ब्लाग जगत से लंबे समय तक अनुपस्थित रहने पर जो अजीब सी बेचैनी रही उसके बारे में क्या कहूं। हुआ दरअसल ये कि लंबे समय तक वफादार साथी रहा मेरा डेस्कटाप कंप्यूटर अचानक साथ छोड़ गया। ये जो पिछले लगभग १५ दिनों का अंतराल था वह डेस्कटाप की शहादत व नए लैपटाप के आगमन की खुशियों के बीच का अंतराल था। लेकिन अब जबकि लैपटाप का आना एक सप्ताह के लिए मुल्तवी सा है तो उदय प्रकाश के साक्षात्कार को टुकड़ों में पढ़ाने के अपने अपराध को आगे बढ़ा रहा हूं। वादाखिलाफी के लिए माफी क्योंकि साक्षात्कार इस बार भी पूरा नहीं हो पाया- ब्लागर
दिनेश श्रीनेत- उस दौर में जो बाकी लोग हिंदी लिख रहे थे तो वो कौन थे जिन्हें आप पसंद करते थे?
उदय प्रकाश- ईश्वर की आंख जिन्हें मैंने समर्पित की है वह हैं मोहन श्रीवास्तव। मां की मृत्यु के वक्त मेरी उम्र लगभग १२-१३ साल थी मोहन श्रीवास्तव हायर सेकंडरी में अध्यापक थे।वे लगभग संत की तरह रहते थे। उन्हें पता नहीं मेरे प्रति कैसे गहरी सहानुभूति हो गई। उन्हें यह भी पता चल गया कि इनके पिता जी अल्कोहलिक हो गए हैं तो यह लगभग अनाथ है। उन्होंने मुझे मातापिता दोनों का स्नेह दिया मैं तो लगभग उन्हीं के कारण पढ़ पाया। वे खुद भी बहुत अच्छे कवि थे। कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह, धूमिल, राजकमल चौधरी लिख रहे थे। एलेन गिन्सबर्ग उन दिनों आए थे। यह पूरा दौर था जब अज्ञेय की नई कविता का प्रभामंडल टूट रहा था, उसका अभिजात्य टूट रहा था।
दिनेश श्रीनेत- क्या उस दौर में नई कहानी के लेखक सामने आ चुके थे?
उदय प्रकाश- नई कहानी की रचनाएं मैं पढ़ रहा था। चीफ की दावत मैंने पढ़ी थी। भीष्म साहनी, अमरकांत, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह के रचना कर्म से मैं परिचित था। लेकिन मैं मूलत: कवि हूं तो मैं कविता से जी ज्यादा जुड़ा रहता था। उस समय सबको पढ़ा लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित दोस्तोयेवस्की ने किया।
दिनेश श्रीनेत- क्या वह समय राजनीतिक और वैचारिक रूप से भी कहीं आपको उद्वेलित कर रहा था?
उदय प्रकाश- मोहन श्रीवास्तव लेफ्ट थे। बाद में प्रगतिशील लेखक संघ, मध्य प्रदेश के उपाध्यक्ष भी रहे। उन्हीं के कारण मैं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी शामिल हुआ। एआईएसएफ का मैं फाउंडर हूं अपने जिले का। वो दौर बहुत सोचने समझने का था। सन ७०-७१ की मेरी डायरी का पहला पन्ना खोलें। उन दिनों मैं कालेज में था। चे-ग्वेरा का एक मित्र एल पटागो नामक कवि था।उसकी मौत हुई तो उसकी समाधि पर उसी की एक कविता चे-ग्वेरा ने खड़े होकर लिखवाई। उस कविता से शुरू होती है डायरी। १७ की उम्र में मैं चे व समूचे लैटिन अमेरिकी मूवमेंट को जानता था। हमारे गांव से ११ किमी दूर जमड़ी गांव था। वहां विभूति कुमार आए थे। खुद को गांधीवादी कहते थे। बाद में स्वीडन चले गए। उनके साथ विदेशियों का एक पूरा ग्रुप आया। इंटरनेशनल ग्रुप आफ नानवायलेंस नामक संस्था बनाई।उनके साथ के मार्क पोलिस नामक अमेरिकी लड़के से मेरी दोस्ती हो गई।वह गिटार बहुत अच्छा बजाता था। मैं १७ साल का था वह २०-२१ का। उसके पास चे कि किताब हम होंगे कामयाब थी। वह किताब मैं पूरी पढ़ गया, मैं उसकी बहादुरी से बहुत प्रभावित हुआ। जब मैं सागर आया तो शिवकुमार मिश्र वहां प्रोफेसर थे। उन्हें बहुत अचरज हुआ कि यह लड़का गांव से आया है व चे के बारे में बातें करता है।
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पेर लागरकविस्त की कविताऍं
3 दिन पहले
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