अधूरी तमन्नाओं का सफर है बाजार


दोस्तों लंबे अरसे बाद ब्लॉग की दुनिया में लौटा हूं। शहर दिल्ली से इंदौर पहुंचने के बाद ब्लॉगिंग की रफ्तार कुछ कारणों से रूक गई थी लेकिन अब फिर से वापस आ चुका हूं। इस बार पढ़िए पत्रिका- वसुधा के फिल्म विशेषांक में छपे मेरे लेख को।

शुक्रिया
संदीप

सागर सरहदी की सन 1982 में आई फिल्म ‘बाजार’ कई मायनों में अपनी समकालीन अथवा उन पूववर्ती फिल्मों से अलग है जो महिलाओं को केंद्र में रखकर बनाई गई हैं। पता नहीं वे कौन सी वजहें थीं जिनके चलते इस फिल्म को अलोचकों तक ने जानबूझकर हाशिए पर रखा, नतीजतन फिल्म के अच्छे या बुरे पहलुओं पर उस तरह से चर्चा नहीं हो पाई जिसकी यह हकदार है।



बाजार के पहले और बाद में बनी फिल्मों में महिला चरित्र एकदम स्टीरियोटाइप रहे हैं, उसपर मुस्लिम महिलाओं के चरित्र तो एकदम प्रिडेक्टिबल कहे जा सकते हैं। पुरुशों के वर्चस्व वाली फिल्मी दुनिया ने उन्हें अम्मी, आपा, खाला और बीवी या माशूका जैसे चार पांच किरदारों में कैद कर दिया। यकीनन बाजार भी कुछ मायनों में इनसे अलग नहीं रही लेकिन फिर भी बाजार के महिला किरदारों में एक अनोखी चारित्रिक मजबूती उभरकर सामने आती है।



फिल्म की कहानी भले ही हैदराबाद के पारंपरिक मुस्लिम परिवारों के इर्दगिर्द घूमती हो लेकिन वास्तव में बाजार तमाम भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम समुदाय के घरों के अंदरूनी हालात का जायजा लेती हुई फिल्म है। इसने उन तल्ख हकीकतों को उजागर किया जिनका सामना इन घरों की महिलाओं को करना पड़ता है।



सिनेमा से काफी पहले साहित्य में राही मासूम रजा ने अपने चर्चित उपन्यास ‘आधा गांव’ में मुस्लिम परिवारों की दुविधा, उनकी उस मनोस्थिति को सामने लाया गया जिससे मुस्लिम समाज आजादी के दौर में गुजर रहा था।



मुख्य कहानी से इतर उपन्यास में अनेक कहानियां साथ-साथ चलती हैं जिनमें कई केंद्रीय पात्र ऊंचे खानदान से ताल्लुक रखतें हैं और उनका सारा जोर अपनी बेटियों की शादी में हड्डी की शुद्धता कायम रखने पर ही है चाहे भले ही उन घरों में परदे के पीछे नौकरों तक से संबंध कायम किए जाते हों।
स़़्त्री बाजारवाद अथवा उपभोक्तावाद के आगमन से सदियों पहले से उपभोग और बाजार में बेचे जाने वाली वस्तु की तरह व्यवहार में लाई गई है और इस बात को समझने के लिए किसी रिसर्च के अध्ययन की आवष्यकता नहीं।



बाजार के केंद्रीय चरित्रों में से एक नजमा (स्मिता पाटिल) को अपना घर छोड़कर निकलना पड़ता है क्योंकि उसकी मां नवाबी आन बान और शान को बरकरार रखने के लिए उसे जिस्मफरोशी करने को मजबूर कर रही है। उसकी मां के तर्क देखिए- ‘‘ हमारे खानदान में नौकरां रखते हैं बेटी नौकरी नहीं करते।’’



- ‘‘ मान जाओ बेटी किसी को कानों कान खबर नहीं होगी।’’
- ‘‘ इनों कोई काम भी तो नहीं करते नवाब हैं न इज्जत जाती है।’’
हालांकि उसके पास नजमा की इस बात का कोई जवाब नहीं है कि क्या ंिजस्म बेचने से इज्जत नहीं जाती़?



नजमा के शायर सलीम (नसीरुद्दीन शाह) के साथ एक तरह के प्लेटोनिक रिलेशन हैं लेकिन अपनी इज्जत का सौदा करने की बजाय वह एक अन्य शख्स अख्तर (भरत कपूर) के साथ निकल जाती है जो उससे शादी करने का अहद करता है।



फिल्म के एक दृष्य में अख्तर के कमरे में घुसते ही नजमा बिना देखे उसे अपने जिस्म का ग्राहक समझ कर चप्पल तान देती है। वह चप्पल दरअसल सिंबल है उसी प्रतिरोध और नफरत का जो किसी स्त्री के मन में अनचाहे पुरुश के प्रति हो सकती है।



यह और बात है कि तमाम दुश्वारियों का हवाला देकर वह नजमा के साथ शादी तो नहीं करता लेकिन शौहर-बीवी जैसे रिश्ते जरूर कायम करता है। एक जगह सलीम नजमा से कहता भी है- ‘‘ तुम इस बाजार में बिकने वाली शै हो। अपने जिस्म को दुकान के शो केस से बचाने के लिए तुमने अख्तर के घर की सजावट बनना पसंद किया। ’’



जिस समय बाजार रिलीज हुई यह वही समय था जब देश में एक महिला प्रधाानमंत्री का शासन था जिसे काफी पहले विपक्षी नेता तक ‘दुर्गा’ की उपाधि दे चुके थे। कमोबेश यही वह समय था जब समाचार पत्र समूह ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के पत्रकार अश्विन सरीन ने ‘कमला’ नामक एक आदिवासी लड़की को खरीदकर यह बात दुनिया के सामने ला दी थी कि देश में अब भी स्त्री देह को खरीदने और बेचने का ध्ंाधा जोरों पर है।



इस एक घटना ने समूचे देश केा स्तब्ध कर दिया था। सुप्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर ने इस थीम पर कमला नामक एक चर्चित नाटक भी रचा था जिसमें उन्होंने दिखाया था कि किस तरह अपनी तरक्की को ध्यान में रखकर पत्रकार वर्ग मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रख चुका है।



कमला की देह पर चढ़कर सरीन ने भले ही तरक्की की सीढ़ियां चढ़ ली हों लेकिन कमला की सुध कितने लोगों को है? कमला को संभवतः न्यायालय के आदेष के बाद किसी नारी निकेतन भेज दिया गया और उसके बाद वह वहां से कहीं चली गई। इससे अधिक जानकारी उसके बारे में इससे अधिक जानकारी मैं भी नहीं जुटा पाया। तो यही हमारे समाज के तथाकथित स्त्री बोध और स्त्री चिंता की हकीकत है।



बााजार का कथानक भी कमसिन लड़कियों की बिक्री को ही केंद्र में रखकर बुना गया है।
फिल्म के दो अन्य केंद्रीय पात्र हैं शबनम (सुप्रिया पाठक) और सज्जो (फारुख शेख) जो कम उम्र होने के बावजूद एक दूसरे के साथ संजीदा मुहब्बत में मुब्तिला हैं।



जिस समय सज्जो और शबनम का प्यार परवान चढ़ रहा होता है उसी समय नजमा अख्तर के दबाव में आकर उसके आका ‘जाकिर’ के लिए दुल्हन तलाश करने वापस अपने घर हैदराबाद आती हैै। एक समारोह में जाकिर की नजर शबनम पर पड़ती है और वह उससे शादी कराने का दबाव नजमा के ऊपर डालता है।



जैसे ही लोगों को पता चलता है कि नजमा किसी बड़े आदमी के लिए दुल्हन की तलाश में आई है इलाके की तमाम इज्जतदार बीवियां अपनी अपनी बच्चियों के रिश्ते की बात करने उसके सामने हाजिर हो जाती हैं। नजमा के सामने एक तरह से कमसिन लड़कियों का बाजार ही सज जाता है।



गौर करने वाली बात है कि जाकिर उसी रवायत का नुमाइंदा बनकर सामने आता है जिसके लिए एक से अधिक औरतों का हरम तैयार करना स्टेटस सिंबल से अधिक कुछ नहीं है। यह वही सदियों पुरानी रस्म है जिसमें एक आदमी की अयाशी सामने वाले की त्रासदी बनकर उभरती है।



यह हकीकत है कि बुर्जुआ क्लास ने हरसंभव तरीके से महिलाओं का शोशण किया । फिल्म में जाकिर बुर्जुआ का ही प्रतिनिधि है जो औरत को हर हाल में केवल और केवल उपभोग की वस्तु समझता है और उसके सारे जतन अपनी इस पोजीशन को मजबूत बनाए रखने के लिए है। वहीं सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि सज्जो तमाम प्रयासों के बावजूद अपनी मोहब्बत को हासिल नहीं कर पाता क्योंकि पराजय उसकी नियति है।



फिल्म के एक दृश्य में जब शबनम और सज्जो की आखिरी मुलाकात होती है तो सुप्रिया पाठक की कातर आवाज में बोला गया वह संवाद - ‘‘ हमने तुम्हें बरबाद कर डाला न सज्जो। ’’
इस पर सज्जो का जवाब - ‘‘ तुम मेरी जिंदगी को नए मानी दिए। नही ंतो क्या था इसमें’’
और फिर शबनम का ये कहना कि हम तुम अगर गरीब न होते तो हमें कोई भी जुदा नहीं कर सकता था। यह पूरा संवाद फिल्म की थीम को समझने के लिए पर्याप्त है।



पाॅपुलर हिंदी सिनेमा में जैसा कि मैंने ऊपर जिक्र किया है मुस्लिम किरदार या तो रहीम भाई, रहमान चाचा, अथवा अम्मी, आपा के रूप में दिखते हैं या फिर हाल के दिनों में वे टेररिस्ट बनकर सामने आते हैं।



अपने खुशनुमा पलों में इन किरदारों के हिस्से या तो लखनवी नफासत के साथ तहजीबी उर्दू बोलना आता है या फिर गजलों और मुजरों की महफिलें सजाना। अपने बुरे दौर में ये किरदार गोलियां दागते हैं।



हिंदी सिनेमा के मुस्लिम किरदार इन्हीं दो छोरों के दरमियान झूलते रहे हैं लेकिन बाजार ने इस परंपरा को तोड़ा। एक हद तक पारंपरिक होने के बावजूद इसके किरदारों की मजबूती देखने लायक है।
पहले आई तमाम हिंदी फिल्मों के मुस्लिम किरदार दरअसल अरेबियन नाइट्स के किरदारों का ही एक्सटेेंशन हैं हम उन्हें बड़ी आसानी से शीरीं- फरहाद, लैला मजनूं आदि से रिलेट कर सकते हैं उन फिल्मों में वास्तविक मुस्लिम कल्चर अथवा उसका सोशल कंटेक्स्ट नहीं खोजा जा सकता।



बाजार के विशुद्ध मेलोड्रामा होने के बावजूद उसमें रियलिज्म की झलक मिलती है। ठीक उसी तरह जैसे राजकपूर की प्रेेमरोग तमाम नाटकीयता के बावजूद हिंदू समाज की एक मूल समस्या विधवा विवाह की ओर लोगों का ध्यान खींचने में कामयाब होती है।



बाजार की थीम में महिलांए हैं ये महिलांए गरीब और मुसलमान होने के कारण तिहरी मार झेलती हैं। गरीबी, लाचारी, बेरोजगारी, और झूठे पारिवारिक दंभ के बीच उनका औरत होना उनकी समस्याओं में कई गुना इजाफा कर देता है।



हालांकि बाजार के महिला किरदार चारित्रिक मजबूती का बेहतरीन उदाहरण पेश करते हैं अपनी नियति को समझते हुए भी नजमा का जाकिर से बोला गया संवाद- ‘‘जाकिर भाई, आपके बाजार में सबसे सस्ती अगर कोई चीज है तो वह है औरत।’’



या फिर फिल्म के अंत में शबनम का बोला गया संवाद- ‘‘ हम अगर तुम्हारे न हुए सज्जो तो...। ’’
प्रतिरोध के अंतिम प्रयास में शबनम आत्महत्या को हथियार के रूप में इस्तेमाल करती है और निकाह के बावजूद जाकिर के हाथ लगने से पहले ही खुद को खत्म कर लेती है वहीं नजमा भी अख्तर को छोड़कर चली जाती है अपनी पहचान की तलाश में।



बाजार का डिप्रेसिव टोन भी फिल्म का महत्वपूर्ण पहलू है। अक्सर इसे भी फिल्म की आलोचना का विशय बनाया गया है। यह डिप्रेसिव टोन उसे रियलिस्टिक टच तो प्रदान करता ही है साथ ही उसे कुछ हद तक नकारात्मक भी बनाता है। यह टोन कई दफा दर्शकों को भी अपनी चपेट में ले लेता है।



फिल्म जहां कई बार रुलाती है वहीं ऐसा भी महसूस होता है कि जैसे अब इसे और आगे नहीं देखा जा सकता। यह माध्यम की सफलता तो है लेकिन कई अवसरों पर यह फिल्म की सीमा भी बन जाता है।
नसीरुद्दीन षाह और स्मिता पाटिल जैसे आला अदाकारों की मौजूदगी में बाजार दरअसल फारुख षेख और सुप्रिया पाठक की फिल्म है। बाजार मंे फारुक षेख की अदाकारी के लिए एक ही षब्द है मेरे पास ‘अद्भुत’। उन्हें पहली बार मैंने देखा था दूरदर्षन के धारावाहिक आखिरी दांव में, जिसमें वह और दीप्ति नवल मुख्य भूमिका में थे।



बाजार मंे फारुख ने गरीब, बेरोजगार मुस्लिम युवा की भूमिका में जो जान फूंकी है वह आज की सिनेमाई युवा की छवि से कोसांे दूर होकर भी कितनी अजीज है। याद कीजिए षबनम के मां बाप से सज्जो का संवाद या फिर षबनम के साथ फिल्म के आखिरी दृष्यांे में से एक।



षबनम की भूमिका मंे सुप्रिया पाठक ने एक कम उम्र घरेलू लड़की की भूमिका निभाते हुए भी परिपक्वता की बुलंदियों को छुआ है। बाजार के सभी कलाकारों को उनकी पूर्णता के लिए सलाम।
बाजार के बाद सागर सरहदी की निर्देशित एक और फिल्म हाल ही में आई है ‘चैसर’ । मैं हमेशा सोचता हूं कि बाजार जैसी सशक्त फिल्म बनाने वाले और कभी-कभी, सिलसिला, कहो न प्यार है जैसी फिल्मों की पटकथा लिखने वाले सागर सरहदी ने इतने लंबे अरसे तक कोई फिल्म क्यों नहीं बनाई। शायद उनकी संवेदना को छूती हुई कोई पटकथा नहीं मिली होगी।



चैसर की कहानी साहित्यिक पत्रिका कथा देश के नवलेखन अंक में कुछ वर्श पहले प्रकाशित रामजनम पाठक की कहानी ’बंदूक’ पर आधारित है। सरहदी ने यह कहानी पढ़ी और उन्हें लगा कि शायद उन्हें ऐसी ही किसी कहानी की तलाश थी।



फिल्म की पटकथा लिखने के लिए उन्होंने हिंदी कवि निलय उपाध्याय को चुना जो उस समय कदाचित कारणों से बेरोजगारी के दौर से गुजर रहे थे। सरहदी चाहते तो फिल्म की पटकथा किसी भी स्थापित नाम से लिखवा सकते थे लेकिन उन्होंने इसके लिए निलय को चुना क्यों़? क्योंकि एक कलाकार दूसरे कलाकार के संकट को उसकी भावनाओं को समझता है उन्हें साझा करता है। सरहदी की यही संवेदना बाजार को इतनी संवेदनषील फिल्म बनाती है कि आप उसे देखते हुए भी नहीं देख पाने के भाव से गुजरते हैं। भूूमिकाओ से यह समानुभूति ही फिल्म की जान है।



फिल्म का संगीत उसके सबसे मजबूत पक्षों में से है। मीर तकी मीर और मोहिनुद्दीन मखदूम की शानदाार गजलें ‘दिखायी दिए यूं ...’और ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की...’आज भी सुनने पर गजल और संगीत की उस जादुई दुनिया की सैर पर ले जाती हैं जहां तसव्वुर सीमाविहीन होकर उड़ान भरता है।



मीर के बारे में तो खैर कहना ही क्या। ये वही मीर हैं जिनके बारे में कभी गालिब ने कहा था- ‘‘रेखते का तू ही उस्ताद नहीं है गालिब कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था।’’



सदियों का फासला हो जाने के बावजूद उनकी गजलें आज भी षीर्श हिंदी सिनेमा का हिस्सा हैं। गुलों में रंग भरे वादे नौबहार चले चले भी आओ की गुलषन का कारोबार चले। उनकी यह गजल मेरी जानकारी में अब तक कम से कम चार अलग अलग फिल्मों में आ चुकी है।



मखदूम मोहिउद्दीन को उनकी विद्रोही तेवर की नजमों के लिए जाना जाता है। तरक्की पसंद षायरी के अगुया षायरों की जमात के मखदूम की गजल फिर छिड़ी बात रात फूलों की रोमांटिक गजलों को नई ऊंचाई पर ले जाने वाली रचना है।



बाजार के संगीत की खूबी है उसके गीतों में लोक संगीत और बेहतरीन गजलों का खूबसूरत मिश्रण। आपको याद होगा आंचलिकता के रंग में रंगा गीत चले आओ सैंया रंगीले मैं हारी रे।
या फिर भूपिंदर की गायी गजल करोगे याद तो हर बात याद आएगी क्या हर किसी को अतीत की हांट करती यादों में नहीं ले जाती।



जगजीत कौर की आवाज में फिल्म का आखिरी गीत जो सुप्रिया पाठक पर फिल्माया गया है - देख लो आज हमको जी भर के। क्या इस धरती के हर प्यार करने वाले की आत्मा की अंतिम पुकार नहीं लगती।