अथ श्री महाकाल दर्शन कथा



धरम-करम में हालांकि अपनी कोई आस्था नहीं है लेकिन मां बाबूजी खासकर मां बहुत अधिक धार्मिक प्रवृत्ति की है। सो शुक्रवार को उन्हें लेकर महाकाल की नगरी उज्जैन गया था। पता नहीं क्यों बचपन से हर बार ऐसा हुआ है कि जब भी किसी धार्मिक स्थान पर गया हूं विरक्ति थोड़ी ओर बढ़ गई है। मंदिर में प्रवेश के समय हम खुश थे भीड़ बिल्कुल नहीं थी और हम जल्दी ही गर्भगृह के द्वार पर थे। उम्मीद नहीं थी कि इतनी आसानी से दर्शन हो जाएंगे लेकिन जल्द ही अपनी गल्ती का अंदाजा हो गया। गर्भगृह से ऐन पहले हमें रोक दिया गया। वहां ड्यूटी कर रहे सिपाही ने प्रवेश द्वार पर रस्सी लगा दी । क्या तो अभी थोड़ी देर दर्शन नहीं हो सकेंगे।
भाई साहब 10 मिनट बीते, 20 मिनट बीते। सामने लगी स्क्रीन पर दिख रहा है पूजा चल रही है। अंदर। सिपाही जी से फिर पूछा, जवाब मिला अभी अंदर भीड़ है छंटते ही आपको अंदर भेज दिया जाएगा। मां की तबियत खराब रहती है उसे अस्थमा की शिकायत है। वह बेचारी हैरान परेशां घुटनों पर झुकी इंतज़ार कर रही है की प्रभु सुध लें उसकी । एक घंटा होने को था लगा कि उसे लेकर वापस बाहर निकल जाऊं, वापस पीछे मुड़कर क्या देखता हूं कि जहां तक नजर जा सकती है वहां तक लोगों की कतार लगी है। वापस लौटना मुमकिन नहीं।
सामने लगी स्क्रीन पर नजरे गड़ाए हम खड़े थे। तभी टीवी स्क्रीन पर नजर गई कोई जाना पहचाना सा चेहरा है। मैंने मेटल डिटेक्टर लेकर खड़े सिपाहीजी से पूछा ये कौन है। सिपाही भटभटाकर बोला- सुधांशु जी महाराज अंदर पूजा कर रहे हैं।
बात इस तरह खुली कि सुधांशु जी महाराज की विशेष पूजा की कीमत मैं मेरी मां और कई अन्य श्रद्धालु चुका रहे हैं। स्क्रीन पर पूजा चल रही है। सुधांशु जी महाराज अभिषेक कर रहे हैं। दूध मक्खन और जाने क्या क्या अर्पित कर रहे हैं। मंदिर के सारे पुजारी उनकी सेवा टहल में लगे हैं। बाहर खड़े लोगों का इंतजार गुस्से में बदल रहा था।
लगा कि अब लोग रस्सी तोड़कर घुस ही जाएंगे लेकिन तभी ड्यूटी कर रहे सिपाही ने गजब का क्राइसिस मैनेजमेंट किया। अचानक उसके अंदर स्वामी झांसाराम की आत्मा प्रवेश कर गई। वह उसकी आवाज मे 100 किलो चीनी घुल गई। अगली कुछ लाइनें झांसाराम की जुबानी सुनिए
- ये संसार मिथ्या है। केवल ईष्वर ही सत्य है। तन पवित्र सेवा किए धन पवित्र किए दान, मन पवित्र हरिभजन से हो एहि विधि कल्याण।
भक्तों ये तन जो मिट्टी का बना है---
एक और बानगी- बोलो महाकाल की जय, सीता मैया की जय, श्रीरामचंद्र की जय, हनुमान की जय, और बोलो बोलो सुधांशु जी महाराज की जय---

अब बोलो क्या बोलते हो सुधांषू जी महाराज को।
खैर सुधांशु जी महाराज की पूजा खतम हुई और वे पुजारियों को 1000-1000 रुपये के नोट बांटकर बाहर निकले। और हम भक्तों का भी कल्याण हुआ...
शेष फिर कभी ...

