हमारे समय के सबसे सशक्त कथाकारों में से एक उदय प्रकाश का यह साक्षात्कार दिनेश श्रीनेत ने लिया है। साक्षात्कार का प्रकाशन संदर्श (अंक-14 2009) में हुआ है। हाल ही में इस पर मेरी नजर पड़ी। उदय प्रकाश की पहली रचना जो मैंने पढ़ी थी वह थी इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी में छपी कहानी पाल गोमरा का स्कूटर। उसके बाद एक सिलसिला चल निकला जो अब तक जारी है। साक्षात्कार बड़ा है अत: उसको संपादित कर आपके लिए पेश कर रहा हूं इस कोशिश के साथ की उसकी आत्मा बरकरार रहे।
दिनेश श्रीनेत- जिस दौर में आप अपने कहानी संग्रह दरियाई घोड़ा की कहानियां लिख रहे थे- तब से लेकर हाल में प्रकाशित मैंगोसिल तक समय के फैलाव में आप क्या बदलाव देखते हैं? क्या आपको लगता है कि बतौर रचनाकार आपके लिए चुनौती उत्तरोत्तर कठिन हुई है? क्या बदलते परिवेश ने आपकी रचनात्मकता पर भी कोई दबाव डाला है?
उदय प्रकाश- कोई भी रचनाकार - कथाकार समय, इतिहास स्मृति के स्तर पर, खासकर टाइम एंड मेमोरी के स्तर पर लिखता है। दरियाई घोड़ा की कहानियां भी उसके प्रकाशन से बहुत पहले लिखी गई थीं। अगर आप इन कहानियों को देखें तो समय इनमें किसी इको की तरह है। लेकिन दरियाई घोड़ा बहुत निजी स्मृति की कहानी है। वह पिता की मृत्यु पर लिखी कहानी है। इंदौर के एक अस्पताल में मेरे पिता की मृत्यु हुई थी-कैंसर से-तो वह उस घटना के आघात से-उसकी स्मृति में लिखी कहानी है। चौरासी में छपा था संग्रह। तब से अब तक दो दशक का समय बड़े टाइम चेंज का समय रहा है। मेरा मानना है कि किसी भी रचनाकार को अपनी संवेदना लगातार बचा कर रखनी चाहिए। अपने आसपास के परिवर्तन के प्रति ग्रहणशीलता लगातार बनी रहनी चाहिए। जिस मोमेंट आप उसे खो देते हैं आपकी संवेदनशीलता खत्म हो जाती है। फिर आपके पास सिर्फ नास्टेल्जिया या स्मृतियां बचती हैं। उनके सहारे आप चिठ्ठी या पर्सनल डायरी तो लिख सकते हैं कोई रचना-कोई कहानी या कविता नहीं लिख सकते।
दिनेश श्रीनेत - लेकिन क्या ये सच नहीं है कि उस समय के रचनाकार के पास आस्था के कुछ केंद्र तो बचे ही थे। भले ही वे अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे थे। मगर क्या ये सच नहीं है कि आज का लेखक एक अराजक किस्म की अनास्था के बीच सृजन कर रहा है?
उदय प्रकाश- आपको याद होगा जिस वक्त मैंने तिरिछ लिखी थी - उसी दौरान इंदिरा की हत्या व राजीव का राज्यारोहण हुआ था। राजीव नया के बड़े समर्थक थे। जैसे हिंदी कहानी में नई कहानी, नया लेखन जैसे फैशन आते-जाते रहे। तो राजीव नई शिक्षा नीति, नई अर्थनीति का नया चेहरा के अगुआ थे। विशव बैंक -अंतरराष्टीय मुद्राकोष के प्रभुत्व व हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि बनने लगी थी। निजीकरण शुरू हो गया। लोगों के बीच डि-सेंसेटाइजेशन बढ़ने लगा। मैं दिनमान में काम करता था। जो पानवाल पहले बहुत हंसकर बोलता था अब वह कैजुअल हो गया। जो चपरासी पहले अपने पत्नी बच्चों का दुखड़ा रोता था उसकी जगह आया नया चपरासी काम की बातें करता था बस। लोगों ने निजी बातें बंद कर दीं। तब मैंने तिरिछ लिखी। शुरू में बड़ा विरोध हुआ। अफवाह फैलाई गई कि यह मारक्वेज की ए क्रानकिल डेथ फोरटोल्ड की नकल है। एक कथाकार - आलोचक सज्जन ने मुझे लगभग डराते हुए कहा कि हंस अपने अगले अंक में एक पन्ने पर ओरिजिनल