क्या दे दना दन को स्त्री विरोधी फिल्म मानना चाहिए




दे दना दन में प्रियदर्शन का हालिया रूप निराश करता है.इस फिल्म में पटकथा के नाम पर है तो सिर्फ सितारों का जमघट, शालीन दिखते छोटे कपड़ों में नाचती गाती शो पीस नायिकाएं, घंटे भर लंबा क्लाइमेक्स और कनफ्यूजन का अंतहीन सिलसिला। इसके अलावा प्रियदर्शन की अन्य फिल्मों की तरह यह भी स्त्री चरित्रों को आब्जेक्ट की तरह पेश करती है इस बार कुछ ज्यादा फूहड़ तरीके से।
फिल्म की शुरुआत में अक्षय कुमार और उनकी मालकिन के कुत्ते के बीच के दृश्य रोचक संभावना पैदा करते हैं लेकिन जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ती है निर्देशक की पकड़ उस पर से ढीली होती जाती है। एक अच्छी संभावनाओं भरी फिल्म का अंत पानी के सैलाब के साथ होता है जिसमें सब कुछ बह जाता है,प्रियदर्शन का निर्देशन, आपका पैसा और समय भी।

थोड़ी बात कहानी पर नितिन और राम दो दोस्त हैं जो सिंगापुर में रहते हैं। हालाँकि उनकी दोस्ती गंभीर है लेकिन इतने सारे कमीने पात्रों के बीच उसे और स्थापित किया जाना चाहिए था. नितिन जहां अपनी पढ़ाई के लिए पिता द्वारा लिए गए कर्ज को चुकता करने के लिए एक दुष्ट अमीर महिला अर्चना पूरण सिंह के यहां नौकर कम ड्राइवर का काम करता है वहीं अपनी मां और बहन के गहने बेचकर भारत से करियर बनाने आया राम कूरियर बॉय के रूप में काम करता है।
दोनों की एक एक अमीर प्रेमिका है जिसके पैसे से उनका खर्च चलता है। अपनी शादी के लिए अमीर बनने की खातिर दोनों ना चाहते हुए अपहरण, लाश और फिरौती के भ्रामक खेल में उलझ जाते हैं। खूबसूरत कैटरीना के हिस्से मासूमियत से मुस्कराने के सिवा कुछ नहीं आया है। शायद इसके अलावा वे कुछ कर भी नहीं सकतीं। समीरा रेड्डी की बात समझ में आती है लेकिन कैटरीना करियर के इतने धांसू दिनांे में ऐसी भूमिकाएं क्यों कर रही हैं। नेहा धूपिया ने पांच मिनट के छोटे से रोल में रंग जमा दिया है। राजपाल और अदिति गोवित्रीकर और चंकी पाण्डेय ने अच्छा अभिनय किया है. टीनू आनंद, शक्ति कपूर, असरानी, भारती का माल हैं. परेश रावल इन दिनों हर हास्य फिल्म में एक सा अभिनय करते हैं. फ़िल्म में संगीत ना ही होता तो बेहतर था।

फिल्म क्या कहना चाहती है- दे दना दन का नाम दे धना धन होना चाहिए था क्योंकि इसका लगभग हर पात्र पैसे के पीछे है. यह फिल्म महिलाओं को हाशिये पर रखती है और उन्हें बहुत बुरी तरह पेश करती है. महिलाओं के साथ मारपीट गाली गलौज के उन्हें बेवकूफ दिखाया गया है. अदिति गोवित्रिकर को लम्पट दिखाना भी इसी कड़ी का हिस्सा है.
प्रियदर्शन को यह सोचना चाहिए की हेरा फेरी से दे दना दन तक के सफ़र में उन्होंने क्या पाया और क्या खोया...

अगर आप ने फ़िल्म देखी है तो यह जरूर बताएं की क्या इसे वाकई स्त्री विरोधी फ़िल्म मानना चाहिए?

फिल्म के नाम पर कूड़ा है कुर्बान


कल मैं शिव सैनिकों और सैफ करीना के आन्स्क्रीन इश्क की वजह से चर्चित फिल्म कुर्बान देखने गया था। एकदम कूड़ा फिल्म निकली। बोलीवुड की यह फिल्म कहने को तो आतंकवादियों का पक्ष पेश करने की कोशिश करती है लेकिन यह एक तरह से आतंकवाद को स्थापित करती है।

कुर्बान इस्लामिक आतंकवाद पर बने किसी वीडियो गेम की तरह है। जहां पहचान छिपा कर प्रोफेसर बना नायक (खलनायक?) सैफ अमेरिका में रह रही भारतीय लड़की करीना से शादी करता है ताकि वह उसके साथ अमेरिका जा सके। वहां वह अपने साथियों के साथ आतंकी हमलों की योजना बनाता है। उसकी पत्नी को जब उसकी असलियत पता चलती है तो वह एक सच्चे मुसलमान (जैसा कि होना चाहिए) विवके ओबेराय की मदद से हमलों को नाकाम करने की कोशिश करती है और कुछ हद तक सफल भी। नायक यानि सैफ अंत में आत्महत्या कर लेता है।

फिल्म की टैग लाइन है कुछ प्रेम कथाओं पर खून होता है। लेकिन इस फिल्म में तो प्रेम है ही नहीं। है तो सिर्फ नफरत, इस्लाम की फुरसतिया अंदाज में की गई व्याख्या, करीना के चेहरे पर स्थायी दहशत और मसखरा लगता हुआ आतंकवादी सैफ।

पूरी फिल्म में करीना कहीं भी मनोविज्ञान की प्रोफेसर नहीं लगती। पहले हाफ में हर संभव मौके पर सैफ करीना के चुंबन दृश्य और दूसरे हाफ में अतिरिक्त लंबा बिस्तर का सीन समझ से परे है।

फिल्म का इकलौता मार्मिक सीन वह है जहां मरते हुए सैफ से करीना उसका असली नाम पूछती है। एक व्यक्ति जिससे आपने प्यार किया, शादी की और जीवन की खुशियाँ बांटी लेकिन आपको अंत में पता चलता है कि वह आपसे पहचान छिपाकर आपके साथ रहता था। और आप तो उसका असली नाम भी नही जानते इस पीड़ा को करीना ने बेहतर अभिव्यक्ति दी है। बीच बीच में आतंकियों के मुंह से अमेरिका विरोधी वाक्यों का तड़का डाल कर उन्हें जस्टीफाई करने की जो कोशिश निर्देशक ने की है। उन दृश्यों और संवादों में थोड़ी और गहराई की जरूरत थी। विवेक ने अच्छा अभिनय किया है।

कुर्बान दरअसल न्यूयार्क और फना की मिक्सिंग है। लेकिन यह निराष करती है। सैफ करीना की बात समझ में आती है लेकिन ओम पुरी और किरण खेर जैसे समर्थ कलाकार ऐसी घटिया फिल्मों मंे काम क्यों करते हैं यह बात समझ से परे है। उन्हें किसी तरह का दायित्व बोध नहीं होता है क्या!

सलाह- जो लोग वास्तव में आतंकवाद पर फिल्म बनाना चाहते हैं उन्हें एक बार खुदा के लिए देख लेनी चाहिए।

क्रिकेट को कविता बना दिया सचिन ने...


वह सन 1989-90 के जाड़ों के दिन थे जब सियालकोट में पाकिस्तान के साथ श्रृंखला के अंतिम टेस्ट मैच में एक खतरनाक बाउंसर सीधी एक 16 साल के किशोर की नाक पर जाकर लगी थी। नाक से खून की एक धारा निकली। मैच देख रहे जाने कितने लोगो के दिल से आह निकली और व्याकुल माओं की छाती में दूध उतर आया। लेकिन वो लड़का जिद्दी था उसने मैदान नहीं छोड़ा और उस समय दुनिया के सबसे तेज माने जाने वाले पाकिस्तानी पेस अटैक का सामना करने की ठानी। वह अटैक जिसमें वकार, वसीम और इमरान खान खूंखार गोलंदाज शामिल थे.उसके बाद जो हुआ वो इतिहास का हिस्सा बन चुका है।

उस सिरीज ने क्रिकेट को एक नया नक्षत्र दिया- सचिन तेंदुलकर। वही सचिन जिसने हाल ही मे इंटरनेशनल क्रिकेट में 20 वर्ष पूरे किए हैं और रिकार्ड बुक्स उसके नाम से अटी पड़ी हैं। उसी सिरीज में खेले गए एक प्रदर्षनी मैच में सचिन ने पहली बार अपनी प्रतिभा की झलक दिखाई जब उन्होंने युवा पाकिस्तानी लेग स्पिनर मुश्ताक अहमद को एक ओवर में दो छक्के जड़े। इस पर तिलमिलाए मुश्ताक के गुरू और पाक के स्पिन लीजेंड अब्दुल कादिर ने सचिन को चुनौती ही दे डाली, ‘बच्चों को क्या मारते हो, मुझे मारो।’ सचिन खामोश रहे जैसे कि वे अब भी रहते हैं। सिर्फ उनका बल्ला बोला और उस ओवर का स्कोर रहा- 6,0,4,6,6,6,। उन्होंने महज 16 गेंदों पर अपना अर्ध शतक पूरा किया।

सचिन ने अगले साल इंग्लैंड में खेलते हुए टेस्ट क्रिकेट का पहला शतक तो जड़ दिया लेकिन वन डे में पहले शतक के लिए उन्हें अगले पांच सालों तक इंतजार करना पड़ा। शायद युवा सचिन के स्वभाव की हड़बड़ी और एक दिवसीय क्रिकेट का गतिशील रोमांच उन्हें विकेट पर टिकने नहीं दे रहा था। सचिन अनेक पारियो में ५० रन के बाद कैजुअल तरीके से खेलकर अपना विकेट गंवा बैठे।

सचिन को लता बहुत पसंद हैं। वे उन्हें आई (मां) बुलाते हैं और अपने हर दौरे पर उनके गीत सुनते हुए जाते हैं। लता स्वर कोकिला हैं और सचिन बल्लेबाजी का महाकवि। सचिन को बल्लेबाजी करते हुए देखकर लगता है कि मोजार्ट समेत दुनिया के तमाम बड़े संगीतकार इसी तरह अपने गीतों को आकार देते होंगे जितने करीने से सचिन स्ट्रोक लगाते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में 20 सालों से जमे सचिन ने कई झंझावात झेले। मैच फिक्सिंग का काला साया उनके ही दौर में क्रिकेट पर पड़ा, टीम इंडिया को विष्व कप के पहले ही दौर में बाहर होना पड़ा। लेकिन सचिन के स्वभाव की गंभीरता ने हर चीज को बहुत सहजता से लिया। मुंबई के मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुए सचिन का माथा सफलता से नहीं फिरा। उन्होंने जाना कि ये सारी उपलब्धियां उनके पास इसलिए हैं क्योंकि क्रिकेट उनका जुनून बना हुआ है।

पांच फीट चार इंच के उस नाटे उस्ताद के कंधे एक अरब से ज्यादा की आबादी का बोझ दो दशकों से उठाए हुए हैं लेकिन वे आज तक झुके नहीं बल्कि उन्होंने ऐसे अनगिनत मौके दिए जब देशवासियों का सीना गर्व से चौड़ा हो गया।

उन्होंने आंखें उठाकर दुनिया को देखा मानो कह रहे हों देखो ये हमारा सचिन है-

मैदान पर शेर सा दहाड़ता सचिन

चीते सा चपल सचिन

बिल्कुल पड़ोस के लड़के जैसा सहज सचिन

बल्ले से कविताएं लिखता सचिन

गेंद से उम्मीदों पर खरा उतरता सचिन

सचिन जब बल्ला लेकर मैदान पर उतरते हैं तो वो मध्यकालीन रोमन ग्लेडिएटर की तरह दिखते हैं। उनके चेहरे की प्रतिबद्धता किसी भी गेंदबाज का हाड़ कंपा देने के लिए काफी होती है। जाने अनजाने कितने ही गेंदबाजों के करियर का सूर्य उनकी तूफानी बल्लेबाजी की छांव में अस्त हो चुका है।

सचिन की बल्लेबाजी में समय को थाम लेने की ताकत है। यकीन न हो तो उस समय आप शहर में निकलकर देखिए जब सचिन बल्लेबाजी कर रहे हों और शतक के आसपास हों। आपको पूरा शहर ठहरा हुआ मिलेगा।

हालांकि कि सचिन क्रिकेट के सबसे विवादित युग में एक खिलाड़ी के रूप में परिपक्व हुए लेकिन विवादों से उनका नाता दूर दूर तक नहीं रहा। जाने कितने ऐसे मौके आए जब लोगों ने सचिन का करियर खत्म होने की घोशणा ही कर डाली लेकिन सचिन ने कुछ नहीं कहा और हमेशा की तरह अपने बल्ले से जवाब दिया। सचिन ने आज अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम पर श्रीलंका के खिलाफ टेस्ट क्रिकेट में अपना 43वां सैकड़ा जड़ा है। आलोचकों ने कलम घिसनी शुरू कर दी है की यह पारी एक मुर्दा पिच पर बेजान गेंदबाजों के सामने खेली गयी है...

सचिन अभी और खेलें और हमें आनंदित करें यही कामना है और क्या...

धर्म को लेकर अपराधबोध क्यूं



-अजीत कुमार

प्रभाष जी किस तरफ के हैं। यह मेरे लिखने का उद्देश्य कभी नहीं रहा है। आखिर किन्हीं दो व्यक्तित्वों के बीच क्या कभी सीधी रेखा खींची जा सकती है। मेरे हिसाब से तो खीचने की कोशिश भी नहीं होनी चाहिए। मुझे तो प्रभाष जी को याद करते हुए वो सभी जन याद आ रहे हैं। जिन्होंने समय के सापेक्ष लोक मंगल को अपने जीवन का ध्येय बनाया। चाहे वो राजनीतिज्ञ, पत्रकार या कला व संस्कृति से सबंद्व कोई हस्ताक्षर रहे हों।


इतना ही नही विशिष्ट के खांचे में नहीं समोने वाले वे आम जन जो न तो इतिहास और साहित्य में कहीं दर्ज हैं को भी प्रभाष जी के संदर्भ में याद कर रहा हूँ । रही बात किस तरफ की तो आप जानते ही होगे कि घसीटू तरफदारी और जड वैचारिक आस्था से साहित्य के साथ -साथ समाज का आज तक कितना भला हुआ है। जहां तक रही प्रभाष जी के बहाने तुलसी को याद करने की बात तो इसका एकमात्र आधार सिर्फ और सिर्फ लोकमंगल को लेकर दोनों की अपनी अपनी अप्रतिम और विलक्षण प्रतिबद्वता में निहित है। लेकिन इन दोनों में यह प्रतिबद्वता कभी भी जडता की शिकार नहीं हुई।


लेकिन आज अपनी परंपरा, और आस्था को लेकर आज जिस तरह का निगेशन यानी नकार देखने को मिल रहा है। उसकी पडताल प्रभाष जोशी और तुलसी के संदर्भ में ही अच्छी तरह से ली जा सकती है। इतना ही नहीं स्वतंत्र भारत में एक खास विचार धारा वैज्ञानिकता और वस्तुनिष्टता के नाम पर किस तरह से परंपरा और आस्था को खारिज करने में लगी है, दकियानूस करार देने में लगी है कि पोल भी खोली जा सकती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने दिनों बाद भी अगर देश में सांप्रदायिक राजनीति की नकेल नहीं कसी जा सकी है। तो इसका एकमात्र कारण भी एक तरह से रूमानी नकार में ही है।


वे लोग जो वैज्ञानिकता के नाम पर तमाम आध्यात्मिक और धार्मिक मूल्यों को एक सिरे से नकारने में लगे हैं, कब समझेंगे कि नकार के सहारे समाज में वैज्ञानिक सोच विकसित नहीं की जा सकती। प्रभाष जी और गांधी के व्यक्तिगत जिंदगी में धार्मिक या परंपरावादी होने को लेकर तथाकथित प्रगतिशीलों की पाखंडी भौंहें क्यूं तनने का नाटक रचाती है। ये उपहास उडाते हैं प्रभाष जी की जिंदगी में विरोधाभास को लेकर। जबकि मैं नहीं मानता कि उन सबों की जिंदगी में आस्था और वैज्ञानिकता को लेकर कोई विरोधाभास नहीं होगा। बशर्ते वे समाज के साथ साथ अपने आप को भी समझने की प्रक्रिया में रहे हों।


वैसे भी अपन को विरोधाभास से कोई दिक्कत नहीं है। दिक्कत तो इस बात में है कि ये तथाकथित प्रगितिशील अपने विरोधाभासों को लगातार नकारने में लगे हुए हैं। काश ये भी प्रभाष जी और गांधी की तरह अपने विरोधाभासों को स्वीकार कर लिए होते। मेरे हिसाब से इंसान जितना ही ज्यादा अपने आप को समझने की कोशिश करता है । विरोधाभासों और उलझनों की परिधि में और वह अपने आप को और ज्यादा उलझता हुआ पाता है। लेकिन बिना अपने को समझने की प्रक्रिया में शामिल किए क्या विरोधाभास, उहापोह और आशंका।लेकिन इन स्थितियों में आप आसानी से रच सकते हैं नाटक अपनी वैज्ञानिक सोच की मसीहाई का।


आज नकार की जगह सबसे बडी जरूरत है आत्म स्वीकृति की। क्योंकि आत्मस्वीकृति के बाद ही इंसान अपने आप को ज्यादा से ज्यादा मानवीय और नैतिक बनाने की प्रक्रिया में निरत करता है। लेकिन परंपरा और धार्मिक आस्था को लेकर कोई जरूरत नहीं है अपराधबोध की। अगर कोई ब्राहमण जाति में पैदा हुआ है और अपनी परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं को लेकर उसमें नकार नहीं है। तो इसमें मैंे कोई गुनाह नहीं मानता। लेकिन अगर परंपरा न्याय और नैतिकता की अवहेलना करे तो जरूर उसे पहचानकर उससे निवृत्त हो लिया जाए। जो लोग नास्तिक होने की दुहाई देते फिरते हैं, उनको मैं बता दूं कि इंसान को मानवीय और नैतिक बनाने की सबसे बडी शक्ति धर्म में ही निहित है। वहीं एक नास्तिक व्यक्ति के लिए तो नैतिकता और मानवीयता का कोई मूल्य ही नहीं। तभी तो ये नास्तिक हमेशा धर्म को राजनीतिक फायदों के लिए भुनाते आए हैं।


ज्यादा पीछे नहीं लौटें तो गौर फर्मा लें विभाजन की त्रासदी पर। गांधी आस्तिक थे लेकिन जिन्ना नास्तिक। लेकिन आखिर एक नास्तिक ने क्या किया। धर्म के नाम पर करेाडों लोंगों की जिंदगी को देखते ही देखते तबाह कर दी। लोगों के अवचेतन में कभी न भरने वाले नासूर जख्म दिए। वहीं एक रामनामी हिंदू नोआखाली और बिहार में जान की बाजी लगाकर खाक छान रहा था दिलों को जोडने की कोशिश में। आखिर उसके धर्म ने उसे इतना मजबूत और नैतिक तो बना दिया था------- ।

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आप को

कल रात एक मित्र से फूलन देवी और उनपर बनी फ़िल्म पर चर्चा होती रही और संयोग से उसके बाद ही कविता कोष पर अदम गोंडवी की इस रचना पर नजर गयी, आप भी पढ़ें - संदीप

आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर

मर गई फुलिया बिचारी थी कुएँ में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़ि़या है घात में
होनी से बेख़बर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छतपताई पहले, फिर ढीली पड़ी, फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें ज़ोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
बोला कृष्ना से- बहन, सो जा मेरे से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वो इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी पर
देखिये सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई! क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सूअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिये ना यह जो कृष्ना है चमारों के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है
भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फ़िर कोई बाहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने -अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक्कार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज्जत रहेगी आपकी´
बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना
गया क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंज़ूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
सर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
`जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने´
निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोल कर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से गया
सुन पड़ा फिर `माल वो चोरी का तूने क्या किया´
`कैसी चोरी माल कैसा´ उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस, होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर
-`मेरा मुँह क्या देखते हो! इसके मुँह में थूक dओ
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो´
और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
दुधमुंहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ ज़ोर से रोने लगे´

´ कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं ´
´यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
फ़िर दहाड़े "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
"इक सिपाही ने कहा "साइकिल किधर को मोड़ दे
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
बोला थानेदार "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल`
कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल´
उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रान्त के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आएँ मेरे गाँव में
पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

अबू आजमी को हीरो मत बनाओ

आज प्रभाष जी नहीं हैं, न कागद कारे जैसा स्तंभ है। उनके रहते हुए लगा ही नहीं कि लिखूं , क्योंकि उन्हें पढकर लगता था मेरी सारी बातें उन्होंने लिख दी हैं. आज उनके नहीं होने के बाद अपने अंदर की बात कहीं पढने को नहीं है सो खुद ही लिखने को मजबूर हूं।
-अजीत कुमार

महाराष्ट विधानसभा में जो भी हुआ उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम होगी। लेकिन भर्त्सना को लेकर हिंदी पत्रों और चैनलों में जिस तरह की गैर जबावदेह और अपरिपक्व तत्परता देखी गई। वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के लिए किसी भी सूरत से विवेक सम्मत नहीं है। कुछेक अखबारों और चैनलों को छोड दिया जाए तो ज्यादातर अखबार और समाचार चैनल अबू आजमी को ऐसे पेश करते दिखे मानोे वह हिंदी और हिंदी पट्टी के मान सम्मान का रखवाला हो। जहां तक महाराष्ट नवनिर्माण सेना और राज ठाकरे की बात है, इन सबों पर हिंदी अखबारों और चैनलों ने इतना कुछ लिख और बोल दिया है कि अब कुछ बचा भी नहीं है।

आखिर गाली देने की भी सीमा होती है। और गाली देना वैसे भी अपनी आदत में नहीं रही है। मुझसे पूछा जाए तो गाली के लिए पत्रकारिता क्या कहीं भी कोई जगह नहींे होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से राज ठाकरे को लेकर हिंदी पत्रों का रवैया गरियाने तक ही सीमित रहा है। एक बात मैं पूछता हूं कि क्या अबू आजमी हिंदी के मान सम्मान के संरक्षक हो सकते हैं। क्या प्रेमचंद और निर्मल वर्मा की हिंदी इतनी गरीब है कि वह इन छिटपुट वाकयातों को लेकर अपमानित हो जाएगी।

मेरे साथियों ,आम जनों की अपेक्षा पत्रकारों से ज्यादा विवेक और जबावदेही की अपेक्षा की जाती है लेकिन अबू आजमी के साथ हिंदी की इज्जत को जोडना कौन सी जिम्मेदारी है। आखिर अबू आजमी का हिंदी का मान सम्मान बढाने में क्या योगदान रहा है। कौन नहीं जानता कि विघटनकारी राजनीति की बिना पर ही आज वे विधानसभा तक पहुंचने में सफल रहे हैं। अब आप ही बताओ कि एमएनएस की विघटनकारी राजनीति की बखिया उधेडने के लिए क्या अबू आजमी को हीरो बनाना जरूरी है। मैं यह कभी मान नही सकता कि अनैतिकता का मुकाबला अनैतिकता से किया सकता है। अनैतिक का मुकाबला नैतिक बनकर ही किया जा सकता है।

मीडिया की जिम्मेदारी तो यह होनी चाहिए थी कि बजाय अबू आजमी को हिंदी के मसीहा के तौर पर प्रस्तुत करने के वह महाराष्ट निव निर्माण सेना, राज ठाकरे और शिवसेना की विघटनकारी राजनीति का विरोध करने के नाम पर वे तमाम राजनेता जो उत्तर भारतीयों के वोट को हथियाने के लिए राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं, भाषा, क्षेत्र, जाति और धर्म की कुत्सित राजनीति कर रहे हैं, को ये एक साथ बेनकाब करते। स्वार्थ और अवसरवादिता की रोटियां सेंकने वाले ये राजनेता कभी नहीं चाहेंगे कि शिवसेना और एमएनएस की घटिया राजनीति कभी बंद हो आखिर इन्हें भी तो अपनी दुकान उन्हीं के सहारे चलानी है। लेकिन इन अनैतिक राजनीतिक कृत्यों और उनको लेकर मीडिया की गैर जबाबदेही का अंजाम क्या होगा। क्या आपने सोचा है। हिंदी मीडिया ने एमएनएस और शिवसेना के विरोध का परचम जिन हाथों में दे दिया है। उसे लेकर आप ही बताओ आम मराठी मानुष आखिर क्या सोचता होगा। क्या अबू आजमी के बारे में भी लोंगों को विशेष बताने की जरूरत है।

आखिर हिंदी मीडिया की इन हरकतों से देश का संघीय ढांचा ही कमजोर होगा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से देश के उत्तर पूर्व और कश्मीर, में जो हालात है। वह इसी गैर जबावदेह राजनीति और पत्रकारिता का नतीजा है। जहां जाति, धर्म, क्षेत्र और समुदाय विशेष की परिधि से आज तक भारतीय मीडिया पूरी तरह से नहीं निकल पायी है। वहीं खबरों को एक्सक्लूसिव बनाकर परोसने की आपाधापी ने पत्रकारिक मूल्यों का पूरी तरह से गला घोंट दिया है। ज्यादा निराशा तो तब होती है जब हम पाते हैं कि आज के हिंदी पत्रकारों को पत्रकारिक मुूल्यों से कुछ लेना देना ही नहीं है। लेकिन वे महानुभाव जो पिछले 20-30 सालों से पत्रकारिता कर रहे हैं, क्यूं भीष्म पितामह की तरह द्रौपदी का चीरहरण चुपचाप देखते को विवश हैं। आप ही सोचो क्या पत्रकारिक मूल्यों से विरत होकर देश की एकता, अखंडता और धर्मनिरपेक्षता को अक्षुण्ण रखने की बात की जा सकती है। क्या दुनिया भर में अपनी विविधता और बहुलता की दुहाई दी जा सकती है। अलगाव की राजनीति को हतोत्साहित किया जा सकता है।

एक बात और जो मीडिया राज, एमएनएस और शिवसेना को गरियाने से बाज नहीं आ रही है, उसे इन सबों के लिए कांग्रेस को कटघरे में खडा करने की जरूरत कभी शिद्दत से महसूस तक नहीं हुई। भले कभी कभार थोडी रस्म अदायगी कर दी गई हो। सिर्फ और सिर्फ चुनावो में मिली कुछेक सफलताओं के आधार पर कांगे्रस, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के गुणगान से मीडिया को आखिर फुर्सत ही कहां है। किसे नहीं पता कि एमएनएस की घटिया राजनीति का फायदा सबसे ज्यादा किस पार्टी को मिला है। वास्तव में कांगे्रेस अगर एमएनएस और राज की हरकतों पर लगाम लगाने के प्रति गंभीर होती तो मैं कोइ कारण नहीं मानता कि ये लोग आज यहां तक पहुंचे होते। सच में देश के संघीय ढांचे को बर्बाद करने वाली इस तरह की राजनीति के लिए सिर्फ कांग्रेस जिम्मेदार है। अतीत में भी पंजाब, कश्मीर और उत्तर पूर्व में कांग्रेस ने कुछ ऐसा ही किया है।

प्रभाष जी कोटेशन सुनाने वालों में से नहीं थे (खंड 4)

प्रभाष जी की तकनीकी समझ को लेकर पिछले दिनों ब्लॉग जगत में काफी कुछ लिखा गया। कुछ लोगों ने तो इसे मजाक का विषय ही बना लिया। अजीत सर के लेख का चौथा खंड इस पहलू पर भी रोशनी डालता है - संदीप

प्रभाष जी और उनके लौकिक अनुभवों को लेकर मेरी बात को मेरे मित्र और विस्तार देने को कह रहे हैं। लेकिन लोक को ताडना क्या किसी के वश की बात है। आखिर कलाकार, लेखक या सर्जक करता भी क्या है, अपनी कला के माध्यम से उम्र भर लोक को समझने की कोशिश ही तो करता है। इसमें वह कितना सफल हो पाता है यही तो आलोचना की कसौटी पर कसने की बात होती है। जहां तक अपनी बात है, ऐसी क्या मजाल जो प्रभाष जी के विराट लोकानुभव की थाह ले सकूं।

