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धोबी घाट... मुंबई डायरीज, एक जल्दबाज समीक्षा


आमिर खान प्रोडक्शन की फिल्म धोबी घाट... मुंबई डायरीज के बारे में हर कोई कह रहा है कि यह चार पात्रों अरुण, मुन्ना शाई और यास्मीन की कहानी है। हालांकि मेरे देखे इस फिल्म में एक और पात्र है जो इन चारों के साथ-साथ हर जगह मौजूद है। वह है मुंबई शहर। मुंबई के बारे में मेरी जानकारी पूरी तरह फिल्मों पर आधारित है। मैं या तो उसकी कल्पना बॉलीवुड के ठिकाने के तौर पर कर पाता हूं या फिर अंडरवल्र्ड के भाई लोगों को अपनी याददाश्त में पैदा करके मैं मुंबई का चित्र अपनी आंखों में उतार पाता हूं। बहरहाल,धोबी घाट फिल्म में मुंबई बतौर एक जिंदा शख्स कहानी के साथ-साथ हर मोड़ पर चलती है। यह एक दूसरा मुंबई है या कहें यह हर वो शहर है जो हम अपने-अपने बलिया, रीवा, भोपाल या बनारस से अपने साथ लेकर किसी भी दूसरे महानगर में जाते हैं। कई दफा वह महानगर के महासागर में मिल जाता है तो कई बार वह हमारे पास ही रह जाता है।
यास्मीन और अरुण - धोबीघाट की शुरुआत होती है यास्मीन नामक उस लड़की की आवाज से जो अपने बेजार पति की गैरमौजूदगी को दूर करने के लिए वीडियो कैमरे के जरिए अपने छोटे भाई से बातें करती है। वह मुंबई और अपने आस पड़ोस के साथ-साथ छोटे भाई से अपनी बातचीत को डिजिटल चिठ्ठïी के रूप में कैसेट में उतारती है लेकिन वह उन्हें कभी कहीं भेज नहीं पाती और आखिरकार वे चिठ्ठिïयां उस कमरे के नए किराए दर अरुण पेंटर (आमिर खान) के हाथ लगती हैं। वह इन वीडियोज को देखता है और यास्मीन के अनुभवों पर एक शानदार पेंटिंग तैयार करता है और इस तरह यास्मीन का मजबूरी भरा एकांत, अरुण के स्वैच्छिक एकांत से मिलकर एक बिकाऊ कला में तब्दील होता है।

