मैं सीधी हूँ

श्री यूकेएस चौहान केरल कैडर के आई ऐ एस है और मूल रूप से उत्तर प्रदेश के रहेने वाले हैं केरल में लंबा अरसा गुजारने के बाद दिल्ली लौटे हैं और इस समय नाफेड के एम् डी हैं 
कला और साहित्य में आप की गहरी रूचि और पकड़ है. केरल में अपने कार्यकाल के दौरान आपने मलयाली सीखी और प्रसिद्ध मलयाली कवि उत्तप्पम की कविताओं का हिन्दी में अनुवाद भी किया जो ज्ञानपीठ से आ रहा है. श्री चौहान पंडित प्रदीप, गुलजार जैसे प्रसिद्ध कवियों गीतकारों के केरल में आयोजित कार्यकमों के दौरान उनकी रचनाओं का मलयाली अनुवाद श्रोताओं को साथ-साथ सुनाते रहे हैं . ..... हाल ही में चुनाव के सिलसिले में वे सीधी गए थे जहाँ उन्होंने ये कविता लिखी............




हंसो कैमूर मेरी दुर्दशा पर
 
क्योंकि मैं सीधी हूँ
 
पडी हूँ लाचार  
 
तुम्हारे विस्तृत आँचल का पल्लू थामे
 
त्यक्ता सुहागन सी
 
भोग कर छोड़ दी गयी हूँ 
 
टुकडा टुकडा दरकने के लिए  

तुम्हारे उन्नत ललाट पर 

हमेशा सिन्दूर मलते रही रेवा नरेश
 
मेरी पथरीली छाती पर

 बेधड़क दौड़ती हैं  

धनपतियों की लम्बी गाडियां  

सूखती जा रही हैं

बनास व सोन की जलधाराएँ  

मेरी कोख से  

निकाला जा रहा है  

बलात मेरा सत्व  

काट दी गयी मेरी कमर भी

अलाग हुई सिंगरौली  

जैसे लुट गयी मेरी खजानों भरी करधनी  

मैं सीधी हूँ न  

इसलिए सब कुछ सहती जाती हूँ चुपचाप  

मुझे अपने जैसा टेढा बनाकर  

तन कर खड़े होने का साहस कब दोगे कैमूर

चित्र गूगल से साभार

मिल्खा सिंह नही जानते कौन सा खेल खेलती हैं मेरीकॉम



महिला मुक्केबाजी में चार बार विश्व खिताब जीत चुकी एम् सी मेरीकॉम का दर्द साझा कराने वाला कोई नही. ना फेडरेशन, ना जनता और नाही नेता.
मेरीकॉम कल चुपचाप चीन से वापस आ गयीं. किसी को शायद ख़बर नही की उन्होंने चौथी बार महिला मुक्केबाजी का विश्व खिताब जीता है वह भी दो साल पहले जुड़वां बच्चों की मां बनने के बाद.
अर्जुन अवार्ड कमेटी के अध्यक्ष उड़न सिख मिल्खा सिंह के सामने जब धोनी और मेरीकॉम के नाम खेलरत्न पुरस्कार के दावेदार के रूप में लाये गए तो उन्होंने कहा की वे नही जानते मेरीकॉम कौन सा खेल खेलती हैं??? बाद में यह सम्मान धोनी को दिया गया.
मेरीकॉम कहती हैं की मिल्खा सिंह की बात ने उन्हें वो जख्म दिया जो कभी बोक्सिंग जैसे खतरनाक खेल से भी उन्हें नही मिला था..
मैं सोचता हूँ की वो कौन सी भावना है जो मेरीकॉम को खेलते रहने की ऊर्जा देती है जब की ये खेल न तो उन्हें पैसा दिला पा रहा है और नाही सम्मान
मेरे एक मित्र का कहना है की मेरीकॉम को सम्मान और ढेरों इनाम पाने के लिए बहुत खूबसूरत टेनिस या चेस खिलाड़ी होना चाहिए था... आप क्या कहते हैं

तस्वीर - साभार गूगल

क्या कोई मुझे बताएगा की ये एनकाउंटर स्पेशलिस्ट क्या बला है

बहुत दिनों से मैं जानना चाहता हूँ कि आख़िर ये एनकाउंटर स्पेशलिस्ट क्या बला है।
क्या ये वाकई कोई पद है जिसका आधिकारिक रूप से सृजन किया गया है या फ़िर ये मीडिया प्रदत्त उपाधि है ।
मैं जानना चाहता हूँ कि कोई एनकाउंटर का स्पेशलिस्ट कैसे हो सकता है? कैसे कोई लोगों को मारने का स्पेशलिस्ट हो सकता है। ये स्पेशलिस्ट लोगों को मारता कैसे है घातलगाकर या आमने सामने कि लड़ाई में या पकड़ कर मुहँ में पिस्टल ठूंस कर........................... कोई मुझे बतायेगा कि ये एनकाउंटर स्पेशलिस्ट क्या बला है ???

