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बरसात के बहाने कुछ और



अजीत कुमार

बरसात पर इतना ठहराने के बारे में मैं यही कहूँगा की सृजन भी एक यात्रा ही तो है जिसका प्रस्थान विंदु किसी कलाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व की एक बानगी दे ही जाता है। बतौर गीतकार बरसात भी शैलेंद्र की पहली फिल्म थी इसलिए बात से बात निकलकर आ रही है। अगर आज आप जाकर बरसात फिल्म देखेंगे तो शायद आप यह भी कह सकते हैं कि यह तो महज एक घिसी पिटी नाटकीय प्रेमकथा है। गीत को लेकर भी शायद कुछ ऐसा ही सुनने को मिल सकता है। लेकिन जिस समय फिल्म प्रदर्शित हुई, उस समय उसे घिसा पिटा नहीं कहा जा सकता था। ठीक इसी तरह फिल्म के गीतों में भी पटकथा के अनुरूप ही घिसे पिटे मुहावरों से अलग एक नयेपन का अहसास था।
फिल्म बरसात से पहले देश में ज्यादातर माइथोलोजिकल और ऐतिहासिक फिल्मों का ही प्रचलन था। हालांकि सोहराब मोदी, विजय भट्ट और कुछेक निर्माता निर्देशक इस तरह की फ़िल्में 60 की दहाईं में भी बनाते रहे। बरसात से पहले महबूब खान की औरत, व्ही शांताराम की पडोसी और डाक्टर कोटनिस की अमर कहानी के अलावे कोई भी ऐसी फिल्म नहीं थी जो पारसी थियेटर की लीक से हटकर हो। हालांकि इन फिल्मों के गीत और संगीत पर भी कमोबेश पारसी थियेटर का ही रंग हावी था। कहें तो 40 और 50 की दहाईं की अधिकतर फिल्मों मे मैलोड्रामा के सिवा कुछ भी नहीं था।
हालांकि राजकपूर की फिल्म बरसात भी पूरी तरह से मैलोड्रामैटिक थी लेकिन पारसी थियेटर के मैलोड्रामैटिक रंग से दूर युवा प्रेम को लकर यह एक अलग तरह के मैलोड्रामा की शुरुआत थी। पटकथा, गीत संगीत, संवाद और तकनीक को लेकर भी फिल्म बरसात में एक नयापन था। मेरे हिसाब से प्रेम के प्लैटोनिक फॉर्म को लकर राजकपूर की यह फिल्म अपने आप में एक विलक्षण प्रयोग था। युवा मन की अभिलाषा और अनुभूतियों की बेरोकटोक अभिव्यक्ति , प्लेटोनिक प्रेम और सुखांतिकी का आख्यान थी बरसात। अल्हडपन, सादगी और और आत्महंती प्रेम के सुखद अहसास को रचने में फ़िल्मी पर्दे पर राजकपूर और नरगिस की कैमिस्ट्री भी बडी कारगर रही। बाद में इसी लीक पर आधरित कई और भी फ़िल्में आई। प्रेम के इसी आख्यान को एक नए रंग में राजकपूर बोबी के रूप में 1971 में लेकर आए। जिस साल बरसात प्रदर्शित हुई उसी साल महबूब खान की फिल्म अंदाज भी प्रदर्शित हुई थी। कथानक को लेकर इस फिल्मों में भी प्रयोग थे। लेकिन यह फिल्म भी अंततः एक दुखांतिकी बनकर ही रह जाता
है। हालांकि कुछेक मायनो में यह फिल्म प्रस्थान विंदु साबित हुई। प्रेम को लेकर पारंपरिक आस्था और विश्वास के साथ साथ जीवन शैली और मूल्यों के द्वंद्व को बडी ही बारीकी से पिफल्म के कथानक में बुना गया है। हालांकि कथानक अपने द्वंद्व को लेकर सुखांतिकी के बजाए दुखांतिकी को अपनाते हुए बदलते जीवन शैली की त्रासद गाथा बनकर रह गई है। मैं कहूं तो सामाजिकी, आदर्श और परंपरा की राह से अलग प्रेम की स्वच्छंदता को कलात्मक अभिव्यक्ति हिंदी फिल्मों के इतिहास में पहली बार फिल्म अंदाज में ही मिली। भले स्वच्छंदता की राह को क्यूं न घनघोर त्रासदी की तरपफ मोड दिया गया हो। स्वतंत्रता प्राप्ति से ठीक पहले और बाद के दौर में आदर्श और परंपरा को लेकर आस्था समकालीन कला के तमाम आयामों पर हावी थी। लेकिन वैश्विक मंच पर राजनीति के साथ -साथ कला के क्षेत्र में हो रहे महत्वपूर्ण बदलावों और आंदोलनों से भारतीय कला आखिर कबतक अछूती रह सकती थी। वैयक्तिक स्वतंत्राता को लेकर आदर्श के साथ टकराव की गाथा भी वैश्विक सिनेमा खासकर इटली की सिनेमा में नवयथार्थवादी आंदोलन के तौर पर दस्तक दे चुका था। अपने यहां के सिनेकारों की भी इटली के सिने आंदोलन पर नजर थी। बाद में यानी कहें तो 50 और 60 के दशक में राजकपूर, गुरूदत्त और कमोबेश विमल राय व्यवस्था, आदर्श और रूढ परंपरा के प्रति विरोध् को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे। यहां पर एक और बात का जिक्र जरूरी है। हिंदी सिनेमा में सामजिक मूल्यों और व्यवस्था विरोध् की जो गूंज 1945 से 1960 के बीच की सिनेमा में देखने को मिला वह सिपर्फ वैश्विक सिनेमा का प्रभाव मात्रा भर नहीं था। सिनेमा की तकनीक को लेकर भले ही प्रयोगों को अपनाने की कोशिश की गई हो लेकिन कथानक को लेकर प्रयोग आखिर 1857 से 1947 तक चले स्वतंत्राता संग्राम के दौरान ही जन्मे उन व्यापक आंदोलनों और विचारधराओं का ही प्रतिपफलन था जो समाज, राजनीति, पंरपरा और आदर्श को लेकर उफपजे अंतर्विरोध् के परिणामस्वरूप उभरे थे। लेकिन हिंदी सिनेमा अपने शुरूआती दिनों खासकर चालीस और पचास के दशक में इन आंदोलनों से महरूम था। वैसे तो प्रगतिशील लेखक संघ; प्रलेसद्ध और इंडियन पीपुल्स थियेटर ; इप्टाद्ध के माघ्यम से लेखक और रंगकर्मी यर्थाथवादी और समाजवादी मूल्यों के प्रचार प्रसार में लगे हुए थे। लेकिन एक बात और मैं बेलागी से कह ही दूं कि साहित्य और रंगकर्म के क्षेत्रा में उभरे इन दोनों आंदोलनों की परिणति चरम राजनीतिक प्रतिबद्वता और विचारधरा को लेकर घनघोर रूमानियत में हुई। बावजूद इन आंदोलन को लेकर लेखन और रंगकर्म यर्थाथ और प्रगतिशील मूल्यों से दो चार हुआ, कला के इन दो आयामों के अंतः करण के आयतन का जनवादी मूल्यों को लेकर पफैलाव हुआ। चालीस और पचास के दशक में भारतीय समाज भी सामंतवाद के दौर से निकलकर किसी नए व्यवस्था या कहें तो एक नई आधुनिक को अपनाने की कोशिश में था। लेकिन हजारों बरसों से चली आ रही व्यवस्था क्या यकबारगी बदल जाती है। जबाव आएगा नहीं। एक लंबी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक प्रक्रिया के बाद ही परिवर्तन आकार लेता है और स्थायित्व को प्राप्त करता है। वर्चस्वादी मूल्यों के पोषकों और उसके विरूद्व आवाज उठाने वालों की टकराहट ही बदलाव की प्रक्रिया के दौरान विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक आंदोलनों को जन्म देती है।
स्वतंत्राता प्राप्ति के ठीक बाद के दौर में सामंतवादी व वर्चस्ववादी मूल्यों को लकर देश के अध्कितर क्षेत्रों में समाज की सोच में कोई ज्यादा बदलाव नही आया था। समाज में जाति, धर्म और भाषा को लेकर विभेद जस के तस थे। जातिप्रथा और छूआछूत सामजिक समरसता और समानता की राह में रोडे बनकर आ रहे थे। कहने का मतलब साफ कि भले ही स्वतंत्र भारत ने प्रजातंत्रा को अपना लिया था संविधन में देश के प्रत्येक नागरिकों को वैयक्तिक स्वतंत्राता देने की बात कह दी गई थी। आखिर सामंतवादी मूल्यों के रहते समतामूलक समाज की कल्पना कैसे संभव हो सकती है। और यही अंतर्विरोध् सिनेमा के पर्दे पर राजकपूर, गुरूदत्त और बिमल राय के हाथों अपनी उपस्थिति को अमरत्व प्रदान कर गए। तभी तो कहते हैं कि एक कलाकार सही मायने में समय के अंतर्विरोध् को अमरत्व प्रदान करता है।

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अंतिम इच्छा

यह कविता मैंने ३० दिसंबर २००६ को लिखी थी जिस दिन सद्दाम हुसैन को फांसी दी गयी थी

टीवी पर खबर है
की सद्दाम हुसैन को
फांसी पर लटका दिया गया

ठीक उस वक्त
जब सद्दाम को
फांसी दी जा रही थी
शांति का मसीहा जार्ज बुश
खर्राटे भर रहा था अपनी आरामगाह में
सारी दुनिया में
अमन और चैन
सुनिश्चित करने के बाद

वो डूबा हुआ था
हसीं सपनों में
जहाँ मौजूद होंगी
दजला और फरात
जलक्रीडा के अनेक साधनों में
उसकी नवीनतम पहुँच

या की वो खुद बग़दाद के बाजारों में
अपने हथियारों के साथ

संसार के सबसे शक्तिशाली
लोकतान्त्रिक राजा की ओर से
शेष विश्व को ये था
बकरीद और नववर्ष का तोहफा ...
उसकी वैश्विक चिंताओं और करुना का नमूना

जोर्ज डब्लू बुश
इस धरती का सबसे नया भगवान्
पूछ रहा है ...
हमारी अंतिम इच्छा

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फिल्म समीक्षा : थ्री इडियट्स


यह समीक्षा मेरे ब्लॉग के लिए साथी मिथिलेश ने लिखी है. वो भास्कर इंदौर में स्पोर्ट्स डेस्क पर हैं.मैंने अभी तक फिल्म देखी नहीं है जल्द ही देखूंगा.

आमिर खान और राजकुमार हीरानी की चर्चित फिल्म थ्री इडियट्स कई मायनों में लीक से हट कर है. फिल्म के केंद्र में रांचो यानी रण छोड़ दास श्यामल दास चांडड (आमिर) और उसके दो दोस्त फरहान (माधवन) व् राजू रस्तोगी (शर्मन जोशी) हैं. ये तीनों कॉलेज के दिनों के रूम पार्टनर हैं. फरहान फोटोग्राफर बनाना चाहता है जबकि उसके पिता उसे इंजिनियर बनाने पर तुले हैं. राजू के घर की माली हालत ठीक नहीं है और वो अपने पूरे परिवार की उम्मीदों का केंद्र है.

फिल्म एक शाश्वत विषय पर सवाल उठाती है की आखिर कब तक मान बाप बच्चे पर अपनी मर्जी थोपते रहेंगे. वो मौजूदा शिक्षा व्यवस्था को भी कठघरे में खड़ा करती है की किस तरह ऐसे है दबावों के चलते हजारों छात्र हर वर्ष आत्महत्या कर लेते हैं.

कॉलेज के डायरेक्टर वीरू के रूप में बोमन ईरानी ने कमाल का अभिनय किया है. लाइफ एक रेस है का फलसफा सिखाने वाले वीरू आप को हर कॉलेज में दिख जायेंगे.

फिल्म विद्यार्थियों को रट्टू तोता बनाने वाली शिक्षा का जम कर मखौल उडाती है और यह उदहारण भी देती है की रट्टू होना कई बार कितना त्रासद हो सकता है.

माधवन और शर्मन ने अच्छा काम किया है. खास तौर पर इंटरव्यू वाले सीन में शर्मन का ये कहना की बड़ी मुश्किल से ये एटीत्यूड आया है आप अपनी नौकरी रखो मुझे अपना एटीत्यूड रखने दो.

बात चाहे मुन्ना भाई एम् बी बी एस की हो या लगे रहो की हीरानी की फिल्मों में एक सन्देश होता है जो हमें सचेत करता है वो इस बार भी सफल हैं और हाँ आमिर ने ४०+ होने के बाद भी २०-२२ साल के किरदार को पूरी ऊर्जा से निभाया है

हमारे देश में कई ऐसे संस्थान हैं जो बच्चों को तोता बनाने के बजे व्यावहारिक शिक्षा देने पर जोर देते हैं इनमे भोपाल के एकलव्य और आई आई टी कानपुर के विनोद गुप्ता इस दिशा में लम्बे समय से काम कर रहे हैं उम्मीद है अब लोगों का ध्यान उन पर जाएगा.

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मुझे पता था तुम्हारा जवाब


उन दिनों

जब मैं तुम्हें टूटकर प्यार करना चाहता था

लिखता रहा प्रेम कविताएं

ऐसे में चूंकि मुझे पता था तुम्हारा जवाब,

मुझे कवितायेँ तुमसे संवाद का बेहतर जरिया लगीं

मैं बेहद खुश होता तुम्हारे जवाबों से

वह मेरी आजाद दुनिया थी

जहां किसी का दखल नहीं था

किसी का भी नहीं

मेरा दिल एक कमरा था

उस कमरे में एक ही खिड़की थी

खिड़की के बाहर तुम थीं

यूं तो कमरे में हमेशा दो लोगों के लिए पर्याप्त जगह मौजूद थी

लेकिन तुमने खिड़की पर खड़े होकर

उस पार से बतियाना ही ठीक समझा

किसी का होकर भी उसका न हो पाना

ये दर्द कोई मुझसे पूछे

ठीक अभी अभी इस उदास रात में

आसमान में कोई तारा चमका है

शायद तुम खिड़की के बाहर खिलखिलाकर हंसी हो

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आने वाले कल का आईना है अवतार

अब तक देखी गई विज्ञान फंतासी फिल्मों में मुझे जेम्स कैमरून की अवतार सबसे अधिक पसंद आई तो इसके पीछे वह कारण बिल्कुल नहीं था कि ये 2000 करोड़ खर्च करके बनाई गई तकनीकी रूप से अत्यंत सक्षम फिल्म है। ऐसा भी नहीं है कि इसने अभिनय के कोई नए प्रतिमान स्थापित किए हों। फिल्म मुझे इसलिए अच्छी लगी क्योंकि यह हमारे भविश्य की सच्ची कहानी कहती है।

