियाँ भी चलाई गयीं। एक यूरोपियन अफसर राबर्टस ने भगत सिंह की ओर इशारा करते हुए कहा कि यही वो आदमी है, इसे और मारो। पिटाई के बाद वे इन क्रांतिकारियों को घसीटते हुए ऐसे ले गये, जैसे भगत सिंह लकड़ी के ठूँठ हों। उन्हें एक लकड़ी की बेंच पर पटक दिया गया। ये सारा हँगामा कोर्ट कंपाउंड के भीतर बहुतेरे लोगों के सामने हुआ। मजिस्ट्रेट खुद भी यह नजारा देख रहे थे। लेकिन उन्होंने इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने बाद में बहाना यह बनाया कि वे कोर्ट के प्रमुख नहीं थे, इसलिए पुलिस को रोकना उनकी जिम्मेदारी नहीं थी।

शिव वर्मा, जो बाद में सीपीएम के सीनियर कॉमरेड बने और अजय कुमार घोष, जो सीपीआई के महासचिव हुए, इस वारदा में बेहोश हो गये। तब भगत सिंह उठे और अपनी बुलंद आवाज में कोर्ट से कहा, मैं कोर्ट को बधाई देना चाहता हूँ ! शिव वर्मा बेहोश पड़े हैं। यदि वे मर गये तो ध्यान रहे, जिम्मेदारी कोर्ट की ही होगी।

भगत सिंह उस समय केवल बाईस वर्ष् के थे लेकिन उनकी बुलंद शख्सियत ने ब्रिटिश सरकार को दहला दिया था। ब्रिटिश सरकार उन आतंवादी गुटों से निपटना तो जानती थी, जिनका आतंकवाद उलझी हुई धार्मिक व राष्ट्रवादी विचारधारा पर आधारि होता था लेकिन जब हिन्दुस्‍तान रिपब्लिक एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्‍तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन हो गया और भगत सिंह उसके मुख्य विचारक बन गये तो ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार दहश में आ गयी। भगत सिंह के परिपक्व विचार जेल और कोर्ट में उनकी निर्भीक बुलंद आवाज के सहारे सारे देश में गूँजने लगे। देश की जनता अब उनके साथ थी। राजनीतिक कैदियों के साथ जेलों में जिस तरह का अमानवीय बर्ताव किया जाता था, उसके खिलाफ भगत सिंह ने जंग छेड़ दी और बार-बार भूख हड़ताल की। उनका एक प्यारा साथी जतिन दास ऐसी ही एक भूख हड़ताल के दौरान लाहौर जेल में अपने प्राण गँवा बैठा। जब उसके शव को लाहौर से कलकत्ता ले जाया गया, तो लाखों का हुजूम कॉमरेड को आखिरी सलामी देने स्टेशन पर उमड़ आया।

कांग्रेस पार्टी का तिहास लिखने वाले बी. ट्टाभिरमैया के अनुसार इस दौरान भगत सिंह और उनके साथियों की लोकप्रियता तनी ही थी, जितनी महात्‍मा गांधी की !

जेल में अपनी जिन्दगी के आखिरी दिनों में भगत सिंह ने बेहिसाब पढ़ाई की। यह जानते हुए भी कि उनके राजनीतिक कर्मों की वजह से उन्हें फाँसी होने वाली है, वे लगाता पढ़ते रहे। यहाँ तक कि फाँसी के तख्‍ते पर जाने के कुछ समय पहले तक वे लेनिन की एक किता पढ़ रहे थे, जो उन्होंने अपने वकील से मँगायी थी। पंजाबी क्रांतिकारी कवि पाश ने भगत सिंह को श्रध्दांजलि देते हुए लिखा है, लेनिन की किताब के उस पन्ने को, जो भगत सिंह फाँसी के तख्‍ते पर जाने से पहले अधूरा छोड़ गये थे, आज के नौजवानों को पढ़कर पूरा करना है। गौरतलब है कि पाश अपने प्रिय नेता के बलिदान वाले दिन, 23 मार्च को ही खालिस्‍तानी आतंकवादियों द्वारा मार दिये गये।

भगत सिंह ने जेल में रहते हुए जो चिट्ठियॉं लिखते थे, उनमें हमेशा किताबों की एक सूची रहती थी। उनसे मिलने आने वाले लोग लाहौर के द्वारकादास पुस्‍तकालय से वे पुस्‍तकें लेकर आते थे। वे किताबें मुख्य रूप से मार्क्सवाद, अर्थशास्त्र, तिहास और रचनात्‍मक साहित्‍य की होती थीं। अपने दोस्‍त जयदेव गुप्‍ता को 24 जुलाई 1930 को जो ख़त भगत सिंह ने लिखा, उसमें कहा कि अपने छोटे भाई कुलबीर के साथ ये किताबें भेज दें : 1) मिलिटेरिज्‍म (कार्ल लाईबनि), 2) व्हाई मेन फाईट (बर्न्टेड रसेल), 3) सोवियत्‍स ऐट वर्क 4) कॉलेप्स ऑफ दि सेकेण्ड इंटरनेशनल 5) लेफ्ट विंग कम्यूनिज्म (लेनिन) 6) म्युचुअल एज (प्रिंस क्रॉप्टोकिन) 7) फील्ड, फैक्टरीज एण्ड वर्कशॉप्स, 8) सिविल वार इन फ्रांस (मार्क्स), 9) लैंड रिवोल्यूशन इन रशिया, 10) पंजाब पैजेण्ट्स इन प्रोस्पेरिटी एण्ड डेट (डार्लिंग) 11) हिस्टोरिकल मैटेरियलिज्म (बुखारिन) और 12) द स्पाई (ऊपटॉन सिंक्लेयर का उपन्यास)

भगत सिंह औपचारिक रूप से ज्या पढ़ाई या प्रशिक्ष हासिल नहीं कर पाए थे, फिर भी उन्हें चार भाषाओं का अच्छा ज्ञा था। उन्होंने पंजाबी, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में लिखा है। जेल से मिले उनके नोटबुक में 108 लेखकों के लेखन और 43 किताबों में से चुने हुए अंश मौजूद हैं। ये अंश मुख्य रूप से मार्क्स और एंगेल्स के लेखन से लिए गए हैं। उनके अलावा उन्होंने थॉमस पाएन, देकार्ट, मैकियावेली, स्पिनोजा, लार्ड बायरन, मार्क ट्वेन, एपिक्यूरस, फ्रांसिस बेकन, मदन मोहन मालवीय और बिपिन चंद्र पाल के लेखन के अंश भी लिए हैं। उस नोटबुक में भगत सिंह का मौलिक एवं विस्‍तृत लेखन भी मिलता है, जो दि साईंस ऑफ दि स्टेट शीर्षक से है। ऐसा लगता है कि भगत सिंह आदिम साम्यवाद से आधुनिक समाजवाद तक समाज के राजनीतिक तिहास पर कोई किताब या निबंध लिखने की सोच रहे थे।

जिस बहादुरी और दृढ़ता के साथ भगत सिंह ने मौ का सामना किया, आज के नौजवानों के सामने उसकी दूसरी मिसाल चे ग्वारा ही हो सकते हैं। चे ग्वारा ने क्रांतिकारी देश क्यूबा में मंत्री की सुरक्षित कुर्सी को छोड़कर बोलिविया के जंगलों में अमेरिकी साम्राज्यवाद से लड़ने का विकल्प चुना। चे ग्वारा राष्ट्रीय सीमाएँ लाँघकर लातिनी अमेरिका के लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाते थे। ये सच है कि चे ग्वारा का व्यक्ति अनुभव भगत सिंह की तुलना में हुत ज्यादा विस्‍तृत था, और उसी वजह से उनके विचार भी अधिक परिपक्व थे। लेकिन क्रांति के लिए समर्पण और क्रांति का उन्माद दोनों ही नौजवान साथियों में एक जैसा था। दोनों ने साम्राज्यवाद और पूँजीवादी शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ी। दोनों ने ही अपने उस मकसद के लिए जान दे दी, जो उन्हें अपनी जिन्दगी से भी ज्यादा प्यारा था।

20 मार्च 1931 को, अपने शहादत के ठीक तीन दिन पहले भगत सिंह ने पंजाब के गवर्नर को एक चिट्ठी लिखी, हम यह स्पष्ट घोषणा करें कि लड़ाई जारी है। और यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक हिन्दुस्‍तान के मेहनतकश इंसानों और यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा का कुछ चुने हुए लोगों द्वारा शोषण किया जाता रहेगा। ये शोषक केवल ब्रिटिश पूँजीपति भी हो सकते हैं, ब्रिटिश और हिन्दुस्‍तानी एक साथ भी हो सकते हैं, और केवल हिन्दुस्‍तानी भी। शोषण का यह घिनौना काम ब्रिटिश और हिन्दुस्‍तानी अफसरशाही मिलकर भी कर सकती है, और केवल हिन्दुस्‍तानी अफसरशाही भी कर सकती है। इनमें कोई फर्क नहीं है। यदि तुम्हारी सरकार हिन्दुस्‍तान के नेताओं को लालच देकर अपने में मिला लेती है, और थोड़े समय के लिए हमारे आंदोलन का उत्‍साह कम भी हो जाता है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि हिन्दुस्‍तानी आंदोलन और क्रांतिकारी पार्टी लड़ाई के गहरे अँधियारे में एक बार फिर अपने-आपको अकेला पाती है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लड़ाई फिर भी जारी रहेगी। लड़ाई फिर से नये उत्‍साह के साथ, पहले से ज्यादा मुखरता और दृढ़ता के साथ लड़ी जाएगी। लड़ाई तबतक लड़ी जाएगी, जबतक सोशलिस्ट रिपब्लिक की स्थापना नहीं हो जाती। लड़ाई तब तक लड़ी जाएगी, जब तक हम इस समाज व्यवस्था को बदल कर एक नयी समाज व्यवस्था नहीं बना लेते। ऐसी समाज व्यवस्था, जिसमें सारी जनता खुशहाल होगी, और हर तरह का शोषण खत्‍म हो जाएगा। एक ऐसी समाज व्यवस्था, जहाँ हम इंसानियत को एक सच्ची और हमेशा कायम रहने वाली शांति के दौर में ले जाएँगे......... पूँजीवादी और साम्राज्यवादी शोषण के दिन अब जल्द ही खत्‍म होंगे। यह लड़ाई न हमसे शुरू हुई है, न हमारे साथ खत्‍म हो जाएगी। इतिहास के इस दौर में, समाज व्यवस्था के इस विकृत परिप्रेक्ष्‍य में, इस लड़ाई को होने से कोई नहीं रोक सकता। हमारा यह छोटा सा बलिदान, बलिदानों की श्रृंखला में एक कड़ी होगा। यह श्रृंखला मि. दास के अतुलनीय बलिदान, कॉमरेड भगवतीचरण की मर्मांतक कुर्बानी और चंद्रशेखर आजाद के भव्य मृतयुवरण से सुशोभित है।

उसी 20 मार्च्र के दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने दिल्ली की एक आम सभा में कहा, आज भगत सिंह इंसान के दर्जे से ऊपर उठकर एक प्रती बन गया है। भगत सिंह क्रांति के उस जुनून का नाम है, जो पूरे देश की जनतापर छा गया है।

फ्री प्रेस जर्नल ने अपने 24 मार्च 1931 के संस्करमें लिखा, शहीद भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव आज जिन्दा नहीं हैं। लेकिन उनकी कुर्बानी में उन्हीं की जी है, यह हम सबको ता है। ब्रिटिश अफसरशाही केवल उनके नश्वर शरीर को ही त्‍म कर पायी, उनका जज्बा आज देश के हर इंसान के भीतर जिन्दा है। और इअर्थ में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव अमर हैं। अफसरशाही उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। इस देश में शहीद भगत सिंह और उनके साथी स्वतंत्रता के लिए दी गयी कुर्बानी के लिए हमेशा याद किए जाएँगे। सचमुच, 1931 के ब्रिटिश राज के उन आकाओं और कारिंदों की याद आज किसी को नहीं, लेकिन तेईस साल का वह नौजवान, जो फाँसी के तख्‍ते पर चढ़ा, आज भी लाखों दिलों की धड़कन है।

आज अगर हम भगत सिंह की जेल डायरी और कोर्ट में दिये गये वक्‍तव्य पढ़ें, और उसमें से केवल ब्रिटिश शब्द को हटाकर उसकी जगह अमेरिकन डाल दें, तो आज का परिदृश्य सामने आ जाएगा। भगत सिंह के जेहन में यह बा बिल्कुल साफ थी, कि शोषक ब्रिटिश हों या हिन्दुस्‍तानी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आज लालच के मारे हिन्दुस्‍तानी नेता और अफसर अमरीकी खेमे में जा घुसे हैं। लेकिन भगत सिंह के ये शब्द हमारे कानों में गूँज रहे हैं - लड़ाई जारी रहेगी। आज के बोलिविया में चे ग्वारा और अलान्दे फिर जीवित हो उठे हैं। लातिनी अमेरिका की इस नयी क्रांति से अमरीका सहम गया है। उसी तरह हिन्दुस्‍तान में भगत सिंह के फिर जी उठने का डर बुशों और ब्लेयरों को सताता रहे।

विपिन चंद्र ने सही लिखा है कि हम हिन्दुस्‍तानियों के लिए यह बड़ी त्रासदी है कि इतनी विलक्ष सोच वाले व्यक्ति के बहुमूल्य जीवन को साम्राज्यवादशासन ने इतनी जल्दीत्‍म कर डाला। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद ऐसे घिनौने काम करता ही है, चाहे हिन्दुस्‍तान हो या वियतना, इराक हो, फिलीस्‍तीन हो या लातिन अमरीका। लेकिन लोग इस तरह के जुर्मों का बदला अपनी तरह से लेते हैं। वे अपनी लड़ाई और ज्यादा उग्रता से लड़ते हैं। आज नहीं तो कल, लड़ाई और ते होगी, और तावर होगी। हमारा काम है क्रांतिकारियों की लगाई आग को अपने जेहन में ताजा बनाए रखना। ऐसा करके हम अपनी कल की लड़ाई को जीने की तैयारी कर रहे होते हैं।

--लेखक, श्री चमनलाल, प्राध्यापक, जे एन यू, दिल्ली

अनुवादक डा. जया मेहता