कहानी व दूसरे पर तिरिछ छापने जा रहा है। यकीन कीजिए मैं चुप रहा मुझे हंसी भी आई। मुझे हिंदी समाज से कुछ मिला नहीं है उन्होंने मुझे गाली या अपमान के सिवा कुछ नहीं दिया है। मैं ईमानदारी से कहूं तो घृणा करता हूं इस समाज ठीक उतनी ही जितनी वे मुझसे करते हैं। तिरिछ एक मार्मिक कथा बन पड़ी इसलिए नहीं कि उसमें पिता की मौत हो गई। यह दरअसल सिविलाइजेशन टांजेशन था। मैं कहना चाह रहा था कि अब जो अरबनाइजेशन होगा जो एक पूरी दुनिया बनेगी उसमें एक मनुष्य जो बूढ़ा है कमजोर है जिसके सेंसेज काम नहीं कर रहे। उसकी नियति मृत्यु होगी। वह बचेगा नहीं अनजाने ही मार दिया जाएगा।
दिनेश श्रीनेत- और बाद के दौर में लगभग यही संवेदनहीनता हम सबके सामने आई और यह भयावह भी होता गया।
उदय प्रकाश- बिल्कुल। अगर आप मोहनदास को देखें तो आप पाएंगे कि वह जो ग्राफ है।उत्तरोत्तर बढ़ता गया है। तो दिनेश जी मैं यह कहना चाहूंगा कि मैंने अपने समय के मनुष्य से कभी अपनी आंखें नहीं हटाईं। मेरे पास कोई पावर नहीं, कोई सत्ता नहीं, कोई पत्रिका नहीं निकालता मैं, कहीं का अफसर नही हूं। तो मैंने देखा कि सामान्य जनता के प्रति ब्यूरोक्रेसी का जो व्यवहार होता है। वही साहित्य के अंदर ब्यूरोक्रेट्स मेरे प्रति करते हैं। यदि रविभूषण यह कहते हैं कि इसने पीली छतरी वाली लड़की मे बोर्खेज की नकल की है.. उस समय मैं बीमार था और पहली बार शायद संयम खोया । पहली बार मैंने अदालत में जाने की पहल की तो ये कहने लगे कि उदय मुकदमेबाज है। तो यातो आप नकल करना स्वीकार कर लीजिए या फिर मुकदमेबाज कहलाइए। यू लेफ्ट रिव्यू और क्रिटकिल इंक्वायरी में लिखने वाले अमिताभ कुमार जो संसार के सबसे विशवसनीय माक्र्सवादी आलोचकों में से हैं वो यदि पाल गोमरा का स्कूटर, तिरिछ और मोहनदास की तारीफ करते हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह हिंदीवालों का गैंग क्या करता है।
(साक्षात्कार लंबा है इसका दूसरा हिस्सा अगले कुछ दिनों में ....)
8 comments:
badhiya
अच्छा लगा पढकर...
..
यह पोस्ट केवल सफल ब्लॉगर ही पढ़ें...नए ब्लॉगर को यह धरोहर बाद में काम आएगा...
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_25.html
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....
अगली किस्त का इंतज़ार रहेगा
आगे की कड़ियों का इंतजार है।
"मैं ईमानदारी से कहूं तो घृणा करता हूं इस समाज ठीक उतनी ही जितनी वे मुझसे करते हैं।"
yeh ghrina vyakt kiya jana bahut zaruri hai. Koi to GhrinitoN ko ye ahsaas karane wala hona chahiye ki we kitne ghrinit haiN.
आप बेहतर लिख रहे/रहीं हैं .आपकी हर पोस्ट यह निशानदेही करती है कि आप एक जागरूक और प्रतिबद्ध रचनाकार हैं जिसे रोज़ रोज़ क्षरित होती इंसानियत उद्वेलित कर देती है.वरना ब्लॉग-जगत में आज हर कहीं फ़ासीवाद परवरिश पाता दिखाई देता है.
हम साथी दिनों से ऐसे अग्रीग्रटर की तलाश में थे.जहां सिर्फ हमख्याल और हमज़बाँ लोग शामिल हों.तो आज यह मंच बन गया.इसका पता है http://hamzabaan.feedcluster.com/
यह सही है कि उदयप्रकाश जी को इस हिन्दी समाज ने फूल और काँटे दोनो ही दिये लेकिन फूल कम काँटे ज़्यादा । इसलिये उनकी यह अभिव्यक्ति सहज स्वाभाविक है ।
अगले अंक की प्रतीक्षा है ।
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