तस्वीर साभार : गूगल बाबा

विचारधाराओं का टकराव...

उसने कहा, हमारे बीच विचारधाराओं का टकराव है
मैंने कहा, लेकिन मेरे पास तो विचार है ही नही
उसने कहा, झूठ बोलते शर्म नही आती
मैंने कहा, मैं सच कह रहा हूँ
उसने कहा, तुम तो बड़े विचारक बनते हो. तो क्या वो सब ढोंग है
मैंने कहा हाँ लेकिन हमारी दोस्ती तो ढोंग नही है न ?
उसने कहा नही ये कैसे होगा हमारी दोस्ती तो मिसाल है औरों के लिए...
उसके होठों पे मुस्कराहट थी
उसने मुझे गले लगा लिया और धीरे से कान में कहा
तुम कुछ भी कहो यार हिंदू आतंकवादी नही हो सकते...

सारे धुरंधर एक साथ

मेरी मेल पर ये तस्वीर एक दोस्त ने भेजी थी। इसमें दुनिया भर की चर्चित हस्तियों को एक साथ देखा जा सकता है... आप भी पहचानना चाहेंगे....................

दिल्ली का दिल अब कहीं और बसता है

कल शाम रिंग रोड पर मेरे साथ हुए हादसे ने मेरी इस धारणा को और बल दिया की में दिल्ली दिलवालों की तादात अब उतनी नही रही ।

हुआ यूँ की मैं शाम लगभग ६.३० बजे लाजपत नगर मार्केट से वापस लौट रहा था फ्लाई ओवर के नीचे से सफदरजंग एन्क्लावे स्थित अपने फ्लैट लौटने के लिए मैं यू टर्न ले रहा था तभी एक कार ने पीछे से टक्कर मार दी. एक पल को तो समझ ही नही आया की क्या हुआ ? मैं एक दम लहराता हुआ आगे की और सर के बल गिरा. हेलमेट के कारण सर तो बच गया लेकिन हाथ पैर में जम कर चोट लगी. मैं उठ नही पा रहा था सामने कुछ छुट्टे पैसे सौ का एक नोट और मेरा एटीएम कार्ड पडा हुआ था .................जाने किसने तो आकर उठाया.


सड़क पर संज्ञा शून्य बैठा हुआ मैं देख रहा था की मेरे अगल बगल से गुजर रही कारों में बैठे लोगों की नज्में कैसी झुंझलाहट थी उनके बस में होता तो शायद वो कुचल के आगे चले जाते.....
मुझे ठोकने वाली कार जिसमें दिल्ली की कोई एलीट फॅमिली सवार थी भागने की फिराक में थी मैंने लडखडाते कदमों से ही सही उसे रोकने की कोशिश की. लेकिन वो भाग गए. वहां खड़े कुछ रिक्शा चलाने वालों ने मुझे किनारे ले जाकर बिठाया. मैंने १०० नम्बर पर फ़ोन भी किया लेकिन ना किसी को आना था न आया.
वहां से किसी तरह गाडी चला कर हम डॉक्टर के यहाँ गए ड्रेसिंग करवाई। रात में मैं यही सोचता रहा की अमीरी लोगों को किस कदर लोग संवेदनहीन बनाती जा रही है। मुझे पता है की उस कार सवार ने मेरी हत्या कराने के इरादे से टक्कर नही मारी थी, लेकिन क्या वो रुक कार दो मिनट मुझे देख नही सकता था क्या उसके पास इतना वक्त नही था की रुक कार हाल चाल ले लेता। मेरे लिए इतना बहुत था। लेकिन मेरी मदद के लिए आगे आए दो रिक्शा खींचने वाले।

इस घटना ने एक बार फ़िर एहसास करा दिया की दिल्ली वालों का दिल अब अपनी जगह बदल चुका है। यहाँ के अमीरों के दिल तो जाने कब के बनियों के यहाँ गिरवी रखे जा चुके हैं...........

..............उनके बात करने के लहजे से पता चल रहा था की दोनों बिहार के हैं लेकिन बीच सड़क पर बेसुध पड़े हम दोनों को उठाते हुए उन्होंने एक बार भी नही पूछा की हम महाराष्ट्र के हैं या गुजरात या तमिलनाडू के....सुन रहे हो न राज ठाकरे......................

