
बरसात के बहाने कुछ और

अंतिम इच्छा
फिल्म समीक्षा : थ्री इडियट्स

शैलेंद्र भी थे आरके का हालमार्क (भाग -५ )

शैलेंद्र, शंकर -जयकिशन, सदा सुहागन राग भैरवी, आर के बैनर सभी अपने आप में एक कभी न खत्म होने वाली यात्रा की तरह है। फिल्म संगीत की यह यात्रा जो बरसात से शुरू हुई अनेको पडावो से गुजरने के बाद आरडी बर्मन से होते हुए एआर रहमान तक पहुंच चुकी है। गीत लेखन में शैलेंद्र की विरासत को गुलजार भी एक अलग मकाम तक पहुंचा चुके हैं। जिस समय संपूर्ण सिंह यानी गुलजार ने फिल्म बंदिनी के लिए मोरा गोरा अंग--- लिखा तब वे बिमल राय की टीम में असिस्टेंट हुआ करते थे। बकौल गुलजार शैलेंद्र उनके सबसे प्रिय गीतकार थे और उनके सानिघ्य में ही उनमें गीत लेखन का शउर आया। खैर गुलजार पर अपनी बात को मैं यहीं पर खत्म करता हूं। बाद के खंडों में मैं बिमल राय, बंदिनी, गुलजार और शैलेंद्र को लेकर अलग से लिखूंगा।
अजीत कुमार
बात फिल्म बरसात पर हो रही थी। बरसात के कुल दस गीतों में 5 राग भैरवी पर आधरित थे। ये गीत थे -बरसात में हमसे मिले तुम, मुझे किसी से प्यार हो गया,अब मेरा कौन सहारा, छोड गए बालम, मैं जिंदगी में हरदम रोता ही रहा हूं । अपनी संगीत रचनाओं में शंकर ने सही मायने में भैरवी को सदा सुहागन बनाया । ऐसा कोई रंग नहीं था जिसे शंकर जयकिशन ने भैरवी में न ढाला हो। राग को लेकर शंकर जयकिशन का यह प्रयोग अपने आप में अन्यतम था। मेरे हिसाब से पहाडी को लेकर जिस तरह का प्रयोग नौशाद के यहां देखने को मिले वैसा ही प्रयोग भैरवी को लकर शंकर जयकिशन के यहां देखने को मिलता है। फिल्म दुलारी 1949 के लिए नौशाद के संगीत निर्देशन में राग पहाडी में निबद्व रफी की गायी रचना सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगे को भला कौन भूल सकता है।
शंकर कहा करते थे मेरे लिए गीत के बोल चित्र यानी पोर्टेट हैं जबकि धुन फ्रेम । अब आप समझ सकते हो कि गीत के बोलों को लेकर राजकपूर, शंकर और जयकिशन कितने संजीदा थे। अपनी पूरी संगीत यात्रा के दौरान शैलेंद्र फ्रेम के दायरे में रहकर निराकार को आकार ही देते रहे। कहें तो शंकर जयकिशन का फ्रेम पहले तैयार करने का एक ही मकसद होता था, गीतकार के निराकार, निर्गुण को आकार देना, सगुण बनाना। एक बात और फिल्म बरसात में टाइटिल यानी शीर्षक गीत बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम के अलावा सिर्फ एक और गीत पतली कमर है तिरछी नजर है की रचना शैलेंद्र ने की थी। बाकी के गीत फिल्म के अन्य गीतकारों हसरत जयपुरी, रमेश शास्त्री और जलाल मलीहाबादी ने लिखे थे।
आपके जेहन में यह सवाल उठ सकता है कि आखिर राजकपूर ने आरके बैनर की पहली फिल्म बरसात के लिए एक ही साथ इतने गीतकारों को क्यूं रखा। जबकि उस समय सामान्यतया अनुबंध् के तहत कोई एक गीतकार ही किसी एक फिल्म की सारी रचनाओं को लिखता था। लेकिन राजकपूर के लिए बरसात अग्निपरीक्षा से कम नहीं थी. हालांकि इससे पहले भी वे आग के लिए निर्माता निर्देशक की भूमिका निभा चुके थे लेकिन अपनी पहली फिल्म के तमाम प्रयोगों से वे मुतमइन नहीं थे। उन्हें लग रहा था कि असल मे जो वह सिनेमा के पर्दे पर उतारना चाहते हैं उसके लिए उन्हें अभी तक मनमापिफक टीम नहीं मिली है। इसिलिए उन्होंने अपने प्रयोग को बरसात में भी जारी रखा। यहां मैं यह भी बताना चाहूंगा किशंकर जयकिशन राज की पहली फिल्म आग में संगीत निर्देशक राम गांगुली के साथ साजिंदे के तौर पर काम कर रहे थे। लेकिन फिल्म के प्रोडाक्शन कंटोलर इंदर राज आग के संगीत निर्माण की पूरी प्रक्रिया पर नजर जमाए हुए थे। शंकर जयकिशन की फिल्म संगीत की समझ को लेकर आखिर उन्होंने राजकपूर से उन दोनों को बतौर स्वतंत्रा संगीतकार मौका देने की सिफारिश की। अंततः राजकपूर ने भी फिल्म बरसात के लिए शंकर जयकिशन के नाम पर मुहर लगा ही दी।
