जब जब हिंदी सिनेमा में पाश्र्व गायिकी को नई पहचान देने वाले गायकों की बात की जाएगी। मन्ना डे का नाम सबसे ऊपर होगा।
पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई..., तू प्यार का सागर है..., लागा चुनरी में
दाग..., एक चतुर नार, ऐ मेरी जोहरा जबीं...ए मेरे प्यारे वतन...सुर न सजे
क्या गाऊं मैं...ये कुछ ऐसे गीत हैं जिन्हें सुनने के बाद लगता है कि हां,
इन्हें मन्ना डे के सिवा कोई और नहीं गा सकता था। हिंदी समेत विभिन्न
भारतीय भाषाओं में ऐसे हजारों मधुर गीतों को स्वर देने वाले महान गायक
मन्ना डे का गुरुवार तड़के बेंगलूर में निधन हो गया। वह 94 वर्ष के थे।
कोलकाता के पारंपरिक बंगाली परिवार में प्रबोध चंद्र डे के रूप में
जन्मे मन्ना डे का संगीत की दुनिया से परिचय कराया उनके चाचा संगीताचार्य
कृष्ण चंद्र डे ने। उनके साथ ही मन्ना डे 1942 में मुंबई आ गए। उन्होंने
1942 में फिल्म तमन्ना के लिए मशहूर गायिक सुरैया के साथ युगल गीत गया-
'जागो आई उषा, पंछी बोले जागो।Ó
इसके साथ ही हिंदी सिने जगत के साथ उनके तकरीबन आधी सदी लंबे सफर की
शुरुआत हुई। सन 1942 से 50 तक कुछ धार्मिक फिल्मों समेत मन्ना डे ने कई
गीत गाए लेकिन उनकी प्रतिभा निखरकर सामने आई सन 1950 में आई फिल्म मशाल में
गाए गीत 'ऊपर गगन विशालÓ से। इस गीत को संगीत से सजाया था महान संगीतकार
सचिन देव बर्मन ने। हालांकि यह सफर इतना आसान भी न था। मन्ना डे के जबरदस्त
रियाज और शास्त्रीय शैली की गायिकी ने फिल्मी दुनिया में धारणा बना दी थी
कि वे राग आधारित गीतों के लिए ही उपयुक्त हैं।
फिल्म बसंत बहार के गीत 'केतकी गुलाब जूहीÓ में उन्हें देश के
आलातरीन शास्त्रीय गायकों में से एक पंडित भीमसेन जोशी से एक किस्म का
मुकाबला ही करना पड़ा। अपने सामने पंडित भीमसेन जोशी को देखकर पहले मन्ना
डे ने उसे गाने से ही इनकार कर दिया था। हालांकि बाद में बहुत समझाइश के
बाद वह गाने के लिए तैयार हुए और उसके बाद जो हुआ वो इतिहास है। वह गाना
हिंदी सिने जगत के सबसे बेजोड़ गीतों में शामिल है। उन्होंने भाषायी बंधन
तोड़ते हुए हिंदी के अलावा बांग्ला, गुजराती , मराठी, मलयालम, कन्नड और
असमी मेंं 3500 से अधिक गीत गए।
उन्होंने हरिवंश राय बच्चन के मशहूर काव्य मधुशाला को भी आवाज दी जो
अत्यंत लोकप्रिय हुआ। संगीतकार शंकर-जयकिशन की जोड़ी ने मन्ना डे की
बहुमुखी प्रतिभा को जल्द ही पहचान लिया और उस दौर में जब मुकेश को राजकपूर
की आवाज माना जाता था, मन्ना डे ने शोमैन को कई फिल्मों में अपना स्वर
दिया। इन फिल्मों में गाया उनमें आवारा, श्री 420, चोरी-चोरी और मेरा नाम
जोकर प्रमुख हैं।
मन्ना डे ने यह स्वीकार भी किया था कि संगीतकार शंकर वह पहले शख्स
थे जिन्होंने उनकी आवाज की रेंज को पहचाना और उनसे रूमानियत भरे गीत गवाए।
इसका नतीजा 'दिल का हाल सुने दिलवालाÓ, प्यार हुआ इकरार हुआ, आजा सनम, ये
रात भीगी भीगी, ऐ भाई जरा देख के चलो , कसमे वादे प्यार वफा और यारी है
ईमान मेरा Ó जैसे गीत हमें मिले।
यह संयोग ही है कि मन्ना डे ने हिंदी सिनेमा में अपना आखिरी गीत
