डॉ सेन : जरूरी सवाल उठाने की मिली सजा

बहुत खतरनाक समय है। बिनायक सेन सत्ता के दमन के ताज़ा उदाहरण नहीं बल्कि एक और उदाहरण भर रह गए हैं। क्या लिखा जाये? क्या कहा जाये? शर्म आती है यह कहते हुए की देश में लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार है। डॉ सेन का कुसूर क्या था यह अभी स्थापित होना बाकी है है और उनको हत्यारों अधमों को दी जाने वाली सज़ा सुना दी गयी है। दैनिक भास्कर में आज डॉ सेन पर एमजे अकबर और रामचंद्र गुहा के दो लेख प्रकाशित हुए हैं। उन्हें यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ - ब्लॉगर

जरूरी सवाल उठाने की मिली सजा
रामचंद्र गुहा
1991 में शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर दी गई। अब उनके साथी बिनायक सेन को आजीवन कैद का पुरस्कार दिया गया है। डॉ सेन ने जीवन में एक गोली भी नहीं दागी है। उन्हें तो यह भी नहीं पता होगा कि बंदूक थामते कैसे हैं।ती स साल पुराने अपने उस कृत्य पर मुझे आज भी खेद होता है, जब मैंने एक महान व्यक्ति को नींद से जगा दिया था। मैं नई दिल्ली में एक कांफ्रेंस में स्वयंसेवी के रूप में मौजूद था। हम छात्रों से कहा गया कि हम धनबाद के सांसद एके रॉय को बुलाकर लाएं, जो उस वक्त विट्ठलभाई पटेल हाउस स्थित अपने क्वार्टर में थे। खनन उद्योग धनबाद की अर्थव्यवस्था की बुनियाद है और इस शहर से रॉय निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीते थे। उनके चुनाव प्रचार के लिए खुद खनन श्रमिकों द्वारा राशि जुटाई गई थी। अपनी ईमानदारी के लिए पहचाने जाने वाले श्रमिक नेता रॉय ने दिल्ली के लुटियंस के किसी बंगले या साउथ एवेन्यू के शानदार फ्लैट में रहने के स्थान पर पार्लियामेंट स्ट्रीट पर स्थित इस भवन के एक कमरे में बसेरा बनाना उचित समझा था।हमने रिसेप्शन पर मिस्टर रॉय के कमरे का नंबर पूछा, लिफ्ट से ऊपर पहुंचे और उनके दरवाजे पर दस्तक दी। किसी ने जवाब नहीं दिया। हमने फिर दरवाजा खटखटाया। हमें वहां से लौट आना था और आयोजकों को कह देना था कि सांसद महोदय कमरे में नहीं हैं। लेकिन हम नौजवान थे और अपने उत्साह का प्रदर्शन करना चाहते थे। हम लगातार दरवाजा खटखटाते रहे। आखिर दरवाजा खुला। हमारे सामने खादी का कुर्ता-पायजामा पहने एक व्यक्ति खड़े थे और वे अपनी आंखें मल रहे थे। उन्होंने बड़ी शालीनता से हमारी बातें सुनीं और फिर हमें बताया कि उनके सांसद मित्र और मेजबान रॉय अभी-अभी कहीं बाहर गए हैं।जिन्हें हमने नींद से जगा दिया था, वे शंकर गुहा नियोगी थे और शायद एक लंबी ट्रेन यात्रा के बाद आराम कर रहे थे। गुहा नियोगी मूलत: बंगाल के थे। बाद में वे भिलाई चले आए और असंगठित श्रमिकों के साथ काम करने लगे। शोषण से पीड़ित श्रमिक गुहा नियोगी के नेतृत्व में एकजुट हुए और बेहतर वेतन की मांग करने लगे। गुहा नियोगी की चिंताओं का दायरा केवल आर्थिक मामलों तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने श्रमिकों के लिए अस्पताल और उनके बच्चों के लिए स्कूल खुलवाए। श्रमिकों की पत्नियों की सहायता से नशा विरोधी अभियान चलाया। गुहा नियोगी की गरिमा और उनकी प्रतिबद्धता के चलते मध्यवर्ग के कई पेशेवर उनसे जुड़े। इन्हीं में से एक थे बिनायक सेन। बिनायक सेन ने वैल्लोर विश्वविद्यालय के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज से स्वर्ण पदक प्राप्त किया था। 80 के दशक के प्रारंभ में वे छत्तीसगढ़ चले आए थे। वे तभी से छत्तीसगढ़ में हैं और उन्होंने हर पृष्ठभूमि के मरीजों की देखभाल की है। बिनायक सेन ने अपने आदर्श गुहा नियोगी की ही तरह अन्य क्षेत्रों में भी काम किया। वे आदिवासियों के सामाजिक अधिकारों के प्रति सचेत हुए, जो बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे थे और जिनके बच्चे प्राथमिक शिक्षा तक से महरूम थे।वर्ष 1991 में शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर दी गई। अब लगभग बीस सालों बाद उनके मित्र और साथी डॉ बिनायक सेन को आजीवन कैद का पुरस्कार दिया गया है। डॉ सेन ने अपने जीवन में कभी एक गोली भी नहीं दागी है। उन्हें तो शायद यह भी पता नहीं होगा कि बंदूक को थामा कैसे जाता है। उन्होंने माओवादियों की हिंसा की स्पष्ट भत्र्सना की है। उन्होंने सशस्त्र क्रांतिकारियों की गतिविधियों को ‘अमान्य और अस्थायी निदान’ भी बताया था। छत्तीसगढ़ सरकार की नजर में डॉ बिनायक सेन का कसूर यह है कि उन्होंने माओवादी विद्रोहियों को नियंत्रित करने के लिए अख्तियार किए जाने वाले भ्रष्ट और क्रूर तरीकों पर सवाल उठाने का साहस किया था। वर्ष 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा गठित की गई सतर्कता सेना ने दंतेवाड़ा, बीजापुर और बस्तर जिलों में कड़ा रुख अख्तियार किया था। नक्सलवाद से निपटने के नाम पर सेना ने घरों और कुछ मौकों पर तो पूरे गांव को फूंक दिया था। उन्होंने आदिवासी महिलाओं के साथ र्दुव्‍यवहार किया और पुरुषों को प्रताड़ना दी। नतीजा यह रहा कि हजारों आदिवासियों को अपना घरबार छोड़कर जाना पड़ा, जिनका माओवादियों से कोई ताल्लुक नहीं था।डॉ बिनायक सेन पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने सतर्कता सेना की ज्यादतियों के बारे में अवगत कराया था। डॉ सेन द्वारा लगाए गए आरोप गलत नहीं थे, क्योंकि मैंने स्वयं कुछ गणमान्यजनों (जिनमें बीजी वर्गीस, हरिवंश जैसे सम्मानीय संपादक और इंफोसिस पुरस्कार विजेता नंदिनी सुंदर भी शामिल हैं) के साथ उस क्षेत्र का दौरा किया था और सरकार के अपराधों को दर्ज किया था। डॉ सेन को एक ऐसे तंत्र द्वारा दोषी ठहराया गया है, जिसे मतिभ्रम के शिकार राजनेताओं द्वारा चंद भ्रमित पुलिस अफसरों की मदद से संचालित किया जाता है। निश्चित ही डॉ बिनायक सेन को सुनाई गई सजा को उच्चतर अदालतों में चुनौती दी जाएगी और ऐसा होना भी चाहिए। डॉ सेन की बहादुर पत्नी ने कहा है कि ‘एक तरफ जहां गैंगस्टर और घपलेबाज आजाद घूम रहे हों, वहां एक ऐसे व्यक्ति को देशद्रोही ठहराया जाना एक शर्मनाक स्थिति है, जिसने देश के गरीबों की तीस साल तक सेवा की है।’ मुझे लगता है सभी प्रबुद्ध भारतीय उनके इस मत से सहमत होंगे।