कवित विवेक एक नहीं मोरे सत्य कहूं लिखि कागद कोरे
एक बात और अपने पिछले लेखों में प्रभाष जी के संदर्भ में तुलसीदास का जिक्र तक करना भूल गया। जबकि तुलसी से बडा लोकमंगल का कोई दूसरा कवि आज तक हुआ ही नहीं। इसलिए प्रभाष जी पर बात करूं और तुलसी का जिक्र नहीं हो यह घोर नाइंसाफी होगी। आखिर कबीर, तुलसी, गांधी और लोहिया की परंपरा को ही तो आगे बढाने की कोशिश की प्रभाष जी ने। इन सबों के बीच एक बात जो उभयनिष्ठ रही वह थी इनका अपार लोकानुभव। लेकिन मेरे तुलसी का नाम लेने मात्र भर से रंगीले प्रगतिशीलों की फौज भडंक सकती है। दो चार पंक्तियों का अपने अपने अंदाज से कुपाठ कर आखिर वे तो तुूलसी को कब का जड, सामंतवादी, नारी विरोधी और ब्राहमणवादी घोषित कर चुके हैं। यही प्रगतिशील आज इस बात की दुहाई देते फिर रहे हैं कि इंटरनेट और आॅरकुट पर जाना वैचारिक सजगता की निशानी है।
मेरी बात का ये बुरा न मानें तो इनको मैं बता दूं कि इंसान सिर्फ और सिर्फ इंटरनेट पर जाने से और दो चार पुस्तकों के कुपाठ से सजग होने का दावा कभी नहीं कर सकता। भले दो चार पुस्तकों के घटिया पाठ की बिना पर वह कोटेशन का उवाच करते हुए अपनी बौद्विकता के अहं की तुष्टि कर सकता है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि किसी पुस्तक के पाठ के लिए भी व्यापक लोकानुभव की अपेक्षा की जाती है। और ऐसा नहीं होने पर उसी तरह का पाठ करना आपकी नियति हो सकती है जैसा तुलसी का पाठ आज के रंगीले और लोकानुभव से हीन प्रगतिशील कर रहे हैं।
मैं उन महानुभावों से कहना चाहूंगा कि तकनीक तो समय के साथ रगड खा जाती है। लेकिन अपार लोकानुभव से उपजा लेखन, कलाकृति समय और सीमा से परे जाकर पुनर्पाठ की अपेक्षा रखते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कबीर, तुलसी और भक्ति काव्य कब के कूडा हो गए होते। लेकिन क्या भारतीय विश्व साहित्य के मानचित्र पर भी अपने अपने देशों की क्लाॅसिक कृत्तियां सर्वोत्तम साहित्य बनकर सुशोभित हैं। ठीक ऐसा ही पत्रकारिता के क्षेत्र में भी है।
एक और बात जिन महानुभावों के मुखारविंद यह कहते हुए नहीं थक रहे हैं कि तकनीकी दक्षता इंसान के नजरियात केा वुसअत अता करती है। उन्हें यह भी तो देखना चाहिए कि उनके बच्चें तकनीकी दक्षता के मामले में कहीं उनसे आगे होंगे। इसका मतलब यह तो कतई नहीं कि तकनीकी दक्षता की बिना पर उनकी वैचारिकी का भी लोहा मान लिया जाए। अगर वैचारिकी तकनीक का मोहताज होती तो आज कबीर, तुलसी और गांधी के पाठ मायने नहीं रखते। लेकिन इन बौद्विकों को कोई कैसे समझाए कि उधार के कोटशन से किसी की आलोचना नहीं की जा सकती। भले किसी पाठ का कुपाठ किया जा सकता है। कुतर्कों की बैतबाजी की जा सकती है। आपने प्रभाष जी को कभी देखा किसी को कोटेशन के सहारे पढने की कोशिश करते हुए। आखिर कोटेशन के सहारे अपनी बौद्विकता का आतंक पैदा करना हमारे यहां के बौद्विकों में मियादी बुखार की तरह फैल गया है।
विखंडन, आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता उसी पोपलेपन और खालीपन को भरने की साजिश मात्र भर हैं। अब आप ही बताओ पोपटपन को भरने की साजिश और पाखंड से क्या कभी समतामूलक समाज बनने में कोई मदद मिल सकती है। जिस तरह से तुलसी के मानस से दो चार पंक्तियों को निकालकर ये प्रगतिशील लोकमंगल के इस अप्रतिम कवि को लगातार हाशिए पर रखने की कोशिश कर रहे हैं, उसी तरह आज के कुछेक महाप्रगतिशील और अपने आप को सामाजिक का्रंति के अग्रदूत मानने वाले पत्रकार प्रभाष जी को लेकर गुंडई पर उतर आए हैं। इन महानुभावों को जब कुछ नहीं मिला तो ये प्रभाष जी की पूरी संपादकीय यात्रा से जनसत्ता की दो चार कतरनें लेकर मैदान में आ गए। और इसे ऐसे हवा में लहराने लगे जैसे मानो प्रभाष जी किसी स्टिंग आॅपरेशन में दबोच लिए गए हों। जिन दो चार कतरनों को लेकर ये महानुभाव अतिपुलकित हो रहे हैं और प्रभाष की छवि को दागदार कर देने में सफल होने का मनमोदक खा रहे हैं। उन्हें कैसे बताउं कि ये दो चार कतरनें प्रभाष जी की पत्रकारिता को लेकर उनके सामासिक विचारों का ही परिचायक है।
संपादक का यह धर्म कभी नहीं होता कि वह अपने पत्र में सिर्फ अपने माफिक विचारों को जगह दे। अगर प्रभाष जी ने उस समय अपन विरूद्व विचारों को भी अगर अपने पत्र में जगह दिया तो यह उनके विरोधी विचारों के प्रति सदाशयता को ही दिखाता है। आखिर समाचार पत्र का मतलब किसी खास विचारों के मुखपत्र होने में नहीं है।

प्रभाष जी का जनसत्ता सही मायनों में जनतंत्र की प्रयोगशाला ( खंड 3)

प्रभाष जोशी को गुजरे कुछ दिन बीत गए हैं टीवी चैनल बनने की होड़ में शामिल हमारे कुछ साथी अपनी हिटृस व टीआरपी बढने के लिए विवादों की अपनी दुकान दोबारा सजा कर बैठ गए हैं। बहरहाल हम अपने ब्लाग पर प्रभाष जी को अपने साथियों की नजर से याद कर रहे हें इस कड़ी में प्रस्तुत है हमारे साथी अजीत कुमार के आलेख का तीसार भाग-संदीप


लोकतंत्र में लोक को लेकर रधुवीर सहाय की ये पंक्तियां बेतरह याद आ रही है। राष्टगीत में भला कौन वह भारत भाग्य विधाता है, फटा सुथन्ना पहने जिसका गुण हरचरना गाता है। लेकिन लोक के ही तंत्र में लोक की इस हास्यास्पद स्थिति को प्रभाष जोशी कैसे गवारा कर सकते थे। सो उन्होंने फटा सुथन्ना पहनने वाले उस लोक को सही अर्थों में भारत का भाग्य विधाता बनाने का बीडा उठाया। और इसके लिए उन्होंने पत्रकारिता को अपनाया, क्योंकि लोक की आवाज को बुलंद करने का इससे बढकर और कोई जरिया हो ही नहीं सकता था। प्रभाष जी के व्यक्तित्व का बुनाव कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड या दून स्कूल में नहीं हुआ था। अगर होता तो शायद ही प्रभाष जी का यह व्यक्तित्व हमारे सामने होता। उनके व्यक्तित्त्व की बुनाई और गढाई तो नर्मदा मैया की गोद में और मालवा के खेतों, खलिहानों में हुई थी।

रधुवीर सहाय के जन उनके हमजोली रहे। तभी तो ताउम्र उसी जन की पक्षधरता में वे चट्टान की तरह अडिग नजर आए। आािखर प्रभाष जी पत्रकारिता में आए ही थे भारत भाग्य विधाता की आवाज बनकर उसका तकदीर संवारने के लिए। उसका वाजिब हक दिलाने के लिए। लेकिन उस समय की हिंदी प़त्रकारिता में न तो उस लोक से बतियाने की भाषा थी न शिल्प था। तभी तो पत्रकारिता प्रभाष जी के लिए ताउम्र मिशन बनकर रहा लोक की प्रतिष्टा को स्थापित करने का। इस बाबत उन्होंने भाषा और शिल्प के साथ साथ घिसे पिटे तमाम पत्रकारिक रूढियों और लग्गीबंधी को बदल डाला। प्रभाष जी की जनसत्ता से पहले हिंदी में ऐसा कोई दैनिक समाचार पत्र नहीं था जो सही मायने में लोक की भाषा, शिल्प और संवेदना का प्रतिनिधित्व करता हो। आखिर प्रभाष जी से पहले दैनिक हिंदी पत्रकारिता की न तो कोई अपनी भाषा थी न शिल्प और न कोई मुहावरा। अब आप ही बताइए जिस भाषा की पत्रकारिता का न तो कोई अपना शिल्प हो और न भाषा वह खाक जन सरोकार या संवदेना की बात कर सकती है।
वे लोग जो भाषा और शिल्प के नाम पर किसी भी तरह की नैतिकता की खिल्ली उडाने से बाज नहीं आते को मैं स्पष्ट बता दूं कि भाषा इंसान का सबसे बडा आविष्कार है और संवेदना और सरोकारों की अभिव्यक्ति के लिए शिल्प और भाषा के स्तर पर जादुई प्रयोग की अपेक्षा की जाती है। जादुई प्रयोग कभी जटिलता से नहीं आते शौकिया तौर पर व्याकरण तोडने से भी नहीं आते। बल्कि आते है अपन के विशिष्टानुभव की बिना पर। लेकिन कूडा फैलाने, फेंटने और मनचलेपन की बिना पर कोई भाषा और शिल्प का जादूगर नहीं बन सकता। पत्रकारिता से हटकर थोडा साहित्य में झांक लें तो भाषा और शिल्प का यह जादुई प्रयोग आपको प्रेमचंद निराला, मुक्तिबोध और निर्मल वर्मा के यहां मिलेगा। वहीं पत्रकारिता के लिए ठीक ऐसा ही काम किया राजेंद्र माथुर, शरद जोशी और प्रभाष जोशी जैसे लोगंेा ने। इन सबों ने हिंदी पत्रकारिता की भाषा को न सिर्फ जिंदगी प्रदान की बल्कि आम लोगों के दुख दर्द को आवाज देने लायक बनाया। तभी तो मैं कहता हूं जनसत्ता प्रभाष जी के लिए सिर्फ दैनिक समाचार पत्र नहीं बल्कि लोक की प्रतिष्ठा स्थापित करने के मिशन का प्रयोगशाला रहा।
पत्रकारिता को लेकर उनका युगांतकारी प्रयोग हिंदी दैनिक जनसत्ता के रूप में सामने आया। इस पत्र के माध्यम से प्रभाष जी पूरे देश को एक सूत्र में जोडने के लिए प्रयासरत रहे। भाषा, क्षेत्र, रंग, और रूप यानी कहें तो बहुलता और सामासिकता को लेकर उनकी समन्वयवादिता अप्रतिम थी। अपने पत्र को उन्होंने कभी भी प्रचार और एकालाप का जरिया बनने नहीं दिया। देश की एकता, अखंडता और सधीय ढांचे को अतिक्रमित करने वाले विचारों का उन्होंने अपने पत्र के माध्यम से जमकर विरोध किया। दूसरी तरफ हाशिए पर की आवाजों को भी एक प्रखर सबाल्टर्न की तरह मुख्यधारा में शामिल करने के लिए जद्दोजहद करते रहे।
प्रभाष जी की मेहनत और लगन के चलते जनसत्ता देखते ही देखते मानवीय सरोकारों का मुखपत्र बन गया। समाचारों की सत्यता और निष्पक्षता को लेकर पाठकों का जितना विश्वास जनसत्ता जीतने में सफल रहा, शायद ही हिंदी के किसी दूसरे अखबार को ऐसी उपलब्धि कभी हासिल हुई हो। राजनीति, कला, साहित्य, खेल और व्यापार मामलों के शीर्षस्थ जानकार भी प्रभाष जी के प्रयास के वलते ही जनसत्ता से संबद्व हुए। हिंदी का यह पहला समाचार पत्र बना जिसे बौद्विक और आम जनों के बीच एकसमान लोकप्रियता हासिल हुई। कला, राजनीति, साहित्य और अन्य विषयों को लकर संवाद शुरू करने के मामले में जनसत्ता हमेशा आगे रहा। और संवाद के लिए प्रभाष जी ने हर तरह के परस्पर विरोधी विचारों को आमंत्रित किया।
देश के कई शीर्ष टिप्पणीकार और कला समीक्षक तो आजतक जनसत्ता से जुडे हुए हैं। शास्त्रीय संगीत, चित्रकला, रंगमंच और गंभीर फिल्मों पर तो आज भी जनसत्ता का कवरेज अंग्रेजी सहित किसी अन्य भारतीय भाषा के समाचार पत्रों की तुलना में काफी बेहतर है। कुल मिलाकर कहें तो जनतंत्र के चैथे स्तंभ की भूमिका के निवेहन में न तो प्रभाष जी और न उनकी जनसत्ता कभी पीछे रही। प्रभाष जी इस जहांने फानी से कूच कर गए हैं लेकिन जनसत्ता को देखकर ऐसा नहीं लगता। क्या जनसत्ता से प्रभाष जी कभी विरत हो सकते हैं-------।

