प्रलेस का 15वां राष्ट्रीय सम्मेलन आरंभ

प्रगतिशील लेखक संघ का 15वां राष्ट्रीय सम्मेलन
गुरुवार १२ अप्रैल को दिल्ली में आरंभ हुआ। इस तीन दिवसीय इस सम्मेलन में देश विदेशा से आए तकरीबन ३०० से अधिक तरक्कीपसंद लेखक हिस्सेदारी कर रहे हैं। पहले दिन उदघाटन सत्र की शुरुआत अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री नामवर सिंह के भाषण से हुई। ‘‘शांति और सहयोग के लिए लेखन’’ विषय पर केंद्रित इस सत्र का विषय प्रवर्तन वरिष्ठ लेखक डा असगर अली इंजिनियर ने किया। अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रो तुलसीराम ने कहा कि पुरातन विचारधाराएं जब राजनीति पर हावी होती हैं, तो लेखन भी उससे प्रभावित होता है। जातिवाद के नए सिरे से सिर उठाने के साथ ही उसके नायक भी उभरे हैं। जातीय सत्ता के नारे के कारण स्पर्धात्मक राजनीति तेज हुई, जिसके खतरे आज सामने हैं।
इजिप्ट से आए लेखक हिल्मी हदीदी, तमिलनाडु से आए वरिष्ठ लेखक पुन्नीलम, खगेंद्र ठाकुर, विश्वनाथ त्रिपाठी, पाकिस्तान के बाबर आयाज, जापान से आए लेखक आकियो हागा, ने भी सत्र को संबांधित किया। संचालन अली जावेद ने किया।

सम्मेलन के दूसरे सत्र में ‘‘शांति और सौहार्दपूर्ण विष्व में लेखक की भूमिका’’ विषय पर प्रगतिषील लेखकों ने अपने विचार व्यक्त किए।
विष्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि कलाएं शांति और सौहार्द की संवाहक होती हैं, इसलिए लेखकों की खासतौर से विरासत ही शांति और सौहार्द की रही है। शांति और सौहार्द की विरोधी शक्तियां सबसे पहले भाषा और संस्कृति पर ही चोट करती हैं। इन्हें बचाने के लिए एकजुट होना जरूरी है। उन्होंने कहा कि पूंजीवाद को तेज रफतार चाहिए होती है, वह सड़क से लेकर बाजार तक तेजी चाहता है। यह तेजी नई चीजें भी पैदा करती है, लेकिन नयापन आधुनिकता का पर्याय नहीं होता। मूल्यों के साथ आने वाला नयापन आधुनिकता है।
उन्होंने कहा कि विकल्प नहीं होगा, तो अतिवाद फैलेगा। अतिवाद सत्ता के हित में होता है। उन्होंने कहा कि हमें अतिवादियों के उद्देष्य से कोई विरोध नहीं है, उनके तौर तरीकों से विरोध है।
केरल से आए केपी राम नूनी ने कहा कि मलयालम साहित्य की धारा शुरूआत से ही साम्राज्यवाद विरोधी रही है। बीच में भटकाव आया लेकिन आज फिर बाजारवाद और नव साम्राज्यवाद के खिलाफ यह धारा अपना काम कर रही है।
महाराष्ट्र से आए श्रीपाद जोषी ने कहा कि सांस्कृतिक वर्चस्ववाद का चेहरा बदल रहा है। भूमंडलीकरण के बाद वर्चस्ववाद का चेहरा भी बदल गया है। इसके साथ ही वर्ग भी नए सिरे से बन रहे हैं, लेकिन यह सत्ता के पक्ष में हैं। ब्राहमणवाद के विरोध में जो लोग सामने आए थे, वे भी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की नीतियां बना रहे हैं।
कोलकाता से आए गीतेष शर्मा ने कहा कि साम्राज्यवाद के विरोध के एक पक्ष से बदलाव नहीं होगा, हमें अपने भीतर की खामियों को भी देखना होगा। हम सामंतवाद, भ्रष्टाचार और नौकरषाही से पीडि़त हैं। जो साम्राज्यवाद से भी ज्यादा शक्तिषाली है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में एक जैसे हालात हैं, दोनों ही देषों में सांप्रदायिकता के खिलाफ दोहरी मानसिकता से खड़ा हुआ जा रहा है। बहुसंख्यक धार्मिकता का विरोध करते हुए अल्पसंख्यक कट्टरता की ओर भी ध्यान देना चाहिए।
पंजाब के रजनीश बहादुर ने कहा कि लेखकों के सामने चुनौतियां हैं, और वे उसका मुकाबला भी कर रहे हैं। पंजाब में खालिस्तान मूवमेंट का विरोध करने वालों में वाम पक्ष सबसे आगे था, लेकिन उसके बाद लेखकों ने ही अलगाववाद का विरोध किया था।
उड़ीसा से आए एसबी कार, शाहिना रिजवी, व्ही मोहनदास, बंगाल से कुसुम जैन, पंजाब के जोगिंदर अमल, तमिलनाडु के पुन्नीलम ने भी सम्मेलन को संबोधित किया। दूसरे सत्र का संचालन श्री राकेष ने किया।