इश्किया : कमीने के घटिया एक्सटेंशन में ओमकारा की मिक्सिंग


विशाल भारद्वाज के नाम, विद्या बालान की धुंआधार प्रमोशन और गुलजार के कलमबद्ध कुछ खूबसूरत गीतों ने फिल्म इश्किया देखने पर मजबूर तो कर दिया लेकिन मामला कुछ जमा नहीं। इश्किया ठीकठाक फिल्म है लेकिन यह निराश करती है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले को मेनस्ट्रीम सिनेमा की किसी फिल्म के कथानक का केंद्र बनते देखना सुखद है लेकिन इसके आलावा फिल्म का इलाके से कोई जुड़ाव नहीं. भोपाल के रहने वाले दो उठाईगीरे खालू और बब्बन एक डान से बचते बचाते वहां अपने एक पुराने साथी की विधवा कृष्णा के घर शरण लेते हैं। और दोनों ही उसके इशक में गिरफ्तार हो जाते हैं। फिर शुरू होता है खेल एक दूसरे के इस्तेमाल का जिसमें कृष्णा भी शामिल है। पात्रों की क्षेत्रीयता और उनकी कमीनगी ओमकारा और कमीने की याद दिलाते हैं.

टुकड़ों टुकड़ों में अच्छी होने का भ्रम पैदा करती इश्किया दो घंटे की एक छोटी फिल्म है जिसका पहला हाफ जबरदस्त झिलाऊ है। गालियों का तड़का जाने क्यों असरदार नहीं लगता। गालियों से लेकर घटनाओं तक फिल्म में नेचुरल कुछ भी नहीं है। सारी परिस्थितियां और पात्र हर मोड़ पर गढ़े हुए लगते हैं। किरदारों में कमीने का एक्सटेंषन डालने की कोशिश की गई है। एक सवाल यह भी है कि क्या महज चौंकाऊ गालियां डालकर घटनाओं को स्वाभाविक रूप दिया जा सकता है।

इश्किया में पूर्वांचल की जातीय सेना के सन्दर्भ भी न्यायपूर्ण नहीं लगते. क्योंकि वो महज सन्दर्भ हैं भी नहीं. ऐसे में गुलाल जैसी फिल्मों की बेतरह याद आती है.

यह विद्या बालान की फिल्म हो सकती थी लेकिन निर्देशक ने उनके चरित्र के साथ भी ज्यादती की है। कृष्णा का कैरेक्टर क्लाइमेक्स के पहले तक सही जा रहा था लेकिन पति को जिंदा बताकर उसके बरताव में उसमें आदर्षवाद की जो चाषनी डालने की कोशिश की गई है वह मजा खराब कर देती है।

नसीर ने एक बार फिर साबित किया है कि उनका कोई जवाब नहीं। बूढ़े अंतरमुखी आशिक और एक छुटभैये उठाईगीर की भूमिका में उन्होंने जबरदस्त जान फूंकी है। अरशद के मुंह से भोपाली टोन और गालियां गुदगुदाती हैं लेकिन वह सर्किट के किरदार से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।



फिल्म के गाने सुनने में जितने अच्छे हैं देखने में वे उतने असरदार नहीं लगते। फिल्म के गाने सुनने में जितने अच्छे हैं देखने में वे उतने असरदार नहीं लगते। इब्ने बतूता गीत सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की इसी नाम की कविता की याद दिलाता है -


इब्नबतूता
पहन के जूता निकल पड़े तूफान में


थोड़ी हवा नाक में घुस गई


थोड़ी घुस गई कान में


कभी नाक को


कभी कान को


मलते इब्नबतूता

इसी बीच में निकल पड़ा


उनके पैरों का जूता


उड़ते उड़ते उनका जूता


पहुँच गया जापान में


इब्नबतूता खड़े रह गए


मोची की दूकान में

विरोध ही बदलाव का मूल है...


अजीत कुमार

व्यावसायिक सिनेमा और मीडिया, पापुलर कल्चर की वह सबसे पापुलर विधा है जिससे आप विचार या विरोध् के बुनाव या विस्तार की उम्मीद नहीं कर सकते। उल्टे खंडित सच के नाम पर यह विरोध्, संगठन, जनपक्षधरता और आंदोलन का लगातार माखौल उडाने में लगा है। आज की मुख्य धारा की फिल्मों से इस बात को समझा जा सकता है.