निर्भय निर्गुण गुण रे गाऊंगा (प्रभाष जोशी भाग-२)

प्रभाष जी पर अपने आरंभिक श्रद्धांजलि लेख के बाद अजीत सर ने एक बार फ़िर उनकी स्मृतियों को अपनी तरह से याद किया है.आप भी पढ़ें और अपनी राय दें- संदीप


प्रभाषजी अपने पसंदीदा गायक कुमार गंधर्व के इस भजन को ताउम्र सुन सुनकर रीझते रहे। आखिर रीझते भी क्यूं नहीं, जिद जो थी पत्रकारिता की डगरिया पर निर्भयतापूर्वक निर्गुण के गुण गाने की । जब से प्रभाष जी इस नश्वर शरीर को छोडकर परब्रहम में लीन हुए हैं। मैं लगातार कुमार साहब के गाए कबीर के इस भजन में प्रभाष जी के उस विराट व्यक्तित्त्व को निरेख रहा हूं जिसने बगैर किसी लाग लपेट के अपनी ठेठ देशजता में न सिर्फ पत्रकारिक बल्कि तमाम जनतांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए अंगारों पर चलना स्वीकार किया। किसे नहीं मालूम कि हर युग में विरोध के अपने खतरे रहे है। लेकिन सुकरात, कबीर, गांधी जैसी शख्सियतों ने विरोध के रास्ते पर चलना स्वीकार किया। क्योंकि उन सबमें गजब की निर्भयता थी। अकेले चलने का माद्दा था।


प्रभाष जी का आगमन जिस समय पत्रकारिता में हुआ देश को नई नई आजादी मिली थी। पत्रकारिता ही नहीं राजनीति सिनेमा, सहित्य, दर्शन और कला के तमाम समकालीन आयामों पर आदर्शवादिता की सनक थी। एक तरफ अगर जनतांत्रिक मूल्यों को लेकर लोगों की अपेक्षाएं हिलकोरे मार रही थी तो दूसरी तरफ वैश्विक राजनीति की धुरी में हो रहे बदलाव को लेकर भी लोगों की रूमानियत कम नहीं थी। मैं जिस व्यवस्था की ओर संकेत कर रहा हूं आप समझ ही गए होंगे। लेकिन आदर्शवादिता और रूमानियत के इन दोनों पाटों के बीच कहीं कोई चीज गुम हो रही थी वह थी अपन के व्यवहारिक मूल्यों की राजनीति, पत्रकारिता कला साहित्य, सिनेमा -----------। क्योंकि जनतत्र और समाजवाद नाम की इन दोनों नई व्यवस्थाओं की न सिर्फ जन्मभूमि बल्कि कर्म भूमि भी योरोप की ही जमीन थी। और आज तक जितना मै समझ सका हूं उसकी बिना पर यह कहने में कोई हिचक नहीं गांधी के रास्ते और द्ष्टिकोण स्वत्रंत्र भारत के लिए सर्वाधिक उपयुक्त रहे हैं और रहेंगे। क्योंकि गांधी में उपरोक्त व्यवस्थाओं की खामियों और बुराइयों को ताडने की कूबत थी।


सही मायने में कहें तो गांधी का जनतंत्र को लकर दृष्टिकोण भारतीय जनमानस के सर्वाधिक अनुकूल है। आप कहेंगे मैं विषयांतर हो रहा हूं लेकिन आप मुझे थोडा माफ करें इसलिए कि प्रभाष जी पर बात करूं और गांधी पर न करूं। ये अपने आप से बेमानी होगी। प्रभाष जी तो मेरे लिए अलग छवि बनकर कभी सामने आए ही नहीं, उनमें मुझे हमेशा कभी कोई कबीर, गांधी या कुमार गंधर्व नजर आया।
जिस समय पर अभी मैं टिका हूं उस समय स्वतंत्र भारत में भाषायी पत्रकारिता के लिए भी राजनीति, कला, साहित्य और सिनेमा की तरह उपरोक्त दोनों प्रवृत्तियां और विचारधाराएं हावी थाी। लेकिन सबसे चुभने वाल बात यह थी कि इन दोनों प्रवृत्तियों की अगुआई करने वाली आंग्ल भाषा की पत्रकारिता हिंदी पत्रकारिता को अपने साये तले दुबकने पर मजबूर कर रही थी। लेकिन प्रभाष जी और राजेंद्र माथुर को यह कैसे गवारा हो सकता था कि न सिर्फ हिंदी पत्रकारिता बल्कि तमाम भाषायी पत्रकारिता की नियति फेंटू बनकर भोंपू बजाने के लिए बाध्य रहे। एक बात यहां पर मैं और स्पष्ट कर दूं कि हर एक समय की तरह ठीक उस समय भी राजनीति, पत्रकारिता, कला साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में भी अपने अपने स्तर पर अपने क्षेत्र विशेष को गांधीवादी मूल्यों से लैस करने की सार्थक कोशिश की जा रही थी।
मेरे पास इस समय बात को कुल मिलाकर पत्रकारिता और राजनीति तक सीमित रखने की विवशता है। क्योंकि प्रभाष जी केंद्र में हैं। उपरोक्त दोनों प्रवृत्तियों और व्यवस्थाओं की तंगनजरी को देखते हुए लोहिया, विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, मधु लिमये और किशन पटनायक जैसे नेता वैकल्पिक राजनीति की जमीन तैयार करने में लगे हुए थे। और प़त्रकारिता के लिए ठीक ऐसा ही कर रहे थे प्रभाष जोशी। कारण जोशी जी उन लोगों में नहीं थे जिनके लिए पत्रकारिता सिर्फ कागद काला करने का जरिया था। उनका मानना था कि सरोकारों से संबद्व होने के लिए पत्रकारिता का कला के विविध आयामों के साथ मिलकर राजनीति और समाज के विभिन्न स्तरों पर हस्तक्षेप जरूरी है। तभी तो स्वतंत्र भारत में हुए तमाम बडे राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलनों में जोशी जी की सक्रियता जगजाहिर रही। मै तो प्रभाष जी को गांधी, लोहिया, नरेंद्र और जयप्रकाश की पांचवीं कडी मानता हूं। लेकिन आप ये मत समझिए कि ऐसा कहने का मतलब यह है कि जोशी जी किसी खास विचारधारा के अनुयायी थे। वक्त आया तो वे इन खाटी समाजवादियों की खिंचाई से भी बाज नहीं आए। लेकिन गहरी राजनैतिक प्रतिबद्वता के बावजूद उन्हें पत्रकारिक धर्म का हमेशा खयाल रहा। समाचारों की वस्तुनिष्ठता को लेकर कभी कोई समझौता नहीं किया। वहीं विचारों की अतिवादिता के भी शिकार नहीं हुए। अपने पत्रों में अभिव्यक्ति के जनतंत्र को हमेशा बहाल रखा। प्रभाष जी का व्यक्तित्व भी जनतंत्र के प्रयोगशाला से कम नहीं था। तभी तो जब भी कभी राजनीति या विचार में अधिनायकत्व का असर बढा उन्होंने इसका जी भी कर प्रतिरोध किया। आपातकाल का विरोध इसका सबसे बडा उदाहरण है। हालांकि उस समय धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा जैसे साहित्यकार और प़त्रकार भारतीय लोकतंत्र के उस काले अध्याय का प्रशस्ति पत्र रचने में लगे थे। विचारों के जनतंत्र की बहाली के उनके प्रयास को तो अनेक मौकों पर पोंगापंथी, कट्टरवादी और दकियानूस तक करार दिया गया। याद कीजिए रूपकंवर के सती होने के मामले को और हिंदूत्व को लेकर उनके विचार से उपजे विवाद और आलोचना को या इंदिरा जी के निधन के बाद आए उनकी प्रतिकिया को लेकर हुई उनकी आलोचना को। हालांकि मैं यह नहीं कहता कि उन तमाम मामलों को लेकर प्रभाष जी के विचार से सबको इत्तफाक रखना चाहिए या उनके सभी विचार सहीं है क्योंकि ये भी अपने आप में सर्वसत्तावादी सोच हीं है। लेकिन किसी व्यक्ति विशेष के किसी पहलू या परंपरा या कहें तो किसी भी मुद्दे पर सिर्फ आपके विचार किसी को इस बात की इजाजत नहीं देते कि वो सिर्फ उसके किसी खास आलोचना और विचार के दम पर आपको उस व्यक्ति, परंपरा या विचार विशेष का समर्थक या पिछलग्गू करार दे।

अगर किसी खास समय में प्रभाष जी ने रूप कंवर के मामले को लकर परंपरा के तह तक जाने की कोशिश की या उसके किसी खास सकारात्मक पहलू पर अपने विचार रखे तो इसका यह मतलब कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि प्रभाष जी सती प्रथा के समर्थक थे। रंगीले आधुनिकों, प्रगतिशीलों और परंपराविरोधियों को मै यह बता दूं कि कोई भी परंपरा या रीति रिवाज किसी खास समय की जरूरत और मजबूरी के चलते ही पनपता है। उस समय उसका उद्देश्य भी वृहतर समाज की भलाई में या बुराई से बचाने के तरीकों में ही निहित होता है। बाद में भले ही वर्ग या व्यक्ति विशेष क्यूं न उसे अपने अपने फायदे के लिए रूढिवादिता में तब्दील कर देता हो। अभी के ही ताजा उदाहरण को ही देख लीजिए रक्त की शुद्वता पर उन्होंने क्या अपने कुछ विचार रखे तथाकथित प्रगतिशीलों की फौज उनके पीछे हाथ धोकर पड गई और उन्हें जातिवादी, पोंगापंथी और सठिया सिद्व करने से भी बाज नहीं आए। मैं पूछता हूं कि आखिर यह भी तो विचारों की सर्वसत्तावादी सोच नही तो और क्या है। लेकिन प्रभाष जी ने विचारों के जनतंत्र को खास मुहावरे और परिधि में बांध कर रखने वालों की कभी रत्ती भर भी परवाह नहीं की। आखिर उनके संघर्ष के मूल में ही था विचारों कै अधिनायकत्व का विरोध। क्योंकि उनके लिए जनतंत्र अगर साध्य था तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साधन। वे मानते थे कि किसी लोकतंत्र में लोक की प्रतिष्ठा बगैर अभिव्यक्ति की गरिमामयी और जिम्मेदार स्वतंत्रता के हो ही नहीं सकती। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उन्होंने अराजक और अनैतिक विचारों को भी कभी जायज करार नहीं दिया। आखिर अपार जीवनानुभव से ही उनका व्यक्तित्त्व इतना लचीला और बेबाक

मैं यह मान नहीं सकता कि बगैर लोक के अनुभव के किसी के व्यक्तित्व में इतनी गहराई, व्यावहारिकता और लचीलापन आ सकता है। आप ही सोचो बगैर लोक को समझे गांधी और कबीर क्या होते। जिस तरह कुमार गंधर्व को सुनकर, असीम प्रशांतता का बोध होने लगता है। प्रभाष जी के लिखे को पढने के बाद भी उसी तरह की प्रशांतता शून्य में तिरने लगती हैै कुमार गंधर्व कहते थे निर्गुण वहीं गा सकता है जिसके गायन में शून्य पैदा करने की क्षमता हो। मैं कहता हूं निर्गुण सुन भी वही सकता है जिसका व्यक्तित्व प्रभाष जी जैसा उदात्त गंभीर और धीर हो।

इक शख्स सारे शहर को वीरान कर गया.........


कुछ अखबारों ने प्रभाष जी को याद करनेमें भले कंजूसी दिखाई हो लेकिन नेट और ब्लॉग पर उनके चहेतों ने उन्हें टूट कर याद किया है। प्रस्तुत आलेख ज़ी बिज़नेस के एसोसिएट प्रोड्यूसर मृत्युंजय कुमार झा की ओर से। मृत्युंजय सर माखन लाल विवि के मेरे सीनियर हैं। - संदीप

भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच हो रहे एक दिवसीय मैच में सचिन की ऐतिहासिक पारी देखते हुए जितनी ख़ुशी हो रही थी, उससे ज्यादा ख़ुशी और गुदगुदी इस बात को लेकर हो रही थी की कल के जनसत्ता में प्रभाष जोशी क्या लिखेंगे।
सुबह उठते ही इससे पहले की मैं जनसत्ता अख़बार लपकता मेरे एक मित्र ने फ़ोन किया कि अब कागद कारे(हर रविवार को जनसत्ता में प्रभाष जी का छपने वाला लेख ) नहीं पढ़ पाओगे. मैं चौंका....... ३० सेकंड के भीतर मेरे मन में कई आशंकाएं उठने लगीं...... क्या प्रभाष जी ने जनसत्ता में लिखना छोड दिया, क्या जनसत्ता से कुछ अनबन हो गई? इससे पहले कि मैं किसी नतीजे पर पहुँचता, मित्र कि दूसरी आवाज़ आई........ प्रभाष जी नहीं रहे.............. पैर के नीचे की ज़मीन खिसक गई. प्रभाष जोशी को जाने मुझे बहुत दिन नहीं हुए थे. मैं उन्हें करीब 8 साल से जानता था . और नियमित रूप से तो पढना पिछले साल सितम्बर से ही शुरू किया और मैं अपने आपको खुशकिस्मत मानता हूँ कि रविवार को मेरा साप्ताहिक अवकाश होता है। रविवार की छुट्टी और प्रभाष जी का कागद कारे। छुट्टी का मज़ा दोगुना हो जाता था। लेकिन कागद कारे के वगैर आनेवाला रविवार कैसे बीतेगा ये सोच कर ही दिल बैठ जाता है. प्रभाष जोशी का जाना सिर्फ इस मायने में दुखद नहीं हैं कि व देश के एक वरिष्ट पत्रकार थे. बल्कि उनका जाना इस मायने में दुखद है कि हिंदी पत्रकारिता जगत के माथे से एक गार्जियन स्वरुप नायक का साया उठ गया. यूं कहें कि पत्रकारिता कि थोडी बहुत भी छवि बचाने में प्रभाष जोशी और उनका लेखन ढाल कि तरह काम करता था. जब लोगों के मुंह से मीडिया के प्रति गलियां सुनकर हारता हुआ महसूस करता, तब अचानक से प्रभाष जोशी और उनकी पत्रकारिता का नाम लेते ही बाजी ऐसे पलटती थी कि लोगों कि बोलती बंद हो जाती थी॥ लेकिन आज सचमुच पत्रकारिता कि दुनिया में आपने आपको अनाथ महसूस कर रहा हूँ.
अपनी तनख्वाह बढ़ाने का विरोध करना, होटल के नोट पैड पर किसी को नौकरी के लिए ऑफर लेटर दे देना, मालिक को सीधे अपने अधीनस्थ को फ़ोन करने से मना करना, खुद संपादक रहते हुए अपनी कॉपी एडिट करने का पूरा अधिकार जूनियर्स को देना... इतनी हिम्मत आज के दौर में कौन संपादक कर पायेगा। लेकिन बावजूद इसके कुछ कमाऊ-खाऊ पत्रकार घटिया भाषा में उनका विरोध करते हैं तो उनका क्या किया जाये? खैर बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। लेकिन आज के बाद जब भी जनसत्ता अख़बार पर नजर जायेगी, अख़बार हमेशा खाली ही नज़र आएगा।
बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई
एक शख्स सारे शहर को वीरान कर गया

प्रभाष जोशी सही मायनों में पत्रकारिता के कुमार गंधर्व थे




ये लेख अजीत कुमार ने प्रभाष जी की स्मृति में लिखा है। वे माखनलाल विवि भोपाल के मेरे सीनियर हैं। हालाँकि जब मैं वहां पहुँचा इनकी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। एक दो मुलाकातों में ही दिल के तार मिल गए हमारे। नालंदा जिले में जन्मे अजीत जी शुरू से अपने स्वतंत्रता सेनानी बाबा के बहुत करीब रहे। पिताजी के प्राध्यापक होने के कारन पढ़ाई के संस्कार बचपन से मिल गए...वामपंथी रुझान वाले अजीत जी ने टीवी १८ से करियर शुरू किया अजीत टाईम्स ग्रुप के बाद अब राजधानी के एक बड़े ब्रोकरेज हाउस में काम कर रहे हैं.और हाँ अब कोई कामरेड पुकारता है तो इन्हे अच्छा नही लगता -

