जो कमजोर हैं वो मारे जाएंगे (उदय प्रकाश का साक्षात्कार )


उदय जी मेरे प्रियतम रचनाकार हैं। उनका यह साक्षात्कार मैंने काफी पहले पढ़ा था। मुझे इतना पसंद आया कि बेहद धैर्य से इसे हिंदी में टाइप किया व ब्लाग पर पोस्ट किया। आज अचानक एक बार फिर इस पर नजर पड़ी। सुशीला पुरी जी के आग्रह व सुझाव पर इसे एक बार फिर जैसे का तैसा पोस्ट कर रहा हूं। हालांकि यह अपने आप में संपादित है।
हमारे समय के सबसे सशक्त कथाकारों में से एक उदय प्रकाश का यह साक्षात्कार दिनेश श्रीनेत ने लिया है। साक्षात्कार का प्रकाशन संदर्श (अंक-14 2009) में हुआ है। हाल ही में इस पर मेरी नजर पड़ी। उदय प्रकाश की पहली रचना जो मैंने पढ़ी थी वह थी इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी में छपी कहानी पाल गोमरा का स्कूटर। उसके बाद एक सिलसिला चल निकला जो अब तक जारी है। साक्षात्कार बड़ा है अत: उसको संपादित कर आपके लिए पेश कर रहा हूं इस कोशिश के साथ की उसकी आत्मा बरकरार रहे।

दिनेश श्रीनेत- जिस दौर में आप अपने कहानी संग्रह दरियाई घोड़ा की कहानियां लिख रहे थे- तब से लेकर हाल में प्रकाशित मैंगोसिल तक समय के फैलाव में आप क्या बदलाव देखते हैं? क्या आपको लगता है कि बतौर रचनाकार आपके लिए चुनौती उत्तरोत्तर कठिन हुई है? क्या बदलते परिवेश ने आपकी रचनात्मकता पर भी कोई दबाव डाला है?

उदय प्रकाश- कोई भी रचनाकार - कथाकार समय, इतिहास स्मृति के स्तर पर, खासकर टाइम एंड मेमोरी के स्तर पर लिखता है। दरियाई घोड़ा की कहानियां भी उसके प्रकाशन से बहुत पहले लिखी गई थीं। अगर आप इन कहानियों को देखें तो समय इनमें किसी इको की तरह है। लेकिन दरियाई घोड़ा बहुत निजी स्मृति की कहानी है। वह पिता की मृत्यु पर लिखी कहानी है। इंदौर के एक अस्पताल में मेरे पिता की मृत्यु हुई थी-कैंसर से-तो वह उस घटना के आघात से-उसकी स्मृति में लिखी कहानी है। चौरासी में छपा था संग्रह। तब से अब तक दो दशक का समय बड़े टाइम चेंज का समय रहा है। मेरा मानना है कि किसी भी रचनाकार को अपनी संवेदना लगातार बचा कर रखनी चाहिए। अपने आसपास के परिवर्तन के प्रति ग्रहणशीलता लगातार बनी रहनी चाहिए। जिस मोमेंट आप उसे खो देते हैं आपकी संवेदनशीलता खत्म हो जाती है। फिर आपके पास सिर्फ नास्टेल्जिया या स्मृतियां बचती हैं। उनके सहारे आप चिठ्ठी या पर्सनल डायरी तो लिख सकते हैं कोई रचना-कोई कहानी या कविता नहीं लिख सकते।

दिनेश श्रीनेत - लेकिन क्या ये सच नहीं है कि उस समय के रचनाकार के पास आस्था के कुछ केंद्र तो बचे ही थे। भले ही वे अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे थे। मगर क्या ये सच नहीं है कि आज का लेखक एक अराजक किस्म की अनास्था के बीच सृजन कर रहा है?

उदय प्रकाश- आपको याद होगा जिस वक्त मैंने तिरिछ लिखी थी - उसी दौरान इंदिरा की हत्या व राजीव का राज्यारोहण हुआ था। राजीव नया के बड़े समर्थक थे। जैसे हिंदी कहानी में नई कहानी, नया लेखन जैसे फैशन आते-जाते रहे। तो राजीव नई शिक्षा नीति, नई अर्थनीति का नया चेहरा के अगुआ थे। विशव बैंक -अंतरराष्टीय मुद्राकोष के प्रभुत्व व हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि बनने लगी थी। निजीकरण शुरू हो गया। लोगों के बीच डि-सेंसेटाइजेशन बढ़ने लगा। मैं दिनमान में काम करता था। जो पानवाल पहले बहुत हंसकर बोलता था अब वह कैजुअल हो गया। जो चपरासी पहले अपने पत्नी बच्चों का दुखड़ा रोता था उसकी जगह आया नया चपरासी काम की बातें करता था बस। लोगों ने निजी बातें बंद कर दीं। तब मैंने तिरिछ लिखी। शुरू में बड़ा विरोध हुआ। अफवाह फैलाई गई कि यह मारक्वेज की ए क्रानकिल डेथ फोरटोल्ड की नकल है। एक कथाकार - आलोचक सज्जन ने मुझे लगभग डराते हुए कहा कि हंस अपने अगले अंक में एक पन्ने पर ओरिजिनल कहानी व दूसरे पर तिरिछ छापने जा रहा है। यकीन कीजिए मैं चुप रहा मुझे हंसी भी आई। मुझे हिंदी समाज से कुछ मिला नहीं है उन्होंने मुझे गाली या अपमान के सिवा कुछ नहीं दिया है। मैं ईमानदारी से कहूं तो घृणा करता हूं इस समाज ठीक उतनी ही जितनी वे मुझसे करते हैं। तिरिछ एक मार्मिक कथा बन पड़ी इसलिए नहीं कि उसमें पिता की मौत हो गई। यह दरअसल सिविलाइजेशन टांजेशन था। मैं कहना चाह रहा था कि अब जो अरबनाइजेशन होगा जो एक पूरी दुनिया बनेगी उसमें एक मनुष्य जो बूढ़ा है कमजोर है जिसके सेंसेज काम नहीं कर रहे। उसकी नियति मृत्यु होगी। वह बचेगा नहीं अनजाने ही मार दिया जाएगा।

दिनेश श्रीनेत- और बाद के दौर में लगभग यही संवेदनहीनता हम सबके सामने आई और यह भयावह भी होता गया।

उदय प्रकाश- बिल्कुल। अगर आप मोहनदास को देखें तो आप पाएंगे कि वह जो ग्राफ है।उत्तरोत्तर बढ़ता गया है। तो दिनेश जी मैं यह कहना चाहूंगा कि मैंने अपने समय के मनुष्य से कभी अपनी आंखें नहीं हटाईं। मेरे पास कोई पावर नहीं, कोई सत्ता नहीं, कोई पत्रिका नहीं निकालता मैं, कहीं का अफसर नही हूं। तो मैंने देखा कि सामान्य जनता के प्रति ब्यूरोक्रेसी का जो व्यवहार होता है। वही साहित्य के अंदर ब्यूरोक्रेट्स मेरे प्रति करते हैं। यदि रविभूषण यह कहते हैं कि इसने पीली छतरी वाली लड़की मे बोर्खेज की नकल की है.. उस समय मैं बीमार था और पहली बार शायद संयम खोया । पहली बार मैंने अदालत में जाने की पहल की तो ये कहने लगे कि उदय मुकदमेबाज है। तो यातो आप नकल करना स्वीकार कर लीजिए या फिर मुकदमेबाज कहलाइए। यू लेफ्ट रिव्यू और क्रिटकिल इंक्वायरी में लिखने वाले अमिताभ कुमार जो संसार के सबसे विशवसनीय माक्र्सवादी आलोचकों में से हैं वो यदि पाल गोमरा का स्कूटर, तिरिछ और मोहनदास की तारीफ करते हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह हिंदीवालों का गैंग क्या करता है।

दिनेश श्रीनेत- आज की तारीख में या पहले भी आप रचनात्मक स्तर पर कब इतना दबाव महसूस करते हैं कि यह लगने लगे कि अब कुछ लिख ही देना चाहिए।

उदय प्रकाश- मैं तो शायद यह कहूं कि लेखक जो होता है वह 24 घंटे लेखक होता है।अगर कोई एसी व्यवस्था हो... जैसे लुई बुनुएल की बहुत अच्छी आत्मकथा है- माई लास्ट ब्रेथ। उसमें लुई ने कहा था कि 24 घंटे में आदमी को 20 घंटे सोना चाहिए व स्वप्न देखना चाहिए। बाकी चार घंटे उसे काम करना चाहिए। यह सच है कि सृजन एक स्वप्न है। येहूदा आमीखाई ने लेखक के बारे में लिखा है कि बहुत सक्रिय सर निष्क्रिय धड़ पर रखा है। जब भाषा अधिक हो जाए तो वह चैटर में बदल जाती है। हर कोई बोल रहा है। बड़बड़ा रहा है।

साहित्य में भी यह कल्ट आया है। चैटर में सारे, विशेषण, शब्द व अनुप्रास खप जाते हैं। लेकिन गंभीर डिस्कोर्स जिसमें साहित्य भी एक है। वहां भाषा खर्च नहीं हो रही है। हमारे यहां हो यह रहा है कि कोई समाजशास्त्र पर लिख रहा है तो उसे शरद जोशी सम्मान दिया जा रहा है तथा कोई पुलिस डिपार्टमेंट पर लिख कर शमशेर सम्मान पा रहा है। खेती पर लिखने वाले को मुक्तिबोध सम्मान दिया जा रहा है।

दिनेश श्रीनेत- अगर आप यह मानते हैं कि यह हमारे साहित्य का मौजूदा परिदृशय है तो फिर कहीं न कहीं हमें उसके कारणों की तरफ भी तो जाना होगा। आपके मुताबिक वे कौन से कारण हैं।

उदय प्रकाश- दरअसल एसा परिदृष्य रचा जा रहा है जिसमें साहित्यकारों के स्थान पर फेक्स को स्थापित किया जा रहा है। पहले अच्छे रचनाकार गंभीर संकटों में जीवन बिता रहे थे। अचानक साहित्यिक संस्थानों कल्चरल सेंटर के पास भरपूर पैसा आने लगा है तो उसे लपकने वालों की तादाद भी बढ़ रही है। आइडियोलाजी को दरकिनार कर वामपंथ, दक्षिणपंथ, जनवाद, प्रगतिवाद सब का मकसद है किसी तरह संस्था पर कब्जा जमाना व मनमाफिक खर्च करना। अच्छे खासे संस्थानों में हिंदी साहित्यकारों के गिरोह हैं। हालांकि गंभीर साहित्यकार उसमें शामिल नहीं हैं। यह झुंड आपस में पुरस्कार बांटता मौज मस्ती करता है।

बीते १० सालों में सवा लाख किसान आत्महत्या कर लेते हैं तो कम से कम एक लेखक को तो उत्सव नहीं मनाना चाहिए। यह एज एंड आफ एनोसेंस की है। जनता अब बेवकूफ नहीं हैं। मामूली व्यक्ति भी जानता है कि आप क्या कर रहे हैं। लेखक का काम है लिखना वह सचिन नहीं बन सकता। वह हाशिए पर रहने वाला, एकांत में कागज कलम या कम्प्यूटर पर काम करने वाला व्यक्ति है।
दिनेश श्रीनेत- उस दौर में जो बाकी लोग हिंदी लिख रहे थे तो वो कौन थे जिन्हें आप पसंद करते थे?
उदय प्रकाश- ईश्वर की आंख जिन्हें मैंने समर्पित की है वह हैं मोहन श्रीवास्तव। मां की मृत्यु के वक्त मेरी उम्र लगभग १२-१३ साल थी मोहन श्रीवास्तव हायर सेकंडरी में अध्यापक थे।वे लगभग संत की तरह रहते थे। उन्हें पता नहीं मेरे प्रति कैसे गहरी सहानुभूति हो गई। उन्हें यह भी पता चल गया कि इनके पिता जी अल्कोहलिक हो गए हैं तो यह लगभग अनाथ है। उन्होंने मुझे मातापिता दोनों का स्नेह दिया मैं तो लगभग उन्हीं के कारण पढ़ पाया। वे खुद भी बहुत अच्छे कवि थे। कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह, धूमिल, राजकमल चौधरी लिख रहे थे। एलेन गिन्सबर्ग उन दिनों आए थे। यह पूरा दौर था जब अज्ञेय की नई कविता का प्रभामंडल टूट रहा था, उसका अभिजात्य टूट रहा था।


दिनेश श्रीनेत- क्या उस दौर में नई कहानी के लेखक सामने आ चुके थे?
उदय प्रकाश- नई कहानी की रचनाएं मैं पढ़ रहा था। चीफ की दावत मैंने पढ़ी थी। भीष्म साहनी, अमरकांत, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह के रचना कर्म से मैं परिचित था। लेकिन मैं मूलत: कवि हूं तो मैं कविता से जी ज्यादा जुड़ा रहता था। उस समय सबको पढ़ा लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित दोस्तोयेवस्की ने किया।


दिनेश श्रीनेत- क्या वह समय राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी कहीं आपको उद्वेलित कर रहा था?
उदय प्रकाश- मोहन श्रीवास्तव लेफ्ट थे। बाद में प्रगतिशील लेखक संघ, मध्य प्रदेश के उपाध्यक्ष भी रहे। उन्हीं के कारण मैं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी शामिल हुआ। एआईएसएफ का मैं फाउंडर हूं अपने जिले का। वो दौर बहुत सोचने समझने का था। सन ७०-७१ की मेरी डायरी का पहला पन्ना खोलें। उन दिनों मैं कालेज में था। चे-ग्वेरा का एक मित्र एल पटागो नामक कवि था।उसकी मौत हुई तो उसकी समाधि पर उसी की एक कविता चे-ग्वेरा ने खड़े होकर लिखवाई। उस कविता से शुरू होती है डायरी। १७ की उम्र में मैं चे व समूचे लैटिन अमेरिकी मूवमेंट को जानता था। हमारे गांव से ११ किमी दूर जमड़ी गांव था। वहां विभूति कुमार आए थे। खुद को गांधीवादी कहते थे। बाद में स्वीडन चले गए। उनके साथ विदेशियों का एक पूरा ग्रुप आया। इंटरनेशनल ग्रुप आफ नानवायलेंस नामक संस्था बनाई।उनके साथ के मार्क पोलिस नामक अमेरिकी लड़के से मेरी दोस्ती हो गई।वह गिटार बहुत अच्छा बजाता था। मैं १७ साल का था वह २०-२१ का। उसके पास चे कि किताब हम होंगे कामयाब थी। वह किताब मैं पूरी पढ़ गया, मैं उसकी बहादुरी से बहुत प्रभावित हुआ। जब मैं सागर आया तो शिवकुमार मिश्र वहां प्रोफेसर थे। उन्हें बहुत अचरज हुआ कि यह लड़का गांव से आया है व चे के बारे में बातें करता है।

वाह रे अतुल्य भारत : 25 रुपए में रोटी, शिक्षा और स्वास्थ्य!

नई दिल्ली. अच्छा खाना,उचित स्वास्थ्य सेवा और ढंग की शिक्षा- इस महंगाई के समय में एक शख्स के लिए ये सब पाने के लिए 25 रुपए ही काफी हैं। आपको यह अविश्वसनीय लग सकता है, लेकिन योजना आयोग को ऐसा नहीं लगता।
मंगलवार को आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया है। इसके मुताबिक, गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) का दर्जा पाने के लिए एकमात्र शर्त यह है कि एक परिवार की न्यूनतम आय 125 रुपए रोजाना हो। आमतौर पर एक परिवार में औसतन पांच लोग माने जाते हैं। इस तरह प्रति व्यक्ति रोजाना आय मात्र 25 रुपए।

गौरतलब है कि अधिकतर सरकारी योजनाओं का लाभ केवल गरीबी रेखा से नीचे के लोग ही उठा सकते हैं। आयोग ने यह हलफनामा अदालत के कई बार कहने के बाद दायर किया है। आयोग के मुताबिक, प्रधानमंत्री कार्यालय भी इस हलफनामे पर विचार कर चुका है। हलफनामा सुरेश तेंडुलकर समिति की रिपोर्ट पर आधारित है। इसमें कहा गया है, ‘प्रस्तावित गरीबी रेखा भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च के वास्तविक आकलन पर जीवनयापन के न्यूनतम संभव स्तर पर आधारित है।’

यूपीए ने ‘आमआदमी’ के प्रति अपनी चिंता कई बार जाहिर की है और 2004 व 2009 में इसे अपना चुनावी एजेंडा भी बनाया था। लेकिन इस हलफनामे से साफ है कि देश में गरीबी रेखा केवल अत्यंत गरीबों और पिछड़ों के लिए ही रह जाएगी। इस समय जब सब्जी की कीमतें आसमान पर हैं, तेल कंपनियां आए दिन पेट्रो उत्पाद महंगे कर रही हैं और एलपीजी सिलेंडर से सब्सिडी खत्म करने की बात चल रही है, तब यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सरकार बीपीएल दर्जा पाने के लिए लोगों को भूखे मरते हुए ही देखना चाहती है।

सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त खाद्य आयुक्त एनसी सक्सेना ने इस हलफनामे पर कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए कहा कि यह असंवेदनशील है। उन्होंने कहा कि यह पैमाना तो उन परिवारों के लिए सही है जो भुखमरी के कगार पर हैं, न कि गरीबी के। उन्होंने कहा कि अगर आयोग का बस चले तो देश के अधिकतर गरीबों की कई सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से हाथ धोना पड़ेगा।

उन्होंने कहा,‘ देश में 80 फीसदी से ज्यादा लोग 80 रुपए रोजाना से कम पर जीते हैं। आयोग ने इस बात को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है। नतीजतन हमारे पास एक खराब तरीके से लिखा गया हलफनामा है।’

सक्सेना के सहकर्मी बृज पटनायक ने भी इस हलफनामे पर कड़ा प्रहार किया। उन्होंने कहा, ‘यह सरकार और आयोग का नैतिक दिवालियापन दिखाता है। वे गरीबों के बारे में नहीं सोचते, यह बेहद असंवेदनशील है।’ उन्होंने कहा,‘सांसदों के लिए कैंटीन में सब्सिडी वाला भोजन है लेकिन जब गरीबों की बात आती है तो सरकार न्यूनतम सुविधाएं भी कम से कम लोगों तक सीमित रखना चाहती है।’


सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी इस मुद्दे पर सरकार की आलोचना की है। उनके मुताबिक, उचित स्वास्थ्य सेवा तो भूल जाइए आजकल तो एक रुपए में एस्प्रिन की गोली तक नहीं मिलती।

हलफनामे की प्रमुख बातें

>हर महीने शहरी इलाके में 965 रुपए और ग्रामीण इलाके में 781 रुपए खर्च करनेवाला गरीब नहीं। शहरों में रोज 32 रुपए और गांव में रोज 26 रुपए से ज्यादा खर्च करने वाला केंद्र और राज्य सरकार की गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए कल्याण योजनाओं का लाभ नहीं उठा सकता।
>हर रोज अनाज पर 5.5 रुपए का खर्च व्यक्ति को सेहतमंद रखने के लिए काफी। इस तरह रोज दाल पर 1.02 रुपए, दूध पर 2.33 रुपए, सब्जियों पर 1.95 रुपए और खाद्य तेल पर 1.55 रुपए का खर्च करने वाला गरीबी रेखा के नीचे नहीं।

>दवाओं और स्वास्थ्य पर हर महीने 39.70 रुपए का खर्च काफी। शिक्षा पर 99 पैसा रोज यानी 29.60 रुपए प्रति माह (शहरों में) खर्च करने वाला गरीब नहीं।


साफ है कि सरकार इस आकलन से गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या अवास्तविक रूप से कम करना चाहती है, ताकि गरीबों पर सरकारी खर्च कम किया जा सके।


अरुणा राय,सदस्य्र,राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (दैनिक भास्कर से साभार )

आधी हकीकत आधा फसाना

गोपाल कृष्ण गांधी
अंग्रेजी का जुमला है ‘फिफ्टी-फिफ्टी,’ लेकिन हिंदी में भी इसका इस्तेमाल इफरात से किया जाता है। सबसे पहले फिफ्टी-फिफ्टी का इस्तेमाल किसने किया होगा? शेक्सपियर? चार्ल्स डिकेंस? मैंने यह जानने के लिए इंटरनेट की शरण ली। लेकिन वह मुझे इस बाबत ज्यादा कुछ नहीं बता पाया, सिवाय इसके कि 80 के दशक में पाकिस्तान में ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ नामक एक लोकप्रिय धारावाहिक प्रसारित किया जाता था, या इस शीर्षक से एक उपन्यास भी छप चुका है, या यह बाइक के एक ब्रांड का नाम है, या थोड़े मीठे-थोड़े नमकीन बिस्किट के एक ब्रांड को ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ कहा जाता है।
इंटरनेट ने मुझे यह भी बताया कि बॉलीवुड में ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ शीर्षक से दो फिल्में बन चुकी हैं, जबकि हॉलीवुड में तो इस शीर्षक से कई फिल्में बनी हैं।बॉलीवुड में ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ शीर्षक से बनी पहली फिल्म में नलिनी जयवंत, डेविड, टुनटुन, गोप और हेलन जैसे कलाकार थे। इसमें मोहम्मद रफी ने एक गीत गाया था : ‘आधी तुम खा लो/आधी हम खा लें/मिल-जुलकर जमाने में/गुजारा कर लें’। दूसरी ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ में नायक राजेश खन्ना और नायिका टीना मुनीम थीं। इसमें फिफ्टी-फिफ्टी के बारे में भी एक गाना था : ‘प्यार का वादा/फिफ्टी-फिफ्टी’। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भारतीय लोकतंत्र पर जो किताब लिखी है, उसमें उन्होंने जॉनी वॉकर के एक डायलॉग का जिक्र किया है। नसरीन मुन्नी कबीर ने मुझे बताया कि यह फिल्म थी ‘मेरे मेहबूब’। फिल्म में राजेंद्र कुमार जॉनी वॉकर से पूछते हैं : ‘तुम आशिक हो या आदमी?’ और जॉनी वॉकर जवाब देते हैं : ‘फिफ्टी-फिफ्टी’।
‘द ग्रेट इंडियन मार्केट’ चौबीस घंटे रोशन रहता है। इस बाजार को एक नाम भी दिया गया है : ‘बूम’। हम एक उच्च मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार की कल्पना कर सकते हैं, जो एक बहुमंजिला अपार्टमेंट में रहता है। दादाजी अपने सेलफोन पर किसी स्टॉक ब्रोकर से बतिया रहे हैं। दादीमां किसी विशेषज्ञ की तरह रिमोट थामे बैठी हैं और टीवी सीरियलों के दरमियान दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में खोई हुई हैं। पापा लैपटॉप पर डेडलाइनों से संघर्ष कर रहे हैं। मम्मी माइक्रोवेव में मार्गेरिता पित्जा गर्म कर रही हैं। बेटा आईफोन पर दोस्त से मोटरबाइकों के बारे में बहस कर रहा है। बेटी आईपॉड में खोई हुई है। दो छोटे बच्चे वीडियो गेम पर ‘ढिशुम-ढिशुम’ कर रहे हैं। और एक नौकरानी धर्य की प्रतिमूर्ति की तरह एक चाइना मेड रैकेट से मक्खियों और मच्छरों को ठिकाने लगा रही है। यह सब किसी एशियन टाइगर द्वारा निर्मित बेहतरीन एयर कंडीशनर की सुख-सुविधा में घटित हो रहा है।
इनमें से नौकरानी को छोड़कर सभी अच्छा खाने-पहनने वाले, उड़नखटोलों में घूमने वाले, फिटनेस क्लब में जाने वाले लोग हैं। यहां अपार्टमेंट का नाम भी याद रखा जाना चाहिए : ‘आशीर्वाद’। इस घर में ‘बूम’ अपने चरम पर है। क्या इस परिवार के साथ कुछ भी फिफ्टी-फिफ्टी हो सकता है? क्या उसने पूरे एक सैकड़े को अर्जित नहीं कर लिया है? अर्धशतक नहीं, शतक। बेशक। आखिर यही तो सौ फीसदी कामयाबी की कहानी है।लेकिन अगर रूपकों की भाषा में बात करें तो खुशहाली की यह सौ फीसदी तस्वीर समूचे भारत की महज पचास फीसदी हकीकत है। यह तस्वीर ‘आधी तुम खा लो’ की भावना से कतई भरी हुई नहीं है। उस खुशहाल घर की नौकरानी के बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि वह बाकी पचास फीसदी हकीकत से जुड़ी होगी।
कल्पना करें कि वह अपार्टमेंट के स्वीपर की पत्नी है। दोनों मूलत: झारखंड के हैं। उनका एक छोटा-सा घर है। रोज जब वे अपना काम खत्म कर चुके होते होंगे तो अपनी शामें किस तरह बिताते होंगे? इतना तो हम मान सकते हैं कि उनके पास भी सेलफोन होंगे। शायद एक छोटा-सा टीवी भी हो। लेकिन इसके अलावा और कुछ नहीं। उन्हें सार्वजनिक नल से पानी लाने के लिए कतार में लगना पड़ता होगा। वे पब्लिक टॉयलेट का इस्तेमाल करते होंगे। उनके बच्चे पड़ोस के किसी स्कूल में पढ़ते होंगे। दोनों की ही सेहत यकीनन बहुत अच्छी नहीं होगी। जब यह परिवार रात को एकत्र होता होगा तो पूरी संभावना है कि वे साथ बैठकर खाना खाते होंगे, सुबह के लिए बाल्टियों में थोड़ा-सा पानी सहेजकर रखते होंगे और टीवी देखकर सो जाते होंगे।
क्या उनके बच्चे कभी किसी अच्छे कॉलेज या आईआईटी तक पहुंच सकते हैं? नामुमकिन तो नहीं, लेकिन यह तभी संभव है, जब उनके मौजूदा स्कूल उन्हें उम्दा तालीम दें ताकि वे एंट्रेंस टेस्ट में ‘ढिशुम-ढिशुम’ बच्चों को पछाड़ सकें।आशीर्वाद अपार्टमेंट में रहने वाला परिवार भारत की दो ‘फिफ्टीज’ में से एक का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरा परिवार, जिसे हमें ‘प्रतिवाद’ का नाम देना चाहिए, दूसरे ‘फिफ्टी’ का प्रतिनिधित्व करता है। पहला परिवार ग्रेट बूम और आर्थिक तरक्की से जुड़ा हुआ है तो दूसरा परिवार धोबियों, दर्जियों, लोहारों, खोमचेवालों या दूसरे शब्दों में देश की ‘सेल्फ एंप्लाइड’ जीवनरेखा से। दिल्ली के निजामुद्दीन जैसे क्षेत्रों में हम इस जीवनरेखा को देख-सुन सकते हैं। केवल माल-असबाब बेचने वालों के रूप में ही नहीं, बल्कि दुर्लभ सेवाओं के प्रदाताओं के रूप में भी। ये लोग अपने हुनर और कौशल के साथ हमारे दरवाजों पर दस्तक देते हैं। महज कुछ ही समय की बात है और ये दृश्य से बेदखल हो जाएंगे। उनकी जगह ले लेंगे शोरूम और बुटीक, बार और बरिस्ता, जो इन दक्ष स्ट्रीट कॉलर्स को एक शानदार अतीत के पोस्टरों में तब्दील कर देंगे।क्या हमें अब भी कहीं भिश्ती नजर आते हैं? नहीं, क्योंकि हमें अब चमड़े की मश्कों से पानी लेने की जरूरत नहीं।
लेकिन यहां सवाल यह है कि आखिर वे भिश्ती कहां चले गए? इससे भी जरूरी सवाल यह है कि हमारे जेहन में कभी यह सवाल क्यों नहीं उठता कि वे कहां चले गए? धुनकी अब भी कभी-कभार दिख जाते हैं, लेकिन इंटरनेट मुझे बताता है कि आज भारत में रजाइयों के 578 सूचीबद्ध आयातक हैं। इनके सामने धुनकियों की क्या बिसात? फेरीवालों में अब केवल रद्दी-पेपरवाले ही बचे हुए हैं। इन लोगों की लगातार घट रही तादाद एक ऐसी जीवनशैली की ओर इशारा करती है, जो चमकदार दुकानों और मॉलों से इतना सामान उठा ले आती है कि उसे न तो उनका घर संभाल सकता है और न ही उनकी कचरे की टोकरियां।
Source: भास्कर न्यूज

