दो संसार


ये कविता मिथिलेश ने लिखी है मेरे साथ इंदौर भास्कर में सेवारत हैं. मिथिलेश खेल डेस्क पर हैं

जहाँ मैं रहता हूँ
वहीँ पास में एक नाला बहता है
नाले के पार एक अलग है दुनिया बसती है
इस पार से एकदम जुदा

इस पार घर नहीं हैं
बंगले हैं
बड़ी कारें हैं
लान हैं
रोज धुलने वाली चहारदीवारी है

नाले के उस पार भी
घर तो नहीं हैं
झोपड़ियाँ हैं एक दूसरे से लगी हुई
लान तो छोडिये
गमले भी नदारद हैं
रखी हैं साइकिल
पास ही एक हाथ ठेला खड़ा है
वह दिन में दुकानदारी के काम आता है
और रात में उसपर
एक दंपत्ति सो जाते हैं
मैं इसे देखने का अभ्यस्त हो गया हूँ

फर्क दीखता है
इस पार और उस पार में

इसपार लोगों के घर इतने ऊंचे हैं की
ऊपर वाले नीचे वालों को जानाते है नहीं
लेकिन दोनों के बीच एक पुल है
जिसे पार कर रोज आती है
सुमी
बर्तन पोंछा करने
उसे रहती है दोनों संसारों की खबर

7 comments:

शोभना चौरे ने कहा…

लेकिन दोनों के बीच एक पुल है
जिसे पार कर रोज आती है
सुमी
बर्तन पोंछा करने
उसे रहती है दोनों संसारों की खबर
bahut hi umda ak pool ne mila diya hai
kyoki yaha roti ki sugandh hai .

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

नाले के इस पार की दुनिया का...
उस पार की दुनिया के बिना कोई वज़ूद नहीं...

इसलिए एकाध पुल छोड़ दिये जाते हैं...

बेहतर कविता...

ghughutibasuti ने कहा…

ये सुमी ही दोनों संसारों के बीच का पुल है। उसे सलाम।
घुघूती बासूती

अजय कुमार झा ने कहा…

वाह जी वाह, बहुत ही सुंदर पंक्तियां लिखी हैं मित्र ने, उन्हें हमारा आभार कहें और धन्यवाद दें । आशा है कि आपके माध्यम से उनकी और भी रचनाएं पढने को मिलेंगी ।

अजय कुमार झा

saloni ने कहा…

मिथलेश शांत सौम्य और मुस्कुराता चेहरा, अब तक में इतना ही जानती थी. स्पोर्ट्स की अच्छी रिपोर्टिंग करता है. लेकिन आज ये कविता पढ़ कर बहुत अच्छा लगा.
एक नए मिथलेश से मेरा परिचय हुआ.
दो दुनीयाओ को सरल शब्दों में दिखने के साथ नन्ही शुभी का सेतु बहुत ही सुन्दर लगा. आम जिंदगी के बिलकुल करीब.
बचपन की कुछ यादें मेरी भी ताज़ा हो आयी. जब हम ननिहाल जाते थे. दिल्ली में इस तरह के कई मकान देखे.
इंदौर में भी अब ये फर्क दीखता है.
मन का छु गयी मिथलेश की कविता.
इसी तरह लिखते रहना .
शुभकामनाये :)

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा ने कहा…

कविता पढ़ने के बाद चुप हूं..गुम हूं।

पुनीत शर्मा ने कहा…

देखो ज़रा फिर से
कहीं कुछ
छूट तो नही रहा
एक आदमी
जो ना इस पार है
नाले के
ना उस पार
वो देखो
धसा है कमर तक
मै हूँ वो
और तुम हो िक
मुझे
जानते तक नहीं