
हंसो कैमूर मेरी दुर्दशा पर
बैंक में नही था बैलेंस घर में नही है आटा उस पर भी कर दिया है अब नौकरी को टाटा दिल ऐ नादाँ तुझे हुआ क्या है...(बकौल राजकुमार केसवानी)
महिला मुक्केबाजी में चार बार विश्व खिताब जीत चुकी एम् सी मेरीकॉम का दर्द साझा कराने वाला कोई नही. ना फेडरेशन, ना जनता और नाही नेता.
मेरीकॉम कल चुपचाप चीन से वापस आ गयीं. किसी को शायद ख़बर नही की उन्होंने चौथी बार महिला मुक्केबाजी का विश्व खिताब जीता है वह भी दो साल पहले जुड़वां बच्चों की मां बनने के बाद.
अर्जुन अवार्ड कमेटी के अध्यक्ष उड़न सिख मिल्खा सिंह के सामने जब धोनी और मेरीकॉम के नाम खेलरत्न पुरस्कार के दावेदार के रूप में लाये गए तो उन्होंने कहा की वे नही जानते मेरीकॉम कौन सा खेल खेलती हैं??? बाद में यह सम्मान धोनी को दिया गया.
मेरीकॉम कहती हैं की मिल्खा सिंह की बात ने उन्हें वो जख्म दिया जो कभी बोक्सिंग जैसे खतरनाक खेल से भी उन्हें नही मिला था..
मैं सोचता हूँ की वो कौन सी भावना है जो मेरीकॉम को खेलते रहने की ऊर्जा देती है जब की ये खेल न तो उन्हें पैसा दिला पा रहा है और नाही सम्मान
मेरे एक मित्र का कहना है की मेरीकॉम को सम्मान और ढेरों इनाम पाने के लिए बहुत खूबसूरत टेनिस या चेस खिलाड़ी होना चाहिए था... आप क्या कहते हैं
तस्वीर - साभार गूगल
कल शाम रिंग रोड पर मेरे साथ हुए हादसे ने मेरी इस धारणा को और बल दिया की में दिल्ली दिलवालों की तादात अब उतनी नही रही ।
हुआ यूँ की मैं शाम लगभग ६.३० बजे लाजपत नगर मार्केट से वापस लौट रहा था फ्लाई ओवर के नीचे से सफदरजंग एन्क्लावे स्थित अपने फ्लैट लौटने के लिए मैं यू टर्न ले रहा था तभी एक कार ने पीछे से टक्कर मार दी. एक पल को तो समझ ही नही आया की क्या हुआ ? मैं एक दम लहराता हुआ आगे की और सर के बल गिरा. हेलमेट के कारण सर तो बच गया लेकिन हाथ पैर में जम कर चोट लगी. मैं उठ नही पा रहा था सामने कुछ छुट्टे पैसे सौ का एक नोट और मेरा एटीएम कार्ड पडा हुआ था .................जाने किसने तो आकर उठाया.
सड़क पर संज्ञा शून्य बैठा हुआ मैं देख रहा था की मेरे अगल बगल से गुजर रही कारों में बैठे लोगों की नज्में कैसी झुंझलाहट थी उनके बस में होता तो शायद वो कुचल के आगे चले जाते.....
मुझे ठोकने वाली कार जिसमें दिल्ली की कोई एलीट फॅमिली सवार थी भागने की फिराक में थी मैंने लडखडाते कदमों से ही सही उसे रोकने की कोशिश की. लेकिन वो भाग गए. वहां खड़े कुछ रिक्शा चलाने वालों ने मुझे किनारे ले जाकर बिठाया. मैंने १०० नम्बर पर फ़ोन भी किया लेकिन ना किसी को आना था न आया.
वहां से किसी तरह गाडी चला कर हम डॉक्टर के यहाँ गए ड्रेसिंग करवाई। रात में मैं यही सोचता रहा की अमीरी लोगों को किस कदर लोग संवेदनहीन बनाती जा रही है। मुझे पता है की उस कार सवार ने मेरी हत्या कराने के इरादे से टक्कर नही मारी थी, लेकिन क्या वो रुक कार दो मिनट मुझे देख नही सकता था क्या उसके पास इतना वक्त नही था की रुक कार हाल चाल ले लेता। मेरे लिए इतना बहुत था। लेकिन मेरी मदद के लिए आगे आए दो रिक्शा खींचने वाले।
इस घटना ने एक बार फ़िर एहसास करा दिया की दिल्ली वालों का दिल अब अपनी जगह बदल चुका है। यहाँ के अमीरों के दिल तो जाने कब के बनियों के यहाँ गिरवी रखे जा चुके हैं...........
