आधी हकीकत आधा फसाना

गोपाल कृष्ण गांधी
अंग्रेजी का जुमला है ‘फिफ्टी-फिफ्टी,’ लेकिन हिंदी में भी इसका इस्तेमाल इफरात से किया जाता है। सबसे पहले फिफ्टी-फिफ्टी का इस्तेमाल किसने किया होगा? शेक्सपियर? चार्ल्स डिकेंस? मैंने यह जानने के लिए इंटरनेट की शरण ली। लेकिन वह मुझे इस बाबत ज्यादा कुछ नहीं बता पाया, सिवाय इसके कि 80 के दशक में पाकिस्तान में ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ नामक एक लोकप्रिय धारावाहिक प्रसारित किया जाता था, या इस शीर्षक से एक उपन्यास भी छप चुका है, या यह बाइक के एक ब्रांड का नाम है, या थोड़े मीठे-थोड़े नमकीन बिस्किट के एक ब्रांड को ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ कहा जाता है।
इंटरनेट ने मुझे यह भी बताया कि बॉलीवुड में ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ शीर्षक से दो फिल्में बन चुकी हैं, जबकि हॉलीवुड में तो इस शीर्षक से कई फिल्में बनी हैं।बॉलीवुड में ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ शीर्षक से बनी पहली फिल्म में नलिनी जयवंत, डेविड, टुनटुन, गोप और हेलन जैसे कलाकार थे। इसमें मोहम्मद रफी ने एक गीत गाया था : ‘आधी तुम खा लो/आधी हम खा लें/मिल-जुलकर जमाने में/गुजारा कर लें’। दूसरी ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ में नायक राजेश खन्ना और नायिका टीना मुनीम थीं। इसमें फिफ्टी-फिफ्टी के बारे में भी एक गाना था : ‘प्यार का वादा/फिफ्टी-फिफ्टी’। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भारतीय लोकतंत्र पर जो किताब लिखी है, उसमें उन्होंने जॉनी वॉकर के एक डायलॉग का जिक्र किया है। नसरीन मुन्नी कबीर ने मुझे बताया कि यह फिल्म थी ‘मेरे मेहबूब’। फिल्म में राजेंद्र कुमार जॉनी वॉकर से पूछते हैं : ‘तुम आशिक हो या आदमी?’ और जॉनी वॉकर जवाब देते हैं : ‘फिफ्टी-फिफ्टी’।
‘द ग्रेट इंडियन मार्केट’ चौबीस घंटे रोशन रहता है। इस बाजार को एक नाम भी दिया गया है : ‘बूम’। हम एक उच्च मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार की कल्पना कर सकते हैं, जो एक बहुमंजिला अपार्टमेंट में रहता है। दादाजी अपने सेलफोन पर किसी स्टॉक ब्रोकर से बतिया रहे हैं। दादीमां किसी विशेषज्ञ की तरह रिमोट थामे बैठी हैं और टीवी सीरियलों के दरमियान दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में खोई हुई हैं। पापा लैपटॉप पर डेडलाइनों से संघर्ष कर रहे हैं। मम्मी माइक्रोवेव में मार्गेरिता पित्जा गर्म कर रही हैं। बेटा आईफोन पर दोस्त से मोटरबाइकों के बारे में बहस कर रहा है। बेटी आईपॉड में खोई हुई है। दो छोटे बच्चे वीडियो गेम पर ‘ढिशुम-ढिशुम’ कर रहे हैं। और एक नौकरानी धर्य की प्रतिमूर्ति की तरह एक चाइना मेड रैकेट से मक्खियों और मच्छरों को ठिकाने लगा रही है। यह सब किसी एशियन टाइगर द्वारा निर्मित बेहतरीन एयर कंडीशनर की सुख-सुविधा में घटित हो रहा है।
इनमें से नौकरानी को छोड़कर सभी अच्छा खाने-पहनने वाले, उड़नखटोलों में घूमने वाले, फिटनेस क्लब में जाने वाले लोग हैं। यहां अपार्टमेंट का नाम भी याद रखा जाना चाहिए : ‘आशीर्वाद’। इस घर में ‘बूम’ अपने चरम पर है। क्या इस परिवार के साथ कुछ भी फिफ्टी-फिफ्टी हो सकता है? क्या उसने पूरे एक सैकड़े को अर्जित नहीं कर लिया है? अर्धशतक नहीं, शतक। बेशक। आखिर यही तो सौ फीसदी कामयाबी की कहानी है।लेकिन अगर रूपकों की भाषा में बात करें तो खुशहाली की यह सौ फीसदी तस्वीर समूचे भारत की महज पचास फीसदी हकीकत है। यह तस्वीर ‘आधी तुम खा लो’ की भावना से कतई भरी हुई नहीं है। उस खुशहाल घर की नौकरानी के बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि वह बाकी पचास फीसदी हकीकत से जुड़ी होगी।
कल्पना करें कि वह अपार्टमेंट के स्वीपर की पत्नी है। दोनों मूलत: झारखंड के हैं। उनका एक छोटा-सा घर है। रोज जब वे अपना काम खत्म कर चुके होते होंगे तो अपनी शामें किस तरह बिताते होंगे? इतना तो हम मान सकते हैं कि उनके पास भी सेलफोन होंगे। शायद एक छोटा-सा टीवी भी हो। लेकिन इसके अलावा और कुछ नहीं। उन्हें सार्वजनिक नल से पानी लाने के लिए कतार में लगना पड़ता होगा। वे पब्लिक टॉयलेट का इस्तेमाल करते होंगे। उनके बच्चे पड़ोस के किसी स्कूल में पढ़ते होंगे। दोनों की ही सेहत यकीनन बहुत अच्छी नहीं होगी। जब यह परिवार रात को एकत्र होता होगा तो पूरी संभावना है कि वे साथ बैठकर खाना खाते होंगे, सुबह के लिए बाल्टियों में थोड़ा-सा पानी सहेजकर रखते होंगे और टीवी देखकर सो जाते होंगे।
क्या उनके बच्चे कभी किसी अच्छे कॉलेज या आईआईटी तक पहुंच सकते हैं? नामुमकिन तो नहीं, लेकिन यह तभी संभव है, जब उनके मौजूदा स्कूल उन्हें उम्दा तालीम दें ताकि वे एंट्रेंस टेस्ट में ‘ढिशुम-ढिशुम’ बच्चों को पछाड़ सकें।आशीर्वाद अपार्टमेंट में रहने वाला परिवार भारत की दो ‘फिफ्टीज’ में से एक का प्रतिनिधित्व करता है। दूसरा परिवार, जिसे हमें ‘प्रतिवाद’ का नाम देना चाहिए, दूसरे ‘फिफ्टी’ का प्रतिनिधित्व करता है। पहला परिवार ग्रेट बूम और आर्थिक तरक्की से जुड़ा हुआ है तो दूसरा परिवार धोबियों, दर्जियों, लोहारों, खोमचेवालों या दूसरे शब्दों में देश की ‘सेल्फ एंप्लाइड’ जीवनरेखा से। दिल्ली के निजामुद्दीन जैसे क्षेत्रों में हम इस जीवनरेखा को देख-सुन सकते हैं। केवल माल-असबाब बेचने वालों के रूप में ही नहीं, बल्कि दुर्लभ सेवाओं के प्रदाताओं के रूप में भी। ये लोग अपने हुनर और कौशल के साथ हमारे दरवाजों पर दस्तक देते हैं। महज कुछ ही समय की बात है और ये दृश्य से बेदखल हो जाएंगे। उनकी जगह ले लेंगे शोरूम और बुटीक, बार और बरिस्ता, जो इन दक्ष स्ट्रीट कॉलर्स को एक शानदार अतीत के पोस्टरों में तब्दील कर देंगे।क्या हमें अब भी कहीं भिश्ती नजर आते हैं? नहीं, क्योंकि हमें अब चमड़े की मश्कों से पानी लेने की जरूरत नहीं।
लेकिन यहां सवाल यह है कि आखिर वे भिश्ती कहां चले गए? इससे भी जरूरी सवाल यह है कि हमारे जेहन में कभी यह सवाल क्यों नहीं उठता कि वे कहां चले गए? धुनकी अब भी कभी-कभार दिख जाते हैं, लेकिन इंटरनेट मुझे बताता है कि आज भारत में रजाइयों के 578 सूचीबद्ध आयातक हैं। इनके सामने धुनकियों की क्या बिसात? फेरीवालों में अब केवल रद्दी-पेपरवाले ही बचे हुए हैं। इन लोगों की लगातार घट रही तादाद एक ऐसी जीवनशैली की ओर इशारा करती है, जो चमकदार दुकानों और मॉलों से इतना सामान उठा ले आती है कि उसे न तो उनका घर संभाल सकता है और न ही उनकी कचरे की टोकरियां।
Source: भास्कर न्यूज

1 comments:

Ankit pandey ने कहा…

Nice post.
स्वाधीनता दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं .