वो मुझे नज्मगो समझती रही
मैंने चाहा उसे ग़जल की तरह
वो भी मिलना मिलाना सीख गया
अब मिलेगा नही वो कल कि तरह
आह भी कर सका न उसके लिए
वक्त के रुंधे हुए पल कि तरह
ढूंढना जब भी चाहा फुरसत में
आ लगा सामने अजल कि तरह
अब न मिलते हैं ख्वाब के रेले
धूप में झूमती फसल कि तरह .
पेर लागरकविस्त की कविताऍं
3 दिन पहले
1 comments:
Good work dear
Siddharth
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