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वकील करो

वकील करो-
अपने हक के लिए लड़ो |
नहीं तो जाओ
मरो |

2

रटो, ऊँचे स्वर में,
बातें ऊँची-ऊँची
न सही दैनिक पत्रों से लेकर,
खादी के उजले मंचों से
दिन के,
तो रेस्तराओं-गोष्ठियों में ही
उन्हें सुनाते पाये जाओ,
बड़े-बड़े नेताओं के नाम
गाते पाए जाओ!

फिर
हो अगर हिम्मत तो
डटो : यानी-के चोर बाजार में
अपनी साख
जमाओ |

खिलाओ हज़ारों, तो
लाखों कमाओ!
और क्या, हाँ, फिर
सट्टे-फ़स्ट क्लास होटेल-
ठेके-या कि एलेक्शन में
पूंजी लगाओ,
और दो... ‘बड़े-बड़ों’ के बीच में बैठकर...
शान से मूँछों पर ताव!
हाँ, कानी उँगली पे अपनी गाँधी-टोपी
नचाए, नचाए, नचाए जाओ!

3

और आर्ट-
क्या है ? औरत
की जवानी के
सौ बहाने : उसके
सौ
‘फ़ॉर्म’:
जो उसपे झूमे, अदा करो
वही पार्ट :
-इसका भी एक बाज़ार है
समझे न ?

ब्यूटी मार्ट |
इसके माने:
नये से नये मरोड़
दो
रंगों को अंगों को
जिस्म-सी
फिसलती
लाइनों को
सीने में घुलते
शेडों को |

इसमें भी, खोजो तो,
गहरे से गहरे
आदिम
नशों का तोड़
है,
समझे इस कला की
फ़िलासफ़ी?
इसी शराब के
दौर चलाओ,
और ‘आगे’
और ‘आगे’
और ‘आगे’
जाओ
-जाओ !

और देश को ले जाओ
(पता नहीं कहाँ !)

समझे, मेरे
अत्याधुनिक भाई ? !

(- शमशेर बहादुर सिंह)

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२५ साल का इंतज़ार और नाटकनुमा न्याय


कभी-कभी लगता है की शहर भी अपने लोगों की तरह हमें कर्ज़दार बनाते हैं. आज भोपाल गैस त्रासदी पर अदालत का मज़ाकनुमा फैसला आने के बाद मुझे लग रहा है की भोपाल के गले से लिपट के रो लूँ. शायद उसका मन भी कुछ हल्का हो जाये. १५००० से ज्यादा मौतों और २५ साल के मानसिक संत्रास की सज़ा २ साल. वाह रे न्याय...

दोहराने की जरूरत नहीं की भोपाल गैस त्रासदी उन घटनाओं का नतीज़ा था जिन्हें किसी भी मोड़ पर थोड़ी चौकसी बरत के रोका जा सकता था. उसके लिए किसी खास उपकरण की जरूरत नहीं थी बस थोडा चौकन्ना मानव मस्तिष्क काफी होता.

२/३ दिसंबर की उस दरमियानी रात मौत सफ़ेद बादलों का रूप धर के जिंदादिल भोपाल की रगों में पैबस्त हुई. और शहर चुपचाप नींद में ही मौत की चादर ओढने लगा। युनियन कार्बाइड कारखाने से रिसी जहरीली मिथाइल आइसोसायनेट गैस के कारण हजारों लोग मारे गये अनेक लोग स्थायी रूप से विकलांग हो गये । भोपाल गैस त्रासदी पूरी दुनिया के औद्योगिक इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना मानी जाती है। उस सुबह यूनियन कार्बाइड के प्लांट नंबर ‘सी’ में हुए रिसाव से बने गैस के बादल को हवा के झोंके अपने साथ बहाकर ले जा रहे थे और लोग मौत की नींद सोते जा रहे थे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस दुर्घटना के कुछ ही घंटों के भीतर तीन हजार लोग मारे गये थे। हालांकि गैरसरकारी स्रोत मानते हैं कि ये संख्या करीब तीन गुना ज्यादा थी। मौतों का ये सिलसिला बरसों चलता रहा। इस दुर्घटना के शिकार लोगों की संख्या हजारों तक बतायी जाती है।

फैसले के बाद भोपाल गैस पीड़ितों का मामला उठाने वाले अब्दुल जब्बार ने कहा कि पहले औद्योगिक त्रासदी हुई और अब न्यायिक त्रासदी हो रही है। घटना के बारे में पहली पूर्व चेतावनी देने वाले पत्रकार राजकुमार केसवानी का कहना है की ये न्याय की दिशा में पहल कदम है। पर ये लापरवाही का मामला नहीं बल्कि जनसंहार का मामला है।
भोपाल शहर पर चौथाई सदी पहले बीते उस हादसे के निशाँ ढूँढने आप को बहुत दूर नहीं चलना पड़ता. बुजुर्गों के चेहरों पर, माओं आँखों में और नवजात बच्चों की किस्मत पर वारेन एंडरसन ने जो सियाही पोती थी वो जस की तस है.
भोपाल शहर में दो साल रहा। उसने सच्चे दोस्त दिए. कुछ ऐसे रिश्ते दिए जो आजीवन साथ रहने हैं. लेकिन माफ़ करना भोपाल हम तुम्हारे लिए वो नहीं कर पाए जो कर सकते थे... जो हमें करना चाहिए था.
(लेख में कुछ तथ्यात्मक बातें बीबीसी की वेबसाइट से साभार )

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साए में धूप

इससे पहले की आप अपनी रोजाना की जद्दो जहद को अंतिम समझ लें.इन तस्वीरों को गौर से देखिये..ये तस्वीरें मैंने पिछले साल के जाड़ों में इंदौर से ४०-४५ किमी की दूरी पर ली थीं।



यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है

चलो यहाँ चलें और उम्रभर के लिए
न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफर के लिए