अजीत कुमार
अपने पिछले संक्षिप्त आलेख में मेरा मकसद यह कहना था कि एक राजनेता की राजनीतिक उपलब्धि सत्ता में हिस्सेदारी पर भी बहुत कुछ तय होती है। लेकिन सत्ता के सहारे हासिल राजनीतिक उपलब्धि ज्यादातर मौकों पर सिद्वांत, विचारधारा और विकास को लेकर घोर अंतविर्रोध् से ग्रस्त होती है। उल्टे बगैर सत्ता के सहारे हासिल राजनीतिक उपलब्धियों में हमें सिद्वांत, विचारधारा को लेकर कापीबुक स्टाइल की राजनीति ज्यादातर दृष्टिगोचर होती है। रही बात एक राजनेता के लिए राजनीतिक उपलब्धि की तो इसे कभी कमेतर करके देखना नहीं चाहिए।
जबतक तक हम व्यावहारिक राजनीति से दूर होते हैं राजनीति सिद्वांत और विचारधारा से ओतप्रोत होती है। लेकिन जैसे ही यह व्यावहारिकता के रास्ते पर उतरती है विचारधारा और सिद्वांत के रास्ते आडे तिरछे हो जाते हैं। आज अगर इस देश में महात्मा गांधी , बिनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण और बहुतेरे समाजवादियों की वैचारिक प्रतिबद्वता की दुहाई दी जाती है तो इसके पीछे उनका सत्ता से एक हद तक दूरी बनाए रखना रहा। जहांतक समाजवादियों की बात है तो उन्हें राजनीतिज्ञ से ज्यादा शुद्वतावादी यानी संत परंपरा की श्रेणी में रखना ज्यादा उचित है। अतिशुद्वतावादी और कमोबेश उनके संतस्वरूप के कारण ही तो समाजवादियों को सत्ता में व्यापक हिस्सेदारी नहीं मिली। कहने का आशय यह है कि व्यावहारिक राजनीति कापीबुक स्टाइल में नहीं की जा सकती। उदाहरण के तौर पर देखें तो लालू, नीतिश, शरद, मुलायम सभी अपने आपको लोहिया और जयप्रकाश स्कूल के ही प्रोडक्टस मानते हैं लेकिन उन सबों की व्यावहारिक राजनीति में आपको लोहिया और जयप्रकाश का दर्शन कितना मबजूत नजर आता है।
जहां तक साहित्यकारों और पत्रकारों की बात है हम तो व्यावहारिक राजनीति में भी एक हद तक विचारधारा को कापीबुक स्टाइल में फलीभूत होना देखना चाहते हैं। जो शायद संभव नहीं। आखिर सक्रिय पत्रकारिता के क्षेत्र में ही हम मूल्यों को लेकर कितने आदर्शवादी रह पाते हैं। जब तक हम पत्रकारिता की पढाई करते हैं या मुख्यधारा की पत्राकारिता से दूर होते हैं सरोकार और पत्रकारिक मूल्यों को लेकर खूब शोर शराबा करते हैं लेकिन जैसे ही मुख्यधारा की पत्रकारिता में आते हैं सारे मूल्य काफूर हो जाते हैं।
इसलिए राजनीति को लेकर अतिशुद्वतावादी होने की कोई जरूरत नहीं है। अन्य क्षेत्रों की तुलना में राजनीति में वैसे भी शु़द्वतावादी होने के गुजाइश भी कम हैं। कारण राजनीति में व्यापक लोगों के समर्थन की जरूरत होती है। भारत जैसे बहुलतावादी देश, अपरिपक्व जनतंत्र में यह तो और भी कठिन है। राजनीति में नैतिकता कमोबेश समाज के सापेक्ष ही तय होती है। लेकिन जिस देश मे भारी गरीबी अशिक्षा हो, जातिवाद और सांप्रदायिकतावाद समाज में रचा बसा हो, भाषा और क्षेत्रा को लेकर घोर राजनीति हो वहां राजनीति कितनी नैतिक रह सकती है। इसलिए बसु को लेकर भी विचारधरा को कापीबुक स्टाइल में उतारने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहए।
जहांतक बसु की महानता की बात है यह उनकी राजनीतिक उपलब्ध्यों को लेकर है। और यह राजनीतिक उपलब्धि उन्होंने 23 साल से भी ज्यादा पश्चिम बंगाल का नेतृत्व करके हासिल की। पश्चिम बंगाल के उपमुख्यमंत्राी बनने से पहले ज्योति बाबू भी मार्क्सवादी विचारधारा को लेकर कमोबेश हार्ड थे। हार्डनेस तो इतनी थी कि उन्होंने भारत पर चीन के हमले को लेकर अन्य साथियों के साथ सीपीआई से अलग होकर सीपीएम की नींव तक दे डाली। विचारधरा को कापीबुक स्टाइल में इससे ज्यादा और क्या उतारा जा सकता था कि उन्होंने देशद्रोह का दंश झेलकर भी वृहत्तर मार्क्सवादी नीतियों को लेकर चीन का समर्थन किया। सीपीएम के संस्थापक नवरत्नों में ज्योतिबाबू अकेले थे जिन्हें मार्क्सवाद की सैद्वांतिकी और व्यावहारिकता का प्रशिक्षण पश्चिम में मिला था। जबकि भारत में मार्क्सवाद की पीठिका रचने वाले पश्चिम में रचे बसे बाकी सारे के सारे कामरेड सीपीआई में ही रह गए थे।
स्वतंत्रतापूर्व की राजनीति से उपमुख्यमंतरी पद संभालने तक ज्योतिबाबू की मार्क्सवादी सैद्वांतिकी बिल्कुल कापीबुक स्टाइल में रही। लेकिन ज्योतिबाबू सत्ता की पेचिदगियों और कूटनीति को भी बाखूबी समझते थे। उन्हें मालूम था कि एक पूंजीवादी व्यवस्था में रेडिकल मार्क्सवाद के लिए कितनी जगह हो सकती है। सत्ता की राजनीति और रेडिकल मार्क्सवाद के बीच द्वंद्व की परिणति ही तो सन 1967 में उभरकर आई। जब सीपीएम से अलग होकर कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ; माक्र्सवादी -लेनिनवादी की स्थापना की।
ज्योति बाबू यह भी पता था कि पूंजीवादी ताने बाने में जहां केंद्र के बरक्स राज्य के पास बहुत सीमित अधिकार हैं केंद्र की राजनीति में भी अपना दबदबा रखना उतना ही जरूरी है। इंदिरा गांधी द्वारा देश में लगाए गए आपातकाल का विरोध् और 77 में देश में गैर कांग्रेसी सरकार के गठन में उनकी भूमिका उनके प्रैग्मेटिज्म को ही दर्शाता है। हालांकि वाममोर्चा के एक अन्य महत्वपूर्ण घटक सीपीआई ने उस समय देश में आपातकाल का समर्थन किया था। तब सीपीएम ने सीपीआई को कांगे्रस का स्टेप चाइल्ड तक करार दिया था। कांगे्रस को लेकर सीपीआई के संबंध को लेकर घोर राजनीतिक विरोध् के बावजूद पश्चिम बंगाल की राजनीति में ज्योति बाबू का वाममोर्चा अक्षुण्ण रहा। यह ज्योति बाबू की सर्वस्वीकार्यता और व्यावहारिकता का ही उदाहरण था।
सन 77 में केंद्र में गैर कांगे्रसी सरकार के गठन के बाद से वे लगातार केंद्र की राजनीति पर अपना असर रखने मे कामयाब हुए। साथ ही केंद्र के साथ सीधे टकराव से भी वे हमेशा दूर रहे। क्योंकि केरल में केंद्र के साथ टकराव का परिणाम वे देख चुके थे। जब 1957 में वहां नम्बूरीपाद के नेतृत्व में बने पहले कम्युनिस्ट सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया गया था। कम्युनिस्टों में सामान्यतया जाहिर हठध्र्मिता, आत्मालाप, अडियलपन, रेडिकलनेस और आइडियोलाजी को लेकर रोमैंटिसाइजेशन से ज्योति बाबू एक हदतक दूर थे। कहें तो कम्युनिस्ट होते हुए भी वे एक हदतक समंजनवादी थे।
सन 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बने गैर कांगे्रसी सरकार के गठन में एक बार पिफर ज्योति बाबू की भूमिका बढ चढकर रही। इन सब का उद्देश्य उनका केंद्र की राजनीति पर अपना असर रखने तक में था। केंद्र की राजनीति में उनके असर और स्वीकार्यता का ही परिणाम था कि उन्हें 1996 में तीसरे मोर्चें ने उन्हें प्रधनमंत्राी के पद तक का आफर दिया। लेकिन पोलित ब्यूरो के निर्णय के आलोक में उन्होंने इस आफर को ठुकरा दिया। यह भी अपने आप में ज्योतिबाबू की प्रैग्मैटिक राजनीति की ही मिसाल थी। साथ ही पार्टी के निर्णय को मानकर वे यह संदेश देने में भी सपफल रहे कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में हर कामरेड के लिए पार्टी का आदेश शिरोधर्य होना चाहिए। दरअसल आज के इस दौर में जब संगठन के उफपर व्यक्तिवाद हावी हो गया है। आंतरिक जनतंत्रा और संवाद का स्पेस सिकुडता जा रहा है, ज्योति बाबू का व्यक्तित्व एक कुशल संगठनकर्ता के तौर पर भी अनुकरणीय है। जो लोग शार्ट -टर्म फायदे के लिए पार्टी की लाइन को छोड देते हैं या पार्टी पर दबाव बनाते हैं उन्हें ज्योति बाबू के उस ऐतिहासिक कदम से सबक लेना चाहिए। आखिर 23 सालों से ज्यादा तक पार्टी में सर्व स्वीकार्यता उनके इसी व्यक्तित्व की ही तो देन रही। राजनीति में इतने लंबे अरसे तक न सिपर्फ पार्टी और राज्य में बल्कि देश की राजनीति में स्वीकार्यता ही अकेले ज्योति बाबू को भारतीय राजनीति में महान बनाने के लिए पर्याप्त है। साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि राजनीतिक स्वीकार्यता के लिए न तो कूटनीति के दांव अनैतिक कहे जा सकते और न ही विकास के प्रतिमानों के आधर पर उसे झुठलाया जा सकता है।
बिहार के नालंदा जिले में जन्मे अजीत कुमार ने अपने करियर की शुरुआत सीएनबीसी टीवी 18 मुंबई से की। दिल्ली में आईएएनएस, ईटी हिंदी के बाद इन दिनों एक ब्रोकरेज हाउस में काम कर रहे हैं। अजीत जी से aboutajeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है
3 comments:
jyoti babu par aapne jo likha hai usse mai sahmat hoon. aur bhi likhein to achhacha rahega
Democracy mai political acceptability bahut jaroori hai. jyoti babu ek communist hote huye bhi decocratic set up mai power of politics ki gahari samjh rakhte the.
Ajeet tum itne samanjanbadi kaise ho gaye. Kya jyoti basu ke bachav mai.
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