बजाँ अब दोस्ती में क्या नहीं है
तभी तो दुश्मनी करता नहीं है
बिछ्ड़कर उससे मैंने ये भी जाना
बिछड़ करके कोई मरता नहीं है
मोहब्बत जुर्म इतनी हो गयी अब
हवाओं पे कोई लिखता नहीं है
निकलकर उसके कूचे से ही जाना
सफर के वास्ते रस्ता नहीं है
दिखाओगे किसे लफ्जों में मानी
ग़ज़ल शायद कोई पढता नहीं है
तरक्की बारहा फरमा रही है
गरीबों का हुनर बिकता नहीं है
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अजीत की कलम
सज्दा करें या आपसे नजरें मिलाये हम
तुमको तुम्ही से कैसे अलग भूल जाएं हम
कोई खुदा नहीं है सरे आसमान में
दुनिया को आओ राज-ए-मोहब्बत सिखाएं हम
खेतों से उठ न पाए कोई बुत-शिकन यहाँ
मिहनत के दोनो हाथों को इतना उठाएं हम
रिश्तों कि वो ज़मीन जो बंजर ही रह गयी
उस पर जहान-ए-गम का कोई घर बसाएं हम
सूरज से सर उठा के कभी बात कर सके
चेहरे को गम की धूप में इतना जलाएँ हम
तुमको तुम्ही से कैसे अलग भूल जाएं हम
कोई खुदा नहीं है सरे आसमान में
दुनिया को आओ राज-ए-मोहब्बत सिखाएं हम
खेतों से उठ न पाए कोई बुत-शिकन यहाँ
मिहनत के दोनो हाथों को इतना उठाएं हम
रिश्तों कि वो ज़मीन जो बंजर ही रह गयी
उस पर जहान-ए-गम का कोई घर बसाएं हम
सूरज से सर उठा के कभी बात कर सके
चेहरे को गम की धूप में इतना जलाएँ हम
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अजीत की कलम
दिल की नाजुक रग टूटे तो बादल बरसे
सोंधी खुशबू यादों की शबनम को तरसे।
माजी अपना इक-इक गम सुलझा के रखे
शायर माजी इधर-उधर उलझा के रखे
जंगल-जंगल यों कोई बहलाता जाए
अपना घर अपने ही इक आँगन को तरस
चाँद तो डूबा बचपन की फुल्झरियों में
सूरज लेकिन जीवन भर सुलगा के रखे
हम जायेंगे कोई आ जाएगा पल में
वक्त यहाँ किसको बहला-फुसला के रखे
इक ही आलम तेरा मेरा कैसे कहूं
मेरे इक आलम में सारा आलम बरसे.
सोंधी खुशबू यादों की शबनम को तरसे।
माजी अपना इक-इक गम सुलझा के रखे
शायर माजी इधर-उधर उलझा के रखे
जंगल-जंगल यों कोई बहलाता जाए
अपना घर अपने ही इक आँगन को तरस
चाँद तो डूबा बचपन की फुल्झरियों में
सूरज लेकिन जीवन भर सुलगा के रखे
हम जायेंगे कोई आ जाएगा पल में
वक्त यहाँ किसको बहला-फुसला के रखे
इक ही आलम तेरा मेरा कैसे कहूं
मेरे इक आलम में सारा आलम बरसे.
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अजीत की कलम
वो मुझे नज्मगो समझती रही
मैंने चाहा उसे ग़जल की तरह
वो भी मिलना मिलाना सीख गया
अब मिलेगा नही वो कल कि तरह
आह भी कर सका न उसके लिए
वक्त के रुंधे हुए पल कि तरह
ढूंढना जब भी चाहा फुरसत में
आ लगा सामने अजल कि तरह
अब न मिलते हैं ख्वाब के रेले
धूप में झूमती फसल कि तरह .
मैंने चाहा उसे ग़जल की तरह
वो भी मिलना मिलाना सीख गया
अब मिलेगा नही वो कल कि तरह
आह भी कर सका न उसके लिए
वक्त के रुंधे हुए पल कि तरह
ढूंढना जब भी चाहा फुरसत में
आ लगा सामने अजल कि तरह
अब न मिलते हैं ख्वाब के रेले
धूप में झूमती फसल कि तरह .
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