-अजीत कुमार
प्रभाष जी किस तरफ के हैं। यह मेरे लिखने का उद्देश्य कभी नहीं रहा है। आखिर किन्हीं दो व्यक्तित्वों के बीच क्या कभी सीधी रेखा खींची जा सकती है। मेरे हिसाब से तो खीचने की कोशिश भी नहीं होनी चाहिए। मुझे तो प्रभाष जी को याद करते हुए वो सभी जन याद आ रहे हैं। जिन्होंने समय के सापेक्ष लोक मंगल को अपने जीवन का ध्येय बनाया। चाहे वो राजनीतिज्ञ, पत्रकार या कला व संस्कृति से सबंद्व कोई हस्ताक्षर रहे हों।
इतना ही नही विशिष्ट के खांचे में नहीं समोने वाले वे आम जन जो न तो इतिहास और साहित्य में कहीं दर्ज हैं को भी प्रभाष जी के संदर्भ में याद कर रहा हूँ । रही बात किस तरफ की तो आप जानते ही होगे कि घसीटू तरफदारी और जड वैचारिक आस्था से साहित्य के साथ -साथ समाज का आज तक कितना भला हुआ है। जहां तक रही प्रभाष जी के बहाने तुलसी को याद करने की बात तो इसका एकमात्र आधार सिर्फ और सिर्फ लोकमंगल को लेकर दोनों की अपनी अपनी अप्रतिम और विलक्षण प्रतिबद्वता में निहित है। लेकिन इन दोनों में यह प्रतिबद्वता कभी भी जडता की शिकार नहीं हुई।
लेकिन आज अपनी परंपरा, और आस्था को लेकर आज जिस तरह का निगेशन यानी नकार देखने को मिल रहा है। उसकी पडताल प्रभाष जोशी और तुलसी के संदर्भ में ही अच्छी तरह से ली जा सकती है। इतना ही नहीं स्वतंत्र भारत में एक खास विचार धारा वैज्ञानिकता और वस्तुनिष्टता के नाम पर किस तरह से परंपरा और आस्था को खारिज करने में लगी है, दकियानूस करार देने में लगी है कि पोल भी खोली जा सकती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने दिनों बाद भी अगर देश में सांप्रदायिक राजनीति की नकेल नहीं कसी जा सकी है। तो इसका एकमात्र कारण भी एक तरह से रूमानी नकार में ही है।
वे लोग जो वैज्ञानिकता के नाम पर तमाम आध्यात्मिक और धार्मिक मूल्यों को एक सिरे से नकारने में लगे हैं, कब समझेंगे कि नकार के सहारे समाज में वैज्ञानिक सोच विकसित नहीं की जा सकती। प्रभाष जी और गांधी के व्यक्तिगत जिंदगी में धार्मिक या परंपरावादी होने को लेकर तथाकथित प्रगतिशीलों की पाखंडी भौंहें क्यूं तनने का नाटक रचाती है। ये उपहास उडाते हैं प्रभाष जी की जिंदगी में विरोधाभास को लेकर। जबकि मैं नहीं मानता कि उन सबों की जिंदगी में आस्था और वैज्ञानिकता को लेकर कोई विरोधाभास नहीं होगा। बशर्ते वे समाज के साथ साथ अपने आप को भी समझने की प्रक्रिया में रहे हों।
वैसे भी अपन को विरोधाभास से कोई दिक्कत नहीं है। दिक्कत तो इस बात में है कि ये तथाकथित प्रगितिशील अपने विरोधाभासों को लगातार नकारने में लगे हुए हैं। काश ये भी प्रभाष जी और गांधी की तरह अपने विरोधाभासों को स्वीकार कर लिए होते। मेरे हिसाब से इंसान जितना ही ज्यादा अपने आप को समझने की कोशिश करता है । विरोधाभासों और उलझनों की परिधि में और वह अपने आप को और ज्यादा उलझता हुआ पाता है। लेकिन बिना अपने को समझने की प्रक्रिया में शामिल किए क्या विरोधाभास, उहापोह और आशंका।लेकिन इन स्थितियों में आप आसानी से रच सकते हैं नाटक अपनी वैज्ञानिक सोच की मसीहाई का।