कविता को बनते देखा है

प्रिय कवि चन्द्रकान्त देवताले को मराठी का प्रतिष्ठित ‘कुसुमाग्रज
राष्ट्रीय सम्मान’ 26 मार्च 2011 को नासिक में विष्णु खरे द्वारा दिया
गया। इस अवसर पर इंदौर के साथी विनीत तिवारी द्वारा लिखा गया बेहद अन्तरंग
आलेख। विनीत के बारे में कथाकार मित्र शशिभूषण लिखते हैं की वह करते ज्यादा हैं और लिखते कम, तो इन मायनों में यह आलेख खास है विनीत से उनके mobile 9893192740 ई मेल - comvineet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. पूरा पता आलेख के नीचे - ब्लॉगर

रात जब सुबह में बदल रही होती है और धीरे-धीरे आपके आसपास की चीजें अपना
काला लिबास छोड़ अपना स्पष्ट आकार और रंग ग्रहण करती हैं, तो वो अनुभव हो
चुकी सुबह को देखने के अनुभव के बराबर नहीं, बल्कि अलग होता है। किसी हो
चुके को देखना एक अनुभव होता है लेकिन हो चुकने के पहले होने की प्रक्रिया
को देखना एक अलग और गाढ़ा अनुभव होता है। शायद इसीलिए नागार्जुन ने घिरे
हुए बादल को देखने के बजाय बादल को घिरते देखा।

मेरे लिए देवतालेजी की अनेक कविताएँ उनके बनने की प्रक्रियाओं के दौरान मेरी दोस्त बनीं और
इसीलिए वे मेरे लिए उनकी कविता के सामान्य पाठक या आलोचकों के आस्वाद से
अधिक या कम भले नहीं, लेकिन थोड़ा अलग मायना ज़रूर रखती हैं। उनसे दोस्ती
किसी यत्न से नहीं हुई। दरअसल देवतालेजी की ही एक कविता है जिसमें वे कहते
हैं कि एक कवि को एक जासूस की तरह चौकन्ना होना चाहिए। उनकी उस कविता से
प्रेरित होकर मैंने उनकी ही कविताओं की जासूसी शुरू कर दी कि वो कहाँ से
पैदा होती हैं, कहाँ से भाषा जुटाती हैं और किस तरह के हथियार या फटकार या
पुचकार लेकर पाठकों-श्रोताओं से पेश आती हैं

कविता को बनते देखना किसी चित्रकार को चित्र बनाते देखने से या किसी नाटक के कलाकार को रिहर्सल करते देखने जैसा है भी और नहीं भी। फर्क ये है कि कविता को बनते देखने के लिए
आपको दृश्य और दृष्टा, यानी कवि के अदृश्य संबंध को महसूस करना होता है।
एक कवि किसी पड़ोसी के घर नीबू माँगने जाए और नीबू मिले; घर पर
कुछ औरतें चंदा माँगने आएँ और उनसे कवि का सामान्य संवाद हो; दो शहरों के
बीच अपनी आवाजाही की मुश्किल को एक कवि अपनी सुविधा की ढाल बना रहा हो;
पत्नी नियंत्रित पति की हरकतों को एक कवि चुपचाप कनखियों से देख रहा हो;
और फिर कुछ दिनों बाद इन्हीं घटनाओं के इर्द-गिर्द कई बार तो नामजद
शिकायतों और उलाहनों के साथ देवतालेजी की कविता प्रकट हो जाती थी। मैंने
इन सामान्य हरकतों पर नजर रखतीं एक कवि की जासूसी नजरों की जासूसी की और
उनकी कविताओं को इस तरह बनते हुए देखा।

दरअसल कुछ महीनों तक हम दोनों लगभग हर शाम इंदौर में उनके घर पर साथ ही
बिताया करते थे। कुमार अंबुज के इंदौर रहने के दौरान शुरू हुई रोज की
दोस्ताना बैठकें उनके जाने के बाद देवतालेजी और अजीत चैधरी के इंदौर
रहते-रहते तक चलती रहीं। इन बैठकों में अजीत चैधरी, आशुतोष दुबे, विवेक
गुप्ता, रवीन्द्र व्यास, जितेन्द्र चैहान, प्रदीप मिश्र, उत्पल बैनर्जी
आदि बाकी चेहरे बदलते रहते थे पर हम दो चेहरे वही रहते थे। बातचीत भी
कविता तक सीमित नहीं रहती थी। अक्सर सांगठनिक चिंताओं से लेकर साहित्य,
समाज और साहित्य की तथाकथित सात्विक और मूर्धन्य विभूतियों की खबर ली जाती
रहती थी। उसी बीच कभी कमा भाभी का फोन जाता था और देवतालेजी उन्हें ये
बताकर किविनीत यहाँ है,’ एक तरह से उन्हें अपनी ओर से निश्चिंत कर दिया
करते थे। उन्होंने शायद ही कभी वैसा कोई अकादमिक व्याख्यान दिया हो जो
अपने निर्जीव चरित्र की वजह से कुख्यात होते हैं। साहित्य, पर्यावरण या
विकास या राजनीति पर उनका संबोधन हो या कविता-पाठ हो, वो हमेशा आत्मीय और
रोचक तरह से हड़बड़ाया सा, लेकिन भरपूर चैकन्नेपन के साथ सीधे दिलों में उतर
जाने वाला होता रहा है।

देवतालेजी ने कभी अपनी तरफ से किसी को कुछ सिखाने की कोशिश की हो, ऐसा भी
मुझे याद नहीं। वो सामने वाले की समझदारी पर इतना यकीन करते हैं कि जिसे
जो सीखना होगा, वो मेरे बगैर सिखाये भी मुझसे सीख जाएगा। उसे ही वो जासूसी
कहते हैं। खुद उन्होंने भी ऐसे ही सीखा है। बगैर उनके किसी लंबे-चौड़े
व्याख्यान और विश्लेषण के उनसे मैंने जो सीखा, उसमें ये बात अहम है कि
कविताओं और जीवन के कद को नापने की क्या युक्तियाँ हो सकती हैं, चाहे वो
जीवन और कविताएँ खुद की हों या दूसरों की। मैं जब उनसे मिला तब अपनी
कविताओं को फेयर करके कहीं भेजने में उन्हें जाने क्या बाधा खड़ी रहती थी।
उसे आलस्य तो नहीं कहा जा सकता। तमाम ज्ञापन, परिपत्र वे बगैर देर किये
अपनी खूबसूरत और बल खाती हैंडराइटिंग में फटाक से लिख देते थे लेकिन
कविताएँ.... चार-पाँच मर्तबा तो ऐसा हुआ कि फोन करके मुझे बुलाया कि मेरी
कविताएँ फेयर कर दे भैया। मैं इसे अपनी जासूसी सीखने में उनका सकारात्मक
योगदान मानता हूँ। कविताएँ फेयर करवाते समय या कोई नयी कविता सुनाते समय
वो कभी-कभार राय भी पूछ लिया करते थे। अपनी समझ में जो आया, वो अपन ने कह
दिया। उनका मूड हुआ तो माना या मानने का तर्क बता दिया, वर्ना एकाध
तुर्श इशारे से समझा दिया कि ‘‘तुमसे पूछ लिया तो ये मत समझो कि ज्यादा
होशियार हो।’’

जो लोग उन्हें जानते हैं, वे ये भी जानते हैं कि उनसे कितनी आजादी ली जा
सकती है, ये वो ही तय करते हैं। इसी वजह से एकाध बार आपस में दोस्ताना
रस्साकशी भी हो गयी। कुछ महीने बीच में बातचीत बंद हो गयी। फिर अंत में
भाभी ने एक दिन बुलाकर दोनों की रस्सी के बल ढीले कर दिए। ऐसे ही उनकी एक
कविता ने एक और सीख दी। ‘‘मैं नहीं चाहता कि सब मुझे नमस्कार करें और मेरा
कोई दुश्मन हो।’’सबके लिए भले लगने जैसे काम उन्होंने नहीं किये। बेशक
उनकी कविताओं में आयी औरत को पाठकों-आलोचकों ने अधिक लक्ष्य किया हो लेकिन
मुझे उनकी सीधी राजनीतिक कार्रवाई के आवेग और आवेश में लिखी गईं कविताओं
ने ज्यादा आकर्षित किया। पोखरण विस्फोट के मौके पर तमाम संकोची बुद्धिजीवी
साहित्यकारों के बीच वे अगली कतार में थे जब उन्होंने बयान दिया कि, ‘‘मैं
जानता हूँ कि जो मैं कह रहा हूँ, उससे मुझे राष्ट्रविरोधी और देशद्राही
माना जा सकता है, लेकिल मैं ये खतरा उठाकर भी कहना चाहताहूँ कि पोखरण के
परमाणु परीक्षण जनविरोधी और दो देशों की जनता को युद्ध के उन्माद में
धकेलकर विवेकहीन बनाने की शासकों की साजिश है, और मैं इनकी निंदा करता
हूँ।’’ उनकी कविता ‘‘दुर्लभ मौका आपने गँवा दिया महामहिम’’ उसी वक्त उनकी
लिखी गयी और मेरी प्रिय कविताओं में से एक है।

उनकी लम्बी कविता ‘‘भूखण्ड तप रहा है’’ का करीब सवा घंटे का अनवरत सामूहिक पाठ हम लोगों ने पोखरणविस्फोट के बाद वाले हिरोशिमा दिवस पर किया और एक भी श्रोता अपनी जगह
छोड़कर नहीं गया। कभी नर्मदा आंदोलन के आंदोलनकारी इंदौर में धरने पर बैठे
तो, या कभी सरकार ने उन्हें दमन करके जेलों में ठूँसा तो, कभी इंदौर में
तंग बस्तियों को अतिक्रमण के नाम पर उजाड़ा गया तो, साम्प्रदायिकता के
खिलाफ प्रदर्शन हुआ तो, और ऐसे अनेक मौकों पर जब तक देवतालेजी इंदौर रहे,
वे हमेशा हमारे साथ रहे। वे कहते भी थे कि बचपन में वे कम्युनिस्ट नेता
होमी दाजी के चुनाव प्रचार में परचे बाँटा करते थे। प्रगतिशील लेखक संघ
में इंदौर में हम सभी साथियों ने काफी काम किया और 2004 में मध्य प्रदेष
का यादगार नवाँ राज्य सम्मेलन भी मुमकिन किया जिसमें ए। के। हंगल,
प्रोफेसर रणधीर सिंह,। डॉ नामवरसिंह, ज्ञानरंजन, कमलाप्रसाद समेत तमाम
हिन्दी के साहित्यकार इकट्ठे हुए। उसके लिए देवतालेजी पूरी जिम्मेदारी के
साथ बराबरी से चंदा इकट्ठा करने से लेकर व्यवस्थापन के काम में भी जुटे
रहे। यहाँ शायद ये बताना प्रासंगिक होगा कि मेरी और उनकी उम्र में करीब 35
बरस का फासला है। इस फासले का अहसास उन्होंने काम करते वक्त कभी कराया
और ही मस्ती करते वक्त। बल्कि मस्ती में तो वो मुझसे कमउम्र ही हैं।

उनके बारे में ये नोट मैं सफर के दौरान लिख रहा हूँ और उनकी एक भी कविता
की किताब या कविताएँ सिवाय याददाश्त के इस वक्त मेरे पास मौजूद नहीं हैं।
फिर भी, मेरे भीतर उनकी कविताओं में मौजूद समुद्र, सेब, चंद्रमा, चाँद
जैसी रोटी बेलती माँ, नीबू, बालम ककड़ी बेचतीं लड़कियाँ, नंगे बस्तर को कपड़े
पहनाता हाई पॉवर, शर्मिंदा होने को तैयार महामहिम, पत्थर की बेंच, धरती
पर सदियों से कपड़े पछीटती हुई और नहाते हुए रोती हुई औरत, दो बेटियों का
पिता, दरद लेती हुई बाई, आशा कोटिया, कमा भाभी, अनु, कनु और चीनू, सबकी
याद उमड़ रही है। उनके भीतर मौजूद भूखण्ड की तपन और उसका आयतन, सब उमड़ रहा
है। यही मेरे लिए उनकी कविताओं से सच्ची दोस्ती और अच्छी जासूसी का हासिल
है।
विनीत तिवारी
2, चिनार अपार्टमेंट,
172, श्रीनगर एक्सटेंशन,
इन्दौर-452018

अभी आंखों में ताव है बाकी

मेरे परिवार के तमाम लोग अलग अलग तरह की नौकरियां करते हैं उनमें सबसे बुरी नौकरी मुझे बिजली विभाग की लगती है। मेरे अग्रज अनिल कुमार पांडेय उसी विभाग में इंजीनियर हैं। जानने वाले जानते होंगे कि मध्य प्रदेश के राजपूत बहुल सीधी जिले के ग्रामीण हलकों में बिजली विभाग का इंजीनियर होने की अपनी अलग तरह की परेशानियां हैं। लेकिन भाई साहब हैं कि मस्ती से निभाए जा रहे हैं। न सिर्फ निभाए जा रहे हैं बल्कि खूबसूरत गजलें भी कह रहे हैं। इस बार होली में घर गया तो उनकी कुछ गजलें नोट कर लाया हूं। उन्हें आप सबसे साझा करूंगा- बारी बारी...ब्लॉगर

अभी आंखों में ताव है बाकी

जिन्दगी
से लगाव है बाकी
//

तुम न जाना मेरे रुक जाने पर
फिर चलूंगा कि पांव हैं बाकी //

कोइ आंखों में ख्वाब है बाकी
उम्र का हर पड़ाव है बाकी
//

खेल बाकी है अभी चलने दो
अभी तो मेरा दाव है बाकी।

हिंदुस्तान में मौजूद हैं कितने ही गज़ा !