शाई- अमेरिका से आई इन्वेस्टमेंट बैंकर और शौकिया फोटोग्राफर शाई जिसके लिए शारीरिक अंतरंगता कोई बोझ नहीं है, वह अरुण के साथ एक रात के संबंध के बाद अपने धोबी मुन्ना (प्रतीक) के जरिए उसकी तलाश करती है। एक रात की बातचीत में और संसर्ग के बाद अल्ल सुबह अरुण द्वारा स्पष्टï सीमा रेखा खींचे जाने के बाद भी वह अरुण के प्रति दीवानी नहीं तो भी जबरदस्त तरीके से आकर्षित जरूर है। इस काम में उसकी मदद करता है मुन्ना धोबी। शाई के खुले व्यवहार से खुद मुन्ना भी उसकी ओर आकर्षित जरूर है लेकिन वह अपनी सीमाएं शराब के नशे में भी पहचानता है। उसके लिए तो मानो शाई का एक बार गले लगा लेना ही काफी है और वह मोम की तरह पिघल जाता है क्योंकि इससे ज्यादा तो वह बेचारा खुद भी सोच नहीं सकता।
मुन्ना- किसी भी किशोर की तरह मुन्ना की अपनी आकांक्षाएं हैं। उसकी खोली की दीवार पर चिपकी सलमान खान की तस्वीर और बॉडी बिल्डिंग का उसका शौक यह बताता है कि वह एक्टर बनना चाहता है। शाई उसके लिए पोर्टफोलियो तैयार करती है जिसके बदले वह उसके लिए अरुण से बार बार मुलाकात या उसकी तलाश का जरिया बनता है। हालांकि एक रात शाई द्वारा मुंबई की सड़कों पर चूहे मारते देख लिए जाने के बाद मुन्ना उससे बचने की भरपूर कोशिश करता है।
गैलरी क्यूरेटर वत्सला का अरुण के घर आकर उससे अंतरंग होने की कोशिश करना और असफल होने पर यह कहना कि आज मूड नहीं है क्या? यह साफ करता है कि तलाकशुदा अरुण (जिसकी पत्नी बेटे के साथ आस्ट्रेलिया में रहती है) यौन संबंधों को लेकर किसी शुचिता में यकीन नहीं करता लेकिन जैसा कि वह शाई से कह चुका होता है। वह किसी कमिटमेंट से बचना चाहता है। वह उपभोग में यकीन करता है लेकिन जिम्मेदारियों में नहीं। वही अरुण यास्मीन की आत्महत्या की कल्पना करके रोता भी है हालांकि आखिर वह यास्मीन भी उसके लिए एक बिकाऊ पेंटिंग ही है।
शाई की घरेलू मेड जो खुद संभवत: कन्वर्टेड क्रिश्चियन है वह उसे मुन्ना से दूर रहने की सलाह देती है। एक बहुत ही हास्यास्पद दृश्य में वह मुन्ना के लिए कांच के गिलास जबकि शाई के लिए कप में चाय लेकर आती है। ये छोटे-छोटे दृश्य बहुत कुछ कह जाते हैं।
फिल्म देखते हुए कुछ पर्सनल सवाल भी तारी हुए। मसलन, क्या यास्मीन का दूसरी औरत वाला दृश्य फिल्माने के दौरान किरण राव और आमिर खान के मन में एक पल के लिए आमिर की पहली पत्नी रीना की याद नहीं आई होगी?ï किरण ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्होंने आमिर से शादी की क्योंकि वह दूसरी गर्लफ्रैंड का दर्जा नहीं चाहती थीं...विडंबना

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लाल चौक दंतेवाड़ा और तिरंगा झंडा

मुझे नहीं पता इस तथ्य में कितनी सच्चाई है लेकिन अगर यह सच है तो फिर इस पर बात की जानी चाहिए। श्रीनगर के लाल चौक पर जाकर तिरंगा फहराने के लिए जिन लोगों का जी हुड़क रहा है। उनके मातृ संगठन राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ का मुख्यालय भारत देश के महाराष्टï्र राज्य के नागपुर शहर में स्थित है। प्राप्त जानकारी के मुताबिक उस मुख्यालय पर आज तक एक दफा भी राष्टï्रीय स्वाभिमान का द्योतक तिरंगा झंडा नहीं फहराया गया है। तो भई क्योंन सुधार का यह कार्य अपने घर से ही शुरू किया जाए। छावनी बन चुके जम्मू कश्मीर के किसी भी हिस्से में तिरंगा फहरा देने भर से अगर उसे भारत का अभिन्न अंग साबित किया जाना सुनिश्चित होता है तो फिर क्यों नहीं वे पाक अधिकृत कश्मीर का रुख करते? क्यों नहीं वे दंतेवाड़ा का रुख करते, क्यों नहीं वे पूर्वोत्तर के किसी राज्य का रुख करते, क्यों नहीं वे इरोम शर्मिला चानू के पक्ष में दो शब्द बोलते? क्या महज इसलिए क्योंकि इन इलाकों में से कोई भी मुस्लिम बहुल नहीं है???
दरअसल भाजपा की इस खतरनाक कोशिश के लिए तमाशा या शरारत जैसे शब्द बहुत मासूम पड़ जाते हैं। यह जाहिर तौर पर मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में सांप्रदायिकता का जहर घोलने की बदनीयत ही है जो उसे ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रही है। हर पांचवे साल चुनाव के ऐन पहले मंदिर का बुखार जिस पार्टी को पकड़ लेता हो उसकी इन हरकतों के मंसूबे भला क्या छिपेंगे? इस दुस्साहसी आडंबर का अगर कोई परिणाम होगा भी तो वह निश्चित तौर पर देश की एकता अखंडता के लिए और कश्मीरी अवाम के लिए दुखद ही होगा।

