प्रभाष जी की तकनीकी समझ को लेकर पिछले दिनों ब्लॉग जगत में काफी कुछ लिखा गया। कुछ लोगों ने तो इसे मजाक का विषय ही बना लिया। अजीत सर के लेख का चौथा खंड इस पहलू पर भी रोशनी डालता है - संदीप
प्रभाष जी और उनके लौकिक अनुभवों को लेकर मेरी बात को मेरे मित्र और विस्तार देने को कह रहे हैं। लेकिन लोक को ताडना क्या किसी के वश की बात है। आखिर कलाकार, लेखक या सर्जक करता भी क्या है, अपनी कला के माध्यम से उम्र भर लोक को समझने की कोशिश ही तो करता है। इसमें वह कितना सफल हो पाता है यही तो आलोचना की कसौटी पर कसने की बात होती है। जहां तक अपनी बात है, ऐसी क्या मजाल जो प्रभाष जी के विराट लोकानुभव की थाह ले सकूं।
कवित विवेक एक नहीं मोरे सत्य कहूं लिखि कागद कोरे
एक बात और अपने पिछले लेखों में प्रभाष जी के संदर्भ में तुलसीदास का जिक्र तक करना भूल गया। जबकि तुलसी से बडा लोकमंगल का कोई दूसरा कवि आज तक हुआ ही नहीं। इसलिए प्रभाष जी पर बात करूं और तुलसी का जिक्र नहीं हो यह घोर नाइंसाफी होगी। आखिर कबीर, तुलसी, गांधी और लोहिया की परंपरा को ही तो आगे बढाने की कोशिश की प्रभाष जी ने। इन सबों के बीच एक बात जो उभयनिष्ठ रही वह थी इनका अपार लोकानुभव। लेकिन मेरे तुलसी का नाम लेने मात्र भर से रंगीले प्रगतिशीलों की फौज भडंक सकती है। दो चार पंक्तियों का अपने अपने अंदाज से कुपाठ कर आखिर वे तो तुूलसी को कब का जड, सामंतवादी, नारी विरोधी और ब्राहमणवादी घोषित कर चुके हैं। यही प्रगतिशील आज इस बात की दुहाई देते फिर रहे हैं कि इंटरनेट और आॅरकुट पर जाना वैचारिक सजगता की निशानी है।
मेरी बात का ये बुरा न मानें तो इनको मैं बता दूं कि इंसान सिर्फ और सिर्फ इंटरनेट पर जाने से और दो चार पुस्तकों के कुपाठ से सजग होने का दावा कभी नहीं कर सकता। भले दो चार पुस्तकों के घटिया पाठ की बिना पर वह कोटेशन का उवाच करते हुए अपनी बौद्विकता के अहं की तुष्टि कर सकता है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि किसी पुस्तक के पाठ के लिए भी व्यापक लोकानुभव की अपेक्षा की जाती है। और ऐसा नहीं होने पर उसी तरह का पाठ करना आपकी नियति हो सकती है जैसा तुलसी का पाठ आज के रंगीले और लोकानुभव से हीन प्रगतिशील कर रहे हैं।
मैं उन महानुभावों से कहना चाहूंगा कि तकनीक तो समय के साथ रगड खा जाती है। लेकिन अपार लोकानुभव से उपजा लेखन, कलाकृति समय और सीमा से परे जाकर पुनर्पाठ की अपेक्षा रखते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कबीर, तुलसी और भक्ति काव्य कब के कूडा हो गए होते। लेकिन क्या भारतीय विश्व साहित्य के मानचित्र पर भी अपने अपने देशों की क्लाॅसिक कृत्तियां सर्वोत्तम साहित्य बनकर सुशोभित हैं। ठीक ऐसा ही पत्रकारिता के क्षेत्र में भी है।
एक और बात जिन महानुभावों के मुखारविंद यह कहते हुए नहीं थक रहे हैं कि तकनीकी दक्षता इंसान के नजरियात केा वुसअत अता करती है। उन्हें यह भी तो देखना चाहिए कि उनके बच्चें तकनीकी दक्षता के मामले में कहीं उनसे आगे होंगे। इसका मतलब यह तो कतई नहीं कि तकनीकी दक्षता की बिना पर उनकी वैचारिकी का भी लोहा मान लिया जाए। अगर वैचारिकी तकनीक का मोहताज होती तो आज कबीर, तुलसी और गांधी के पाठ मायने नहीं रखते। लेकिन इन बौद्विकों को कोई कैसे समझाए कि उधार के कोटशन से किसी की आलोचना नहीं की जा सकती। भले किसी पाठ का कुपाठ किया जा सकता है। कुतर्कों की बैतबाजी की जा सकती है। आपने प्रभाष जी को कभी देखा किसी को कोटेशन के सहारे पढने की कोशिश करते हुए। आखिर कोटेशन के सहारे अपनी बौद्विकता का आतंक पैदा करना हमारे यहां के बौद्विकों में मियादी बुखार की तरह फैल गया है।
विखंडन, आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता उसी पोपलेपन और खालीपन को भरने की साजिश मात्र भर हैं। अब आप ही बताओ पोपटपन को भरने की साजिश और पाखंड से क्या कभी समतामूलक समाज बनने में कोई मदद मिल सकती है। जिस तरह से तुलसी के मानस से दो चार पंक्तियों को निकालकर ये प्रगतिशील लोकमंगल के इस अप्रतिम कवि को लगातार हाशिए पर रखने की कोशिश कर रहे हैं, उसी तरह आज के कुछेक महाप्रगतिशील और अपने आप को सामाजिक का्रंति के अग्रदूत मानने वाले पत्रकार प्रभाष जी को लेकर गुंडई पर उतर आए हैं। इन महानुभावों को जब कुछ नहीं मिला तो ये प्रभाष जी की पूरी संपादकीय यात्रा से जनसत्ता की दो चार कतरनें लेकर मैदान में आ गए। और इसे ऐसे हवा में लहराने लगे जैसे मानो प्रभाष जी किसी स्टिंग आॅपरेशन में दबोच लिए गए हों। जिन दो चार कतरनों को लेकर ये महानुभाव अतिपुलकित हो रहे हैं और प्रभाष की छवि को दागदार कर देने में सफल होने का मनमोदक खा रहे हैं। उन्हें कैसे बताउं कि ये दो चार कतरनें प्रभाष जी की पत्रकारिता को लेकर उनके सामासिक विचारों का ही परिचायक है।
संपादक का यह धर्म कभी नहीं होता कि वह अपने पत्र में सिर्फ अपने माफिक विचारों को जगह दे। अगर प्रभाष जी ने उस समय अपन विरूद्व विचारों को भी अगर अपने पत्र में जगह दिया तो यह उनके विरोधी विचारों के प्रति सदाशयता को ही दिखाता है। आखिर समाचार पत्र का मतलब किसी खास विचारों के मुखपत्र होने में नहीं है।
कहानी: एक गुम-सी चोट
4 घंटे पहले
2 comments:
दिल्ली के पत्रकारिता छात्रों द्वारा निकाले जाने वाला परिपत्र 'मीडिया स्कैन' का दिसम्बर का अंक प्रभाष जी को समर्पित होगा.
तुलसीदास कह रहे हैं कि कवित विवेक एक नहिं मोरे/सत्य कहहुँ लिखि कागद कोरे.लेकिन जब प्रभाष जी कहने आते हैं तो कागद कारे का चुनाव करते हैं.कागद कोरे और कागद कारे एक ही नहीं हैं.यह वैसी ही समझदारी है जैसे देवदास का देव डी हो जाना.मैं मानता हूँ इस फ़िल्म में अनुराग कश्यप ने प्रेरणा लेने से ऊपर उठकर पिछली कृतियों का इस्तेमाल किया है.वो इस्तेमाल कर भी पाए हैं.यह अनायास नहीं है कि तुलसी से सभी सीखना चाहते हैं पर वैसा होना नहीं चाहते.यह एक प्रवृत्ति है स्थापित से निजता का चुनाव.इन्हीं अर्थों में प्रभाष जोशी तुलसी तरफ़ के नहीं ठहरते.अजीत जी आप क्या सोचते हैं?
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