आज नकार की जगह सबसे बडी जरूरत है आत्म स्वीकृति की। क्योंकि आत्मस्वीकृति के बाद ही इंसान अपने आप को ज्यादा से ज्यादा मानवीय और नैतिक बनाने की प्रक्रिया में निरत करता है। लेकिन परंपरा और धार्मिक आस्था को लेकर कोई जरूरत नहीं है अपराधबोध की। अगर कोई ब्राहमण जाति में पैदा हुआ है और अपनी परंपराओं और धार्मिक आस्थाओं को लेकर उसमें नकार नहीं है। तो इसमें मैंे कोई गुनाह नहीं मानता। लेकिन अगर परंपरा न्याय और नैतिकता की अवहेलना करे तो जरूर उसे पहचानकर उससे निवृत्त हो लिया जाए। जो लोग नास्तिक होने की दुहाई देते फिरते हैं, उनको मैं बता दूं कि इंसान को मानवीय और नैतिक बनाने की सबसे बडी शक्ति धर्म में ही निहित है। वहीं एक नास्तिक व्यक्ति के लिए तो नैतिकता और मानवीयता का कोई मूल्य ही नहीं। तभी तो ये नास्तिक हमेशा धर्म को राजनीतिक फायदों के लिए भुनाते आए हैं।
ज्यादा पीछे नहीं लौटें तो गौर फर्मा लें विभाजन की त्रासदी पर। गांधी आस्तिक थे लेकिन जिन्ना नास्तिक। लेकिन आखिर एक नास्तिक ने क्या किया। धर्म के नाम पर करेाडों लोंगों की जिंदगी को देखते ही देखते तबाह कर दी। लोगों के अवचेतन में कभी न भरने वाले नासूर जख्म दिए। वहीं एक रामनामी हिंदू नोआखाली और बिहार में जान की बाजी लगाकर खाक छान रहा था दिलों को जोडने की कोशिश में। आखिर उसके धर्म ने उसे इतना मजबूत और नैतिक तो बना दिया था------- ।
3 comments:
देश को न गांधी से कुछ मिला न जिन्ना से न ही प्रभाष जोशी से। आमजन की समस्याएं को अब भी वही हैं।
सोचने पर मजबूर कर दिया आपने।
------------------
11वाँ राष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मेलन।
गूगल की बेवफाई की कोई तो वजह होगी?
अजीत जी,तुलसी का लोक वर्णव्यवस्था में रह रहा लोक है.इस महाकवि का लोकमंगल इसी लोक का आदर्श हो सकता है.तुलसी का समन्वय भी शैव और वैष्णवों के समन्वय में असल रूप में चरितार्थ होता है.अन्य जगहों में उनके ये प्रयास अकादमिक ज़्यादा हैं.तुलसी की विनम्रता भी एक ख़ास तरह की तर्क पद्धति है.भारतीय मानस जिसे बहुत पसंद करता है.तुलसी के यहाँ जो भविष्य के समाज की रूपरेखा है वह पुनरुत्थानवादी है.एक कम प्रचलित उदाहरण देखिए-
जैहउँ अवध कौन मुहुँ लाई/नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई.
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं/नारि हानि विशेष क्षति नाहीं.
राम लक्ष्मण के लिए रोते हुए ऊपर जो कह रहे हैं उसकी मार्मिकता का कायल कौन नहीं हो जाएगा?पर
भाई की तुलना में स्त्री(पत्नी) को यह दरजा देने वाले लोकमंगल के आदर्श राम हमारे सामने आज कौन सा आदर्श रख सकते हैं?आज की स्त्री अपनी इस स्थिति से राज़ी हो पाएगी?तुलसी की कवित्व शक्ति पर किसे संदेह हो सकता है.वह तो कविता का निरक्षर होगा.पर तुलसी द्वारा पोषित वर्णव्यवस्था हमें कहाँ ले जाकर छोड़ेगी?ये सैकड़ों में से एक संकेत है कि तुलसी भविष्य में कहाँ होंगे.रही बात धर्म की तो उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ से भी सीखना चाहिए.उन्होंने मोहर्रम के दस दिनों में शहनाई नहीं बजाई कभी.और यहीं नास्तिक संगीतकार धुनों की चोरी करते हैं.हिन्दुस्तान में ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जितना अप्रतिम कलाकार उतना ही बड़ा धार्मिक.धर्म हमारे यहाँ सृजन की मूल प्रेरणा रहा है.और हाँ उनसे क्या उलझना जो गांधी के ही अवदान को न कुछ मानते हों.हम तो इंतज़ार कर लेंगें शायद यही कुछ करें इस अभागे देश के लिए.
एक टिप्पणी भेजें