वरिष्ठ पत्रकार सुनील कुमार का यह आलेख बीबीसी हिंदी डॉट कॉम से साभार - ब्लॉगर

दिल्ली से गज़ा तक के सफर में जिस गज़ा की हम कल्पना करते पहुंचे थे, वह कुछ मायनों में उससे बेहतर था और कुछ में बदतर.
एक तो हमलों के निशाने पर बिरादरी, दूसरी तरफ आसपास के कुछ मुस्लिम पड़ोसी देशों की भी हमदर्दी उसके साथ नहीं है. संयुक्त राष्ट्र जितनी राहत करना चाहता है, वह भी इसराइल की समुद्री घेरेबंदी की वजह से मुमकिन नहीं है. लेकिन उम्मीद से बेहतर इस मायने में था कि कई नए मकान और नई इमारतें बनती दिख रहीं थीं और बच्चे स्कूल-कॉलेज जाते हुए भी.

गज़ा में हम एक ऐसे मुहल्ले में गए जहां एक ही कुनबे के 28-29 लोग हवाई हमले में मारे गए थे. पूरा इलाक़ा अब मैदान सा हो गया है और वहीं एक परिवार कच्ची दीवारें खड़ी करके प्लास्टिक की तालपत्री के सहारे जी रहा है. इस बहुत ही ग़रीबी में जी रहे परिवार ने तुरंत ही कॉफ़ी बनाकर हम सबको पिलाई.

परिवार की एक महिला को कसीदाकारी करते देखकर मैंने पूछा कि इसका क्या होता है? पता लगा कि बाजार में उसे बेच देते हैं. मेरी दिलचस्पी और पूछने पर उसने कुछ दूसरे कपड़े दिखाए जिन पर कसीदा पूरा हो गया था. लेकिन कई कपड़े फटे-पुराने दिख रहे थे जो कि इसराइली हवाई हमले में जख्मी हो गए थे.

मैंने ज़ोर डालकर दाम देकर ऐसा एक नमूना लिया. परिवार की महिलाओं की आंखों में आंसू थे और आगे की ज़िंदगी का अंधेरा भी.

यह शहर मलबे के बीच उठते मकानों और इमारतों का है, जिनके ऊपर जाने किस वक़्त बमबारी हो जाए. कहने को फ़लीस्तीनी लोग भी घर पर बनाए रॉकेटों से सरहद पर हमले करते हैं, लेकिन आंकड़े देखें तो फ़लीस्तीनी अगर दर्जन भर को मारते हैं तो इसराइली हजार से अधिक. एक ग़ैरबराबरी की लड़ाई वहां जारी है.

कहाँ है हिंदुस्तान?
फ़लीस्तीनी इलाक़े में अब सिवाय इतिहास के, कोई हिन्दुस्तान की दोस्ती का नाम नहीं जानता था. उनकी आख़िरी यादें इंदिरा गांधी की हैं जिस वक्त यासर अराफ़ात के साथ उनका भाई-बहन सा रिश्ता था. अब तो इस दबे-कुचले ज़ख़्मी देश से भारत का कोई रिश्ता हो, ऐसा गज़ा में सुनाई नहीं पड़ता.


उनकी ज़िंदगी में अब सिर्फ़ यही रंग बचे हुए हैं
गज़ा के इस्लामिक विश्वविद्यालय में एक विचार-विमर्श के बाद, बमबारी के मलबे के बगल खड़े हुए दो युवतियों से भारत के बारे में मैंने पूछा, एक का कहना था इंदिरा गांधी को अराफ़ात महान बहन कहते थे.

दूसरी युवती का कहना था कि वह पढऩे के लिए भारत आना चाहती हैं लेकिन कोई रास्ता नहीं है.

ऐसा भी नहीं कि फ़लीस्तीनी इलाक़े में इंटरनेट नहीं है. तबाही के बीच भी धीमी रफ्तार का इंटरनेट है और नई पीढ़ी ठीक-ठाक अंग्रेज़ी में तक़रीबन रोज़ ही मुझसे लिखकर बात कर लेती है.

लेकिन नई पीढ़ी ने सिर्फ़ ऐसे कारवां को भारत से आते और जाते देखा है. इस कारवां से परे भारत की हमदर्दी का उसे कोई एहसास नहीं है और मुझसे पूछे जाने पर जब जगह-जगह मैंने कहा कि लगभग पूरा हिन्दुस्तान फ़लीस्तीनी लोगों के मुद्दों से नावाकिफ़ है तो इससे वे लोग कुछ उदास जरूर थे.

लेकिन इसके साथ ही हिन्दुस्तान के बारे में कहने के लिए मेरे पास एक दूसरा यह सच भी था कि लगभग पूरा हिन्दुस्तान ख़ुद हिन्दुस्तान के असल मुद्दों से नावाकिफ़ है और सिर्फ़ अपनी ज़िंदगी के सुख या अपनी जिंदगी के दुख ही अमूमन उसके लिए मायने रखते हैं.

ऐसे में मैं न सिर्फ़ फ़लीस्तीनी नौजवान पीढ़ी बल्कि रास्ते के देशों में राजनीतिक चेतना के साथ उत्तेजित खड़े मिले नौजवानों से भी यह कहता गया कि ऐसी जागरूकता की ज़रूरत हिन्दुस्तान को भी बहुत अधिक है.

गड़बड़ा गया अनुपात
एक अनाथाश्रम बच्चों से भरा हुआ था जहां फेंके गए ज़िंदा बच्चे लाकर बड़े किए जा रहे थे.


फ़लस्तीनी इलाक़े में बड़ी संख्या में बच्चे अनाथालय में रहते हैं
फ़लीस्तीनी समाज में औरत-मर्द का संतुलन गड़बड़ा गया है, मर्द शहीद और औरतें अकेली.

मुस्लिम रीति-रिवाज़ ही क्यों, आज के भारत में ही कौन अकेली मां को उसके बच्चे पैदा करने पर बर्दाश्त कर सकता है? नतीजन ऐसे बहुत से बच्चे यतीमखाने में थे.

समाज में आबादी और पीढ़ी का अनुपात उसी तरह गड़बड़ा गया है जैसे विश्वयुद्धों के बाद कई देशों में गड़बड़ा गया था.

मानवीय सहायता पहुंचाने का मक़सद तो वहां पहुंचकर पूरा हो गया, पूरे रास्ते के देशों को देखना तो हो पाया था लेकिन एक अख़बारनवीस की हैसियत से फ़लीस्तीनी इलाक़ों को देखना बहुत कम हो पाया.

हमारे साथ वहां घूमते कुछ गैरसरकारी नौजवानों के बारे में भी हमारे एक साथी को शक था कि वे सत्तारूढ़ पार्टी हमास के लिए हमारी निगरानी करते हो सकते हैं. इतने कम वक्त में क्या पता चलता है?

हमें वहाँ चार दिन रहना था. और एक बात तय थी कि हमास और सरकार के लोग अपने कार्यक्रमों में हमारा वक़्त बरबाद करके हमें आम लोगों से दूर रखना चाहते थे. हो सकता है कि ख़तरों के बीच चौकन्नापन उनकी आदत बन गई हो.

नई फ़लीस्तीनी पीढ़ी के पास न वहां से बाहर निकलने की राहें हैं, न दुनिया के बहुत अधिक देशों में उनके स्वागत के लिए बाहें फैली हुई हैं.

बगल के देश सीरिया में जो फ़लीस्तीनी शरणार्थी आधी सदी से बसे हैं, वे जरूर दसियों लाख हैं और सीरिया की सरकार उनका ख़्याल रखती है, सरकारी नौकरी देती है.

लेकिन इसराइली घेरेबंदी की वजह से उनको अपनी ही ज़मीन पर आज तक लौटना नसीब नहीं हो पाया. इस तरह फ़लीस्तीनी इलाक़ों के भीतर रह गए लोग भीतर हैं और बाहर चले गए लोग बाहर.