क्या है कहानी


अल्फा नाम के सितारे का चक्कर लगा रहे एक ग्रह पोलिफेमस के उपग्रह पैंडोरा के जंगलों में इंसान को दिखते हैं अकूत संसाधन... बस शुरू हो जाता है, इंसान का मिशन − प्रोग्राम अवतार, जिसमें भाग लेने के लिए जेक सुली को भी चुना जाता है... जेक पुराना नौसैनिक है − चोट खाया हुआ और कमर के नीचे अपाहिज... उसे बताया जाता है कि इस मिशन के बाद वह अपने पांवों पर चल सकेगा... लेकिन मिशन आसान नहीं है, क्योंकि पैंडोरा की हवा में इंसान सांस नहीं ले सकते। इसके लिए तैयार किए जाते हैं 'अवतार' − जेनेटिकली तैयार ऐसे इंसान, जो वहां जा सकें। इस नए जिस्म के साथ पैंडोरा में चल सकेगा जेक...लेकिन दूसरी तरफ पैंडोरा के मूल वासी भी हैं − 'नै वी', जिन्होंने अपनी दुनिया को ज्यों का त्यों बनाए रखा है... वे आदिम लगते हैं, लेकिन अपनी धरती को बचाने के लिए लड़ सकते हैं। इस जंग में मालूम होता है कि 'नै वी' कई मामलों में इंसानों से आगे हैं।आगे की कहानी इसी से जुड़े रोमांचक टकराव की कहानी है, लेकिन फिल्म सिर्फ जंग पर खत्म नहीं होती। उसमें एक कहानी मोहब्बत की भी है। पैंडोरा के जंगलों में दाखिल होते जेक के सामने खतरे भी आते हैं और खूबसूरत चेहरे भी। यहीं उसे मिलती है नेयित्री... साल सन् 2154... अपनी धरती के बाहर दूर−दूर तक देख रही है इंसान की आंख। इस मोड़ पर यह विज्ञान कथा युद्ध और प्रेम के द्वंद्व रचती एक मानवीय कहानी भी हो जाती है। जेक के लिए तय करना मुश्किल है कि वह अपनी धरती का साथ दे या अपने प्रेम का।


लाख टके का सवाल यह है कि जिस तेजी से पृथ्वी के संसाधनों की लूट हो रही है क्या इस फिल्म को महज कल्पना मानकर हम इसे काफी और पोपकोर्न के साथ देखें। क्या ये सच नहीं है कि शहरों के भरपूर दोहन के बाद अब इंसान आदिवासी इलाकों उन जंगलों की ओर रुख करने लगा है जहां ये संसाधन वर्शों से संरक्षित पड़े हैं।


क्या पेंडोरा कोई दूसरा ग्रह ही है हमारे आसपास स्थित झाबुआ, अबूझमाड़ बस्तर के जंगल पेंडोरा नहीं है। क्या आपसी साहचर्य और प्रेम से भरे उनके जीवन में विकास के नाम पर भौतिक सुविधाओं और पैसे का जहर घोलने की कोषिष हम नहीं कर रहे हैं जो उनके लिए अब तक कतई गैर जरूरी बना रहा है। एक बार अवतार देखिए और इन सब मुद्दों पर सोचिए।

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एक अजनबी शहर में मर जाने का ख्याल

एक नए शहर में
जिससे अभी आप की जान पहचान भी ठीक से ना हुई हो
मर जाने का ख्याल बहुत अजीब लगता है
ये मौत किसी भी तरह हो सकती है
शायद ऐ बी रोड पर किसी गाडी के नीचे आकर
या फिर अपने कमरे में ही करेंट से
ऐसा भी हो सकता है की बीमारी से लड़ता हुआ चल बसे कोई
हो सकता है संयोग ऐसा हो की अगले कुछ दिनों तक कोई संपर्क भी ना करे
माँ के मोबाइल में बैलेंस ना हो और वो करती रहे फ़ोन का इंतज़ार
दूर देश में बैठी प्रेमिका / पत्नी मशरूफ हो किसी जरूरी काम में
या फिर वो फ़ोन और मेसेज करे और उसे जवाब ही ना मिले
दफ्तर में अचानक लोगों को ख़याल आयेगा की उनके बीच
एक आदमी कम है इन दिनों
ऐसा भी हो सकता है की लोग आपको ढूंढना चाहें
लेकिन उनके पास आपका पता ही ना हो ....

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डाक्टर कलाम से एक मुलाकात


शुक्रवार को डाक्टर एपीजे अब्दुल कलाम से मुलाकात करने का अवसर मिला अपने अखबार की ओर से। वे आईआईएम इंदौर के दो दिन के दौरे पर यहां आए हुए हैं। हालांकि पहले दिन मीडिया को औपचारिक निमंत्रण नहीं था लेकिन हम घुसपैठ करने में कामयाब रहे। डाक्टर कलाम ने बच्चों से आग्रह किया कि देश के ग्रामीण इलाकों के विकास में सक्रिय योगदान दें।

जब हम पहुंचे डाक्टर कलाम बच्चों को पुरा प्रोजेक्ट के बारे में अपनी सोच बता रहे थे। इससे पहले मैंने इस प्रोजेक्ट के बारे में सुना नहीं था। इसका पूरा रूप है- प्रोवीजन आफ अर्बन अमिनिटीज इन रूरल एरियाज। अर्थात ग्रामीण इलाकों में शहरी सुविधाएं। उन्होंने बताया कि निजी सार्वजनिक भागीदारी पर आयोजित यह योजना कुछ स्थानों पर सफलतापूर्वक चल रही है। जिसमें 20-30 गांवों के एक समूह को चिह्नित कर उसे एक स्वावलंबी टाउनशिप के रूप में विकसित किया जाता है। इस पुरा में नालेज सेंटर, एग्री क्लीनिक्स, टेली एजुकेशन , टेली मेडिसिन, वाटर प्लांट कोल्ड स्टोर आदि की समुचित व्यवस्था के साथ साथ लोगों को स्किल्ड वर्कर के रूप में ट्रेंड भी किया जाता है।

उन्होंने आईआईएम इंदौर से आग्रह किया कि पुरा को वह पाठ्यक्रम में शामिल करे। इतना ही नहीं उन्होंने कहा कि देवास और झाबुआ जैसे नजदीकी इलाकों में ऐसे पुरा स्थापित कर उनका प्रबंधन आईआईएम के बच्चों को सौंपा जाना चाहिए;

डाक्टर कलाम ने हालांकि पुरा परियोजना को पॉवर प्वाइंट की मदद से काफी बेहतर ढंग से समझाया लेकिन फिर भी कुछ सवाल अनुत्तरित रह गए। मसलन,

यदि पुरा में पंचायती संस्थाओं की क्या भूमिका होगी ?

क्या वे निजी क्षेत्र के साथ मिलकर काम करेंगी ?

उनके अधिकारों का बंटवारा किस तरह होगा ? आदि आदि।

इसके अलावा मेरे मन में यह सवाल भी उठा कि आखिर निजी क्षेत्र को सुदूर ग्रामीण इलाकों में ऐसे धर्माथ दिख रहे काम में क्या रुचि होगी? अगर वह इसमें रुचि लेता है तो क्या यह भू माफिया को परोक्ष समर्थन और बढ़ावा नहीं होगा?

डाक्टर कलाम के साथ पुरा परियोजना पर काम कर रहे आईआईएम अहमदाबाद के पासआउट सृजन पाल सिंह भी थे। ये वही सृजन हैं जो कुछ अरसा पहले सक्रिय राजनीति में आने की इच्छा जता कर सुर्खियों में आए थे। उन्होंने लंबे चैड़े पैकेज के बजाय कलाम के साथ कुछ सार्थक काम करने को तरजीह दी है।

रोचक - चाय के दौरान मुझे कलाम साहब से बातचीत का मौका मिला। मैंने उनसे पूछा कि आमतौर पर उनके लेक्चर आईआईएम और आईआईटी जैसे बड़े संस्थानों में ही क्यों होते हैं क्यों नहीं वे छोटी जगहों के सरकारी स्कूल कालेजों में जाते? इसपर कलाम साहब का जवाब काफी मजेदार था। उन्होंने जोर देकर कहा कि वे छोटे कालेजों में भी जाते हैं। उन्होंने कुछ छोटे कालेजों के नाम गिनाए जिनमें मैं सिर्फ सेंट जेवियर कालेज का नाम ही ध्यान रख पाया। बाकी नाम चूंकि मैंने सुने नहीं थे कभी इसलिए वे मेरी स्मृति से निकल गए।

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बिहार यात्रा वृत्तांत






अजीत सर की शादी में अरसा बाद बिहार जाना हुआ. गया नालंदा, नवादा इन जगहों पर खूब घूमे. पहले के मुकाबले जबरदस्त ढंग से बदली है बिहार की तस्वीर. गया से हसुआ तक का ४५ किमी का सफ़र बस से महज १ घंटे में तय हो गया वो भी जगह जगह रुकते हुए. क्या शानदार रोड थी एकदम चिक्कन. गाडी सरपट भाग रही थी.

सर की शादी २ तारीख को थी खूब डांस वांस किये हम लोग. रात में देर तक जग कर पूरब की शादी देखी. वहां से महावीर स्वामी का अंतिम संस्कार स्थल पावापुरी एकदम पैदल दूरी पर था सो सुबह सात बजे जा पहुंचे वहां. जलमहल में महावीर के पद चिन्हों के दर्शन किये और ढेर सारे मंदिरों का भ्रमण किया.

करीब १२ बजे बारात लौटी और २ बजे एक बार फिर सर को साथ लेकर हम लोग राजगीर-नालंदा की ओर कूच कर गए. राजगीर के गरम कुण्ड को लेकर मन में तरह तरह की जिज्ञासाएं थीं की आखिर वहां पानी गरम कैसे रहता है? गोलमोल पहाडी रास्तों से गुजरते हम राजगीर पहुँच तो गए लेकिन गर्म कुण्ड का गन्दला पानी देख कर मन घिन्ना गया सो नहाने का प्लान आम सहमती से रद्द कर दिया गया. राजगीर में हमने खाना भी खाया. उसकी गजब व्यवस्था थी. वहां ढेर सारे परिवार चूल्हा और बर्तन उपलब्ध कराते हैं आप अपना राशन लेकर जाइये जो मर्जी पका कर खाइए. उन्हें बस चूल्हे और बर्तन का किराया दे दीजिये.

कुण्ड की ओर जाते हुए एक अजीब बात देखी. वहां एक तख्ती पर लिखा था माननीय पटना उच्च न्यायलय के आदेश से कुण्ड में मुस्लिमों का प्रवेश वर्जित है. तमाम कोशिशों के बावजूद मैं इस बारे में ज्यादा मालूमात हासिल हीं कर सका.

अगला पड़ाव था नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष. शाम करीब ४ बजे हम वहां पहुंचे लेकिन तब तक कुछ साथियों की हिम्मत पर नींद और रात की थकन हावी हो चुकी थी सो उन्होंने गाडी में आराम करने का फैसला किया और हम ३-४ लोग जा पहुंचे नालंदा विवि के खंडहरों के स्वप्नलोक में. मन में बौध कालीन ज्ञान विज्ञानं के विकास की स्मृतियाँ कौंधने लगीं. हमने उसे जी भर के निरखा. विवि की १५०० पुरानी बसावट की व्यवस्था- कमरे, स्नानागार, भोजन कक्ष और विहार आदि को देख कर अपने शहरों की अनियोजित बनावट का ध्यान आ गया. लगा की हम विकास क्रम के कुछ मूल्यों में पीछे तो नहीं जा रहे हैं.

नालंदा विवि के बारे में सुन रखा था की आतताइयों के आग लगाने के बाद वहां रखी पुस्तकें ६ महीने तक जलती रही थीं. वहां १०००० से अधिक देशी विदेशी छात्र शिक्षा लेते थे जिन्हें प्रारंभिक प्रवेश परीक्षा में द्वारपाल के प्रश्नों का जवाब देना पड़ता था. आँखें वहां आये पर्यटकों में व्हेनसांग और फाहियान को ढूँढने लगीं.

स्थानीय साथियों ने बताया की सुनसान रास्ता है और ज्यादा देर करना ठीक नहीं. इस तरह समय के अभाव में हम वापस लौट आये.

गूगल और अपने मोबाइल की मदद से ली गयी तस्वीरें लगा रहा हूँ दोस्त डिजिटल कैमरे से ली गयी तस्वीरें जैसे ही मेल करेगा ढेर सारी आप की नजर करूँगा ..... --