कुछ अखबारों ने प्रभाष जी को याद करनेमें भले कंजूसी दिखाई हो लेकिन नेट और ब्लॉग पर उनके चहेतों ने उन्हें टूट कर याद किया है। प्रस्तुत आलेख ज़ी बिज़नेस के एसोसिएट प्रोड्यूसर मृत्युंजय कुमार झा की ओर से। मृत्युंजय सर माखन लाल विवि के मेरे सीनियर हैं। - संदीप
भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच हो रहे एक दिवसीय मैच में सचिन की ऐतिहासिक पारी देखते हुए जितनी ख़ुशी हो रही थी, उससे ज्यादा ख़ुशी और गुदगुदी इस बात को लेकर हो रही थी की कल के जनसत्ता में प्रभाष जोशी क्या लिखेंगे।
सुबह उठते ही इससे पहले की मैं जनसत्ता अख़बार लपकता मेरे एक मित्र ने फ़ोन किया कि अब कागद कारे(हर रविवार को जनसत्ता में प्रभाष जी का छपने वाला लेख ) नहीं पढ़ पाओगे. मैं चौंका....... ३० सेकंड के भीतर मेरे मन में कई आशंकाएं उठने लगीं...... क्या प्रभाष जी ने जनसत्ता में लिखना छोड दिया, क्या जनसत्ता से कुछ अनबन हो गई? इससे पहले कि मैं किसी नतीजे पर पहुँचता, मित्र कि दूसरी आवाज़ आई........ प्रभाष जी नहीं रहे.............. पैर के नीचे की ज़मीन खिसक गई. प्रभाष जोशी को जाने मुझे बहुत दिन नहीं हुए थे. मैं उन्हें करीब 8 साल से जानता था . और नियमित रूप से तो पढना पिछले साल सितम्बर से ही शुरू किया और मैं अपने आपको खुशकिस्मत मानता हूँ कि रविवार को मेरा साप्ताहिक अवकाश होता है। रविवार की छुट्टी और प्रभाष जी का कागद कारे। छुट्टी का मज़ा दोगुना हो जाता था। लेकिन कागद कारे के वगैर आनेवाला रविवार कैसे बीतेगा ये सोच कर ही दिल बैठ जाता है. प्रभाष जोशी का जाना सिर्फ इस मायने में दुखद नहीं हैं कि व देश के एक वरिष्ट पत्रकार थे. बल्कि उनका जाना इस मायने में दुखद है कि हिंदी पत्रकारिता जगत के माथे से एक गार्जियन स्वरुप नायक का साया उठ गया. यूं कहें कि पत्रकारिता कि थोडी बहुत भी छवि बचाने में प्रभाष जोशी और उनका लेखन ढाल कि तरह काम करता था. जब लोगों के मुंह से मीडिया के प्रति गलियां सुनकर हारता हुआ महसूस करता, तब अचानक से प्रभाष जोशी और उनकी पत्रकारिता का नाम लेते ही बाजी ऐसे पलटती थी कि लोगों कि बोलती बंद हो जाती थी॥ लेकिन आज सचमुच पत्रकारिता कि दुनिया में आपने आपको अनाथ महसूस कर रहा हूँ.
अपनी तनख्वाह बढ़ाने का विरोध करना, होटल के नोट पैड पर किसी को नौकरी के लिए ऑफर लेटर दे देना, मालिक को सीधे अपने अधीनस्थ को फ़ोन करने से मना करना, खुद संपादक रहते हुए अपनी कॉपी एडिट करने का पूरा अधिकार जूनियर्स को देना... इतनी हिम्मत आज के दौर में कौन संपादक कर पायेगा। लेकिन बावजूद इसके कुछ कमाऊ-खाऊ पत्रकार घटिया भाषा में उनका विरोध करते हैं तो उनका क्या किया जाये? खैर बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। लेकिन आज के बाद जब भी जनसत्ता अख़बार पर नजर जायेगी, अख़बार हमेशा खाली ही नज़र आएगा।
बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई
एक शख्स सारे शहर को वीरान कर गया
भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच हो रहे एक दिवसीय मैच में सचिन की ऐतिहासिक पारी देखते हुए जितनी ख़ुशी हो रही थी, उससे ज्यादा ख़ुशी और गुदगुदी इस बात को लेकर हो रही थी की कल के जनसत्ता में प्रभाष जोशी क्या लिखेंगे।
सुबह उठते ही इससे पहले की मैं जनसत्ता अख़बार लपकता मेरे एक मित्र ने फ़ोन किया कि अब कागद कारे(हर रविवार को जनसत्ता में प्रभाष जी का छपने वाला लेख ) नहीं पढ़ पाओगे. मैं चौंका....... ३० सेकंड के भीतर मेरे मन में कई आशंकाएं उठने लगीं...... क्या प्रभाष जी ने जनसत्ता में लिखना छोड दिया, क्या जनसत्ता से कुछ अनबन हो गई? इससे पहले कि मैं किसी नतीजे पर पहुँचता, मित्र कि दूसरी आवाज़ आई........ प्रभाष जी नहीं रहे.............. पैर के नीचे की ज़मीन खिसक गई. प्रभाष जोशी को जाने मुझे बहुत दिन नहीं हुए थे. मैं उन्हें करीब 8 साल से जानता था . और नियमित रूप से तो पढना पिछले साल सितम्बर से ही शुरू किया और मैं अपने आपको खुशकिस्मत मानता हूँ कि रविवार को मेरा साप्ताहिक अवकाश होता है। रविवार की छुट्टी और प्रभाष जी का कागद कारे। छुट्टी का मज़ा दोगुना हो जाता था। लेकिन कागद कारे के वगैर आनेवाला रविवार कैसे बीतेगा ये सोच कर ही दिल बैठ जाता है. प्रभाष जोशी का जाना सिर्फ इस मायने में दुखद नहीं हैं कि व देश के एक वरिष्ट पत्रकार थे. बल्कि उनका जाना इस मायने में दुखद है कि हिंदी पत्रकारिता जगत के माथे से एक गार्जियन स्वरुप नायक का साया उठ गया. यूं कहें कि पत्रकारिता कि थोडी बहुत भी छवि बचाने में प्रभाष जोशी और उनका लेखन ढाल कि तरह काम करता था. जब लोगों के मुंह से मीडिया के प्रति गलियां सुनकर हारता हुआ महसूस करता, तब अचानक से प्रभाष जोशी और उनकी पत्रकारिता का नाम लेते ही बाजी ऐसे पलटती थी कि लोगों कि बोलती बंद हो जाती थी॥ लेकिन आज सचमुच पत्रकारिता कि दुनिया में आपने आपको अनाथ महसूस कर रहा हूँ.
अपनी तनख्वाह बढ़ाने का विरोध करना, होटल के नोट पैड पर किसी को नौकरी के लिए ऑफर लेटर दे देना, मालिक को सीधे अपने अधीनस्थ को फ़ोन करने से मना करना, खुद संपादक रहते हुए अपनी कॉपी एडिट करने का पूरा अधिकार जूनियर्स को देना... इतनी हिम्मत आज के दौर में कौन संपादक कर पायेगा। लेकिन बावजूद इसके कुछ कमाऊ-खाऊ पत्रकार घटिया भाषा में उनका विरोध करते हैं तो उनका क्या किया जाये? खैर बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। लेकिन आज के बाद जब भी जनसत्ता अख़बार पर नजर जायेगी, अख़बार हमेशा खाली ही नज़र आएगा।
बिछड़ा कुछ इस अदा से कि रुत ही बदल गई
एक शख्स सारे शहर को वीरान कर गया
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