1991 में आई फिल्म 'प्रहारÓ में गाया। गीत के बोल थे-'हमारी ही मुट्ठी में
आकाश सारा..।Ó यही वह वर्ष था जब देश में उदारीकरण की शुरुआत हुई और उसके
साथ ही शोरगुल ने तेजी से संगीत का स्थान लेना शुरू कर दिया। ऐसे में मन्ना
डे जैसे संजीदा और नजाकत वाले गायक का हाशिये पर जाना तय था।
मन्ना डे ने न केवल अपनी गायिकी के लिए सर्वश्रेष्ठï गायक का
राष्टï्रीय पुरस्कार हासिल किया बल्कि उन्हें फिल्म जगत में उनके योगदान के
लिए पद्मश्री, पद्मभूषण और दादा साहब फाल्के सम्मान से भी नवाजा गया।
उन्होंने वर्ष 1953 में केरल की रहने वाली सुलोचना कुमारन से विवाह किया
था। मन्ना डे अपनी पत्नी के बेहद करीब थे और जनवरी 2012 में उनकी मृत्यु हो
जाने के बाद से वह नितांत एकाकी जीवन जी रहे थे। मन्ना डे भले ही हमारे
बीच नहीं रहे लेकिन उनके गाए मधुर गीत उन्हें हमारी स्मृतियों में हमेशा
रखेंगे। मुहावरों को अगर केवल मुहावरा न माना जाए और उनका सचमुच कोई अर्थ
होता है तो यह कहने में कुछ भी गलत नहीं कि मन्ना डे का जाना दरअसल सिने
संगीत के एक युग का अंत है।
पहलवान से गायक बनने का सफर
कॉलेज के दिनों में राज्य स्तरीय उदीयमान पहलवान प्रबोध चंद्र डे भारत के
सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बनना चाहते थे लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंजूर था...
और वे देश के सर्वश्रेष्ठ गायक बने। मन्ना डे ने विद्यासागर कॉलेज में
पढ़ाई करते हुए गोबोर बाबू से कुश्ती का प्रशिक्षण प्राप्त किया और अखिल
बंगाल कुश्ती प्रतियोगिता के फाइनल में पहुंचे।
डे ने अपनी आत्मकथा 'मेमोरिज कम एलाइवÓ में लिखा, 'उस समय मेरी एक
ही आंकाक्षा थी फाइनल में जीत दर्ज करना और भारत का सर्वश्रेष्ठ पहलवान
बनना। पूरे बचपन और किशोरावस्था में संगीत से कन्नी काटने के बाद मेरी
इच्छा कुश्ती में चैम्पियन पहलवान बनने की थी। लेकिन युवावस्था में प्रवेश
करने और वयस्क बनने के साथ संगीत मेरे जीवन और आत्मा पर छा गया।Ó
आंखों की रोशनी कम होने के साथ कुश्ती के क्षेत्र में आगे बढऩे की
उनकी आकांक्षा प्रभावित हुई। जब उन्होंने चश्मा पहन कर कुश्ती लडऩा चाहा तब
कई दुर्घटनाओं का सामना करना पड़ा।
ऐसे ही एक कुश्ती मैच में उनका चश्मा टूट गया और कांच का एक छोटा सा
टुकड़ा आंख के नीचे धंस गया। तभी वह कुश्ती से पीछे हट गए और खेल को छोड़
दिया। उन्हें एहसास हो गया था कि उनके लिए सही अर्थो में संगीत ही है।
डे ने कहा, 'यह ज्यादा लम्बा नहीं खींचा। मुझे खेल और संगीत में से
एक को चुनना था। मैंने संगीत को चुना।Ó उनके चाचा और संगीतकार कृष्ण चंद्र
डे ने संगीत की शिक्षा और प्रशिक्षण देना शुरू किया और मन्ना डे नाम
उन्हीं का दिया हुआ है। उन्होंने मन्ना डे को 1942 में फिल्म 'तमन्नाÓ से
बॉलीवुड में प्रवेश दिलाया। मन्नाडे ने हिंदी, बांग्ला समेत कई भाषाओं में
3500 से अधिक गाने गाए। उन्हें दो बार सर्वश्रेष्ठ गायक का राष्ट्रीय
पुरस्कार, पद्मभूषण और दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया।