क्या कहना चाहते हैं टाटा

समें कोई शक नहीं कि रतन टाटा देश के सबसे प्रतिष्ठिïत उद्योगपतियों में से एक हैं। ऐसे में जब वह कहते हैं कि एक निजी विमानन कंपनी को सरकारी स्वीकृति दिलाने के लिए उन्हें एक केंद्रीय मंत्री को 15 करोड़ रुपये बतौर घूस देने की सलाह दी गई थी तो जाहिर है कि इससे जुड़ा हर व्यक्ति बात को गंभीरता से लेगा। यह कोई हल्की टिप्पणी नहीं है।
बहरहाल दुखद पहलू यह है कि मीडिया के कुछ हलकों में चर्चा है कि यह भ्रष्टाचार को उजागर करने का मामला है, मगर ऐसा कतई नहीं है। अगर टाटा ने उस मंत्री का नाम लिया होता और उस मांग को उसी समय सार्वजनिक कर दिया होता तो जरूर ऐसा माना जा सकता था। टाटा अब भी वैसा कुछ नहीं कर रहे हैं, उनकी कही बात को महज शिकायत के तौर पर लिया जा सकता है जिसके जरिए वह अपना नैतिक स्तर ऊंचा बनाए रखना चाहते हैं।
अगर टाटा संबंधित मंत्री का नाम लेते तो उन्हें इसका श्रेय मिलता और उन छोटे कारोबारियों तथा आम नागरिकों का नैतिक साहस बढ़ता जो रोज ऐसी परिस्थितियों से दो चार होते हैं। मौजूदा सरकार के एक मंत्री से भी टाटा को शिकायत है लेकिन उन्होंने यहां भी उसे सार्वजनिक नहीं करने का फैसला किया। अब अगर टाटा के कद के कारोबारी ऐसे लोगों पर हमला तो करना चाहते हैं मगर चोट खाने से डरते हैं तो फिर आम आदमी से क्या उम्मीद की जाए? इन दिनों अनेक उद्योगपति निजी बातचीत में सार्वजनिक जीवन के भ्रष्टाचार का जिक्र करते हैं लेकिन किसी का नाम लेने से बचते हैं। ऐसे संस्थान जो निजी तौर पर मंत्रियों द्वारा घूस मांगने की शिकायत करते हैं, किसी न किसी तरह उन्हीं मंत्रियों को सम्मानित कर गौरवान्वित महसूस करते हैं। हर घूस लेने वाले को आखिर कोई न कोई तो घूस देता ही है। वह भी समान रूप से दोषी है। आम लोगों के मामले में तो यह बात समझ में आती है कि सत्ता में बैठे लोगों से डर लगता है लेकिन कम से कम प्रभावी और ताकतवर अग्रणी कारोबारी तो बिना किसी भय अथवा पक्षपात के भ्रष्ट लोगों के खिलाफ बिगुल फूंक ही सकते हैं। अगर प्रमुख कारोबारी मिलकर यह निर्णय ले लें कि वे रिश्वत नहीं देंगे और रिश्वत मांगने वालों को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करेंगे तो शायद इसका रिश्वत लेने और देने वाले लोगों पर असर पड़ता। उदाहरण के लिए अगर टाटा समय पर संबंधित मंत्री का नाम ले लेते और उसके बाद अपनी निजी विमानन कंपनी लाते तो इससे ऐसे दूसरे मंत्रियों को रोकने में मदद मिलती जो करदाता के पैसों से दूसरों को अनुचित लाभ पहुंचाकर किसी तरह बच निकले होंगे। खामोश रहकर टाटा ने न तो कोई बहादुरी का काम किया, न ही बेहतर प्रशासन की दिशा में कोई मदद पहुंचाई। इस सप्ताह उनकी ऊपरी तौर पर की गई टिप्पणी और उसके बाद सफाइयां भी आई हैं, इससे उनका कद छोटा हुआ है।भ्रष्टाचार के हालिया खुलासों और उसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कुछ निर्णायक कदमों ने देश के लोगों में प्रशासनिक पारदर्शिता की इच्छा जगा दी है। देश के मध्यवर्ग में क्रोध की लहर चल रही है। सार्वजनिक जीवन और ऊंचे स्तर पर भ्रष्टाचार की बात उजागर होने पर और कई लोगों की गरदन नप सकती है। वक्त आ गया है कि भारतीय उद्योग जगत से जुड़े प्रमुख लोग जो बेहतर प्रशासन में यकीन रखते हैं, मुंह खोलें और सरकार में उन लोगों का हाथ मजबूत करें जो कार्रवाई तो करना चाहते हैं लेकिन उनके पास इसके लिए जरूरी सूचना नहीं होती। भ्रष्टाचार उजागर करने के मामले में श्री टाटा जैसे उद्योगपतियों को अब निर्भय होकर स्पष्ट रुख अपना लेना चाहिए।
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