सज्दा करें या आपसे नजरें मिलाये हम
तुमको तुम्ही से कैसे अलग भूल जाएं हम
कोई खुदा नहीं है सरे आसमान में
दुनिया को आओ राज-ए-मोहब्बत सिखाएं हम
खेतों से उठ न पाए कोई बुत-शिकन यहाँ
मिहनत के दोनो हाथों को इतना उठाएं हम
रिश्तों कि वो ज़मीन जो बंजर ही रह गयी
उस पर जहान-ए-गम का कोई घर बसाएं हम
सूरज से सर उठा के कभी बात कर सके
चेहरे को गम की धूप में इतना जलाएँ हम
पेर लागरकविस्त की कविताऍं
3 दिन पहले
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें