बरसात के बहाने कुछ और



अजीत कुमार

बरसात पर इतना ठहराने के बारे में मैं यही कहूँगा की सृजन भी एक यात्रा ही तो है जिसका प्रस्थान विंदु किसी कलाकार के व्यक्तित्व और कृतित्व की एक बानगी दे ही जाता है। बतौर गीतकार बरसात भी शैलेंद्र की पहली फिल्म थी इसलिए बात से बात निकलकर आ रही है। अगर आज आप जाकर बरसात फिल्म देखेंगे तो शायद आप यह भी कह सकते हैं कि यह तो महज एक घिसी पिटी नाटकीय प्रेमकथा है। गीत को लेकर भी शायद कुछ ऐसा ही सुनने को मिल सकता है। लेकिन जिस समय फिल्म प्रदर्शित हुई, उस समय उसे घिसा पिटा नहीं कहा जा सकता था। ठीक इसी तरह फिल्म के गीतों में भी पटकथा के अनुरूप ही घिसे पिटे मुहावरों से अलग एक नयेपन का अहसास था।
फिल्म बरसात से पहले देश में ज्यादातर माइथोलोजिकल और ऐतिहासिक फिल्मों का ही प्रचलन था। हालांकि सोहराब मोदी, विजय भट्ट और कुछेक निर्माता निर्देशक इस तरह की फ़िल्में 60 की दहाईं में भी बनाते रहे। बरसात से पहले महबूब खान की औरत, व्ही शांताराम की पडोसी और डाक्टर कोटनिस की अमर कहानी के अलावे कोई भी ऐसी फिल्म नहीं थी जो पारसी थियेटर की लीक से हटकर हो। हालांकि इन फिल्मों के गीत और संगीत पर भी कमोबेश पारसी थियेटर का ही रंग हावी था। कहें तो 40 और 50 की दहाईं की अधिकतर फिल्मों मे मैलोड्रामा के सिवा कुछ भी नहीं था।
हालांकि राजकपूर की फिल्म बरसात भी पूरी तरह से मैलोड्रामैटिक थी लेकिन पारसी थियेटर के मैलोड्रामैटिक रंग से दूर युवा प्रेम को लकर यह एक अलग तरह के मैलोड्रामा की शुरुआत थी। पटकथा, गीत संगीत, संवाद और तकनीक को लेकर भी फिल्म बरसात में एक नयापन था। मेरे हिसाब से प्रेम के प्लैटोनिक फॉर्म को लकर राजकपूर की यह फिल्म अपने आप में एक विलक्षण प्रयोग था। युवा मन की अभिलाषा और अनुभूतियों की बेरोकटोक अभिव्यक्ति , प्लेटोनिक प्रेम और सुखांतिकी का आख्यान थी बरसात। अल्हडपन, सादगी और और आत्महंती प्रेम के सुखद अहसास को रचने में फ़िल्मी पर्दे पर राजकपूर और नरगिस की कैमिस्ट्री भी बडी कारगर रही। बाद में इसी लीक पर आधरित कई और भी फ़िल्में आई। प्रेम के इसी आख्यान को एक नए रंग में राजकपूर बोबी के रूप में 1971 में लेकर आए। जिस साल बरसात प्रदर्शित हुई उसी साल महबूब खान की फिल्म अंदाज भी प्रदर्शित हुई थी। कथानक को लेकर इस फिल्मों में भी प्रयोग थे। लेकिन यह फिल्म भी अंततः एक दुखांतिकी बनकर ही रह जाता
है। हालांकि कुछेक मायनो में यह फिल्म प्रस्थान विंदु साबित हुई। प्रेम को लेकर पारंपरिक आस्था और विश्वास के साथ साथ जीवन शैली और मूल्यों के द्वंद्व को बडी ही बारीकी से पिफल्म के कथानक में बुना गया है। हालांकि कथानक अपने द्वंद्व को लेकर सुखांतिकी के बजाए दुखांतिकी को अपनाते हुए बदलते जीवन शैली की त्रासद गाथा बनकर रह गई है। मैं कहूं तो सामाजिकी, आदर्श और परंपरा की राह से अलग प्रेम की स्वच्छंदता को कलात्मक अभिव्यक्ति हिंदी फिल्मों के इतिहास में पहली बार फिल्म अंदाज में ही मिली। भले स्वच्छंदता की राह को क्यूं न घनघोर त्रासदी की तरपफ मोड दिया गया हो। स्वतंत्रता प्राप्ति से ठीक पहले और बाद के दौर में आदर्श और परंपरा को लेकर आस्था समकालीन कला के तमाम आयामों पर हावी थी। लेकिन वैश्विक मंच पर राजनीति के साथ -साथ कला के क्षेत्र में हो रहे महत्वपूर्ण बदलावों और