दो दिन हुए नए जनादेश पर जानेमाने साहित्यकारों की राय पर लेकर मैंने एक खबर बनाई थी जिसे गिरींद्र ने अपने ब्लाॅग अनुभव पर प्रकाशित किया। मैं ये देखकर चकित रह गया कि आमतौर पर गिरींद्र की नन्हीं मुन्नी और यहां तक कि निशब्द पोस्टों (केवल चित्र) पर भी टिप्पणी करने वाले ब्लाॅगर इस बार एकदम गुमसुम रह गए।
मैं सोचने लगा कि आखिर क्या कारण हो सकता है इसके पीछे। क्या रपट इतनी बुरी बनी है? मैंने रिपोर्ट को दोबारा पढ़ा और मित्र कथाकार चंदन पांडेय की एक पंक्ति पर जाकर अटक गया। चंदन ने कहा है कि देश का अधिकांश मीडिया दक्षिणपंथी रुझान वाला है और वही लगातार इस चुनाव में राजग को मुकाबले में बता रहा था............... अब चूंकि अधिकांश ब्लोगर बंधू भी मीडिया से ही हैं (मुझ samet) तो मुझे गिरीन्द्र के लोकप्रिय ब्लॉग पर टिप्पणियां न आना अखर रहा है.
कहानी: एक गुम-सी चोट
21 घंटे पहले
2 comments:
संदीप जी टिप्पणियाँ तो अब भी नहीं हैं। मै ने उस रिपोर्ट पर भी जा कर पढ़ा है। इस में अधिकांश वाम और प्रगतिशील साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएं हैं। जिन में कुछ भी विशेष नहीं। शायद इसी कारण से टिप्पणियाँ नहीं हैं। वाम दलों को जो धक्का लगा है वह तो उन्हें आज से पन्द्रह वर्ष पहले लग जाना चाहिए था। वास्तविकता यह है कि दोनों प्रमुख वाम दलों में अन्दरूनी जनतंत्र समाप्त हो चुका है जो वाम दलों की सब से बड़ी विशेषता है। दूसरे वाम दल अपना मार्ग भटक गए हैं। अब भी वे सही मार्ग पर लौट आएँ तो आगे बड़ सकते हैं।
वैसे यह बात तो जाहिर है कि मीडिया और ब्लॉग में भी दक्षिणपन्थी प्रोएक्टिव हैं। अगर ब्लॉग की बहसों पर गौर करो तो समझ आ जाएगा कि दक्षिणपन्थी कितने सुनियोजित ढंग से ब्लॉग का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन जिन्हें तुम वामपन्थी कह रहे हो, वे वामपन्थी हैं ही नहीं। उन्हें ज्यादा से ज्यादा जनवादी रुझान वाला कहा जा सकता है। उनमें से ज्यादातर आज बतौर फै
शन वामपन्थ ओढ़ कर घूमते हैं। व्यक्तिगत तौर पर एकाध ईमानदार लोग हो सकते हैं लेकिन ज्यादातर ने इसका इस्तेमाल अपनी सीढि़यों के तौर पर किया। इन्होंने वामपंथ को बदनाम किया है इसलिए अच्छे लोग भी अब इनसे छिटकने लगे हैं।
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