बहुतों को यह नहीं मालूम कि बरसात के लिए भी शुरू में राम gangulee को ही बतौर संगीतकार रखा गया था। और कुछेक बातों पर हुए विवाद के बाद उनकी जगह पर शंकर जयकिशन को लिया गया। तो मैं था बरसात के लिए एक ही साथ कई गीतकारों के लेने के विषय पर। मेरे हिसाब से राजकपूर उन सबमें में अपने लिए श्रेष्ठ के चुनाव की प्रक्रिया में थे और चुनाव के लिए विकल्प होने जरूरी हैं। बरसात के गीत संगीत की कामयाबी के बाद राज साहब को अहसास हो गया कि गीत और संगीत को लेकर शंकर जयकिशन शैलेंद्र और हसरत परफेक्ट हैं और फिर शैलेंद्र के निधन 1966 तक ये सभी सभी साथ साथ रहे। राजकपूर का एक ही साथ अपनी फिल्मों के लिए दो गीतकारों और संगीतकारों को रखने के पीछे भी समन्वय का मंत्र काम कर रहा था।
संगीत को लेकर जहां शंकर में शास्त्रीय व कर्नाटक संगीत की गहरी समझ थी वहीं जयकिशन पाश्र्व यानी बैक ग्राउंड म्यूजिक और रूमानी गीतों की संगीत रचना में पारंगत थे। बरसात से पहले पृथ्वी थियेटर में जहां शंकर तबला बजाते थे वहीं जयकिशन हारमोनियम। दोनों ने हिंदी सिनेमा के पहले युगल संगीतकार हुसनलाल भगतराम के साथ भी काम किया। हुसनलाल भगतराम की संगीत प्रतिभा की बानगी उनके संगीत निर्देशन में फिल्म प्यार की जीत के रफी के गाए गीत इस दिल के टुकडे हजार हुए हैं।
गीत लेखन को लेकर जहां शैलेंद्र के यहां पूरब का रंग था वहीं हसरत जयपुरी के यहां पश्चिम का रंग। पूरब और पश्चिम के रंग को हिंदी और उर्दू से भी जोडकर देखा जा सकता है। ऐसे भी कहा जाता है कि शंकर की जहां शैलेंद्र से ज्यादा छनती थी, वहीं जयकिशन की हसरत जयपुरी से । बरसात के संगीत में प्रयोगों पर थोडा और ठहर रहा हूं। ताकि अगले के खंडों में यह समझने में आसानी हो कि प्रयोग की इस प्रक्रिया के साथ साथ एक गीतकार अपने आपको कैसे गढता है। बरसात से पहले आर्केस्ट्रेशन और पश्चिमी बीट्स का इस्तेमाल सिर्फ फीलर के तौर पर होता था मतलब साफ मुखडे और अंतरे के बीच खाली स्पेस को भरने के लिए होता था। लेकिन आर्केस्ट्रेशन का एक नए और विलक्षण अंदाज में बतौर प्रील्यूड, इंटरल्यूड, काउंटर मेलोडी और एपीलाग इस्तेमाल बरसात से ही शुरू होता है। प्रील्यूड का मतलब मुखडे की शुरुआत से पहले गीत की भाव भूमि बनाने के लिए प्रयुक्त संगीत, इंटरल्यूड मतलब मुखडे और अंतरे के बीच का संगीत और एपीलाग यानी गीतकी समाप्ति के लिए प्रयुक्त होने वाला संगीत का टुकडा। शंकर जयकिशन से पहले संगीतकार मुखडे और विभिन्न अंतरों के बीच सामान्यतया एक ही तरह के इंटरल्यूड का इस्तेमाल करते थे लेकिन इस युगल संगीतकार ने मुखडे और विभिन्न अंतरों के बीच अलग अलग तरह के इंटरल्यूड का प्रयोग किया। साथ ही जुगल गीतों के गायिकी के तरीके को भी प्रभावी बनाने के लिए नए प्रयोग किए।
बरसात से पहले नायक नायिका क्रमिक अंतराल पर गीत का अलग अलग हिस्सा गाते थे। सीधे कहें तो अगर नायक मुखडा गाता था तो नायिका अंतरा या पहला अंतरा अगर कोई एक गाता था तो दूसरा अंतरा कोई दूसरा। लेकिन बरसात के युगल गीत छोड गए बालम मुझे हाय अकेला छोड गए में मुखडे के साथ साथ साथ ही स्लो फेड इन में लता का आलाप भी चलता है। एक ही साथ दो अलग अलग टेंपोरेलिटीज यानी ओवरलैपिंग टेंपोरेलिटीज का इस्तेमाल शंकर जयकिशन की युगल संगीत रचनाओं का हालमार्क है।
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Sandeep
शैलेंद्र आरके की प्रयोगशाला के एक चितेरे (भाग 4)

अजीत कुमार
मेलांकली और मेलोडी का जो रंग बरसात के गीतों में उभरकर आया वह पहले हिंदी फिल्म में कभी नहीं देखा गया था। रागों को फ़िल्मी गीतों में उतारने का तरीका भी शंकर जयकिशन का नायाब था। उनके संगीत में पारंपरिक भारतीय वाद्य यंत्रो का प्रयोग भी सबसे ज्यादा देखने को मिले। कुछेक रागों को लेकर तो शंकर जयकिशन की सिद्वहस्तता इतनी थी कि राग और वे एक दूसरे के पूरक हो गए। भैरवी एक ऐसा ही राग था। सदा सुहागन इस राग में दोनों ने हिंदी सिनेमा को सर्वाधिक रचनाएं दी। एक समय तो शंकर और जयकिशन को लेकर एक अलग भैरवी यानी शंकर-जयकिशन भैरवी कहने तक का प्रचलन हो गया था।
पश्चिम की धुनों का भी शंकर जयकिशन ने अपनी फिल्मों व रचनाओं में प्रयोग किया। आखिर उनकी ईमानदार मेहनत और लगन का ही यह परिणाम था कि उनके ये प्रयोग हमेशा विलक्षण बनकर उभरे। मेलांकली और दर्द भरे गीतों को रिद्मिक बनाने की शुरुआत भी यहीं से हुई। कहें तो आरके के संगीत में मेलांकली और मेलोडी ऐसे अविकल प्रवाहित होती थी जिसका अहसास थमने के बाद ही शुरू होता था। आखिर मेलांकली की सही तस्वीर एसजे के गीतों में ही देखने को मिलती है। अव्वल तो शंकर जयकिशन के यहां जिंदगी कभी ठहरी मिलती ही नहीं। और दुख और सुख तो इसी जिंदगी के दो पहलू हैं। फिर दुख को बांध के उसे और गंदला और विगलित करने में वे विश्वास क्यूं करते। । उन्हें तो विश्वास था दुख और दर्द का बरसात की बूदों सा पवित्रा होने में। जीवनदायिनी बनाने में, सृजन का आधर रचने में। आरके बैनर की सिनेमा का भी यही मूल मन्त्र था । तभी तो व्यवस्था विरोधी और समाजवादी मूल्यों में आस्था के बावजूद आरके बैनर की फिल्मों में पलायनवाद की जगह हमेशा एक नई आशा और विश्वास देखने को मिला।
राजकपूर की फिल्मों में एक विश्वास की डोर जो कभी नहीं टूटी वह थी प्यार के सहारे जिंदगी को हसीन बनाने का व मुरझाए ओंठों पर फूल खिलाने का। बरसात के दर्दीले गीतों जैसे मैं जिंदगी में हरदम रोता ही रहा हूं, बिछडे हुए परदेशी एक बार तो आना तू , अब मेरा कौन सहारा और छोड गए बालम मुझे हाय अकेला छोड गए से पहले क्या दर्द भरे गीतों को कोई तेज धुनों पर सजाने की सोच सकता थां। कहें तो फिल्म बरसात का संगीत ही पूरी तरह से बरसात की माफिक था जिसने श्रोताओं के अहसासों को जी भर के भिंगोया और निचोडा। भौतिक व आघ्यात्मिक, दिल व दिमाग, तन व मन या कहें भारतीय व पश्चिम, गजब का संयोग और समन्वय था आरके बैनर के संगीत में। और समन्वय के बगैर एक सच्चे और संपूर्ण कलाकार की कल्पना तक नहीं की जा सकती। ठीक इसी साल महबूब खान की फिल्म अंदाज भी प्रदर्शित हुई थी। संयोग से इस फिल्म में भी राजकपूर दिलीप कुमार के साथ नरगिस के अपोजिट नायक की भूमिका में थे। फिल्म के लिए संगीत दिया था तब के सबसे ज्यादा मशहूर संगीतकार नौशाद अली ने। जब फिल्म के प्रदर्शित होने के बाद नौशाद अली ने संगीत पर निर्माता निर्देशक महबूब खान की प्रतिक्रिया मांगी तो उन्होंने बाहर हो रही बरसात की ओर इशारा करते हुए जबाव दिया लेकिन आपके गानों को तो बरसात ने धो डाला। महबूब खान की इस टिप्पणी से आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि फिल्म बरसात का संगीत उस समय कितना लोकप्रिय हुआ था। लेकिन बरसात के गीतों से शैलेंद्र के गीत लेखन की अद्वितीय प्रतिभा या उनकी प्रयोगात्मकता और गीत सौंदर्य से कोई साक्षात्कार नहीं होता। हां शैलेंद्र ने इस फिल्म के गीतों में इतनी बानगी जरूर पेश कर दी कि गीतकार के तौर पर उनका रेंज गजब का है। और वे सिचूएशन के हिसाब से जल्दी से जल्दी सार्थक गीत लिख सकते हैं ।
शैलेंद्र ने इस फिल्म के माघ्यम से यह भी जता दिया कि सिनेमा के लिए गीत लेखन बंद कमरे में कविता सृजन के बराबर नहीं है। शंकर जयकिशन ने बरसात में पहले से ही तैयार धुनों पर गीतकार से गीत लिखवाने की रिवायत भी डाली । बाद में अपनी ज्यादातर फ़िल्मी गीतों के लिए शंकर जयकिशन यही प्रयोग अमल में लाते रहे। हालांकि गीतकारों की बिरादरी को तब यह चलन बहुत नागवार गुजरा था। और वे इसे गीतकारों के उपर संगीतकारों की श्रेष्ठता से जोडकर देख रहे थे। लेकिन शैलेंद्र एक प्रोफेशनल गीतकार थे और उन्होंने माघ्यम की जरूरत को बखूबी अपनाते हुए अपना श्रेष्ठतम देने का प्रयास किया। और उसमें वे पूरी तरह से सफल भी रहे।
आरके बैनर के संगीत का जादुई अहसास सिर्फ सुरों की बाजीगरी की बिना पर नहीं था। बल्कि शब्द, संगीत और गायिकी यानी गीतकार, संगीतकार और गायक की प्रतिभाओं के एकाकार होने में था। इस बात की मिसाल तो इसी में है कि मुकेश जैसे सीमित रेंज के गायक की आवाज को भी शंकर जयकिशन ने राजकपूर को उधार देने की हिम्मत जुटाई और वे इसमें बेहद कामयाब हुए। आरके बैनर ही सही मायने में प्रयोगशाला से कम नहीं था। जिसमें संपादन, निर्देशन से लेकर गीत, संगीत और पिफल्म के अन्य तकनीकी पक्षों को लेकर भी लगातार प्रयोग किए जाते रहे। और गीत लेखन को लेकर शैलेंद्र भी कभी कम प्रयोग करते नहीं दिखे।
बरसात में हमसे मिले तुम (शैलेन्द्र भाग-३)

मुझे पता था तुम्हारा जवाब

आने वाले कल का आईना है अवतार

क्या है कहानी
अल्फा नाम के सितारे का चक्कर लगा रहे एक ग्रह पोलिफेमस के उपग्रह पैंडोरा के जंगलों में इंसान को दिखते हैं अकूत संसाधन... बस शुरू हो जाता है, इंसान का मिशन − प्रोग्राम अवतार, जिसमें भाग लेने के लिए जेक सुली को भी चुना जाता है... जेक पुराना नौसैनिक है − चोट खाया हुआ और कमर के नीचे अपाहिज... उसे बताया जाता है कि इस मिशन के बाद वह अपने पांवों पर चल सकेगा... लेकिन मिशन आसान नहीं है, क्योंकि पैंडोरा की हवा में इंसान सांस नहीं ले सकते। इसके लिए तैयार किए जाते हैं 'अवतार' − जेनेटिकली तैयार ऐसे इंसान, जो वहां जा सकें। इस नए जिस्म के साथ पैंडोरा में चल सकेगा जेक...लेकिन दूसरी तरफ पैंडोरा के मूल वासी भी हैं − 'नै वी', जिन्होंने अपनी दुनिया को ज्यों का त्यों बनाए रखा है... वे आदिम लगते हैं, लेकिन अपनी धरती को बचाने के लिए लड़ सकते हैं। इस जंग में मालूम होता है कि 'नै वी' कई मामलों में इंसानों से आगे हैं।आगे की कहानी इसी से जुड़े रोमांचक टकराव की कहानी है, लेकिन फिल्म सिर्फ जंग पर खत्म नहीं होती। उसमें एक कहानी मोहब्बत की भी है। पैंडोरा के जंगलों में दाखिल होते जेक के सामने खतरे भी आते हैं और खूबसूरत चेहरे भी। यहीं उसे मिलती है नेयित्री... साल सन् 2154... अपनी धरती के बाहर दूर−दूर तक देख रही है इंसान की आंख। इस मोड़ पर यह विज्ञान कथा युद्ध और प्रेम के द्वंद्व रचती एक मानवीय कहानी भी हो जाती है। जेक के लिए तय करना मुश्किल है कि वह अपनी धरती का साथ दे या अपने प्रेम का।
लाख टके का सवाल यह है कि जिस तेजी से पृथ्वी के संसाधनों की लूट हो रही है क्या इस फिल्म को महज कल्पना मानकर हम इसे काफी और पोपकोर्न के साथ देखें। क्या ये सच नहीं है कि शहरों के भरपूर दोहन के बाद अब इंसान आदिवासी इलाकों उन जंगलों की ओर रुख करने लगा है जहां ये संसाधन वर्शों से संरक्षित पड़े हैं।
क्या पेंडोरा कोई दूसरा ग्रह ही है हमारे आसपास स्थित झाबुआ, अबूझमाड़ बस्तर के जंगल पेंडोरा नहीं है। क्या आपसी साहचर्य और प्रेम से भरे उनके जीवन में विकास के नाम पर भौतिक सुविधाओं और पैसे का जहर घोलने की कोषिष हम नहीं कर रहे हैं जो उनके लिए अब तक कतई गैर जरूरी बना रहा है। एक बार अवतार देखिए और इन सब मुद्दों पर सोचिए।
शैलेंद्र हिंदी सिनेमा के पहले जनगीतकार (भाग २)

उठ्ठा है तूफान जमाना बदल रहा (शैलेन्द्र -भाग एक )

एक अजनबी शहर में मर जाने का ख्याल
जिससे अभी आप की जान पहचान भी ठीक से ना हुई हो
मर जाने का ख्याल बहुत अजीब लगता है
ये मौत किसी भी तरह हो सकती है
शायद ऐ बी रोड पर किसी गाडी के नीचे आकर
या फिर अपने कमरे में ही करेंट से
ऐसा भी हो सकता है की बीमारी से लड़ता हुआ चल बसे कोई
हो सकता है संयोग ऐसा हो की अगले कुछ दिनों तक कोई संपर्क भी ना करे
माँ के मोबाइल में बैलेंस ना हो और वो करती रहे फ़ोन का इंतज़ार
दूर देश में बैठी प्रेमिका / पत्नी मशरूफ हो किसी जरूरी काम में
या फिर वो फ़ोन और मेसेज करे और उसे जवाब ही ना मिले
दफ्तर में अचानक लोगों को ख़याल आयेगा की उनके बीच
एक आदमी कम है इन दिनों
ऐसा भी हो सकता है की लोग आपको ढूंढना चाहें
लेकिन उनके पास आपका पता ही ना हो ....
सजन रे झूठ मत बोलो़...

राज कपूर ने पहली बार शैलेन्द्र को एक कवि सम्मेलन में सुना था। उन्होंने अपनी फिल्मों के लिए उनके गीत मांगे, जाहिर है मस्त तबीयत शैलेन्द्र ने साफ इंकार कर दिया। दिन बीते जीवन की कड़वी हकीकतों से रूबरू होने के बाद शैलेन्द्र को जरूरत आन पड़ी वे बंबई पहुंचे राज कपूर के पास। उन्होंने उनकी फिल्म बरसात के लिए पहला गाना लिखा- बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम...।
एक और समानता जो दोनों में मिलती है वह थी जन सरोकारों की चिंता को अपनी रचनात्मकता के जरिए अभिव्यक्ति देने की। राज कपूर जहां उस समय आवारा, आग, बूट पोलिश, जागते रहो जैसे सिनेमा बना रहे थे वहीं शैलेन्द्र रमैया वस्ता वैया..., सब कुछ सीखा हमने ..., जिस देश में गंगा बहती है... जैसे गीत लिखकर निहायत ही आदर्श आम आदमी की कल्पना में जुटे हुए थे।
शैलेन्द्र का सपना तीसरी कसम
प्रख्यात लोकधर्मी कथाकार फणीष्वरनाथ रेणू की कहानी मारे गए गुलफाम पर एक फिल्म बनाना शैलेन्द्र का सपना था। राज कपूर को नायक लेकर उन्होंने इस पर फिल्म बनाई तीसरी कसम। कपूर ने दोस्ती निभाते हुए इसके लिए पारिश्रमिक लिया महज एक रुपया। विभिन्न कारणों से फिल्म का बजट बढ़ता गया और शैलेन्द्र कर्ज में डूबते गए। इसकी जिम्मेदारी काफी हद तक राज कपूर पर भी डाली जाती है। फिल्म के फ्लाप होने के सदमे ने सिनेमा के अब तक के शायद सबसे सशक्त गीतकार को हमसे छीन लिया। हालांकि उनकी मौत के बाद फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रपति स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ।
पुनश्च-तीसरी कसम फिल्म में हीरामन की बैलगाड़ी को क्या मुख्य पात्रों से अलग करके देखा जा सकता है? अभी ब्रजेश भाई का एक लेख नेट पर देखा जिसके मुताबिक वह गाड़ी अब भी पूर्णिया जिले के बरेटा गांव में रेणू की बहन के घर पर रखी हुई है। -- Sandeep
डाक्टर कलाम से एक मुलाकात
बिहार यात्रा वृत्तांत

सर की शादी २ तारीख को थी खूब डांस वांस किये हम लोग. रात में देर तक जग कर पूरब की शादी देखी. वहां से महावीर स्वामी का अंतिम संस्कार स्थल पावापुरी एकदम पैदल दूरी पर था सो सुबह सात बजे जा पहुंचे वहां. जलमहल में महावीर के पद चिन्हों के दर्शन किये और ढेर सारे मंदिरों का भ्रमण किया.

करीब १२ बजे बारात लौटी और २ बजे एक बार फिर सर को साथ लेकर हम लोग राजगीर-नालंदा की ओर कूच कर गए. राजगीर के गरम कुण्ड को लेकर मन में तरह तरह की जिज्ञासाएं थीं की आखिर वहां पानी गरम कैसे रहता है? गोलमोल पहाडी रास्तों से गुजरते हम राजगीर पहुँच तो गए लेकिन गर्म कुण्ड का गन्दला पानी देख कर मन घिन्ना गया सो नहाने का प्लान आम सहमती से रद्द कर दिया गया. राजगीर में हमने खाना भी खाया. उसकी गजब व्यवस्था थी. वहां ढेर सारे परिवार चूल्हा और बर्तन उपलब्ध कराते हैं आप अपना राशन लेकर जाइये जो मर्जी पका कर खाइए. उन्हें बस चूल्हे और बर्तन का किराया दे दीजिये.
कुण्ड की ओर जाते हुए एक अजीब बात देखी. वहां एक तख्ती पर लिखा था माननीय पटना उच्च न्यायलय के आदेश से कुण्ड में मुस्लिमों का प्रवेश वर्जित है. तमाम कोशिशों के बावजूद मैं इस बारे में ज्यादा मालूमात हासिल न

अगला पड़ाव था नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष. शाम करीब ४ बजे हम वहां पहुंचे लेकिन तब तक कुछ साथियों की हिम्मत पर नींद और रात की थकन हावी हो चुकी थी सो उन्होंने गाडी में आराम करने का फैसला किया और हम ३-४ लोग जा पहुंचे नालंदा विवि के खंडहरों के स्वप्नलोक में. मन में बौध कालीन ज्ञान विज्ञानं के विकास की स्मृतियाँ कौंधने लगीं. हमने उसे जी भर के निरखा. विवि की १५०० पुरानी बसावट की व्यवस्था- कमरे, स्नानागार, भोजन कक्ष और विहार आदि को देख कर अपने शहरों की अनियोजित बनावट का ध्यान आ गया. लगा की हम विकास क्रम के कुछ मूल्यों में पीछे तो नहीं जा रहे हैं.
नालंदा विवि के बारे में सुन रखा था की आतताइयों के आग लगाने के बाद वहां रखी पुस्तकें ६ महीने तक जलती रही थीं. वहां १०००० से अधिक देशी विदेशी छात्र शिक्षा लेते थे जिन्हें प्रारंभिक प्रवेश परीक्षा में द्वारपाल के प्रश्नों का जवाब देना पड़ता था. आँखें वहां आये पर्यटकों में व्हेनसांग और फाहियान को ढूँढने लगीं.
स्थानीय साथियों ने बताया की सुनसान रास्ता है और ज्यादा देर करना ठीक नहीं. इस तरह समय के अभाव में हम वापस लौट आये.
गूगल और अपने मोबाइल की मदद से ली गयी तस्वीरें लगा रहा हूँ दोस्त डिजिटल कैमरे से ली गयी तस्वीरें जैसे ही मेल करेगा ढेर सारी आप की नजर करूँगा ..... --