कल शाम मैं अक्षरधाम मन्दिर गया था. लंबे समय से आते-जाते इस मन्दिर को देखता था और इसकी भव्यता मुझे आकर्षित करती थी लेकिन मन्दिर परिसर में जाकर जाने क्यों मुझे उस भव्यता से डर लग रहा था.
किसी परिचित प्रतीक की अनुपस्थिति में आस्था को आसरा नही मिला और उसकी भव्यता, फ़ूड कोर्ट और थिएटर मिलकर किसी धार्मिक मॉल का सा वातावरण तैयार कर रहे थे. मैं वहाँ अपने दो मित्रों के साथ गया था. हमारे बीच बहस की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी.
हम बात कर रहे थे की क्या मन्दिर की भव्यता किसी की आस्था पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है...
हम बात कर रहे थे की क्या छोटे कपडों में बड़ी आस्था समेटे ये बालाएं जिनके हाथ में पेटीस और बत्तरस्कॉच आइसक्रीम का कोने था पिकनिक पर हैं...और क्यों हमारा ध्यान मन्दिर से ज्यादा इनकी हरकतों पर है...
हम बात कर रहे थे की क्यों दूसरे सम्प्रदायों के स्थान हमें अपेक्षाकृत अधिक सम्मोहित करते हैं...
हम बात कर रहे थे की वो कैसी आस्था है जो लोगों को अपने गुरु का जूठा या उनका नहाया हुआ पानी पीने को मजबूर करती है...
खैर अक्षरधाम मुझे मेरे देखे कुछ पुराने भव्य मंदिरों का मॉल संस्करण लगा. मैं सोच रहा था की इस मन्दिर की भव्यता के पीछे कितनी कहानियां दफ़न होंगी, की आने वाली पीढियां इस मन्दिर को कैसे याद रखना चाहेंगी...व्यक्तिगत रूप से मुझे इस खर्च की कोई उपादेयता नही नजर आयी जाने क्यों वो मन्दिर मुझे भयभीत कर रहा था।
किसी परिचित प्रतीक की अनुपस्थिति में आस्था को आसरा नही मिला और उसकी भव्यता, फ़ूड कोर्ट और थिएटर मिलकर किसी धार्मिक मॉल का सा वातावरण तैयार कर रहे थे. मैं वहाँ अपने दो मित्रों के साथ गया था. हमारे बीच बहस की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी.
हम बात कर रहे थे की क्या मन्दिर की भव्यता किसी की आस्था पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है...
हम बात कर रहे थे की क्या छोटे कपडों में बड़ी आस्था समेटे ये बालाएं जिनके हाथ में पेटीस और बत्तरस्कॉच आइसक्रीम का कोने था पिकनिक पर हैं...और क्यों हमारा ध्यान मन्दिर से ज्यादा इनकी हरकतों पर है...
हम बात कर रहे थे की क्यों दूसरे सम्प्रदायों के स्थान हमें अपेक्षाकृत अधिक सम्मोहित करते हैं...
हम बात कर रहे थे की वो कैसी आस्था है जो लोगों को अपने गुरु का जूठा या उनका नहाया हुआ पानी पीने को मजबूर करती है...
खैर अक्षरधाम मुझे मेरे देखे कुछ पुराने भव्य मंदिरों का मॉल संस्करण लगा. मैं सोच रहा था की इस मन्दिर की भव्यता के पीछे कितनी कहानियां दफ़न होंगी, की आने वाली पीढियां इस मन्दिर को कैसे याद रखना चाहेंगी...व्यक्तिगत रूप से मुझे इस खर्च की कोई उपादेयता नही नजर आयी जाने क्यों वो मन्दिर मुझे भयभीत कर रहा था।
तस्वीर - साभार गूगल
6 comments:
संदीप शुक्रिया, मॉल बनते मंदिरों पर की बोर्ड चलने के लिए. लेकिन आपने ये जो कहा है न -
"मन्दिर की भव्यता के पीछे कितनी कहानियां दफ़न होंगी" इससे मैं सहमत नही हूँ. ऐसे मन्दिर खास उदेश्य से बनाये जाते हैं
मुझे तो समूचा हिन्दू धर्म ही माल के चक्कर में दिखाई पड़ता है।
मुझे समझ नही आता जब कण कण में ईश्वर हैं तो किसी भी धर्मस्थल की क्या ज़रूरत है? आप जहाँ अभी है वहीं साक्षात् ईश्वर है , हर धर्मस्थल एक दुकान है, और बड़े मन्दिर मस्जिद चर्च गुरद्वारे या सिनगोग मॉल ही हैं. मक्का, तेहरान की मस्जिदें, जामा मस्जिद, बड़े केथेड्रल, चर्च, ज्योतिर्लिंग, तिरुपति, शिर्डी वगैरह मॉल ही तो हैं.
वरना मन चंगा ते कठौती में गंगा.
मजेदार बात पकड़ी भाई संदीप। हमारा देश आधुनिकता और पुरातनपने का अजीबोगरीब घालमेल है। इस ढोंग को सामने लाया जाना चाहिए। अच्छी पोस्ट के लिए बधाई।
एकदम सही कहा है आपने, असल में यह "मॉल" ही हैं, पक्के कारपोरेट स्टाइल के पॉश और करोड़ों रुपये खर्च करके बनाये हुए… ठीक इसी प्रकार इस्कॉन के मन्दिर भी काफ़ी भव्य और संगमरमरी होते हैं, जहाँ विदेशियों की भारी भीड़ होती है… जबकि परम्परागत भारतीय हिन्दू मन्दिर कीचड़, पानी, पंचामृत(??), हार-फ़ूल-पत्तियों की कतरनों, पुजारियों, धर्मालुओं(?) आदि के द्वारा फ़ैलाई गई गन्दगी से भरपूर होते हैं… लेकिन श्रद्धा अंधी होती है, लोग यह नहीं पूछते कि जब सरकार को इन मन्दिरों से भारी आय हो रही है तो इन मन्दिरों में मूलभूत सुविधायें भी क्यों नहीं हैं? इनके ट्रस्टियों में सूदखोर महाजन, भ्रष्ट उद्योगपति और गिरे हुए नेता क्यों शामिल होते हैं… और आम आदमी 4-4 घंटे लाइन में खड़े होकर दर्शन क्यों करता है, जबकि पैसे वालों के लिये विशेष अनुमति होती है… कुल मिलाकर सब घालमेल है भाई, "धर्म" एक "विशालकाय टर्नओवर वाला" उद्योग है…
क्या बात है कितना बढिया विषय उठाया आपने चर्चा के लिए . हां यह धार्मिक व्यापार के केन्द्र है . मैं वृन्दावन गया वहा जो शान्ति बाँके बिहारी जी की शरण मे मिली वह इस्कान के मन्दिर मे नही थी जबकि इस्कान का मन्दिर जयादा भब्य है .
एक टिप्पणी भेजें