मौतें और ज़ख़्म
जिस इसराइल ने हमारे पूरे कुनबे को मार डाला है, उसके पड़ोस में रहना या उसे पड़ोस में रहने देने का तो सवाल ही नहीं उठता
एक फ़लस्तीनी छात्रा
गज़ा में एक जगह हमलों में हुई मौतों और जख्मों की तस्वीरों की प्रदर्शनी लगी थी. इसमें हमारे साथ की कुछ भारतीय युवतियां बहुत विचलित सी दिखीं.

उनकी तस्वीर लेते हुए जब उनके चेहरों पर राख सी पुती दिखी तो उनका कहना था कि ऐसा नज़ारा उन्होंने कभी नहीं देखा था और ऐसे में मैं उनकी तस्वीर न लूं.

लेकिन मैंने उन्हें समझाया कि मौतों के ऐसे मंज़र को देखकर तो इंसान विचलित होंगे ही और यह तस्वीर सिर्फ़ उसी को क़ैद कर रही है.

लेकिन अपनी ही साथी इस लड़की से बात करते-करते मैं यह सोचता रहा कि जिस फ़लीस्तीनी इलाक़े में आए वक़्त लोग असल मौतों को न सिर्फ़ देखते हैं बल्कि भुगतते भी हैं, जहां घायलों को उठाते हुए गर्म लहू की तपन हाथों को लगती है, जहां लहू की गंध भी देर तक सांसों में बसी रहती है, वहां की नौजवान पीढ़ी कितनी विचलित होती होगी.

यही वजह थी कि विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में एक हिन्दुस्तानी सवाल के जवाब में एक फ़लीस्तीनी छात्रा का कहना था, "जिस इसराइल ने हमारे पूरे कुनबे को मार डाला है, उसके पड़ोस में रहना या उसे पड़ोस में रहने देने का तो सवाल ही नहीं उठता."

तकलीफ़देह ज़िंदगी
गज़ा में एक कार्यक्रम में ऐसी औरतों और ऐसे बच्चों की भीड़ थी जो इसराइली जेलों में बंद अपने घर वालों की तस्वीरें लिए बंदी थीं.

डेढ़-दो महीने से फ़लीस्तीन के बारे में सोचते-सोचते अब आत्ममंथन से यह भी दिख रहा है कि हिन्दुस्तान के भीतर भी दबे-कुचले तबकों के बेइंसाफी वाले कितने ही फ़लीस्तीनी इलाक़े जगह-जगह बिखरे हुए हैं.अगर यह कारवां गज़ा के ज़ख्मों के देखने के बाद भारत के भीतर के 'फ़लीस्तीनियों' के ज़ख्म देख पाता है तो वह कारवां की कामयाबी होगी
एक कार्यक्रम में लेखक का वक्तव्य
इनमें कुछ ऐसे लोगों के घरवाले भी थे जो इसराइस के साथ युद्ध में मारे गए थे. लेकिन हिन्दुस्तान में भी पंजाब आदि में ऐसी तकलीफ़देह ज़िंदगियाँ होंगीं जिन्हें देखने का अवसर मुझे अब तक नहीं मिल पाया है.

दिल्ली में कश्मीरी पंडि़तों के शरणार्थी शिविरों तक जाना भी अभी नहीं हो पाया है और बस्तर में हिंसा से बेदखल लोगों के बीच में महज़ एक बार मेरा जाना हुआ है.

इसलिए गज़ा में जब एक टेलीविजन कार्यक्रम में मुझसे पूछा गया कि इस कारवां की मैं क्या कामयाबी मानता हूं? तो सोचकर मैंने कहा, "डेढ़-दो महीने से फ़लीस्तीन के बारे में सोचते-सोचते अब आत्ममंथन से यह भी दिख रहा है कि हिन्दुस्तान के भीतर भी दबे-कुचले तबकों के बेइंसाफी वाले कितने ही फ़लीस्तीनी इलाक़े जगह-जगह बिखरे हुए हैं.अगर यह कारवां गज़ा के ज़ख्मों के देखने के बाद भारत के भीतर के 'फ़लीस्तीनियों' के ज़ख्म देख पाता है तो वह कारवां की कामयाबी होगी."

बिना इसराइली बमबारी और गोलीबारी के भी हिन्दुस्तान के कमज़ोर तबकों पर रोज़ हमले हो रहे हैं और बेइंसाफी जारी है.

मतलब यह कि सिर्फ़ अमरीकी या इसराइली हमलों से गज़ा घायल नहीं होता, वह हिन्दुस्तान के भीतर लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों के हमलों से भी घायल होता है और यहां की बाज़ारू ताक़तों के हमलों से भी.

पांच हफ़्तों के इस सफ़र में दूसरों के ज़ख्म देखते हुए अपनों के ज़ख्मों के बारे में भी सोचने का कुछ मौक़ा मिला और शायद कारवां कुछ दूसरी तरफ़ भी जा सकेंगे.

गज़ा और रास्ते के सफ़र से जुड़ी और बातें फिर कभी, किसी और शक्ल में.

समाप्त.
(सुनील कुमार 'छत्तीसगढ़' अख़बार के संपादक हैं और इस पूरी लेख श्रृंखला में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी विचार हैं बीबीसी के नहीं.)

धोबी घाट... मुंबई डायरीज, एक जल्दबाज समीक्षा


आमिर खान प्रोडक्शन की फिल्म धोबी घाट... मुंबई डायरीज के बारे में हर कोई कह रहा है कि यह चार पात्रों अरुण, मुन्ना शाई और यास्मीन की कहानी है। हालांकि मेरे देखे इस फिल्म में एक और पात्र है जो इन चारों के साथ-साथ हर जगह मौजूद है। वह है मुंबई शहर। मुंबई के बारे में मेरी जानकारी पूरी तरह फिल्मों पर आधारित है। मैं या तो उसकी कल्पना बॉलीवुड के ठिकाने के तौर पर कर पाता हूं या फिर अंडरवल्र्ड के भाई लोगों को अपनी याददाश्त में पैदा करके मैं मुंबई का चित्र अपनी आंखों में उतार पाता हूं। बहरहाल,धोबी घाट फिल्म में मुंबई बतौर एक जिंदा शख्स कहानी के साथ-साथ हर मोड़ पर चलती है। यह एक दूसरा मुंबई है या कहें यह हर वो शहर है जो हम अपने-अपने बलिया, रीवा, भोपाल या बनारस से अपने साथ लेकर किसी भी दूसरे महानगर में जाते हैं। कई दफा वह महानगर के महासागर में मिल जाता है तो कई बार वह हमारे पास ही रह जाता है।
यास्मीन और अरुण - धोबीघाट की शुरुआत होती है यास्मीन नामक उस लड़की की आवाज से जो अपने बेजार पति की गैरमौजूदगी को दूर करने के लिए वीडियो कैमरे के जरिए अपने छोटे भाई से बातें करती है। वह मुंबई और अपने आस पड़ोस के साथ-साथ छोटे भाई से अपनी बातचीत को डिजिटल चिठ्ठïी के रूप में कैसेट में उतारती है लेकिन वह उन्हें कभी कहीं भेज नहीं पाती और आखिरकार वे चिठ्ठिïयां उस कमरे के नए किराए दर अरुण पेंटर (आमिर खान) के हाथ लगती हैं। वह इन वीडियोज को देखता है और यास्मीन के अनुभवों पर एक शानदार पेंटिंग तैयार करता है और इस तरह यास्मीन का मजबूरी भरा एकांत, अरुण के स्वैच्छिक एकांत से मिलकर एक बिकाऊ कला में तब्दील होता है।