..............उनके बात करने के लहजे से पता चल रहा था की दोनों बिहार के हैं लेकिन बीच सड़क पर बेसुध पड़े हम दोनों को उठाते हुए उन्होंने एक बार भी नही पूछा की हम महाराष्ट्र के हैं या गुजरात या तमिलनाडू के....सुन रहे हो न राज ठाकरे......................
मैंने अहमद फ़राज़ के जाने और उस पर साहित्य जगत में कोई सुगबुगाहट ना होने पर जो पीडा अनुभव की थी , प्रभा खेतान के जाने पर वो दो गुनी हो गयी।
स्त्री मन की कुशल चितेरी, वरिष्ठ रचनाकार प्रभाजी का बीते शुक्रवार की देर रात कोलकता में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था। वे 66 वर्ष की थीं।
एक कवयित्री, नारीवादी चिंतक और उद्यमी आदि विविध रूपों में अपनी पहचान बनाने वाली प्रभा खेतान को दो दिन पहले दिल की तकलीफ के बाद अस्पताल में दाखिल कराया गया था। नवंबर 1942 में कोलकाता के एक रुढ़िवादी मारवाड़ी परिवार में जन्मी प्रभा ने तत्कालीन बंद समाज के दायरे को तोड़कर अपने लिए मंजिलें और उनके रास्ते खुद तय किए। ज्यां पाल सात्र्र के अस्तित्ववाद पर पीएचडी करने के बाद प्रभा ने अपना व्यवसाय खड़ा कर आर्थिक आत्मनिर्भरता अर्जित की।
साइमन दा बोउवा की दे सेकंड सेक्स का जो अनूठा अनुवाद उन्होंने स्त्री उपेक्षिता के नाम से किया था उसे पढने के बाद मैंने जाना की हम किन चीजों से कैसे कैसे कारणों से वंचित रह जाते हैं।
प्रभा खेतान का लेखन स्त्री मनोविज्ञान की गहन जांच पड़ताल करता है। 'बाजार में खड़ी स्त्री' और आपनी जीवनी 'अन्या से अनन्या तक' समेत अपनी विभिन्न रचनाओं में उन्होंने औरत के हक, भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के दौर में उसकी स्थिति पर अपनी बात बेधड़क होकर कही। उल्लेखनीय है की स्त्री विमर्श की पैरोकार और उसका नेतृत्व कराने वाली प्रभा जी ने कभी ख़ुद को नारीवाद का स्वयम्भू अगुआ नही घोषित किया ।
उनकी जीवनी अन्या से अनन्या को पढ़ कर डॉ साहब के साथ उनके रूमानी संबंधों को मनही मन स्वीकार नही पाया था लेकिन ६० के दशक के समाज में उनके साहस ने सचमुच मन मोह लिया था
मैंने अपने मित्र शशि भूषण से हिन्दी साहित्य की इस विडम्बना पर बात की जिस बात ने हमें सबसे ज्यादा दुखी किया वह थी मीडिया में अपर्याप्त कवरेज । कमोबेश यही आलम त्रिलोचन की मौत पर भी सामने आया था । नितांत स्तरहीन घटिया बातों को प्रमुखता से छापने वाला हमारा मीडिया और आपसी लडाइयों में उलझे उनके स्वयम्भू आका। क्या कभी इन्हे एहसास होगा की जो हम खो रही हैं उसकी भरपाई कभी नही होगी ।
उनका पहला काव्य संग्रह 'उजाले' सन 1981 में और पहला उपन्यास 'आओ पेपे घर चलें' 1990 में प्रकाशित हुआ। एक और आकाश की खोज, कृष्णधर्म, सीढ़ियां चढ़ती हुई मैं आदि उनके प्रसिद्ध काव्य संग्रह हैं और छिन्नमस्ता, तालाबंदी, अग्निसंभवा, स्त्री पक्ष उनकी प्रमुख औपन्यासिक कृतियां हैं।
प्रभा खेतान कितनी बड़ी कवयित्री , उपन्यासकार, नारीवादी या चिन्तक थीं इस बहस में मुझे नही पड़ना मेरे लिए तो बस एक समर्थ स्त्री और इमानदार व्यक्तित्व की स्वामी थी यही पर्याप्त है.