मौजूदा हिंदी समाज में आज अगर विरोध् के स्वर सबसे कम सुने जा रहे हैं तो इसके लिए सिनेमा और मीडिया सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। आखिर पापुलर कल्चर उन तमाम तरह के षडयंत्र को फलीभूत होता देख रहा है जिसे उसने बाजार की सत्ता को अभेद्य बनाने के लिए उपभोक्तावादी विमर्श, तकनीक और अतिसंकीर्ण व्यक्तिवाद के गठजोड के आधार पर रचा है।

आज जिस दौर में हम जी रहे हैं सघर्ष, विरोध् की बातें बेमानी हो गई है। समाज घोर असंवेदनशील हो गया है। देश, से लेकर राज्य, समाज और समुदाय पर कहीं कोई बात नहीं होती। राजनीति पर बात करना तो असभ्य होने की निशानी मानी जाने लगी है। ज्यादातर लोगों से सुनने को मिलते हैं छोडो यार दीन दुनिया की बातें। अपनी चिंता करो। हम ठीक तो जग ठीक।

विरोध् को लेकर राजनीति तो हमेशा से होती आई है लेकिन इसका मतलब यह तो कतई नहीं कि छोटे से हिस्से के सच के आधर पर आंदोलन, राजनीति और संघर्ष की पूरी सच्चाई को खंडित कर दिया जाए। दरअसल उत्तर आधुनिक पापुलर कल्चर ने अपने सबसे प्रमुख विमर्श खंडित सच का इस्तेमाल विरोध् और बगावत को ही खत्म करने के लिए सबसे ज्यादा किया है। साथ ही मीडिया का रोल भी इस प्रवृत्ति को और मजबूत करने में कहीं से भी कम नहीं रहा है।

देखें तो खंडित सच के सहारे मघ्यमवर्गीय समाज की सामाजिक और राजनैतिक चेतना सुन्न हो गई है। आज के दौर की ज्यादातर फिल्मों को उठा लें उनमें आप पाएंगे कि विरोध् की राजनीति और आंदोलनों को वहां पूरी तरह से हास्यास्पद स्थिति में दिखाया गया है। पापुलर कल्चर के मूल में ही विरोध् के स्वर को समाप्त करना है। लेकिन विरोध् के स्वर को यकबारगी समाप्त करने के बजाए यह इसे लोगों के दिलो दिमाग से खंडित सच के सहारे धीरे धीरे समाप्त करता है।

हद तो दखिए यह पापुलर कल्चर अगर एक ओर खंडित सच का इस्तेमाल विरोध् के स्वर को समाप्त करने के लिए करता है तो दूसरी ओर इसी का इस्तेमाल अलगाववाद, क्षेत्रवाद और व्यक्तिवाद पफैलाने में जहर की तरह करता है। आपने कभी नहीं देखा होगा कि खंडित सच का इस्तेमाल अलगाव की प्रक्रिया को रोकने में किया गया हो। देशभक्ति, और राष्टीयता के विषय पर बनी ज्यादातर फिल्मों को ले लें किस तरह से एक कौम के खंडित सच के आधर पर देशभक्ति और राष्टीयता का फूहड नाटक रचा जाता है। आतंकवाद को लेकर सिनेमा और मीडिया में ज्यादातर विमर्श इसीलिये सार्थक नहीं हो
पातेआखिर वो कौन सा व्यापक सच है जिसकी बिना पर हर मुसलमान और पाकिस्तानी को भारत क्या पूरे विश्व में आतंकवादी मान लिया जाता है। आप बताएं क्या समूची पाकिस्तानी जनता का यही सच है। लेकिन सिनेमा और मीडिया ने थोडे से भा्रमक सच का इतना व्यापक ताना बाना बुना है कि वृहत्तर सचाई काफी पीछे चली गई है।

थोडा वर्तमान को लेकर ही बात कर लें। महंगाई आसमान छू रही है। लेकिन इसको लेकर कहीं कोई आंदोलन नहीं है। आखिर विरोध् को लेकर इस दर्जे की उदासीनता क्या पहले के समाजों में थी। हालांकि हरएक आदमी आपको महंगाई की शिकायत करता मिल जाएगा।