आंदोलनों से भारतीय कला आखिर कबतक अछूती रह सकती थी। वैयक्तिक स्वतंत्राता को लेकर आदर्श के साथ टकराव की गाथा भी वैश्विक सिनेमा खासकर इटली की सिनेमा में नवयथार्थवादी आंदोलन के तौर पर दस्तक दे चुका था। अपने यहां के सिनेकारों की भी इटली के सिने आंदोलन पर नजर थी। बाद में यानी कहें तो 50 और 60 के दशक में राजकपूर, गुरूदत्त और कमोबेश विमल राय व्यवस्था, आदर्श और रूढ परंपरा के प्रति विरोध् को अपनी फिल्मों का विषय बनाते रहे। यहां पर एक और बात का जिक्र जरूरी है। हिंदी सिनेमा में सामजिक मूल्यों और व्यवस्था विरोध् की जो गूंज 1945 से 1960 के बीच की सिनेमा में देखने को मिला वह सिपर्फ वैश्विक सिनेमा का प्रभाव मात्रा भर नहीं था। सिनेमा की तकनीक को लेकर भले ही प्रयोगों को अपनाने की कोशिश की गई हो लेकिन कथानक को लेकर प्रयोग आखिर 1857 से 1947 तक चले स्वतंत्राता संग्राम के दौरान ही जन्मे उन व्यापक आंदोलनों और विचारधराओं का ही प्रतिपफलन था जो समाज, राजनीति, पंरपरा और आदर्श को लेकर उफपजे अंतर्विरोध् के परिणामस्वरूप उभरे थे। लेकिन हिंदी सिनेमा अपने शुरूआती दिनों खासकर चालीस और पचास के दशक में इन आंदोलनों से महरूम था। वैसे तो प्रगतिशील लेखक संघ; प्रलेसद्ध और इंडियन पीपुल्स थियेटर ; इप्टाद्ध के माघ्यम से लेखक और रंगकर्मी यर्थाथवादी और समाजवादी मूल्यों के प्रचार प्रसार में लगे हुए थे। लेकिन एक बात और मैं बेलागी से कह ही दूं कि साहित्य और रंगकर्म के क्षेत्रा में उभरे इन दोनों आंदोलनों की परिणति चरम राजनीतिक प्रतिबद्वता और विचारधरा को लेकर घनघोर रूमानियत में हुई। बावजूद इन आंदोलन को लेकर लेखन और रंगकर्म यर्थाथ और प्रगतिशील मूल्यों से दो चार हुआ, कला के इन दो आयामों के अंतः करण के आयतन का जनवादी मूल्यों को लेकर पफैलाव हुआ। चालीस और पचास के दशक में भारतीय समाज भी सामंतवाद के दौर से निकलकर किसी नए व्यवस्था या कहें तो एक नई आधुनिक को अपनाने की कोशिश में था। लेकिन हजारों बरसों से चली आ रही व्यवस्था क्या यकबारगी बदल जाती है। जबाव आएगा नहीं। एक लंबी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक प्रक्रिया के बाद ही परिवर्तन आकार लेता है और स्थायित्व को प्राप्त करता है। वर्चस्वादी मूल्यों के पोषकों और उसके विरूद्व आवाज उठाने वालों की टकराहट ही बदलाव की प्रक्रिया के दौरान विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक आंदोलनों को जन्म देती है।
स्वतंत्राता प्राप्ति के ठीक बाद के दौर में सामंतवादी व वर्चस्ववादी मूल्यों को लकर देश के अध्कितर क्षेत्रों में समाज की सोच में कोई ज्यादा बदलाव नही आया था। समाज में जाति, धर्म और भाषा को लेकर विभेद जस के तस थे। जातिप्रथा और छूआछूत सामजिक समरसता और समानता की राह में रोडे बनकर आ रहे थे। कहने का मतलब साफ कि भले ही स्वतंत्र भारत ने प्रजातंत्रा को अपना लिया था संविधन में देश के प्रत्येक नागरिकों को वैयक्तिक स्वतंत्राता देने की बात कह दी गई थी। आखिर सामंतवादी मूल्यों के रहते समतामूलक समाज की कल्पना कैसे संभव हो सकती है। और यही अंतर्विरोध् सिनेमा के पर्दे पर राजकपूर, गुरूदत्त और बिमल राय के हाथों अपनी उपस्थिति को अमरत्व प्रदान कर गए। तभी तो कहते हैं कि एक कलाकार सही मायने में समय के अंतर्विरोध् को अमरत्व प्रदान करता है।