दुख पालने वाली लड़की



रुलाई धुलाई छोड़कर इधर थोड़ा बैठो
एक एक कर खोलो दुख की पोटली..
दिखाओ अपने छुपाए हुए जख्मों को
कितने दिनों मे ये कितने गहरे हुए

ऐ लड़की सुन रही हो!

बाहर जरा फैला दो यह सब
दुख तुम्हारे बिल्कुल भीग गए हैं
हवा में होती है एक विलक्षण खासियत
कुछ दुखों को उड़ा देती है खुद-ब-खुद

अरे सुन तो रही हो!

दिन!
दिन तो गुजरेंगे ही! दुख पालने वाली लड़की!
सुखने दो सीलन भरी ये जिंदगी
धूप की पीठ पर रोशनी की उमड़ती बाढ़ है
देखो, नाच रहा है सघन वन...

साथ में सुखी हिरन।

ऐ लड़की हंसो,
खुद को देखो गौर से, खुद को प्यार करो

-तसलीमा नसरीन
(कल अंतरराष्ट्रय महिला दिवस है।)
तस्वीर- गूगल से

3 comments:

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

आज आपका चयन मुझे कथ्य - केन्द्रित न होकर नाम - केन्द्रित लगा !

संदीप कुमार ने कहा…

अमरेंद्रजी आप अपनी बात को थोड़ा विस्तार दें तो चर्चा आगे बढ़े। इस पोस्ट पर किसी तरह की सहमति असहमति की तो बात ही नहीं है। बस एक खूबसूरत सी कविता है जिसमें एक लड़की के साथ साथ हौसला भी है कि आआे खुद को प्यार करो।

Udan Tashtari ने कहा…

आभार इस रचना को प्रस्तुत करने का.