धर्म की नितांत दार्शनिक व्याख्या क्यूं।



अजीत कुमार

धर्म को लेकर अपने अपने समय में दार्शनिकों की घोषणाएं चाहे जो भी रही हो। व्यवहारिकता के धरातल पर धर्म की अपरिहार्यता समाज में पहले भी थी और आगे भी रहेगी। ईश्वर को मृत मानने की नीत्शे की घोषणा से लेकर विचार और इतिहास के अंत तक की कई घोषणाएं की जा चुकी है। लेकिन क्या वास्तव में उन घोषणाओं के बाद धर्म , विचार और इतिहास का अंत हो गया या आने वाले समय में आपको लगता है कि क्या इसका अंत हो सकता है।

दरअसल समाज की जटिलता और समय के व्यापक अंतर्विरोध् को लेकर किसी ऐसे ठोस विचार की घोषणा संभव नहीं है। जो एक ही साथ समाज के उपर अपना व्यापक असर दिखा सके। दरअसल बौद्विकों और दार्शनिकों के यहां अपनी विशिष्ट राय स्थापित करने की या कहें तो पूर्व की अवधारणाओं को तोडने की जल्दीबाजी ही इस तरह की असमय दम तोडती घोषणाओं के लिए जिम्मेदार हैं। खैर यहां पर मैं दर्शन की सत्ता को चुनौती नहीं दे रहा हूं और न मेरे लेखन के पीछे इस तरह की कोई मंशा है।

दरअसल धर्म, जाति, भाषा व विचार ऐसे व्यापक जटिल और संश्लिष्ट मुद्दे हैं जो हमेशा से विमर्श के केंद्र में रहे हैं और मेरे हिसाब से लगातार इसके विमर्श में रहने की जरूरत भी है।

लेकिन सबसे प्रमुख मुद्दा है,धर्म जो वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आज भी गहन विमर्श की अपेक्षा रखते हैं। धर्म को लेकर जहां सभ्यताओं के संघर्ष तक की बातें आ चुकी है। वहीं इसके जबाव में यूरोप के प्राच्यवादी सोच की बखिया उधेड़ने में भी कोई कोर कसर नहीं छोडी गई है। मगर इन दोनों विपरीत ध्रुवों के बीच कहीं विमर्श यहां तक आकर क्यूं नहीं ठहरता है कि अगर एडवर्ड सईद की किताब प्राच्यवाद की बहुत सारी बातें विचारणीय हो सकती है तो सैम्युअल हटिंगटन की सभ्यताओं के संघर्ष की तमाम स्थापनाओं को भी यकबारगी झुठलाया नहीं जा सकता है।

धर्म को लेकर अतिवाद से ग्रस्त इन दोनों विचारों को लेकर दुर्भाग्य से विश्वस्तर पर ही क्या भारत में भी आज कमोबेश कुछ ऐसी ही स्थिति हैं। एक तरफ या तो धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले वे लोग हैं जो गंगा जमुनी तहजीब को लेकर हद से ज्यादा रोमैंटिक हैं। तो दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनके लिए राष्टीयता और धर्म एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे से नितांत अलग इन दो धरणाओं के बीच धर्म और राष्टीयता को लेकर जिस तरह की बहस होनी चाहिए। वह नहीं हो पाती है। मेरे हिसाब से इन्हीं दो भिन्न धरणाओं के प्रति अटूट आस्था और लग्गीबंधी के चलते ही इस देश में सामासिकता और सांस्कृतिक विविधता का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है।

प्राच्यवाद के साथ साथ धर्म को लेकर मार्क्सवादी अवधरणा के जोर ने भी धर्म राष्टीयता और राज्य के विषय को नेपथ्य में डाल दिया है। हालांकि राज्य की उत्पत्ति को लेकर मार्क्सवादी अवधरणा ज्यादातर संदर्भों में विचारणीय हैं। लेकिन धर्म को लेकर जिस तरह का नकार मार्क्सवादियों में रहा है। उससे कहीं न कहीं धर्म को लेकर उनके अंतर्विरोध् ही जगजाहिर हुए हैं।

हालांकि ज्ञान मीमांसा के इस दौर में सामाजिक संबंधों और संस्थाओं की सत्ता को सर्वाधिक् चुनौतियां मिल रही है। बावजूद यही वह समय है जब विश्व स्तर पर इन संबंधों और संस्थाओं की ओर लोगों का झुकाव बढा है। खासकर उस पश्चिम में भी लोग अब अपनी स्वछंद उन्मुक्तता के रास्ते से हटकर सामाजिक ताने बाने में फिर से लौट आने की कोशिश कर रहे हैं। जहां तत्व मीमांसा की लहर को रोककर ज्ञान मीमांसा ने सर्वप्रथम परचम लहाराने की कोशिश की थी। संयोग से धर्म फिर से बन रहे सामाजिक ताने बाने की सबसे महत्वपूर्ण कडी है। उदाहरण के तौर पर पश्चिम में योग की बढती लोकप्रियता को ले लें। यह सीमाविहीन से सीमाबद्व होने की प्रक्रिया नहीं तो और क्या है।

सिपर्फ अमेरिका ही क्या यूरोप और अन्य देशों में भी धर्म की तरफ झुकाव फिर से बढ रहा है। आखिर प्रश्न उठता है वैज्ञानिकता के सहारे धर्म के संहार की घोषणा क्यूं नहीं रंग ला पा रही है। जबकि वैज्ञानिक उपलब्धियों को लेकर हम पहले की तुलना में मीलों आगे बढ गए हैं। दरअसल वैज्ञानिकता और ज्ञान मीमांसा का धर्म को लेकर कोई द्वैध् है ही नहीं। यह तो सिर्फ तर्कों और प्रस्थापनाओं की देन रही है।


बिहार के नालंदा जिले में जन्मे अजीत कुमार ने अपने करियर की शुरुआत सीएनबीसी टीवी 18 मुंबई से की। दिल्ली में आईएएनएस, ईटी हिंदी के बाद इन दिनों एक ब्रोकरेज हाउस में काम कर रहे हैं। अजीत जी से aboutajeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

6 comments:

Rangnath Singh ने कहा…

धर्म जैसे जटिल एव बहुआयामी विषय पर ऐसे लेख निराश ही करते हैं। करीब चार साल से कंपैरटिव रिलीजन में अध्ययनरत होने के अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि अजीत जी के पास धर्म को लेकर ताजे आंकड़े और विचारो का सर्वथा अभाव है।

बहस के लिए समय और स्थान नहीं है इसलिए सिर्फ एक ही तर्क रखुंगा। कोई चीज लम्बे समय से समाज में बनी हुई है इस कारण से वह जायज और अनिवार्य नहीं हो जाती। हत्या,व्याभिचार,शोषण,भेदभाव सभी लम्बे समय से बने हुए हैं। उन्हें दूर करने की सभी कोशिशें अधूरी साबित हुई हैं। फिर भी यही अधूरी कोशिशें हमारा सहारा बनती हैं।

आस्था एक निजी विषय है। यह बात धर्मांधों को छोड़कर अब ज्यादातर लोग मानते हैं। इसका वैचारिक सामान्यीकरण करने के परिणाम खतरनाक रूप से सामने आते हैं। जापान जैसे देश मे बहुसंख्यक वर्ग व्यावहारिक तौर पर अधार्मिक है। ऐसे ही पश्चिमी यूरोप के बहुतेरे देश सेकुलर हैं। अमरीका,खाड़ी देश और भारतीय उपमहाद्वीप ही पूरी दुनिया नहीं है।

ajeet kumar ने कहा…

अजीत जी के पास धर्म को लेकर ताजे आंकड़े और विचारो का सर्वथा अभाव है।

Rangnath singh ji Apki is tippani ke baad vimarsh ke liye koyi jagah hi nahi bachti.

Rangnath Singh ने कहा…

अजित जी मेरे शब्दों को अन्यथा न लें। मैंने जो भी राय बनाई वो इस पोस्ट को पढ़कर बनाई। आपके दूसरे लेखों को मैं पसंद करता रहा हूं। यह मुद्दा ऐसा है जिस पर आप जैसे विचारीशील व्यक्ति का ऐसा लेख देखकर थोड़ा सख्त हो बैठा।

हो सकता है कि हम आपकी बात को पूरी तरह नहीं समझ पाएं हों। हमारा का मत अभी मत ही है। कोई स्थापना नहीं।

ajeet kumar ने कहा…

Rangnath singh ji aap bhi meri baton ko anyatha n le. jaldi hi is maudde par kuchh aur likhne ki koshish karoonga.

ramanuj singh ने कहा…

धर्म एक ऐसा गंभीर मुद्दा है जिस पर लम्बे समय से बहस होता आया है....और होता भी रहेगा.....कियोंकि न तो इसकी शुरूआत का पता है और न ही अंत का......ये एक ऐसा उलझन जिसे जितना सुल्जाओ उतना उलझता जाता है.....मेरे विचार से धर्म एक व्यक्तिगत मामला है....जिसे व्यक्तिगत ही रहने दिया जाय......तो बेहतर होगा....मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा....उसका विशलेषण उस समय के हिसाब से सही रहा होगा......वैसे जितने भी जिहादी और आतंकी हुए है सभी कट्टर धार्मिक है.....बीजेपी, शिव सेना भी धर्म को लेकर राजनीती करती है....क्या ये सही है.....मैं धर्म के नकार में विश्वास नहीं करता.....पर इसके पीछे पागलों की तरह भागना कहाँ तक उचित है..... धार्मिक होना चाहिए धर्मांध नहीं...... कियोंकि धर्म नैतिकता सिखाता है.....जिस से बिना पर सामाजिक बंधन मजबूत होता है...मार्क्सवादी नेता ज्योति बासु भी वेस्ट बंगाल में धर्म और वामपंथ को साथ लेकर चले...आज वेस्टर्न कंट्री के लोग भी आस्तिकता में विश्वास करने लगे हैं.....

vidrohi ने कहा…

toh kya hum sabhi ko aastikta me wishwas karna chahiye ? aur kis western country ki baat ho rahi hai? koi data hai aapke paas ki pahle is jagah mein itne log wishwas karte the ab itne log karne lage?