धूमिल याद आते हैं ''क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है, जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई और मतलब भी होता है?
निश्चित तौर पर इनकी आजादी के मायने एकदम जुदा हैं।

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रायपुर वाले भाई साहब और बिनायक सेन की जाति

डा बिनायक सेन की जाति क्या है? यह कमाल का सवाल पता नहीं अब तक कितने लोगों के जेहन में आया है। बहरहाल, मेरा साबका इस सवाल से आज सुबह पड़ा। मेरी बुआ के बेटे जो कभी आरएसएस के एकनिष्ठ प्रचारक हुआ करते थे। भारत वर्ष के अटलकाल में उन्हें इस निष्ठा का फल मिला। अब उनके पास एक गैस एजेंसी के साथ एक पत्नी व एक संतान भी है। खैर, उनकी तरक्की? पर बात फिर कभी सही अभी कुछ दूसरी बात।

आज सुबह सुबह भाई साहब का फोन आया। "दिल्ली आया हुआ हूं। अक्षरधाम मंदिर से निकला हूं। तुम्हारे घर कैसे आना है बतावो।" हमने हड़बड़ी में कह दिया कि मंगलम के आगे प्रेस अपार्टमेंट आ जावो वहीं मिलता हूं। मैं अभी निकल ही रहा था कि दोबार फोन आ गया। मैं समझ गया कि वो आ चुके हैं। उनकी कार का मुंह प्रेस अपार्टमेंट की तरफ था। मैं उन्हें निराश करता हुआ सामने विनोद नगर की सर्वहारा कालोनी से प्रकट हुआ। खेद सहित उनको सूचित किया कि कार विनोद नगर की तंग गलियों में नहीं जा पाएगी। कुछ अपसेट से दिखते भाई साहब पैदल मेरे साथ घर आए।
अम्मा बाबूजी को दंड प्रणाम करने के बाद उनने हमसे सवाल दागा? क्योंजी "तुम्हारे" बिनायक सेन की जाति क्या है? हमने भी कह दिया आप रायपुर में रहते हो "अपने" पुलिसिया हाकिमों से पूछ लो? ये जवाब उनके रिसीविंग प्रोग्राम में फीड नहीं था यानी अनएक्सपेक्टेड था। मामला संभालते हुए उन्होंने कहा नहीं उसकी बीबी के नाम से लगता है कि वह क्रिस्तान है...
मैं उनकी इस अदा पर मर मिटा लेकिन आगे कुछ कहने का मौका नहीं दिया उन्होंने, तुरत मेरी किताबों की आलमारी से लेनिन की "इंपीरियलिज्म द हाइएस्ट स्टेट आफ कैपिटलिज्म" निकाली। उसे पलटा गहरी आंखों से मेरा जायजा लिया। बाबूजी के पास गए। कुछ देर फुसफुस करने के बाद बोले अपने बियाव करले, बाबू बियाव।
मैं अभी लेनिन की किताब से अपने ब्याह का कनेक्शन जोड़ ही रहा था कि वे पास आ गए। देख बाबू तू अभी बच्चा!! है। हमने भी संगठन में काम किया है लेकिन अंत में यही समझे कि मां बाप की मर्जी से ही जीवन का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
मैंने उनके बियाव लेक्चर को उतनी ही तवज्जो दी जितनी देनी चाहिए थी। दो घंटे की संक्षिप्त यात्रा में उनने क्यूबा से लेकर वेनेजुएला तक व सलवा जुडुम से लेकर मनमोहनामिक्स तक मेरा ज्ञान बढ़ाया। अभी वे गोंडवाना एक्सप्रेस में होंगे... मैंने पक्का किया है कि उनके रायपुर पहुंचते ही उनसे बिनायक सेन की जाति!!!! पूछूंगा पक्का।