सिनेमा और मैं भाग- २


मेरे शहर या कहें कस्बे रीवा में पांच टाकीज थीं जिनके नाम थे प्रियदर्शिनी , आकृति, झंकार, पुश्पराज और श्री वेंकट । इनमें से श्री वेंकट और पुश्पराज का तो सार्वजनिक रूप से नाम लेना भी वर्जित था कारण बताने की जरूरत नहीं फिर भी बता देता हूं ये दोनों hall वयस्क प्रधान थे।


कक्षा नौ- दस तक मेरा फिल्मी ज्ञान टेलीविजन तक सीमित था या फिर स्कूल की ओर से दिखाई जाने वाली शिक्षा प्रधान बाल फिल्मों तक। गर्मी की छुट्टियों men मैं अक्सर अपने चाचा के पास सीधी जाया करता था जहां वीडियो हाॅल की भरमार थी। वहां यह वह दौर था जब मिथुन दा गरीबों के मसीहा की भूमिका अख्तियार कर चुके थे।


मैं अक्सर अनिल भैया के साथ वीडियो पार्लर के चक्कर लगाता। वो मुझसे दसेक साल बड़े थे लेकिन हममें जबरदस्त मित्रता थी (है)। भाई साहब राजकुमार के दीवाने थे और बचने के लाख प्रयास के बावजूद यह संक्रमण मुझे भी लग गया। खैर इस पर बात कभी बाद में अभी विषयांतर हो रहा हूं। वीडियो हाल में आलम ये रहता था कि टिकट लेकर घुसने के बाद हाॅल का मैनेजर आता और चार पांच फिल्मों के नाम पुकारता जिस फिल्म के नाम पर दर्शकों का शोर सबसे अधिक तेजी से उभरता उस दिन उसी फिल्म का कैसेट लगाया जाता।


छोटा शहर होने के नाते सभी पार्लर वाले मुझे पहचान गए थे और उन्होंने इशारों इशारों में मुझे यह बता दिया था कि अगर कभी मैं अकेले फिल्म देखने भी आउंगा तो बात मेरे घर तक नही पहुंचेगी।