मेरी आवाज ही पहचान है गर याद रहे...

अगर किसी पूजा घर में जलते दिये की रोशनी और घंटियों की पवित्र आवाज को मिला कर इंसानी सूरत में बदला जाए तो शायद वह कुछ-कुछ लता मंगेशकर की सी तस्वीर होगी। वही लता, जिसके बारे में एक दफा उस्ताद बड़े गुलामअली खां ने कहा था, "कमबख्त कभी गलती से भी बेसुरा नहीं गाती।" अपनी आवाज के अलावा क्या ये नाम किसी और परिचय या उपमा का मोहताज है?
चालीस के दशक में पिता दीनानाथ मंगेशकर की मौत के बाद 13 वर्ष की अल्प आयु में सिनेमा से जुड़ने वाली लता ने सन 1945 में मुंबई का रुख किया और उस्ताद अमानतअली खां भिंडी बाजार वाले से शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू किया लेकिन विभाजन के दौरान खां साहब पाकिस्तान चले गए। इसके बाद लता ने अमानत खां देवासवाले से संगीत की शिक्षा लेनी प्रारंभ की। पंडित तुलसीदास शर्मा और उस्ताद बड़े गुलामअली खां जैसी जानी मानी शख्सियतों ने भी उन्हें संगीत सिखाया। लता ने जिस समय हिंदी फिल्मों में गायिकी की शुरुआत की उस दौरान नूरजहां, शमशाद बेगम और जोहरा बाई अंबालेवाली जैसी गायिकाओं का वर्चस्व था। ऐसे में संगीतकार गुलाम हैदर ने सन 1948 में लता को अपनी फिल्म शहीद में गाने का मौका देना चाहा लेकिन निर्माता शशधर मुखर्जी ने लता की आवाज को बेहद पतली कह कर खारिज कर दिया। नाराज हैदर ने कहा कि एक दिन हिंदी सिनेमा के निर्माता निर्देशक लता के पास जाकर उनसे अपनी फिल्मों में गीत गाने की भीख मांगेंगे।सन 1949 में आई फिल्म (महल) के गीत 'आएगा आने वाला..' से लता ने पहली बार लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। इस गीत को अपार लोकप्रियता हासिल हुई। उसके बाद तो इतिहास गवाह है कि 60, 70, 80, 90 के दशक में फिल्म जगत पर लता और उनकी बहन आशा ने ऐसा दबदबा कायम किया कि उस दौर किसी अन्य गायिका का लोगों को नाम तक याद न रहा।ये मशहूर वाकया कौन नहीं जानता कि सन 1962 में चीन के साथ हुई लड़ाई के बाद जब एक कार्यक्रम में लता ने पंडित प्रदीप का लिखा 'ऐ मेरे वतन के लोगों..' गाया तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की आंखों से आंसू निकल पड़े।तत्कालीन मध्यभारत प्रांत के इंदौर शहर में 28 सितम्बर 1929 को जन्मीं लता के पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर शास्त्रीय गायक थे और वे रंगमंच से भी जुड़े थे। गोवा स्थित अपने पैतृक गांव मंगेशी की स्मृति में उन्होंने अपने नाम में मंगेशकर जोड़ा। आरंभ में लता को हेमा नाम दिया गया था लेकिन बाद में उनके पिता ने अपने एक नाटक 'भावबंधन' की नायिका लतिका के नाम पर उन्हें लता नाम दिया। अपने चारों भाई बहनों हृदयनाथ, आशा, ऊषा और मीना में सबसे बड़ी लता बेहद धार्मिक स्वभाव की हैं। लता पर 'इन सर्च ऑफ लता मंगेशकर' नाम से किताब लिखने वाले हरीश भिमानी ने अपनी किताब में लता के कई अनछुए पक्षों को उजागर किया है। जैसे कि लता को फोटोग्राफी का बेहद शौक है यहां तक कि वे कोई तस्वीर देख कर यह तक बता देती हैं कि इसे खींचने में किस कैमरे का प्रयोग किया गया था।संगीत जगत में अविस्मरणीय योगदान के लिए लता को सन 1969 में पद्मभूषण और सन 1999 में पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। सन 1989 में उन्हें फिल्म जगत का सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार और सन 2001 में देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न दिया गया।