मुझसे मेरे मित्र ने कहा कि अजीत प्रभाष जी पर कुछ लिख दो। लेकिन उसके कहने के तकरीबन 12 घंटे बीत जाने के बाद भी मैं इस उधेडबुन में हूं कि आखिर लिखूं तो क्या लिखूं। कारण प्रभाष जी को याद करते ही एक साथ उनकी अनेकों छवियां उभरने लगती है। तकरीबन पिछले 15 सालों से लगातार जनसत्ता पढ रहा हूं। चाहे पटना में रहा, भोपाल में या अभी दिल्ली में जनसत्ता का साथ कभी नहीं छूटा। पत्रकारिता के कूचे से निकलकर ब्रोकरेज फर्म में पहुंचने के बाद भी जनसत्ता और द हिन्दू को ही पढकर अपनी राजनीतिक, सामाजिक साहित्यिक और सांस्कृतिक सजगता को जिंदा रखने की कोशिश कर रहा हूं।
प्रश्न फिर वहीं है कि आखिर प्रभाष जी पर कहां से शुरू करूँ । प्रभाष जी को याद करने पर एक ही साथ गांधी, जयप्रकाश, लोहिया, सी के नायडू विजय मर्चेंट, मुश्ताक अली, कुमार गंधर्व, कबीर सब याद आने लगते हैं। कोई भी भी खास नजरिया प्रभाष जी के लिए अपर्याप्त और अपनी तंगियत का अहसास कराने लगता है। आखिर क्यूं न अपनी तंगियत का अहसास कराए। पांच दशकों की अपनी इस यात्रा में लगातार विकल्प, विरोध और संघर्ष का जो रास्ता उन्होंने अख्तियार किया। प्रभाष जी उन लोगों में नहीं थे जो मंचों पर विकल्प, विरोध और संघर्ष की बातें तो खूब करते हैं लोगों से इन सब पर अमल की अपेक्षा भी रखते हैं लेकिन निजी जिंदगी में ठीक इसके उलट करते हैं। इन मामलों में प्रभाष जी बिल्कुल गांधी और कबीर निकले, जो भी रास्ता अच्छा लगा अकेले उस पर चल पडे।
कबीरा खडा बजार में लिये लुकाठी हाथ जो घर जारै आपनो चलै हमारे साथ।
शायद ही पत्रकारिता के इस युग में ऐसा कोई नाम रहा हो जिसने एक ही साथ राजनीति, खेल, कला, साहित्य और सामाजिक मामलों में इतना हस्तक्षेप किया हो। ऐसा भी नहीं था कि प्रभाष जी का इन तमाम मुद्दों पर हस्तक्षेप सिर्फ हस्तक्षेप नाम की सत्ता को बरकरार रखने के लिए था। प्रभाष जी का हर एक हस्तक्षेप सार्थक और प्रभावकारी रहा। मुझे नहीं लगता पिछले पांच दशकों में राजनीति, क्रिकेट और कुमार गंधर्व पर प्रभाष जी जैसा असर करने वाला लेखन किसी ने किया हो। ऐसा कोई पत्रकार नजर नहीं आता जिसकी राजनीति में इतनी ज्यादा दखलंदाजी रही हो। स्वातंत्रयोत्तर भारत में हुए तमाम राजनैतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आंदालनों में प्रभाष जी की सक्रिय भूमिका रही। खास अवसरों पर तो प्रभाष जी पत्रकार की जगह सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता के तौर पर नजर आए। लेकिन उनकी राजनैतिक सक्रियता का निजी स्वार्थ और अवसरवादिता से कोई लेना देना नहीं था। आखिर उनका द्ढ विश्वास था कि कि पत्रकारिता के जरिए समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना की जा सकती है। समतामूलक समाज बनाने के रास्ते पर अग्रसर हुआ जा सकता है। राजनीति को उसकी अपनी नैतिकता और धर्म का अहसास कराया जा सकता है। ऐसे समय में जब राजनैतिक धर्म, नैतिकता और शुचिता के बजाए पूरी तरह से धर्म और अवसर की राजनीति ने जगह ले लिया प्रभाष जी के बागी और विरोध के तेवर हस्तक्षेप बनकर सामने आते रहे। अपने विरोध को जताने के लिए उन्हें जो भी जिस समय ठीक लगा उन्होंने किया। विशुद्व राजनीतिक मंचों पर बगावती हुकार भरने से भी बाज नहीं आए। देश के कोने कोने में जाकर लोगों के बीच सत्ता और व्यवस्था में बदलाव का अलख भी जगाया। शब्दों के चितेरे बनकर भी अपनी बात मनवाते देखे गए। मतलब साफ जो उन्हें सही लगा उन्होंने किया। उनके देहावसान के ठीक पहले की ही बात कर लीजिए। उनका विवेक उन्हें जसवंत सिंह की जिन्ना पर लिखी पुस्तक के उर्दू तज्र्जुमें के लोकार्पण के लिए पटना तक खीच ले गया। इसके ठीक पहले आम चुनाव के दरम्यान वे दिग्विजय सिंह की बांका से उम्मीदवारी का पर्चा भराने पहुंच गए। हमारे जैसे लोगों का यह विश्वास कि पत्रकारिता साहित्य के साथ कदम से कदम मिलाकर सामाजिक सरोकारों और मानवीय मूल्यों के प्रसार का बीडा उठा सकती है प्रभाष जी जैसे पत्रकारों के होने की वजह से ही जिंदा है।
प्रभाष जी के देहावसान की खबर मिलने के बाद से लगातार मित्रों से उनकी बात हो रही है। पर हर इक बात के बाद प्रभाष जी की एक के बाद एक और नई छवि आकार लेने लगती है। कभी हूबहू कबीर जैसा बनारस की गलियों में प्रतिरोध का स्वर बुलंद करतेे, कभी कुमार गंधर्व के निर्गुणों सा शून्य में तैरते, कभी तेंदुलकर के बल्ले से रनों की बौछार करते, कभी जयप्रकाश के आंदोलनों में संपूर्ण क्रांति का नारा गूंजयमान करते हुए, कभी केंद्र में वी पी सिंह के नेत्त्व में गैर कांगे्रसी सरकार के गठन की जद्दोजहद में धूल फांकते, कभी सांप्रदायिकता के खिलाफ बुलंद करती असरकारी आवाजों में और भी न जाने कई और कितने रंगों और रूपों में ................... ।
कल ही बातचीत के दौरान संदीप ने बताया कि सर जनसत्ता के रायुपर संस्करण में यह खबर छपी है कि मरने से पहले प्रभाष जी के अंतिम वाक्य थे अपन मैच हार गए, जो उन्होंने सचिन के आउट होने के ठीक बाद अपने बेटे संदीप को फोन पर कहा था। मैंने संदीप को बताया कि सगुण और निगुर्ण, चेतन और अवचेतन व जीवन और मरण दोनों अवसरों में भी जब कोई साथ नजर आए तो आप कल्पना कर सकते हो उस व्यक्ति के अटूट लगाव और रागात्मकता का। कुमार गंधर्व भी हमेशा यही कहते रहे कि निर्गंुण में ही सगुण का असल अस्तित्व है। और प्रभाष जी का व्यक्तित्व भी पांच दशकों तक पत्रकारिता के आसमान में कुमार साहब के निर्गुण पदों सा तिरता रहा।ऐसे भी कुमार गंधर्व प्रभाष जी के सबसे पसंदीदा गायक थे।
प्रभाष जी के व्यक्तित्त्व पर एनडीटीवी की इस टिप्पणी कि वे गांधी, कुमार गंधर्व और सीके नायडू तीनों को मिलाकर एक छवि थे से मै पूरी तरह से सहमत हूं। हां तो मै जिक्र कर रहा था प्रभाष जी के इश्के हकीकी को। निगुर्ण और अटूट लगाव को। क्रिकेट और सचिन के साथ उनका यही लगाव अंततः उनकी मौत का कारण भी बना। मरने से पहले भी उनके जिहवा पर सचिन का ही नाम आया। आखिर उनकी जिद और पसंद उनके लिए आत्महंती आस्था साबित हुई। सचिन को लेकर प्रभाष जी की दीवानगी किस दर्जे की थी इस बात से सामने आती है। कई बार कागद कारे या एंकर स्टोरी में सचिन पर प्रभाष जी के अतिलेखन को लेकर चिढ भी होती थी। कभी कभी उनके लेखन से इस बात का अहसास तक होता था कि वे सचिन को हमेशा की तरह सही साबित करने पर तुले हुए हैं। ऐसे भी अवसर आए जब प्रभाष जी जबरदस्ती सचिन का बचाव अपने तर्कों के सहारे करते देखे गए। लेकिन आज उनके जाने के बाद इस बात का अहसास हो रहा है कि हर इंसान कुछेक मामलों में बिल्कुल आम जनों के माफिक ही होता है। प्रभाष जी के साथ भी बिल्कुल यही बात रही। वे तमाम उम्र क्रिकेट और सचिन के अन्यतम मुरीद रहे। और किसी भी मुरीद को यह गवारा नहीं होता कि कोई उसके दीवाने का सार्वजनिक तौर पर आलोचना करे। हालांकि अपन को भी उस बुराई का अहसास होता है। और शायद प्रभाष जी को भी रहा ही होगा। प्रभाष जी की आमजनों की यह छवि उनके लेखन पर भी हावी रही। हिंदी कथा साहित्य मे भाषा को लेकर जो योगदान प्रेमंचद और निर्मल वर्मा का रहा ठीक वैसा ही काम हिंदी पत्रकारिता के लिए राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी ने किया। जटिल से जटिल मुद्दों को भी प्रभाष जी पाठकों को आम जनों की भाषा में ही समझाते रहे। लेकिन आपको लोहा मानना होगा उनकी बाजीगरी की कि उन्होंने जटिल से से जटिल मुद्दों को भी उतनी ही सरलता और प्रवाह के साथ पेश किया। लेकिन जटिल मुद्दों को सरलता के साथ पेश करने के लिए उन्हें जितनी माथापच्ची करनी पडती थी, गहराईयों में जाना पडता था कितनों से संवाद स्थापित करना पडता था यह सिर्फ उन्हीें के वश की बात थी। आखिर कितनों के पास होता है व्यापक, विस्तृत सोच, लगन और यायावरी का इतना बडा जखीरा-।



कल प्रभाष जी पर लिखी मेरी पोस्ट के बाद चेन्नई से मित्र शशिभूषण की एक लम्बी टिप्पणी आयी उसे आप सब से साझा कर रहा हूँ। शशि कहानियाँ और कवितायें लिखते हैं और इन दिनों केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं...