शाई- अमेरिका से आई इन्वेस्टमेंट बैंकर और शौकिया फोटोग्राफर शाई जिसके लिए शारीरिक अंतरंगता कोई बोझ नहीं है, वह अरुण के साथ एक रात के संबंध के बाद अपने धोबी मुन्ना (प्रतीक) के जरिए उसकी तलाश करती है। एक रात की बातचीत में और संसर्ग के बाद अल्ल सुबह अरुण द्वारा स्पष्टï सीमा रेखा खींचे जाने के बाद भी वह अरुण के प्रति दीवानी नहीं तो भी जबरदस्त तरीके से आकर्षित जरूर है। इस काम में उसकी मदद करता है मुन्ना धोबी। शाई के खुले व्यवहार से खुद मुन्ना भी उसकी ओर आकर्षित जरूर है लेकिन वह अपनी सीमाएं शराब के नशे में भी पहचानता है। उसके लिए तो मानो शाई का एक बार गले लगा लेना ही काफी है और वह मोम की तरह पिघल जाता है क्योंकि इससे ज्यादा तो वह बेचारा खुद भी सोच नहीं सकता।
मुन्ना- किसी भी किशोर की तरह मुन्ना की अपनी आकांक्षाएं हैं। उसकी खोली की दीवार पर चिपकी सलमान खान की तस्वीर और बॉडी बिल्डिंग का उसका शौक यह बताता है कि वह एक्टर बनना चाहता है। शाई उसके लिए पोर्टफोलियो तैयार करती है जिसके बदले वह उसके लिए अरुण से बार बार मुलाकात या उसकी तलाश का जरिया बनता है। हालांकि एक रात शाई द्वारा मुंबई की सड़कों पर चूहे मारते देख लिए जाने के बाद मुन्ना उससे बचने की भरपूर कोशिश करता है।
गैलरी क्यूरेटर वत्सला का अरुण के घर आकर उससे अंतरंग होने की कोशिश करना और असफल होने पर यह कहना कि आज मूड नहीं है क्या? यह साफ करता है कि तलाकशुदा अरुण (जिसकी पत्नी बेटे के साथ आस्ट्रेलिया में रहती है) यौन संबंधों को लेकर किसी शुचिता में यकीन नहीं करता लेकिन जैसा कि वह शाई से कह चुका होता है। वह किसी कमिटमेंट से बचना चाहता है। वह उपभोग में यकीन करता है लेकिन जिम्मेदारियों में नहीं। वही अरुण यास्मीन की आत्महत्या की कल्पना करके रोता भी है हालांकि आखिर वह यास्मीन भी उसके लिए एक बिकाऊ पेंटिंग ही है।
शाई की घरेलू मेड जो खुद संभवत: कन्वर्टेड क्रिश्चियन है वह उसे मुन्ना से दूर रहने की सलाह देती है। एक बहुत ही हास्यास्पद दृश्य में वह मुन्ना के लिए कांच के गिलास जबकि शाई के लिए कप में चाय लेकर आती है। ये छोटे-छोटे दृश्य बहुत कुछ कह जाते हैं।
फिल्म देखते हुए कुछ पर्सनल सवाल भी तारी हुए। मसलन, क्या यास्मीन का दूसरी औरत वाला दृश्य फिल्माने के दौरान किरण राव और आमिर खान के मन में एक पल के लिए आमिर की पहली पत्नी रीना की याद नहीं आई होगी?ï किरण ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्होंने आमिर से शादी की क्योंकि वह दूसरी गर्लफ्रैंड का दर्जा नहीं चाहती थीं...विडंबना

लाल चौक दंतेवाड़ा और तिरंगा झंडा

मुझे नहीं पता इस तथ्य में कितनी सच्चाई है लेकिन अगर यह सच है तो फिर इस पर बात की जानी चाहिए। श्रीनगर के लाल चौक पर जाकर तिरंगा फहराने के लिए जिन लोगों का जी हुड़क रहा है। उनके मातृ संगठन राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय भारत देश के महाराष्टï्र राज्य के नागपुर शहर में स्थित है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक उस मुख्यालय पर आज तक एक दफा भी राष्टï्रीय स्वाभिमान का द्योतक तिरंगा झंडा नहीं फहराया गया है। तो भई क्योंन सुधार का यह कार्य अपने घर से ही शुरू किया जाए। छावनी बन चुके जम्मू कश्मीर के किसी भी हिस्से में तिरंगा फहरा देने भर से अगर उसे भारत का अभिन्न अंग साबित किया जाना सुनिश्चित होता है तो फिर क्यों नहीं वे पाक अधिकृत कश्मीर का रुख करते? क्यों नहीं वे दंतेवाड़ा का रुख करते, क्यों नहीं वे पूर्वोत्तर के किसी राज्य का रुख करते, क्यों नहीं वे इरोम शर्मिला चानू के पक्ष में दो शब्द बोलते? क्या महज इसलिए क्योंकि इन इलाकों में से कोई भी मुस्लिम बहुल नहीं है???
दरअसल भाजपा की इस खतरनाक कोशिश के लिए तमाशा या शरारत जैसे शब्द बहुत मासूम पड़ जाते हैं। यह जाहिर तौर पर मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में सांप्रदायिकता का जहर घोलने की बदनीयत ही है जो उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रही है। हर पांचवे साल चुनाव के ऐन पहले मंदिर का बुखार जिस पार्टी को पकड़ लेता हो उसकी इन हरकतों के मंसूबे भला क्या छिपेंगे? इस दुस्साहसी आडंबर का अगर कोई परिणाम होगा भी तो वह निश्चित तौर पर देश की एकता अखंडता के लिए और कश्मीरी अवाम के लिए दुखद ही होगा।

धूमिल याद आते हैं ''क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है, जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई और मतलब भी होता है?
निश्चित तौर पर इनकी आजादी के मायने एकदम जुदा हैं।

रायपुर वाले भाई साहब और बिनायक सेन की जाति

डा बिनायक सेन की जाति क्या है? यह कमाल का सवाल पता नहीं अब तक कितने लोगों के जेहन में आया है। बहरहाल, मेरा साबका इस सवाल से आज सुबह पड़ा। मेरी बुआ के बेटे जो कभी आरएसएस के एकनिष्ठ प्रचारक हुआ करते थे। भारत वर्ष के अटलकाल में उन्हें इस निष्ठा का फल मिला। अब उनके पास एक गैस एजेंसी के साथ एक पत्नी व एक संतान भी है। खैर, उनकी तरक्की? पर बात फिर कभी सही अभी कुछ दूसरी बात।

आज सुबह सुबह भाई साहब का फोन आया। "दिल्ली आया हुआ हूं। अक्षरधाम मंदिर से निकला हूं। तुम्हारे घर कैसे आना है बतावो।" हमने हड़बड़ी में कह दिया कि मंगलम के आगे प्रेस अपार्टमेंट आ जावो वहीं मिलता हूं। मैं अभी निकल ही रहा था कि दोबार फोन आ गया। मैं समझ गया कि वो आ चुके हैं। उनकी कार का मुंह प्रेस अपार्टमेंट की तरफ था। मैं उन्हें निराश करता हुआ सामने विनोद नगर की सर्वहारा कालोनी से प्रकट हुआ। खेद सहित उनको सूचित किया कि कार विनोद नगर की तंग गलियों में नहीं जा पाएगी। कुछ अपसेट से दिखते भाई साहब पैदल मेरे साथ घर आए।
अम्मा बाबूजी को दंड प्रणाम करने के बाद उनने हमसे सवाल दागा? क्योंजी "तुम्हारे" बिनायक सेन की जाति क्या है? हमने भी कह दिया आप रायपुर में रहते हो "अपने" पुलिसिया हाकिमों से पूछ लो? ये जवाब उनके रिसीविंग प्रोग्राम में फीड नहीं था यानी अनएक्सपेक्टेड था। मामला संभालते हुए उन्होंने कहा नहीं उसकी बीबी के नाम से लगता है कि वह क्रिस्तान है...
मैं उनकी इस अदा पर मर मिटा लेकिन आगे कुछ कहने का मौका नहीं दिया उन्होंने, तुरत मेरी किताबों की आलमारी से लेनिन की "इंपीरियलिज्म द हाइएस्ट स्टेट आफ कैपिटलिज्म" निकाली। उसे पलटा गहरी आंखों से मेरा जायजा लिया। बाबूजी के पास गए। कुछ देर फुसफुस करने के बाद बोले अपने बियाव करले, बाबू बियाव।
मैं अभी लेनिन की किताब से अपने ब्याह का कनेक्शन जोड़ ही रहा था कि वे पास आ गए। देख बाबू तू अभी बच्चा!! है। हमने भी संगठन में काम किया है लेकिन अंत में यही समझे कि मां बाप की मर्जी से ही जीवन का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
मैंने उनके बियाव लेक्चर को उतनी ही तवज्जो दी जितनी देनी चाहिए थी। दो घंटे की संक्षिप्त यात्रा में उनने क्यूबा से लेकर वेनेजुएला तक व सलवा जुडुम से लेकर मनमोहनामिक्स तक मेरा ज्ञान बढ़ाया। अभी वे गोंडवाना एक्सप्रेस में होंगे... मैंने पक्का किया है कि उनके रायपुर पहुंचते ही उनसे बिनायक सेन की जाति!!!! पूछूंगा पक्का।