सिने जगत का सदाबहार चेहरा देव आनंद

अविभाजित पंजाब के गुरदासपुर जिले के जाने माने वकील पिछौरीमल आनंद के घर 26 सितम्बर सन 1923 को एक बालक का जन्म हुआ। मां-बाप ने नाम रखा धर्मदेव पिछौरीमल आनंद। वही बालक जो आने वाले समय में देव आनंद के नाम से हिंदी सिने जगत के आकाश में स्टाइल गुरु बनकर जगमगाया।
देव आनंद को राजेश खन्ना से भी पहले सिनेमा का पहला चॉकलेटी नायक होने का गौरव मिला। देव आनंद की लोकप्रियता का आलम ये था कि उन्होंने जो भी पहना, जो भी किया वो एक स्टाइल में तब्दील हो गया। फिर चाहे वो उनका बालों पर हाथ फेरने का अंदाज हो या काली कमीज की पहनने का या फिर अपनी अनूठी शैली में जल्दी-जल्दी संवाद बोलने का।
लाहौर के गवर्नमेंट कालेज से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में अपना मुकाम बनाने के लिए घर छोड़ दिया और मुंबई चले आए। सन 1946 में आई फिल्म हम एक हैं से उन्होंने अपने करियर की शुरुआत की। पुणे में फिल्म की शूटिंग की शुरुआत के दौरान उनकी मुलाकात हुई बाद के मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक गुरुदत्त से जो उन दिनों फिल्मी दुनिया में अपना स्थान बनाने के लिए संघर्षरत थे।
एक साथ सपने देखते इन दोनों दोस्तों ने आपस में एक वादा किया। अगर देव कभी निर्माता बनेंगे तो उनकी फिल्म का निर्देशन करेंगे गुरुदत्त और अगर गुरुदत्त ने कभी फिल्म बनाई तो उसके नायक होंगे देवानंद। सन 1949 में देवानंद ने नवकेतन बैनर के नाम से फिल्म निर्माण का काम शुरू किया, उन्होंने अपना वादा निभाया और सन 1951 में अपनी फिल्म बाजी का निर्देशन गुरुदत्त को सौंपा। फिल्म सुपरहिट हुई और दोनों दोस्तों की किस्मत चमक गई।
गायिका -अभिनेत्री सुरैया के साथ देव आनंद का प्रेम प्रसंग जगजाहिर है। दोनों ने एक दूसरे के साथ छह फिल्मों में काम किया। एक फिल्म की शूटिंग के दौरान नाव पलट जाने पर जब सुरैया डूबने लगीं तो देव ने उन्हें बचाया और यहीं से दोनों एक दूसरे के नजदीक आए। मगर सुरैया की नानी को यह रिश्ता मंजूर नहीं था और नतीजतन दोनों का रिश्ता परवान न चढ़ पाया। सुरैया ने आजीवन विवाह नहीं किया।
आर.के.नारायण के उपन्यास गाइड पर देव आनंद ने इसी नाम से एक फिल्म बनाई जिसका निर्देशन किया था उनके छोटे भाई विजय आनंद ने। अंग्रेजी और हिंदी में एक साथ बनी इस फिल्म ने आलोचकों को बहुत प्रभावित किया।
देव आनंद फिल्म जगत के उन गिने चुने लोगों में शामिल हैं जो राजनीतिक और सामाजिक रूप से भी सक्रिय हैं। सन 1977 के संसदीय चुनावों के दौरान उन्होंने अपने समर्थकों के साथ मिलकर इंदिरा गांधी का जमकर विरोध किया। उल्लेखनीय है कि उस समय सिने जगत की अधिकांश हस्तियों ने चुप्पी साध रखी थी।
कुछ वर्ष पहले अपने जन्मदिन के अवसर पर ही उन्होंने 'रोमांसिंग विद लाइफ' नाम से अपनी जीवनी बाजार में उतारी थी। आमतौर पर मशहूर हस्तियों की जीवनियों के प्रसंग विवादों का विषय बनते हैं लेकिन उनकी जीवनी हर अर्थ में बेदाग रही बिल्कुल उनके जीवन की तरह।
उन्हें सदाबहार अभिनेता कह कर पुकारा गया तो वह भी यों ही नहीं था। उन्होंने जिन अभिनेत्रियों के साथ नायक के रूप में काम किया था कुछ वर्षो पहले तक वे उनकी पोतियों के साथ भी उसी भूमिका में देखे गए। आश्चर्य नहीं कि वे आज 86 वर्ष की अवस्था में भी पूरी तरह सक्रिय हैं।
देव आनंद ने एक बार अपनी निरंतर सक्रियता के बारे में कहा था कि वे सपने देखते हैं और फिर उन्हें पर्दे पर उकेरते हैं बिना हिट या फ्लाप की परवाह किए। इन अर्थो में वे सच्चे कर्मयोगी हैं। देव आनंद शतायु हों और जिंदादिली बिखेरते रहें यही उनके प्रशंसकों की कामना है।

सुरों के राही हेमंत दा

अपनी गहरी आवाज और विशिष्ट गायन शैली के साथ संगीत की विविध विधाओं में जबरदस्त ख्याति अर्जित करने वाले गायक-संगीतकार हेमंत कुमार की 26 सितम्बर को पुण्यतिथि थी। ऐसे समय में जब गायकी, कला से ज्यादा व्यवसाय में तब्दील हो चुका हो, रियलिटी शोज ने हर गाने वाले के सामने अवसरों की भरमार पैदा कर दी हो और प्रौद्योगिकी ने हर जुबान रखने वाले को गायक का रुतबा दे दिया हो, सच्ची और मासूम आवाज के धनी हेमंत दा जैसे गायक की याद एक ठंडी हवा के झोंके के समान आती है।
सन 1920 में वाराणसी में एक बंगाली परिवार में जन्मे हेमंत के घरवाले उनके बचपन में ही कोलकाता चले गए। आरंभिक शिक्षा दीक्षा के बाद हेमंत के परिजनों की इच्छा थी कि वे जादवपुर विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करें लेकिन उन्होंने उनसे बगावत करके संगीत में अपना भविष्य चुनने की ठानी। संगीत के प्रति अपनी दीवानगी के बारे में उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, "मैं हमेशा गाने का मौका तलाशता रहता था चाहे वो कोई धार्मिक उत्सव हो या पारिवारिक कार्यक्रम। मैं हमेशा चुने हुए गीत गाना पसंद करता था।"
हेमंत दा ने जिस दौर में संगीत को गंभीरता से लेना शुरू किया उसे हिंदी सिनेमा के 'सहगल काल' के नाम से जाना जाता है। यह वह दौर था जब गायकी पर कुंदनलाल सहगल और पंकज मलिक जैसे गायकों का लगभग एकाधिकार था और नए गायकों के लिए सिने जगत में जगह बनाना ख्वाब के समान था। चालीस के दशक के मध्य धुन के पक्के हेमंत 'भारतीय जन नाट्य संघ' (इप्टा) के सक्रिय सदस्य बन गए और वहीं उनकी दोस्ती हुई गीतकार-संगीतकार सलिल चौधरी से।
सन 1948 में हेमंत ने गान्येर बधु (गांव की बहू) शीर्षक वाला एक गीत गाया जो सलिल चौधरी द्वारा लिखा और संगीतबद्ध किया गया था। छह मिनट के इस गीत में बंगाल के एक गांव की बहू के दैनिक जीवन का चित्रण किया गया था। इस गीत ने हेमंत और सलिल दोनों को अपार लोकप्रियता दिलाई। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यही वह गीत था जिसने हेमंत कुमार को अपने समकालीनों के समकक्ष स्थापित किया। इसके बाद सलिल और हेमंत की जुगलबंदी ने बांग्ला संगीत जगत में खूब धूम मचाई।
कुछ बंगाली फिल्मों में संगीत देने के बाद हेमंत मुंबई आ गए और उन्होंने सन 1952 में अपनी पहली हिंदी फिल्म को संगीत दिया जिसका नाम था आनंद मठ। इस फिल्म में लता मंगेशकर के गाए गीत वंदे मातरम ने अभूतपूर्व ख्याति अर्जित की। साथ ही साथ हेमंत ने पाश्र्व गायक के रूप में अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी। अभिनेता देवानंद की शुरुआती फिल्मों 'जाल' और 'सोलहवां साल' में गाए उनके गीतों 'ये रात ये चांदनी..' और 'है अपना दिल तो आवारा..' आदि ने हेमंत कुमार के लिए अपार लोकप्रियता हासिल की।
जाल, नागिन, अनारकली, सोलहवां साल, बात एक रात की, बीस साल बाद, खामोशी, अनुपमा आदि फिल्मों में हेमंत दा की मधुर आवाज का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। तुम पुकार लो.., जाने वो कैसे लोग थे.., छुपा लो तुम दिल में प्यार मेरा.., ना तुम हमें जानो.. जैसे सदाबहार गीतों ने श्रोताओं के मन पर अमिट छाप छोड़ी।
तितली के परों की सी कोमल आवाज का मालिक, सुरों का यह राही 26 सितम्बर 1989 को सदा-सदा के लिए सो गया।

नहीं रहीं प्रभा खेतान

मैंने अहमद फ़राज़ के जाने और उस पर साहित्य जगत में कोई सुगबुगाहट ना होने पर जो पीडा अनुभव की थी , प्रभा खेतान के जाने पर वो दो गुनी हो गयी।

स्त्री मन की कुशल चितेरी, वरिष्ठ रचनाकार प्रभाजी का बीते शुक्रवार की देर रात कोलकता में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था। वे 66 वर्ष की थीं।

एक कवयित्री, नारीवादी चिंतक और उद्यमी आदि विविध रूपों में अपनी पहचान बनाने वाली प्रभा खेतान को दो दिन पहले दिल की तकलीफ के बाद अस्पताल में दाखिल कराया गया था। नवंबर 1942 में कोलकाता के एक रुढ़िवादी मारवाड़ी परिवार में जन्मी प्रभा ने तत्कालीन बंद समाज के दायरे को तोड़कर अपने लिए मंजिलें और उनके रास्ते खुद तय किए। ज्यां पाल सात्र्र के अस्तित्ववाद पर पीएचडी करने के बाद प्रभा ने अपना व्यवसाय खड़ा कर आर्थिक आत्मनिर्भरता अर्जित की।

साइमन दा बोउवा की दे सेकंड सेक्स का जो अनूठा अनुवाद उन्होंने स्त्री उपेक्षिता के नाम से किया था उसे पढने के बाद मैंने जाना की हम किन चीजों से कैसे कैसे कारणों से वंचित रह जाते हैं।

प्रभा खेतान का लेखन स्त्री मनोविज्ञान की गहन जांच पड़ताल करता है। 'बाजार में खड़ी स्त्री' और आपनी जीवनी 'अन्या से अनन्या तक' समेत अपनी विभिन्न रचनाओं में उन्होंने औरत के हक, भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के दौर में उसकी स्थिति पर अपनी बात बेधड़क होकर कही। उल्लेखनीय है की स्त्री विमर्श की पैरोकार और उसका नेतृत्व कराने वाली प्रभा जी ने कभी ख़ुद को नारीवाद का स्वयम्भू अगुआ नही घोषित किया ।

उनकी जीवनी अन्या से अनन्या को पढ़ कर डॉ साहब के साथ उनके रूमानी संबंधों को मनही मन स्वीकार नही पाया था लेकिन ६० के दशक के समाज में उनके साहस ने सचमुच मन मोह लिया था

मैंने अपने मित्र शशि भूषण से हिन्दी साहित्य की इस विडम्बना पर बात की जिस बात ने हमें सबसे ज्यादा दुखी किया वह थी मीडिया में अपर्याप्त कवरेज । कमोबेश यही आलम त्रिलोचन की मौत पर भी सामने आया था । नितांत स्तरहीन घटिया बातों को प्रमुखता से छापने वाला हमारा मीडिया और आपसी लडाइयों में उलझे उनके स्वयम्भू आका। क्या कभी इन्हे एहसास होगा की जो हम खो रही हैं उसकी भरपाई कभी नही होगी ।


उनका पहला काव्य संग्रह 'उजाले' सन 1981 में और पहला उपन्यास 'आओ पेपे घर चलें' 1990 में प्रकाशित हुआ। एक और आकाश की खोज, कृष्णधर्म, सीढ़ियां चढ़ती हुई मैं आदि उनके प्रसिद्ध काव्य संग्रह हैं और छिन्नमस्ता, तालाबंदी, अग्निसंभवा, स्त्री पक्ष उनकी प्रमुख औपन्यासिक कृतियां हैं।

प्रभा खेतान कितनी बड़ी कवयित्री , उपन्यासकार, नारीवादी या चिन्तक थीं इस बहस में मुझे नही पड़ना मेरे लिए तो बस एक समर्थ स्त्री और इमानदार व्यक्तित्व की स्वामी थी यही पर्याप्त है.

फ़राज़ का जाना ...

आख़िर अहमद फ़राज़ चले गए , लेकिन उस तरह नही जैसे वो मुशायरों से उठते थे । वे चुपचाप खामोशी से चले गए और उनके इसके साथ ही पाकिस्तानी अदब में बागी तेवर की एक बेहद मुखर आवाज खामोश हो गई।

कहने को तो फ़राज़ का इंतकाल अगस्त की २५ तारिख को हुआ लेकिन वो तो एक अरसा हुआ हमारे आप के दिलों से बहुत दूर जा चुके थे । बिल्कुल उर्दू जुबान की मानिंद ...तभी तो उनके मरने पर हमारे आपके चहेते अखबारों -चैनलों ने छोटी सी ख़बर देना भी मुनासिब नही समझा इक्का-दुक्का को छोड़ कर। और तो और तमाम निजी झगडों को निबटाने का हथियार बनते जा रहे हिन्दी चिट्ठों ने भी फ़राज़ में कोई रूचि नही दिखायी .

मैंने उनकी मौत पर एक पीस लिखना चाहा, सोचा उनके बारे में कुछ बातें उन लोगों से शेयर करूं जिन्हें मैं उर्दू- हिन्दी अदब का नुमाइंदा समझता था , आपको बताऊँ फराज की मौत पर उन्होंने कैसी टिप्पणियां की...

फ़राज़ साहब का इंतकाल तो अरसा पहले हो गया...
कौन फराज? अच्छा वो पाकिस्तानी शायर ...
अच्छा... रंजिश ही सही वाली गजल उनकी लिखी हुई थी...


दोस्तों जनवरी 1931 में जन्मे फराज, बीसवीं सदी के तरक्की पसंद शायरों कैफी आजमी, अली सरदार जाफरी और फैज अहमद फैज की जमात के शायर थे। फराज ने एक बार खुद स्वीकार किया था कि पाकिस्तान में विरोध की कविता दम तोड़ चुकी है। उन्होंने कहा था कि भले ही जनता का विरोध बाकी हो लेकिन शायरी में वह अब देखने को नहीं मिलता।

मीर तकी मीर और मिर्जा गालिब को अपना आदर्श मानने वाले फराज ने अपनी शायरी की शुरुआत तो रुमानियत से की लेकिन जल्द ही उनका रुख आम आदमी के सरोकारों की ओर हो गया। उन्होंने अवाम की रोजमर्रा की परेशानियों से लेकर मुल्क की आला हुकूमत की खिंचाई तक हर उस मसले पर अपनी पैनी कलम चलाई जो किसी न किसी तरह इंसानियत से साबका रखती थी।
'यही कहा था मेरी आंख देख सकती है / तो मुझपे टूट पड़ा सारा शहर नाबीना (नेत्रहीन)', 'शहर वालों की मुहब्बत का मैं कायल हूं मगर / मैंने जिस हाथ को चूमा वही खंजर निकला' जैसे अपने शेरों और गजलों के सहारे उन्होंने अपने दुख, अपनी कोफ्त को सार्वजनिक किया।

उन्होंने पाकिस्तान में फौजी हुकूमत की खुलकर आलोचना की। जनरल जिया उल हक के शासन काल में तो उन्हें एकांत कारावास में डाल दिया गया था। बाद के समय में उन्होंने देश ही छोड़ दिया और एक लंबे अरसे तक यूरोप में स्वनिर्वासित जीवन बिताया। सन 2004 में उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान 'हिलाल ए- इम्तियाज' दिया गया था, जिसे उन्होंने बाद में विरोध स्वरूप वापस कर दिया था।

मशहूर पाकिस्तानी गायक मेहंदी हसन ने उनकी एक गजल 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ' को इतनी खूबसूरती से गाया कि यह जमाने में उनकी पहचान बन गई । यहां तक कि खुद एक बार फराज ने कहा था कि यह गजल तो अब मेहंदी हसन की हो चुकी।

फ़राज़ की एक मशहूर नज़्म है- 'खाली हाथों को कभी गौर से देखा है फराज / किस तरह लोग लकीरों से निकल जाते हैं / जाने वाले को न रोको कि भरम रह जाए / तुम पुकारो भी तो कब उसको ठहर जाना है / सिर्फ ये सोच कर तुमसे मुहब्बत करते हैं फराज / मेरा तो कोई नहीं, तुम्हारा तो कोई हुआ / वो जिस के पास रहता था दोस्तों का हुजूम / सुना है फराज, कल रात एहसास-ए- तनहाई में मरा।'
अलविदा फराज, अलविदा।

मैं कहीं खो रहा हूँ..........

एक मुद्दत हुई आखिरी बार ब्लॉग पर लिखे हुए। नौकरी ने बाकी सारे शौक छीन लिए। किताबें,सिनेमा,दोस्त,सब फिसलता जा रहा है मुट्ठी से रेत की तरह। तीन लाइन इंट्रो की तरह छोटी ह रही हैं बातें और साथ भी.गोया इससे बड़ा होने पर ख़बर का शेप बिगड़ जाएगा ( और हमारे रिश्तों का क्या?????? जो आज भी बात जोह रहे हैं सुदूर पूर्वांचल से लेकर यहीं दिल्ली की गलियों तक )।

इसी शहर में रहने वाले दोस्तों से भी अब मुलाक़ात होती है जी मेल के चैट बॉक्स में और वहां भी ज्यादातर समय लाल बत्ती का ट्रैफिक जाम लगा रहता है। डर लग रहा है मैं ऐसा नही था, कम से कम छः महीने पहले तक तो हरगिज नही ......