पहले दिन के तीसरे सत्र में विभिन्न राज्यों से आए कवियों, शायरों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। काव्यपाठ एवं मुषायरे की अध्यक्षता चैथीराम यादव ने की, जबकि संचालन विनीत तिवारी ने किया।

एक विनम्र योद्धा की लड़ाई

सचिन तेंदुलकर ने एशिया कप में बांग्लादेश के खिलाफ जब अपना 100वां शतक पूरा किया तो वह लम्हा जितनी राहत उनके लिए लेकर आया उससे कई गुना ज्यादा उनके प्रशंसकों के लिए भी। शतक पूरा होने के बाद उन्होंने जिस तरह प्रतिक्रिया दी वह अपने आप में काफी कुछ बयां कर देता है। उनकी प्रतिक्रिया में नए शिखर को छूने का उत्साह नहीं बल्कि एक किस्म की राहत थी। मानो कह रहे हों- लो भई लग गया 100वां शतक, क्या अब मैं चैन से अपने मनपसंद खेल का आनंद उठा सकता हूं?

पारी के बाद रमीज राजा के साथ बातचीत करते हुए पहली बार वह इस कदर मुखर हुए। उन्होंने कहा कि उनके सर से 50 किलो बोझ हट गया है। उनके मन का दर्द छलक आया जब उन्होंने कहा कि मार्च 2011 के बाद से हर कोई केवल 100वें शतक के बारे में बात कर रहा है। मेरे बाकी 99 शतकों का क्या? यह किसी भी सर्जक का दर्द है। हम इतने स्वार्थी क्यों हो जाते हैं। सचिन ने जब अपना 99वां शतक लगाया उसके बाद से उनकी हर पारी को स्कैन किया गया।

मैंने अपने आसपास महसूस किया कि लोगों ने पहले 100वें शतक का इंतजार किया फिर वे नाराज हुए उसके बाद उन्होंने सचिन के पूरे खेल का ही मखौल बना दिया। एसा क्यों हुआ यह तो वही लोग बता सकते हैं जो इसमें शामिल थे लेकिन इस बीच सचिन की तथाकथित असफलताएं (तथाकथित इसलिए क्योंकि उनकी असफल पारियां भी कई खिलाड़ियों की सफल पारियों पर भारी पड़ती है। पिछले एक साल के आंकड़े भी इसके गवाह हैं, बीते एक साल में वह कई मौकों पर शतक के करीब जाकर फिसल गए) लोगों के आनंद का विषय बन गईं।

हद तो तब हो गई जब कल टीम की पराजय के बाद कुछ लोगों को इस बात का सुकूं था कि चलो अच्छा हुआ अब इस सैकड़े पर उतनी बात नहीं होगी। इस जीत का श्रेय बांग्लादेश की शानदार बल्लेबाजी को क्यों नहीं जाना चाहिए? या फिर भारत की घटिया गेंदबाजी को? सचिन के शतक से उसका क्या लेना देना?

मैं खुद क्रिकेट को पसंद करता हूं, सचिन अपने बल्ले से जो लय जो संगीत रचते हैं वह भी मुझे भाता है। वहीं कई मसलों पर उनकी खामोशी खलती भी है लेकिन इससे तो इनकार नहीं किया जा सकता है कि हमारी जिंदगी से लगातार बेदखल हो रही कुछ खुशियों को सचिन नाम के इस जादूगर ने भी जन्म दिया है। कुछ नहीं तो कम से कम एक खिलाड़ी के रूप में सचिन की लगातार फिटनेस, उनके शानदार प्रदर्शन व एक विनम्र योद्धा के रूप में सचिन की इस उपलब्धि का सम्मान कीजिए बाकी चीजों पर कभी फिर बात कर लेंगे। अभी समय शेष है

मरघट मे हंसने का मादृा


बात
-बात पर रस लेता हूं

मरघट
में भी हंस लेता हूं

बिन
पूछे ही ठस लेता हूं

अपनी
यारी हुई राम से

लोग
कहें मैं गया काम से---


जब भी मन हो नाचूं गाउं
चौराहे पर ढोल बजाउं
नए-पुराने खेल दिखाउं
गरियाउं भी नाम से
लोग कहें मैं गया काम से---
ओम द्विवेदी

लंबे समय से ब्लाग पर लिखना छूटा हुआ है। कुछ व्यस्तताएं कुछ काहिली इसके पीछे वजह रही हैं। लेकिन आज जब यह नई पोस्ट लिख रहा हूं तो लग रहा है कि नए साल में नई शुरुआत के लिए क्या इससे बेहतर पोस्ट कोई हो सकती थी। पत्रकारिता जगत में बीते पांच साल के अनुभवों में साहित्य की राजनीति को देखना भी शामिल रहा है। शेयर बाजार की तरह रचनाकारों को कभी उपर तो कभी नीचे जाते देखा तो पुरस्कार के लिए अपने आत्म सम्मान को अपने ही पैरों तले रौंदते भी देखा। लेकिन जब कभी ओम द्विवेदी यानी हमारे ओम भाई और उनकी रचनाएं याद आती हैं तो कहीं कहीं लगता है कि उम्मीद खत्म नहीं हुई है।
ओम भाई का नया संग्रह ताना मारे जिंदगी अभी हाल ही में आया है। दोहों, गजलों और गीतों का यह संग्रह जब मिला तो कब उसे पढ़ना शुरू किया और कब वह खत्म हुआ पता ही नहीं चला। इस बीच एक-एक रचना से गुजरते हुए रीवा और ओम भाई से जुड़े तमाम अनुभव याद आते रहे। ओम भाई यानी हमारे जीवन का पहला नायक। मंच पर अपने शानदार अभिनय से मंत्रमुग्ध करते ओम भाई, सिरमौर चौराहे पर चाय के किसी ठेले पर उम्र जाए बीत फकीरे/ अब दुनिया को जीत फकीरे जैसे अपने गीतों से हम भटके हुए बेरोजगारों को हौसला देते ओम भाई, अपनी कलम से शहर के तथाकथित दिग्गजों की खबर लेते ओम भाई, हमारे यकीन का दूसरा नाम हैं ओम भाई। ये संयोग ही है कि थोड़ा बहुत थिएटर करने से लेकर रेडियो अनाउंसर बनने, पत्रकारिता में आने कविताएं लिखने तक जीवन ओम भाई से अजीब तरीके से जुड़ा रहा। पहले भोपाल उसके बाद दिल्ली आने पर उनसे संपर्क टूट सा गया था। दो साल पहले जब दैनिक भास्कर इंदौर काम करने पहुंचा तो शहर में जिन तीन लोगों को जानता था उनमें से एक ओम भाई थे। संबंधों की यह नई शुरुआत थी।

ओम पर लिखने का ख्याल मन में तब आया जब मैंने फेसबुक पर कई मित्रों को अदम गोंडवी, दुष्यंत कुमार, मुकुट बिहारी सरोज आदि तमाम रचनाकारों के सरोकारी रचना कर्म पर चर्चा करते देखा। मन में खयाल आया कि इन तमाम रचनाकारों के बारे में तो लोग जानते हैं, उनके काम से परिचित हैं लेकिन उन कवियों का क्या जो चुपचाप लेकिन बड़ी शिदृत से अपना काम कर रहे हैं। मुझे लगा कि बड़ा कवि क्या वही है जिसे दो-चार पुरस्कार मिल चुके हैं या फिर जो मठाधीशी की साहित्यिक परंपरा में किसी मठ का विप्र है। मित्र कथाकार शशिभूषण ने अपनी फेसबुक वाल पर सही लिखा है कि ओम भाई अदम गोंडवी की परंपरा के कवि हैं। ओम उस परंपरा के कवि हैं, जिनके पास जीवन के अनुभवों का वह खजाना है जो उन्हें चालू चलन के मुताबिक प्रेम से इतर कविताई करने का मादृा देता है। यहां मेरा मकसद प्रेम कविता या इस धारा के कवियों की आलोचना करना भर नहीं है बल्कि मैं ओम के रचना कर्म को रेखांकित करने का प्रयास कर रहा हूं। उनकी कविता में मां, बाबा, बेटे से लेकर भूख मोबाइल तक सब शामिल हैं। उनके अनुभव के दायरे की एक बानगी देखिए-
मोबाइल ने कर दिया, सब कितना आसान
जाकर घर से दूर भी घर का रखता ध्यान
मोबाइल हर हाथ में राजा हो या रंक
सारे रिश्ते रह गए अब तो केवल अंक

या फिर
रोटी कपड़े के लिए रहे दौड़ते पांव
बचपन रोया लिपट के जब भी पहुंचे गांव
धीरे धीरे गए, शहरों वाले दांव
दिल्ली के हाथों बिका दादाजी का गांव

होली पर ये दोहा
रंग तोड़ने लग गए सावन का कानून
लाल-लाल पानी हुआ काला-काला खून

रोटी के संग्राम में लगे हुए हैं राम
रावण से करना पड़ा उनको युद्ध विराम

नोट: यह कोई पुस्तक समीक्षा है, किसी तरह का प्रचार-प्रसार। यह ओम भाई के प्रति मेरा स्नेह है, आदर है, इसे प्रकट करने का यही तरीका मुझे समझ में आया तो यही सही।


ओम द्विवेदी नई दुनिया इंदौर में कार्यरत हैं, उनसे संपर्क- मोबाइल 09425363642] ईमेल-om.aaryan1@gmail.com

ओम द्विवेदी का ब्लाग- http://meetheemirchee.blogspot.com/