जब मैं आलोचक था तब भी स्वयं को फिल्मकार मानता रहा।
आज मैं स्वयं को आलोचक मानता हूं , एक प्रकार से हूं भी,
बल्कि पहले से कहीं अधिक मुखर।
अब मैं समीक्षा लिखने के बजाय फिल्म बनाता हूं,
आलोचनात्मकता इसमें समा गई है।
मैं खुद को एक एसा निबंधकार मानता हूं,
जो उपन्यास शैली में निबंध लिखता है व निबंध शैली में उपन्यास।
लिखने की बजाय मैं उन्हें फिल्म देता हूं।
यदि कभी सिनेमा न रहा
तो मैं इस नियति को सहजता से स्वीकार कर लूंगा तथा
टेलीविजन की तरफ मुड़ जाउंगा।
यदि टेलीविजन न रहा तो मैं कागज-कलम थाम लूंगा।
अभिव्यक्ति के सभी रूपों में स्पष्ट निरंतरता है।
वे एक ही हैं।
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मैं बेसब्री से सिनेमा के अंत की प्रतीक्षा कर रहा हूं।
ज्यां लुक गोदार
(गोदार आैर गोदार में)
3 comments:
"बहुत ही बढ़िया पोस्ट संदीप, जीवन कभी भी रूकता नहीं और जीने के बहाने अपने आप निकल आते हैं..."
amitraghat.blogspot.com
एक मिनिट मैं बेनामी नहीं हूँ हा..हा..हा"
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com
बेहतरीन बयान है।
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