ये शहर मुझे बदल रहा है या फ़िर मुझे निगल रहा है.... दोस्तों का नाम याद करता हूँ तो ई-मेल पते या फ़िर इक्का दुक्का फ़ोन नम्बर याद आते हैं , दोस्तों के साथ वक्त बिताने की सोच पर भारी पड़ ने लगा है ऑफिस का कमिटमेंट। ऐसे में पढ़ाई में बीते पिछले दो साल बहुत याद आते हैं। याद आते हैं वो टकराव जिन्हें हम बड़े गर्व से वैचारिक मतभेद कहा करते थे, कहाँ चले गए वो विचार ... या कोई भी।

दुनिया बदलने के जिस सपने को लेकर हमारे सीनियर निकले थे हमारे साथ वो नही था , हमारे सामने था एक बड़ा खुला बाजार जहाँ हमें बिकना था हम अपनी सबसे अच्छी ड्रेस में सबसे मीठी बोली जबान में लिए उस समय दुनिया के सबसे शिष्ट लोग होते थे जब हमारे खरीददार आते थे।

ऐसे ही एक दिन हम बिक गए। लेकिन मन ने नही माना की हम बिक चुके उसने ढाढस दिया अरे नही अभी तो सिर्फ़ गिरवी हुई हैं आत्मा कुछ दिन में छुडा लेंगे लेकिन वो दिन नही आया।

बाबूजी कहते हैं क्या कर रहे हो इतनी दूर चले आओ। अम्मा फ़ोन पर बोलती काम रोटी ज्यादा हैं क्या रास्ता हैं मेरे सामने.......??????? इसी तरह बीत जायेगा जीवन तमाम कठिनाइयों के बीच झूठी मुस्कान और अधर ख़्वाबों के साथ.... मैंने ये बनाना कभी नही चाहा था..... मैं टूट रहा हूँ मुझे बचा लो..........

प्रेम के लिए दो मिनट का मौन

फागुन के पागल महीने में
हम चाह ही रहे थे गाना बसन्ती गीतकी आ गया
नए सांस्कृतिक रथ पर सवार वैलेंटाइन डे

अकेले नही आया है
प्रेम का ये त्यौहार
इसके ऑफर पैक में मिले हैं
रोज डे ,फ्रेंडशिप डे और जाने क्या क्या ??

अब तो लगता है
की जैसे इसके आने से पहले
बिना प्रेम के रह लिए हम हजारों साल
वसंतोत्सव ?
जैसे वैलेंटाइन डे कोई उपनिवेश
पीले वस्त्रों में लिपटा सौंदर्य
मानुस प्रेम
सरसों के खेत
जैसे बीते युग की कोई बात

इन्हे तो भुलाना ही था हमें
क्यूंकि वसंतोत्सव को
सेलिब्रेट नही कर सकते
कोक और पिज्जा के साथ
ठीक नही लगता ना

सुना तुमने
वैलेंटाइन डे आ रहा है
टीवी चॅनल पढेंगे
उसकी शान में कसीदे
और कहेंगे
देश के लोगों खरीदो
मंहगे उपहार
क्यूंकि वही होंगे तुम्हारे प्रेम के यकीन
भावनाएं तो शुरुआत भर होती हैं
ओछी और सारहीन

१४ फरवरी को अचानक याद आयेगा प्रेम
और हम नोच डालेंगे बगिया के सारे फूल
घूमेंगे सडकों, बाजारों, परिसरों में
जहाँ भी दिखें प्रेमिकाएँ
जो थीं १३ तारिख तक महज लडकियां

मुर्दा संगठनों में नयी जान फून्केगा
वैलेंटाइन डे
निकल पड़ेंगे सडकों पर उनके लोग
लाठी डंडों और राखियों से लैस
जब उन्हें दिखाई देंगे
अपने ही भाई -बहन
दूसरों की गाड़ियों पर चिपके हुए
तो वे निपोरेंगे खीस
और दिल ही दिल में स्वीकारेंगे
परिवर्तन की बात
सोचता हूँ की अगर ये है प्रेम का प्रतीक
तो क्यों लाता है आँगन में बाजार
जीना सिखाता है सामानों के साथ

डरता हूँ
इस अंधी दौड़ में बसंतोत्सव
की तरह
हम मांग ना लायें होली और दीवाली के भी विकल्प

इस कठिन समय में जब प्रेम
आत्महंता तेजी से उतर रहा है
भावना से शरीर पर

आइये करें थोडी सी प्रार्थना
ताकि प्रेम बचा रहे
हमारे भीतर की गहराइयों में
ताकि हमें रखना न पड़े
प्रेम के लिए दो मिनट का मौन