संदीप,
सुबह मैंने बी.बी.सी. पर जब यह खबर पढ़ी तो तुम्हें फ़ोन लगाया.तुम सो रहे होगे तो रीवा डॉ.साहब(चंद्रिका प्रसाद चंद्र)का नं.मिलाया.वो इन दिनों बीमार हैं सो उनसे भी बात न हो सकी.मेंरे भीतर खालीपन और आँसू जमा हो रहे थे.किसी से बात करके मैं हल्का होना चाहता था.एक ही बात घुल रही थी मन में कि अब जनसत्ता का संपादकीय पेज क्या सोचकर देखूँगा.चुनौती देनेवाले,अन्याय के खिलाफ़ खड़े होनेवाले हस्तक्षेप कहाँ खोजूँगा.
बहुत ईमानदार,सुलझी हुई और सहारा देनेवाली आवाज़ शांत हो गई है.इस आवाज़ का इस तरह अचानक शांत हो जाना उस निडर लौ का बुझना है जो बेहद अँधेरे और उलझे वक्त में साथ देने के लिए जलती है.इस आवाज़ के पूरी तरह नियति के द्वारा चुप कर देने को सह सकना इसकी जगह को भर पाना बहुत मुश्किल है.कल रात में राजकिशोर जी को उनके ब्लाग में पढ़ रहा था तो सोच रहा था प्रभाष जोषी और राजकिशोर जनसत्ता की ये दो आवाज़ें हमारे वक्त की उपलब्धि हैं.मैं प्रभाष जी से कभी मिला नहीं पर पढने से कभी चूका नहीं.जब भी उनका कोई इंटरव्यू टी.वी.,रेडियो या बी.बी.सी.पर सुना भूल नहीं पाया.जब सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद लेने से इंकार किया था तो बी.बी.सी.के संवाददाता रेहान फजल ने पूछा था इसमें कितनी राजनीति है तो उनका जवाब था राममनोहर लोहिया ने कहा था धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालिक धर्म. सोनिया गांधी के इस निर्णय में भी राजनीति है पर राजनीति का रास्ता अगर त्याग से होकर जाता है तो वही सच्चा रास्ता है और दूर तक जाता है.यह अपने समय की राजनीति के मूल्यांकन की उनकी दृष्टि है.
मैं इस समय में ऐसा अभागा हूँ जिसने आज तक एक भी क्रिकेट मैच पूरा नहीं देखा.पर प्रभाष जोषी का क्रिकेट पर लिखा शायद ही छोड़ा हो.वे क्रिकेट के कवि थे.मैं ख़ुद को हल्का करने के लिए आज कक्षाओं में जबरन प्रभाष जोषी पर ही बोलता रहा.एक बात जो मेंरे मुह पर बार बार आ रही थी वो ये कि प्रभाष जी को अभी दुनिया से जाना नहीं था.वो अलविदा कह गए इसमें यही तसल्ली की बात है कि क्रिकेट के इस प्रेमी को मैच देखते ही मरना था.कुछ और करते हुए वो संसार से विदा होते तो शायद उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलती.लंच में घर आकर जब तुम्हारा लेख देखा तो इस बात से भर आया कि ऐसी ही बात तुम उसी वक्त में लिख रहे थे.
मैं एक बात अक्सर सोचता हूँ कि आज जब बड़े से बड़ा पत्रकार ज़्यादा तनख्वाह की पेशकश पर कोई भी अखबार छोड़ सकता है तब प्रभाष जी ने अपना सर्वोत्तम जनसत्ता के लिए दिया.पेशे में सरोकार इसी रास्ते आते हैं.बड़े जनसमूह से कोई इन्हीं शर्तों पर जुड़ता है.करियरिस्ट अवदान सफल होता है पर सार्थक उदात्त श्रम ही होता है.अपने इसी स्वाभाव के कारण प्रभाष जी अवसरवाद के प्रबल आलोचक बने होंगे.उनकी भाषा सबको समझ में आती थी तो यह व्याकरण की नहीं इमानदारी की वजह से था.मैं तो उन पर लगभग निर्भर करने लगा था कि इस विषय पर प्रभाष जी को पढकर अंतिम राय बनाउँगा.अब ऐसी कोई आश्वस्ति मेरे सामने नही होगी.
पिछले दिनों जगदीश्वर चतुर्वेदी आदि उनका जिस तरह चरित्र हनन कर रहे थे उससे मैं बहुत आहत था.सुबह इन्हीं महोदय की मोहल्ला लाइव पर श्रद्धांजली देखी तो चर्चित लेखक कांतिकुमार जैन का आचरण याद आ गया.कांतिकुमार जैन ने शिवमंगल सिंह सुमन का ऐसा ही चरित्र हनन चंद्रबरदाई का मंगल आचरण नामक संस्मरण लिख कर किया था.इसके कुछ ही दिनों बाद जब उनकी मृत्यु हुई तो हंस में ही बड़ी विह्वल श्रद्धांजली लिखी.ऐसे समर्थ लोग अपनी ही बात की लाज नहीं रख पाते.यह ज्यादा चिंताजनक है.
प्रभाष जी का मूल्यांकन करने को काफ़ी लोग हैं.हम कहाँ लगते हैं.मैं उनके अवदान को किसी पैमाने में कस सकूँ इस लायक भी नहीं.सिर्फ़ तुमसे कुछ बाँटना चाहता हूँ.क्योंकि यह दिली मजबूरी लग रही है.यहाँ तमिलनाडु में बारिश का मौसम शुरू ही हुआ है.पिछले तीन दिन से बारिश हो रही है.सुबह खबर पढ़ने के बाद जब मैं खाना खाने बैठा तो लगा शमशान से लौटा हूँ और प्रभाष जी के अंतिम संस्कार के बाद पत्तल फाड़ने की हृदय विदारक रस्म में बैठा हूँ.मैं दिन भर समझना चाहता रहा कि जिससे एक बार भी नही मिला उसके बारे में ऐसा क्यों लग रहा है जैसे अपने ही घर का कोई बुजुर्ग हमेशा के लिए छोड़कर चला गया.इसे नियति भी मान लूँ तो इससे उदासी बढ़ती है कि अब चरमपंथियों,अवसरवादियों,भ्रष्टों,सरोकारों से विमुख लोंगों को कौन ललकार कर लिखेगा?किसकी विनम्र हिदायतें श्रेष्ठ का सम्मान करना सिखाएँगी?
-शशिभूषण November 6, 2009 9:41 AM

प्रभाष जी आपने क्रीज़ क्यों छोड़ दी?


तुमने सुना! प्रभाष जोशी नहीं रहे। यह स्तब्ध कर देने वाली खबर आज तड़के एक मित्र से फोन पर मिली। नींद अभी टूटी नहीं थी लेकिन इस खबर से चेतना ऐसी जागी मानो हजारों हजार कांच की बारीक किरचें एक साथ दिमाग में पैबस्त हो गई हों।

प्रभाष जी बड़े पत्रकार थे उन्होंने जनसत्ता जैसा अखबार हमें दिया जिससे पढ़ने के संस्कार मिले। मैं उनकी पेशेवर खूबियों पर नहीं जाना चाहता। मुझे बस उन्हें पढ़ना अच्छा लगता था।

उनकी कलम की ईमानदारी। इस कठिन समय में सच को लेकर जिद और वो सारी बातें जो मुझे किसी और में नहीं दिखती थीं, मुझे उनकी ओर खींचती थी।
कुछ एक अंतरालों को छोड़ दिया जाए तो कमोबेश 20 वर्षों तक कागद कारे पढ़ता रहा उसी ललक के साथ की आज प्रभाष जी ने क्या लिखा होगा।

क्रिकेट और टेनिस पर लिखे उनके आलेख। खासकर सचिन के खेल पर उसी की तरह बेमिसाल कलम का ही जादू था कि सचिन की उम्दा पारियों के बाद हम ये सोचकर सोते थे कि कल प्रभाष जी क्या लिखेंगे! खबरों के मुताबिक कल रात ११.३० के आस पास उनका निधन हुआ जबकि भारत -ऑस्ट्रेलिया मैच करीब ११ बजे ख़त्म हुआ था।लगता है कहीं सचिन की कल रात की बेमिसाल पारी की खुशी और टीम की नाजुक हार का घालमेल तो उनके लिए जानलेवा नहीं बन गया। अगर ऐसा हुआ है तो तमाम रंज के बावजूद मुझे इस बात की खुशी ताउम्र रहेगी कि एक अद्भुत खेलप्रेमी अपने प्रिय खिलाड़ी को सर्वश्रेष्ठ खेलते देखकर गुजरा और एक शानदार खिलाडी ने अपने ऐसे चहेते को अनोखी भेंट दी मरने से पहले।
कुछ अरसा हुआ प्रभाष जी ने कहा थाअब उम्र हो गयी घर वाले चिंता करते हैं। कहते हैं क्रिकेट देखना छोड़ दो लेकिन अपन तो तब तक ऐसा नही कर सकते जब तक अपना सचिन क्रीज़ पर है, फ़िर चाहे जो भी हो। सचिन तो क्रीज़ पर है प्रभाष जी लेकिन आपने क्रीज़ क्यों छोड़ दी।
आगे आगे कोई मशाल सी लिए चलता था
हाय क्या नाम यह उस शख्स का पूछा भी नही

उन्होंने हमेशा वोही किया जो उन्हें सही लगा । एक नयी राह पर चलते हुए उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता के उस दौर से इस दौर तक का सफर तय किया एक मसीहा की तरह । हो सकता है कुछ ऐसे भी मोडों से वो गुजरे हों जो जो दूसरों की नजर में ग़लत रहे हों।

प्रभाष जी ने सती अथवा ब्राह्मणों को लेकर हाल के समय में जो भी बयान दिए। उन्हें संदर्भ से काट कर उनका पाठ करने वालों ने ब्लाॅग जगत में जिस भाषा में उनका विरोध किया वो बेहद शर्मनाक था। बात केवल विरोध की नहीं विरोध के स्तर की थी। प्रभाष जी का विरोध करते हुए बातचीत का भाषा एक बेहतर स्तर हो सकता था। ब्लाॅगियों ने तो उन्हें गली के छोकरे की तरह रगेद ही लिया। लेकिन वो प्रभाष जी थे जिन्होंने सबकुछ सहन कर लिया बिना कोई जवाब दिए । वैसे भी जब आपने किसी को अपराधी ठहरा ही दिया हो तो उसके जवाब देने न देने से होता ही क्या है.
क्या कभी उन्हें एहसास होगा की प्रभाष जोशी क्या थे। हिन्दी पत्रकारिता को सरोकारों से जोड़ कर मौजूदा स्वरुप देने वाले अगुआ थे वो, पेस मेकर लगा होने और दिल के मरीज होने के बाद भी जिस तेवर की पत्रकारिता उन्होंने की और लगातार कर रहे थे वो किस से छिपा है?
खैर जो भी हो मेरे लिए तो आज से जनसत्ता पढने की एक बड़ी वजह कम हो गयी। मैं उनसे कभी मिला नही, उन्हें कभी देखा नही लेकिन उनका जाना बड़ी गहरी चोट दे गया।
पुनश्च : अभी अभी भोपाल में माखनलाल पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष और है हमारे गुरु पीपी सिंह से बात हुई। उन्होंने प्रभाष जी से जूडा एक संस्मरण सुनाया । २ साल पहले ग्वालियर में किसी समारोह में वो और प्रभाष जी आजू बाजू के कमरों में रुके थे। रात के खाने पर जहाँ सअब लोग परहेज कर रहे थे वहीँ प्रभाष जी हर व्यंजन का स्वाद ले रहे थे। सर ने जब उन्हें मुस्करा के कनखियों से देखा तो प्रभाष जी ने कहा
क्या करूँ यार पेस मेकर पर चल रहा हूँ बीमार रहता हूँ, घर वाले कहते हैं यहाँ मत जाओ वहां मत जाओ ये मत करो वो मत करो। अरे जब कुछ करना ही नही होगा तो आदमी जियेगा काहे?