सिनेमा और मैं, भाग-३ उर्फ़ जरा माचिस देना भाई

मित्र अखिलेश की जिज्ञासा थी की मैंने कभी वर्जित सिनेमा घरों का रुख किया या नही तो इस बार की पोस्ट उसी अनुभव पर.....



मेरे नए मित्र बन रहे थे और उनकी सोहबत में इन वर्जित सिनेमा घरों में जाने की हसरतें जोर मारने लगी थीं। बाजार आते जाते मैं उन सिनेमा घरों के बाहर लगे पोस्टरों को चोर नजरों से देखता और साथ ही मेरा ध्यान इस बात पर भी रहता कि कहीं कोई परिचित मुझे ऐसा करते हुए देख तो नहीं रहा।


उन पोस्टरों के विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है लेकिन फिर भी झूठ न बोलूं तो उन सिनेमा घरों में जाकर फिल्म देखने की इच्छा जोर पकड़ती जा रही थी।
और फिर एक दिन आखिरकार मैंने अपनी सारी नैतिकताओं का गला घोंटा और अपने जिगरी दोस्त के साथ पुष्पराज टाकीज जा पहुंचा जहां जवानी की आग नुमा कोई फिल्म लगी थी जिसके पोस्टर पर मांसल शरीर की मालकिन कुछ लड़कियां आहें टाइप से भर रही थीं।
फिल्म शुरू हो चुकी थी और हम पहले ही लेट हो चुके थे। जैसे तैसे दो खाली सीटें देखकर हम बैठे। फिल्म के आरंभ में एड्स की रोकथाम से संबंधित एक सरकारी विज्ञापन आया। उसके बाद एक दक्षिण भारतीय फिल्म शुरू हुई जिसमें एक नौकर अपनी मालकिन की रंगीन कल्पनाओं में खोया हुआ था। अचानक फिल्म बंद हो गई और परदे पर कोई और रील चलने लगी जिसका फिल्म से कोई लेना देना नहीं था और मेरे खयाल से वहां बैठे दर्शकों को भी उसी की प्रतीक्षा थी क्योंकि उन्होंने सीटियां बजाकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की।
मेरा मित्र जवानी को महसूस करने लगा था। उसने जेब से सिगरेट निकाली और अपने पीछे बैठे आगे बैठे सज्जन से माचिस मांगी।
‘‘ जरा माचिस देना भाई साहब’’
आप कल्पना नहीं कर सकते जिस आदमी ने हमें माचिस दी वह उसके पिता थे। मित्र को काटो तो खून नहीं... लेकिन उसके पिता ने न जाने किस समझौते के तहत उसे पहचानने से इंकार कर दिया। हम दोनों तत्काल वहां से निकल भागे।
तीन दिनों बाद मित्र मिला (उस समय मोबाइल नहीं था।) तो उसने मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए बताया कि उसकी पिटाई इसलिए की गई क्योंकि वह सिगरेट पीने लगा है...

8 comments:

बेनामी ने कहा…

बहुत बढ़िया अनुभव रहा. सबसे ज्यादा मज़ा यह बात जानकार आया कि मित्र पिटा क्यों !

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा ने कहा…

गजबे का अनुभव है हो भैया। सोचते हैं कि उ दोस्त आपका का सोच रहा हो होगा..और उनके गार्जन साब। यह गलत बात है कि बेचारे को सिगरेट के लिए मार पड़ी..। अरे स्वतंत्र रहने दीजिए सबको ..छोड़ दिजीए पतंग की डोर को..जहां तक जाए..कटेगी तो यकीन मानिए संभल जरूर जाएगी।

वैसे मजेदार रहा संस्मरण, आगे भी बढ़ाओ राजा।

सुशील छौक्कर ने कहा…

बड़ी नाइंसाफी है कि सिगरेट सुलग नहीं पाई।

बेनामी ने कहा…

Achha laga. Ghatna se jyada bebaki achhi lagi.

संदीप कुमार ने कहा…

आप सब का आभार्

Avlokan ने कहा…

bada hi rochak sansmaran hai. jis jigyasa ka jikra aapne kiya hai vasi jigyasa mere andar bhi jagti thi. yah apna anubhav sa lagta hai.

Jaya gupta ने कहा…

machis bhi nahi milee, pictur bhi gai aur maar bhi padi...
apke dost ka din to bhai bahoot he dardneeya raha , unke is dard bhare anubhv ke liye hamari tahe dil se samvedanaen...

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

बेटा तो नादान है

पर पिता क्‍यों परेशान है