आखिर उत्तर आधुनिक मीडिया और सिनेमा ने हर व्यक्ति को अपने हिस्से का खंडित सच स्वीकार कर लेना ही तो सिखाया है। और जिस दिन इंसान अपने हिस्से का खंडित सच मान लेता है। विरोध् के समवेत स्वर मंद पड जाते हैं। व्यापक सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया ठहर जाती है। जातिवाद और सांप्रदायिकता कम होने के बजाए समाज को अपनी मजबूत गिरपफ्त में लेने लगते हैं। शोषण की प्रक्रिया और घनघोर होने लगती है। लेकिन फिर भी मध्यम वर्ग विकास दर और तकनीकी संपन्न्नता का दावा करने से नहीं थकता।

विरोध् के इस त्रासद उदासीन दौर में आप सामंतवाद, वर्चस्ववाद और जातिवाद तोडने की बात नहीं कर सकते। शोषण के इन कारणों को जडमूल से उखाडने के लिए आपको समाज में व्यापक विरोध् के स्वर को फिर से जिंदा करना होगा। संगठन की महत्ता समझनी होगी। राजनीतिक नेतृत्व और सक्रियता का लोहा मानना होगा। लेकिन विरोध् के संगठनिक स्वरूप को छिन्न भिन्न करने के सिवा आज का मीडिया और सिनेमा आखिर कर क्या रहा है।

वर्तमान राजनीति की हम कितनी भी आलोचना क्यूं न कर लें इतना तो तय है कि विरोध् के स्वर बगैर राजनीतिक संगठन और नेतृत्व के एक अंजाम तक नहीं पहुंच सकते। लेकिन जिस तरह से आज का मघ्यमवर्ग राजनीति को लेकर विमुख और उदासीन होता जा रहा है। शोषण के विरूद्व आवाजें कमजोर पडती जा रही है। समाज या व्यवस्था में व्यापक बदलाव की कल्पना नहीं की जा सकती। अगर विरूद्व आवाजों को बुलंद करना है तो हमे लोगों को राजनीतिक रूप से सक्रिय करना होगा। और इस काम में मीडिया और सिनेमा काफी मददगार हो सकता है।

आज बाजार पापुलर मीडिया और सिनेमा के माघ्यम से मघ्यमवर्ग में यह विभ्रम फैलाने में कारगर रहा है कि वही विकास और बदलाव की तमाम प्रक्रियाओं का सूत्राधर है और ये सारी प्रक्रियाएं उसकी निगहबानी में ही संपन्न की जाएगी। ऐसे समय में तमाम बुद्ध्जिीवियों और प्रगतिशीलों की जिम्मेदारी बनती है कि बजाए खंडित सच के आधर पर विरोध् का पाठ करने के बाजार के इस षडयंत्र का पर्दाफाश कर सिनेमा और मीडिया को विकल्प की आवाजों से लैस करें। क्योंकि हर युग में विरोध् ही बदलाव के मूल में रहे हैं।

सथ ही मीडिया को थोडे से उपलब्ध् सूचना को तोड मरोडकर परोसने के बजाए सूचना के नए अनसुने क्षेत्र तलाशनें चाहिए। ताकि समाज को उदासीन बनाने के बजाए उसे शोषण के खिलाफ विरोध् के लिए प्रेरित किया जा सके।

बिहार के नालंदा जिले में जन्मे अजीत कुमार ने अपने करियर की शुरुआत सीएनबीसी टीवी 18 मुंबई से की। दिल्ली में आईएएनएस, ईटी हिंदी के बाद इन दिनों एक ब्रोकरेज हाउस में काम कर रहे हैं। अजीत जी से aboutajeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

ज्योति बाबू की राजनीतिक स्वीकार्यता अप्रतिम थी


अजीत कुमार
अपने पिछले संक्षिप्त आलेख में मेरा मकसद यह कहना था कि एक राजनेता की राजनीतिक उपलब्धि सत्ता में हिस्सेदारी पर भी बहुत कुछ तय होती है। लेकिन सत्ता के सहारे हासिल राजनीतिक उपलब्धि ज्यादातर मौकों पर सिद्वांत, विचारधारा और विकास को लेकर घोर अंतविर्रोध् से ग्रस्त होती है। उल्टे बगैर सत्ता के सहारे हासिल राजनीतिक उपलब्धियों में हमें सिद्वांत, विचारधारा को लेकर कापीबुक स्टाइल की राजनीति ज्यादातर दृष्टिगोचर होती है। रही बात एक राजनेता के लिए राजनीतिक उपलब्धि की तो इसे कभी कमेतर करके देखना नहीं चाहिए।
जबतक तक हम व्यावहारिक राजनीति से दूर होते हैं राजनीति सिद्वांत और विचारधारा से ओतप्रोत होती है। लेकिन जैसे ही यह व्यावहारिकता के रास्ते पर उतरती है विचारधारा और सिद्वांत के रास्ते आडे तिरछे हो जाते हैं। आज अगर इस देश में महात्मा गांधी , बिनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण और बहुतेरे समाजवादियों की वैचारिक प्रतिबद्वता की दुहाई दी जाती है तो इसके पीछे उनका सत्ता से एक हद तक दूरी बनाए रखना रहा। जहांतक समाजवादियों की बात है तो उन्हें राजनीतिज्ञ से ज्यादा शुद्वतावादी यानी संत परंपरा की श्रेणी में रखना ज्यादा उचित है। अतिशुद्वतावादी और कमोबेश उनके संतस्वरूप के कारण ही तो समाजवादियों को सत्ता में व्यापक हिस्सेदारी नहीं मिली। कहने का आशय यह है कि व्यावहारिक राजनीति कापीबुक स्टाइल में नहीं की जा सकती। उदाहरण के तौर पर देखें तो लालू, नीतिश, शरद, मुलायम सभी अपने आपको लोहिया और जयप्रकाश स्कूल के ही प्रोडक्टस मानते हैं लेकिन उन सबों की व्यावहारिक राजनीति में आपको लोहिया और जयप्रकाश का दर्शन कितना मबजूत नजर आता है।

जहां तक साहित्यकारों और पत्रकारों की बात है हम तो व्यावहारिक राजनीति में भी एक हद तक विचारधारा को कापीबुक स्टाइल में फलीभूत होना देखना चाहते हैं। जो शायद संभव नहीं। आखिर सक्रिय पत्रकारिता के क्षेत्र में ही हम मूल्यों को लेकर कितने आदर्शवादी रह पाते हैं। जब तक हम पत्रकारिता की पढाई करते हैं या मुख्यधारा की पत्राकारिता से दूर होते हैं सरोकार और पत्रकारिक मूल्यों को लेकर खूब शोर शराबा करते हैं लेकिन जैसे ही मुख्यधारा की पत्रकारिता में आते हैं सारे मूल्य काफूर हो जाते हैं।

इसलिए राजनीति को लेकर अतिशुद्वतावादी होने की कोई जरूरत नहीं है। अन्य क्षेत्रों की तुलना में राजनीति में वैसे भी शु़द्वतावादी होने के गुजाइश भी कम हैं। कारण राजनीति में व्यापक लोगों के समर्थन की जरूरत होती है। भारत जैसे बहुलतावादी देश, अपरिपक्व जनतंत्र में यह तो और भी कठिन है। राजनीति में नैतिकता कमोबेश समाज के सापेक्ष ही तय होती है। लेकिन जिस देश मे भारी गरीबी अशिक्षा हो, जातिवाद और सांप्रदायिकतावाद समाज में रचा बसा हो, भाषा और क्षेत्रा को लेकर घोर राजनीति हो वहां राजनीति कितनी नैतिक रह सकती है। इसलिए बसु को लेकर भी विचारधरा को कापीबुक स्टाइल में उतारने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहए।

जहांतक बसु की महानता की बात है यह उनकी राजनीतिक उपलब्ध्यों को लेकर है। और यह राजनीतिक उपलब्धि उन्होंने 23 साल से भी ज्यादा पश्चिम बंगाल का नेतृत्व करके हासिल की। पश्चिम बंगाल के उपमुख्यमंत्राी बनने से पहले ज्योति बाबू भी मार्क्सवादी विचारधारा को लेकर कमोबेश हार्ड थे। हार्डनेस तो इतनी थी कि उन्होंने भारत पर चीन के हमले को लेकर अन्य साथियों के साथ सीपीआई से अलग होकर सीपीएम की नींव तक दे डाली। विचारधरा को कापीबुक स्टाइल में इससे ज्यादा और क्या उतारा जा सकता था कि उन्होंने देशद्रोह का दंश झेलकर भी वृहत्तर मार्क्सवादी नीतियों को लेकर चीन का समर्थन किया। सीपीएम के संस्थापक नवरत्नों में ज्योतिबाबू अकेले थे जिन्हें मार्क्सवाद की सैद्वांतिकी और व्यावहारिकता का प्रशिक्षण पश्चिम में मिला था। जबकि भारत में मार्क्सवाद की पीठिका रचने वाले पश्चिम में रचे बसे बाकी सारे के सारे कामरेड सीपीआई में ही रह गए थे।

