अजीत कुमार
व्यावसायिक सिनेमा और मीडिया, पापुलर कल्चर की वह सबसे पापुलर विधा है जिससे आप विचार या विरोध् के बुनाव या विस्तार की उम्मीद नहीं कर सकते। उल्टे खंडित सच के नाम पर यह विरोध्, संगठन, जनपक्षधरता और आंदोलन का लगातार माखौल उडाने में लगा है। आज की मुख्य धारा की फिल्मों से इस बात को समझा जा सकता है.
मौजूदा हिंदी समाज में आज अगर विरोध् के स्वर सबसे कम सुने जा रहे हैं तो इसके लिए सिनेमा और मीडिया सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। आखिर पापुलर कल्चर उन तमाम तरह के षडयंत्र को फलीभूत होता देख रहा है जिसे उसने बाजार की सत्ता को अभेद्य बनाने के लिए उपभोक्तावादी विमर्श, तकनीक और अतिसंकीर्ण व्यक्तिवाद के गठजोड के आधार पर रचा है।
आज जिस दौर में हम जी रहे हैं सघर्ष, विरोध् की बातें बेमानी हो गई है। समाज घोर असंवेदनशील हो गया है। देश, से लेकर राज्य, समाज और समुदाय पर कहीं कोई बात नहीं होती। राजनीति पर बात करना तो असभ्य होने की निशानी मानी जाने लगी है। ज्यादातर लोगों से सुनने को मिलते हैं छोडो यार दीन दुनिया की बातें। अपनी चिंता करो। हम ठीक तो जग ठीक।
विरोध् को लेकर राजनीति तो हमेशा से होती आई है लेकिन इसका मतलब यह तो कतई नहीं कि छोटे से हिस्से के सच के आधर पर आंदोलन, राजनीति और संघर्ष की पूरी सच्चाई को खंडित कर दिया जाए। दरअसल उत्तर आधुनिक पापुलर कल्चर ने अपने सबसे प्रमुख विमर्श खंडित सच का इस्तेमाल विरोध् और बगावत को ही खत्म करने के लिए सबसे ज्यादा किया है। साथ ही मीडिया का रोल भी इस प्रवृत्ति को और मजबूत करने में कहीं से भी कम नहीं रहा है।
देखें तो खंडित सच के सहारे मघ्यमवर्गीय समाज की सामाजिक और राजनैतिक चेतना सुन्न हो गई है। आज के दौर की ज्यादातर फिल्मों को उठा लें उनमें आप पाएंगे कि विरोध् की राजनीति और आंदोलनों को वहां पूरी तरह से हास्यास्पद स्थिति में दिखाया गया है। पापुलर कल्चर के मूल में ही विरोध् के स्वर को समाप्त करना है। लेकिन विरोध् के स्वर को यकबारगी समाप्त करने के बजाए यह इसे लोगों के दिलो दिमाग से खंडित सच के सहारे धीरे धीरे समाप्त करता है।
हद तो दखिए यह पापुलर कल्चर अगर एक ओर खंडित सच का इस्तेमाल विरोध् के स्वर को समाप्त करने के लिए करता है तो दूसरी ओर इसी का इस्तेमाल अलगाववाद, क्षेत्रवाद और व्यक्तिवाद पफैलाने में जहर की तरह करता है। आपने कभी नहीं देखा होगा कि खंडित सच का इस्तेमाल अलगाव की प्रक्रिया को रोकने में किया गया हो। देशभक्ति, और राष्टीयता के विषय पर बनी ज्यादातर फिल्मों को ले लें किस तरह से एक कौम के खंडित सच के आधर पर देशभक्ति और राष्टीयता का फूहड नाटक रचा जाता है। आतंकवाद को लेकर सिनेमा और मीडिया में ज्यादातर विमर्श इसीलिये सार्थक नहीं हो पाते । आखिर वो कौन सा व्यापक सच है जिसकी बिना पर हर मुसलमान और पाकिस्तानी को भारत क्या पूरे विश्व में आतंकवादी मान लिया जाता है। आप बताएं क्या समूची पाकिस्तानी जनता का यही सच है। लेकिन सिनेमा और मीडिया ने थोडे से भा्रमक सच का इतना व्यापक ताना बाना बुना है कि वृहत्तर सचाई काफी पीछे चली गई है।
थोडा वर्तमान को लेकर ही बात कर लें। महंगाई आसमान छू रही है। लेकिन इसको लेकर कहीं कोई आंदोलन नहीं है। आखिर विरोध् को लेकर इस दर्जे की उदासीनता क्या पहले के समाजों में थी। हालांकि हरएक आदमी आपको महंगाई की शिकायत करता मिल जाएगा।
आखिर उत्तर आधुनिक मीडिया और सिनेमा ने हर व्यक्ति को अपने हिस्से का खंडित सच स्वीकार कर लेना ही तो सिखाया है। और जिस दिन इंसान अपने हिस्से का खंडित सच मान लेता है। विरोध् के समवेत स्वर मंद पड जाते हैं। व्यापक सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया ठहर जाती है। जातिवाद और सांप्रदायिकता कम होने के बजाए समाज को अपनी मजबूत गिरपफ्त में लेने लगते हैं। शोषण की प्रक्रिया और घनघोर होने लगती है। लेकिन फिर भी मध्यम वर्ग विकास दर और तकनीकी संपन्न्नता का दावा करने से नहीं थकता।
विरोध् के इस त्रासद उदासीन दौर में आप सामंतवाद, वर्चस्ववाद और जातिवाद तोडने की बात नहीं कर सकते। शोषण के इन कारणों को जडमूल से उखाडने के लिए आपको समाज में व्यापक विरोध् के स्वर को फिर से जिंदा करना होगा। संगठन की महत्ता समझनी होगी। राजनीतिक नेतृत्व और सक्रियता का लोहा मानना होगा। लेकिन विरोध् के संगठनिक स्वरूप को छिन्न भिन्न करने के सिवा आज का मीडिया और सिनेमा आखिर कर क्या रहा है।
वर्तमान राजनीति की हम कितनी भी आलोचना क्यूं न कर लें इतना तो तय है कि विरोध् के स्वर बगैर राजनीतिक संगठन और नेतृत्व के एक अंजाम तक नहीं पहुंच सकते। लेकिन जिस तरह से आज का मघ्यमवर्ग राजनीति को लेकर विमुख और उदासीन होता जा रहा है। शोषण के विरूद्व आवाजें कमजोर पडती जा रही है। समाज या व्यवस्था में व्यापक बदलाव की कल्पना नहीं की जा सकती। अगर विरूद्व आवाजों को बुलंद करना है तो हमे लोगों को राजनीतिक रूप से सक्रिय करना होगा। और इस काम में मीडिया और सिनेमा काफी मददगार हो सकता है।
आज बाजार पापुलर मीडिया और सिनेमा के माघ्यम से मघ्यमवर्ग में यह विभ्रम फैलाने में कारगर रहा है कि वही विकास और बदलाव की तमाम प्रक्रियाओं का सूत्राधर है और ये सारी प्रक्रियाएं उसकी निगहबानी में ही संपन्न की जाएगी। ऐसे समय में तमाम बुद्ध्जिीवियों और प्रगतिशीलों की जिम्मेदारी बनती है कि बजाए खंडित सच के आधर पर विरोध् का पाठ करने के बाजार के इस षडयंत्र का पर्दाफाश कर सिनेमा और मीडिया को विकल्प की आवाजों से लैस करें। क्योंकि हर युग में विरोध् ही बदलाव के मूल में रहे हैं।
सथ ही मीडिया को थोडे से उपलब्ध् सूचना को तोड मरोडकर परोसने के बजाए सूचना के नए अनसुने क्षेत्र तलाशनें चाहिए। ताकि समाज को उदासीन बनाने के बजाए उसे शोषण के खिलाफ विरोध् के लिए प्रेरित किया जा सके।
आज जिस दौर में हम जी रहे हैं सघर्ष, विरोध् की बातें बेमानी हो गई है। समाज घोर असंवेदनशील हो गया है। देश, से लेकर राज्य, समाज और समुदाय पर कहीं कोई बात नहीं होती। राजनीति पर बात करना तो असभ्य होने की निशानी मानी जाने लगी है। ज्यादातर लोगों से सुनने को मिलते हैं छोडो यार दीन दुनिया की बातें। अपनी चिंता करो। हम ठीक तो जग ठीक।
विरोध् को लेकर राजनीति तो हमेशा से होती आई है लेकिन इसका मतलब यह तो कतई नहीं कि छोटे से हिस्से के सच के आधर पर आंदोलन, राजनीति और संघर्ष की पूरी सच्चाई को खंडित कर दिया जाए। दरअसल उत्तर आधुनिक पापुलर कल्चर ने अपने सबसे प्रमुख विमर्श खंडित सच का इस्तेमाल विरोध् और बगावत को ही खत्म करने के लिए सबसे ज्यादा किया है। साथ ही मीडिया का रोल भी इस प्रवृत्ति को और मजबूत करने में कहीं से भी कम नहीं रहा है।
देखें तो खंडित सच के सहारे मघ्यमवर्गीय समाज की सामाजिक और राजनैतिक चेतना सुन्न हो गई है। आज के दौर की ज्यादातर फिल्मों को उठा लें उनमें आप पाएंगे कि विरोध् की राजनीति और आंदोलनों को वहां पूरी तरह से हास्यास्पद स्थिति में दिखाया गया है। पापुलर कल्चर के मूल में ही विरोध् के स्वर को समाप्त करना है। लेकिन विरोध् के स्वर को यकबारगी समाप्त करने के बजाए यह इसे लोगों के दिलो दिमाग से खंडित सच के सहारे धीरे धीरे समाप्त करता है।
हद तो दखिए यह पापुलर कल्चर अगर एक ओर खंडित सच का इस्तेमाल विरोध् के स्वर को समाप्त करने के लिए करता है तो दूसरी ओर इसी का इस्तेमाल अलगाववाद, क्षेत्रवाद और व्यक्तिवाद पफैलाने में जहर की तरह करता है। आपने कभी नहीं देखा होगा कि खंडित सच का इस्तेमाल अलगाव की प्रक्रिया को रोकने में किया गया हो। देशभक्ति, और राष्टीयता के विषय पर बनी ज्यादातर फिल्मों को ले लें किस तरह से एक कौम के खंडित सच के आधर पर देशभक्ति और राष्टीयता का फूहड नाटक रचा जाता है। आतंकवाद को लेकर सिनेमा और मीडिया में ज्यादातर विमर्श इसीलिये सार्थक नहीं हो पाते । आखिर वो कौन सा व्यापक सच है जिसकी बिना पर हर मुसलमान और पाकिस्तानी को भारत क्या पूरे विश्व में आतंकवादी मान लिया जाता है। आप बताएं क्या समूची पाकिस्तानी जनता का यही सच है। लेकिन सिनेमा और मीडिया ने थोडे से भा्रमक सच का इतना व्यापक ताना बाना बुना है कि वृहत्तर सचाई काफी पीछे चली गई है।
थोडा वर्तमान को लेकर ही बात कर लें। महंगाई आसमान छू रही है। लेकिन इसको लेकर कहीं कोई आंदोलन नहीं है। आखिर विरोध् को लेकर इस दर्जे की उदासीनता क्या पहले के समाजों में थी। हालांकि हरएक आदमी आपको महंगाई की शिकायत करता मिल जाएगा।
आखिर उत्तर आधुनिक मीडिया और सिनेमा ने हर व्यक्ति को अपने हिस्से का खंडित सच स्वीकार कर लेना ही तो सिखाया है। और जिस दिन इंसान अपने हिस्से का खंडित सच मान लेता है। विरोध् के समवेत स्वर मंद पड जाते हैं। व्यापक सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया ठहर जाती है। जातिवाद और सांप्रदायिकता कम होने के बजाए समाज को अपनी मजबूत गिरपफ्त में लेने लगते हैं। शोषण की प्रक्रिया और घनघोर होने लगती है। लेकिन फिर भी मध्यम वर्ग विकास दर और तकनीकी संपन्न्नता का दावा करने से नहीं थकता।
विरोध् के इस त्रासद उदासीन दौर में आप सामंतवाद, वर्चस्ववाद और जातिवाद तोडने की बात नहीं कर सकते। शोषण के इन कारणों को जडमूल से उखाडने के लिए आपको समाज में व्यापक विरोध् के स्वर को फिर से जिंदा करना होगा। संगठन की महत्ता समझनी होगी। राजनीतिक नेतृत्व और सक्रियता का लोहा मानना होगा। लेकिन विरोध् के संगठनिक स्वरूप को छिन्न भिन्न करने के सिवा आज का मीडिया और सिनेमा आखिर कर क्या रहा है।
वर्तमान राजनीति की हम कितनी भी आलोचना क्यूं न कर लें इतना तो तय है कि विरोध् के स्वर बगैर राजनीतिक संगठन और नेतृत्व के एक अंजाम तक नहीं पहुंच सकते। लेकिन जिस तरह से आज का मघ्यमवर्ग राजनीति को लेकर विमुख और उदासीन होता जा रहा है। शोषण के विरूद्व आवाजें कमजोर पडती जा रही है। समाज या व्यवस्था में व्यापक बदलाव की कल्पना नहीं की जा सकती। अगर विरूद्व आवाजों को बुलंद करना है तो हमे लोगों को राजनीतिक रूप से सक्रिय करना होगा। और इस काम में मीडिया और सिनेमा काफी मददगार हो सकता है।
आज बाजार पापुलर मीडिया और सिनेमा के माघ्यम से मघ्यमवर्ग में यह विभ्रम फैलाने में कारगर रहा है कि वही विकास और बदलाव की तमाम प्रक्रियाओं का सूत्राधर है और ये सारी प्रक्रियाएं उसकी निगहबानी में ही संपन्न की जाएगी। ऐसे समय में तमाम बुद्ध्जिीवियों और प्रगतिशीलों की जिम्मेदारी बनती है कि बजाए खंडित सच के आधर पर विरोध् का पाठ करने के बाजार के इस षडयंत्र का पर्दाफाश कर सिनेमा और मीडिया को विकल्प की आवाजों से लैस करें। क्योंकि हर युग में विरोध् ही बदलाव के मूल में रहे हैं।
सथ ही मीडिया को थोडे से उपलब्ध् सूचना को तोड मरोडकर परोसने के बजाए सूचना के नए अनसुने क्षेत्र तलाशनें चाहिए। ताकि समाज को उदासीन बनाने के बजाए उसे शोषण के खिलाफ विरोध् के लिए प्रेरित किया जा सके।
बिहार के नालंदा जिले में जन्मे अजीत कुमार ने अपने करियर की शुरुआत सीएनबीसी टीवी 18 मुंबई से की। दिल्ली में आईएएनएस, ईटी हिंदी के बाद इन दिनों एक ब्रोकरेज हाउस में काम कर रहे हैं। अजीत जी से aboutajeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
3 comments:
समाज की यह उदासीनता वृहत्तर उद्देश्यो का मार्ग बाधित करेगी। अब ही हालात ऐसे हो चुके हैं कि कोई घटना हमें उत्तेजित नहीं करती। हत्या और बलात्कार हमारे नाश्ते में शामिल घटनाएं हैं कि नहीं
jis samaj me virodh khatm ho jata hai. vah samaj madhyayugeen daur me jane lagta hai. shoshan ki prakriya ghanghor ho jati hai. aaj ke is uttar aadhunik daur me shoshan ki prkriya ko khandit sach ke aadhar par svikrit dilai jarahi hai. shoshit apne shoshan ko kandit sach mankar virodh ki prakriya se nirat ho raha hai. aab aap bataiye samaj ke liye isse badi trasadi aur kiya hogi...jo log khandit sach ke adhar par vampanth ko dhakiyane me lage hue hain unhen ye maloom hona chahiye ki shoshan ke khilaph virodh ki jo sanskriti desh me bachi khuchi hai..usi vampanth ki den hai...mamta banarjee aaj jis virodh ko bhunane me lagi hai ye usi vampanth ki upaj hai..is liye khandit sach ke aadhar par ideology, organisation aur activisam ko gumrah naa kiay jaay...taki shoshan ke virudh aawaj hamesh buland rahe.....
ramanuj ji mai apki baton se sahmat hoon. jatibad aur vikash ke chand khandit sach ko lekar aaj jis tarah se maxism ko poori tarah se nakara ja raha hai afsosjanak hai.
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