स्वतंत्रतापूर्व की राजनीति से उपमुख्यमंतरी पद संभालने तक ज्योतिबाबू की मार्क्सवादी सैद्वांतिकी बिल्कुल कापीबुक स्टाइल में रही। लेकिन ज्योतिबाबू सत्ता की पेचिदगियों और कूटनीति को भी बाखूबी समझते थे। उन्हें मालूम था कि एक पूंजीवादी व्यवस्था में रेडिकल मार्क्सवाद के लिए कितनी जगह हो सकती है। सत्ता की राजनीति और रेडिकल मार्क्सवाद के बीच द्वंद्व की परिणति ही तो सन 1967 में उभरकर आई। जब सीपीएम से अलग होकर कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ; माक्र्सवादी -लेनिनवादी की स्थापना की।


ज्योति बाबू यह भी पता था कि पूंजीवादी ताने बाने में जहां केंद्र के बरक्स राज्य के पास बहुत सीमित अधिकार हैं केंद्र की राजनीति में भी अपना दबदबा रखना उतना ही जरूरी है। इंदिरा गांधी द्वारा देश में लगाए गए आपातकाल का विरोध् और 77 में देश में गैर कांग्रेसी सरकार के गठन में उनकी भूमिका उनके प्रैग्मेटिज्म को ही दर्शाता है। हालांकि वाममोर्चा के एक अन्य महत्वपूर्ण घटक सीपीआई ने उस समय देश में आपातकाल का समर्थन किया था। तब सीपीएम ने सीपीआई को कांगे्रस का स्टेप चाइल्ड तक करार दिया था। कांगे्रस को लेकर सीपीआई के संबंध को लेकर घोर राजनीतिक विरोध् के बावजूद पश्चिम बंगाल की राजनीति में ज्योति बाबू का वाममोर्चा अक्षुण्ण रहा। यह ज्योति बाबू की सर्वस्वीकार्यता और व्यावहारिकता का ही उदाहरण था।

सन 77 में केंद्र में गैर कांगे्रसी सरकार के गठन के बाद से वे लगातार केंद्र की राजनीति पर अपना असर रखने मे कामयाब हुए। साथ ही केंद्र के साथ सीधे टकराव से भी वे हमेशा दूर रहे। क्योंकि केरल में केंद्र के साथ टकराव का परिणाम वे देख चुके थे। जब 1957 में वहां नम्बूरीपाद के नेतृत्व में बने पहले कम्युनिस्ट सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया गया था। कम्युनिस्टों में सामान्यतया जाहिर हठध्र्मिता, आत्मालाप, अडियलपन, रेडिकलनेस और आइडियोलाजी को लेकर रोमैंटिसाइजेशन से ज्योति बाबू एक हदतक दूर थे। कहें तो कम्युनिस्ट होते हुए भी वे एक हदतक समंजनवादी थे।
सन 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बने गैर कांगे्रसी सरकार के गठन में एक बार पिफर ज्योति बाबू की भूमिका बढ चढकर रही। इन सब का उद्देश्य उनका केंद्र की राजनीति पर अपना असर रखने तक में था। केंद्र की राजनीति में उनके असर और स्वीकार्यता का ही परिणाम था कि उन्हें 1996 में तीसरे मोर्चें ने उन्हें प्रधनमंत्राी के पद तक का आफर दिया। लेकिन पोलित ब्यूरो के निर्णय के आलोक में उन्होंने इस आफर को ठुकरा दिया। यह भी अपने आप में ज्योतिबाबू की प्रैग्मैटिक राजनीति की ही मिसाल थी। साथ ही पार्टी के निर्णय को मानकर वे यह संदेश देने में भी सपफल रहे कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में हर कामरेड के लिए पार्टी का आदेश शिरोधर्य होना चाहिए। दरअसल आज के इस दौर में जब संगठन के उफपर व्यक्तिवाद हावी हो गया है। आंतरिक जनतंत्रा और संवाद का स्पेस सिकुडता जा रहा है, ज्योति बाबू का व्यक्तित्व एक कुशल संगठनकर्ता के तौर पर भी अनुकरणीय है। जो लोग शार्ट -टर्म फायदे के लिए पार्टी की लाइन को छोड देते हैं या पार्टी पर दबाव बनाते हैं उन्हें ज्योति बाबू के उस ऐतिहासिक कदम से सबक लेना चाहिए। आखिर 23 सालों से ज्यादा तक पार्टी में सर्व स्वीकार्यता उनके इसी व्यक्तित्व की ही तो देन रही। राजनीति में इतने लंबे अरसे तक न सिपर्फ पार्टी और राज्य में बल्कि देश की राजनीति में स्वीकार्यता ही अकेले ज्योति बाबू को भारतीय राजनीति में महान बनाने के लिए पर्याप्त है। साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि राजनीतिक स्वीकार्यता के लिए न तो कूटनीति के दांव अनैतिक कहे जा सकते और न ही विकास के प्रतिमानों के आधर पर उसे झुठलाया जा सकता है।

बिहार के नालंदा जिले में जन्मे अजीत कुमार ने अपने करियर की शुरुआत सीएनबीसी टीवी 18 मुंबई से की। दिल्ली में आईएएनएस, ईटी हिंदी के बाद इन दिनों एक ब्रोकरेज हाउस में काम कर रहे हैं। अजीत जी से aboutajeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है

अधिनायक


इस गणतंत्र दिवस पर मेरे प्रिय कवि रघुवीर सहाय की कविता अधिनायक आप लोगों के लिए

राष्ट्रगीत में भला कौन

वह भारत-भाग्य-विधाता है

फटा सुथन्ना पहने जिसका

गुन हरचरना गाता है।

मखमल टमटम बल्लम तुरही

पगड़ी छत्र चंवर के साथ

तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है।

पूरब-पश्चिम से आते

हैं नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा,

उनकेतमगे कौन लगाता है।

कौन-कौन है वह जन-गण-मन

अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है

तीस मिनट का वजन कितना होता है...



यह जानकारी क्या रूह को कंपा देने के लिए काफी नहीं है कि देश में औसतन हर तीस मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा है। तीस मिनट कितना समय होता है लगभग उतना जितना मैं शायद अक्सर अपने दोस्त से मोबाइल पर बात करने में बिता देता हूं या फिर आफिस की कैंटीन में चाय पीते हुए... वो तीस मिनट जिसमें एक किसान आत्महत्या कर लेता है या फिर उसके आसपास के कुछ और मिनट कितने भारी होते होंगे उस एक शख्स के लिए। क्या उस समय उसके दिमाब पर पड़ रहे बोझ के वजन को मापने के लिए कोई पैमाना है?

मौत के बारे में आंकड़ों में बात करना चीजों को थोड़ा आसान कर देता है। जैसे हैती में भूकंप से लाखों मरे, मुंबई हमले में 218 या फिर देश में 2008 में 16196 किसानों ने आत्महत्या की। ऐसा लगता हैयह किसी प्लाज्मा टीवी के निहायत किफायती माडल की कीमत है 16196 रुपये मात्र। दरअसल यह अश्लील आंकड़ा भी अखबार के उसी पन्ने पर छपा है जिसमें गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर सोनी के लैपटाप पर 12000 रुपये की छूट का विज्ञापन है। ये अखबार वालों को क्या होता जा रहा है?

किसी को ऐसा भी लग सकता है कि चलो देश की आबादी तो डेढ़ अरब पहुंच रही है 16000 मर भी गए तो क्या फर्क पड़ता है। छुट्टी करो यार.

आंकड़ों से थोड़ा और खेला जाए, हूं... लीजिए जनाब 1997 से अब तक देश में तकरीबन 2 लाख किसान आत्महत्या कर चुके। बिलकुल ठीक ठीक गिनें तो 199,132 । 2 लाख यह संख्या किस जुबानी मुहावरे के करीब है???? हां याद आया 2 लाख यानी टाटा की दो लखटकिया कारें। अकेले महाराष्ट्र में बीते 12 सालों में सर्वाधिक 41,404 किसानों ने आत्महत्या की है यह तो संख्या तो एक हीरोहोंडा स्प्लेंडर मोटरसाइकिल की कीमत से भी कम है। क्या यार ??? इन किसानों को हुआ क्या है कोई समझाओ भाई!

(आंकड़े नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो और हिन्दू में प्रकाशित पी साईनाथ के लेख से)


दो संसार


ये कविता मिथिलेश ने लिखी है मेरे साथ इंदौर भास्कर में सेवारत हैं. मिथिलेश खेल डेस्क पर हैं

जहाँ मैं रहता हूँ
वहीँ पास में एक नाला बहता है
नाले के पार एक अलग है दुनिया बसती है
इस पार से एकदम जुदा

इस पार घर नहीं हैं
बंगले हैं
बड़ी कारें हैं
लान हैं
रोज धुलने वाली चहारदीवारी है

नाले के उस पार भी
घर तो नहीं हैं
झोपड़ियाँ हैं एक दूसरे से लगी हुई
लान तो छोडिये
गमले भी नदारद हैं
रखी हैं साइकिल
पास ही एक हाथ ठेला खड़ा है
वह दिन में दुकानदारी के काम आता है
और रात में उसपर
एक दंपत्ति सो जाते हैं
मैं इसे देखने का अभ्यस्त हो गया हूँ

फर्क दीखता है
इस पार और उस पार में

इसपार लोगों के घर इतने ऊंचे हैं की
ऊपर वाले नीचे वालों को जानाते है नहीं
लेकिन दोनों के बीच एक पुल है
जिसे पार कर रोज आती है
सुमी
बर्तन पोंछा करने
उसे रहती है दोनों संसारों की खबर

एल्विस प्रेस्ली : द किंग ऑफ़ राक एंड रोल


बीसवीं सदी में विश्व संगीत को नयी दिशा देने वाले फनकारों की यदि कोई सूची बनाई जाये तो क्या वह एल्विस प्रेस्ली के जिक्र के बिना पूरी होगी. ८ जनवरी १९३५ को अमेरिका के निहायत गरीब परिवार में जन्मे एल्विस ने आधुनिक संगीत को देश-दुनिया की दीवारों से परे ले जाकर संस्कृति की एक नयी लहर पैदा की. राक एंड रोल संस्कृति.

अपनी मन के बेहद करीब रहे एल्विस का संगीत के प्रति रुझान पैदा हुआ रोजाना की चर्च यात्रा के दौरान. धीरे-धीरे यह सिलसिला चल निकला. उन्होंने अपने करियर की शुरुआत गोस्पेल संगीत से ही की.

६० का दशक प्रेस्ली का स्वर्णकाल था. यह वह दौर था जब उनके गीत संगीत, फिल्मों और पेर्सोनालिटी का करिश्मा सारी दुनिया के सर चढ़ के बोल रहा था. आई वांट यू, आई नीद यू, आई लव यू, शे इस नोट यू, डोंट बे क्रुएल समेत एल्विस के अनेक गीतों ने धूम मचा कर रखा दी. १९७३ में एल्विस ने लास वेगास में सेटलाईट की मदद से एतिहासिक ग्लोबल लाइव कंसर्ट दिया जिसे दुनिया भर में १.५ अरब लोगों ने देखा.

इस बात पर कौन यकीन करेगा की संगीत के इस बादशाह के पास इस नाजुक विधा की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी. उन्होंने रेडियो और जुकेबोक्स पर संगीत सुन कर अपने अन्दर की काबिलियत को इतना मांजा की उनकी मौत के तीन दशक बाद भी दुनिया उनकी धुनों पर झूम रही है.
देश विदेश में युवाओं को स्टाइल आइकोन माने जाने वाले एल्विस के फैशन की नक़ल करते आज भी देखा जा सकता है.अभी तक पोपुलर म्यूजिक में कोई दूसरा गायक प्रेस्ली के आसपास भी नहीं फटक सका है.

द किंग ऑफ़ राक एंड रोल को उनके जन्मदिन पर दुनिया भर के करोडो संगीत प्रेमियों की याद

नया साल आ गया

एक और नया साल आ गया
मैं खुश हूं
जी लिया एक और बरस
बिना किसी खास परेशानी के
और शायद...
बिना किसी मकसद के भी

कितना अच्छा गुजरा बीता साल
न तो मैं किसी दुर्घटना का शिकार हुआ
न फंसा किसी झंझट में बेवजह
किसी ने नहीं देखा मुझे घूस लेते हुए
और ना ही छेड़ा किसी ने जवान होती बेटी को

ओ मेरे भगवान
आने वाले साल में भी बरकरार रखना मेरी ये खुशियां
मैं जिंदगी से बहुत ज्यादा कुछ नहीं चाहता