दोहरे मापदंडों वाला हमारा लोकतंत्र
एम जे अकबर

मैं बिनायक सेन के राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं, लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए। भारत दोहरे मापदंडों वाले लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है। भारत एक अजीब लोकतंत्र बनकर रह गया है, जहां बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है और डकैत खुलेआम ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते हैं। सरकारी खजाने पर डाका डालने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए भी सरकार को खासी तैयारी करनी पड़ती है। जब आखिरकार उन पर ‘धावा’ बोला जाता है, तब तक उन्हें पर्याप्त समय मिल चुका होता है कि वे तमाम सबूतों को मिटा दें। आखिर वह व्यक्ति कोई मूर्ख ही होगा, जो तीन साल पहले हुए टेलीकॉम घोटाले के सबूतों को इतनी अवधि तक अपने घर में सहेजकर रखेगा। तीन साल क्या, सबूतों को मिटाने के लिए तो छह महीने भी काफी हैं। क्योंकि इस अवधि में पैसा या तो खर्च किया जा सकता है, या उसे किसी संपत्ति में परिवर्तित किया जा सकता है या विदेशी बैंकों की आरामगाह में भेज दिया जा सकता है। राजनेताओं-उद्योगपतियों का गठजोड़ कानून से भी ऊपर है। अगर भारत का सत्ता तंत्र बिनायक सेन को कारावास में भेजने के बजाय उन्हें फांसी पर लटका देना चाहे, तो वह यह भी कर सकता है। बिनायक ने एक बुनियादी नैतिक गलती की है और वह यह कि वे गरीबों के पक्षधर हैं। हमारे आधिपत्यवादी लोकतंत्र में इस गलती के लिए कोई माफी नहीं है। सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और यकीनन रमन सिंह के लिए इस बार का क्रिसमस वास्तव में ‘मेरी क्रिसमस’ होगा। कांग्रेस और भाजपा दो ऐसे राजनीतिक दल हैं, जो फूटी आंख एक-दूसरे को नहीं सुहाते। वे तकरीबन हर मुद्दे पर एक-दूसरे से असहमत हैं। लेकिन नक्सल नीति पर वे एकमत हैं। नक्सल समस्या का हल करने का एकमात्र रास्ता यही है कि नक्सलियों के संदेशवाहकों को रास्ते से हटा दो। मीडिया इस गठजोड़ का वफादार पहरेदार है, जो उसके हितों की रक्षा इतनी मुस्तैदी से करता है कि खुद गठजोड़ के आकाओं को भी हैरानी हो। गिरफ्तारी की खबर रातोरात सुर्खियों में आ गई। प्रेस ने तथ्यों की पूरी तरह अनदेखी कर दी। हमें नहीं बताया गया कि बिनायक सेन के विरुद्ध लगभग कोई ठोस प्रमाण नहीं पाया गया था। अभियोजन ने गैर जमानती कारावास के दौरान बिनायक के दो जेलरों को पक्षविरोधी घोषित कर दिया था। सरकारी वकीलों की तरह जेलर भी सरकार की तनख्वाह पाने वाले नुमाइंदे होते हैं। लेकिन दो पुलिसवालों ने भी मुकदमे को समर्थन देने से मना कर दिया। एक ऐसा पत्र, जिस पर दस्तखत भी नहीं हुए थे और जो जाहिर तौर पर कंप्यूटर प्रिंट आउट था, न्यायिक प्रणाली के संरक्षकों के लिए इस नतीजे पर पहुंचने के लिए पर्याप्त साबित हुआ कि बिनायक सेन उस सजा के हकदार हैं, जो केवल खूंखार कातिलों को ही दी जाती है।बिनायक सेन स्कूल में मेरे सीनियर थे। वे तब भी एक विनम्र व्यक्ति थे और हमेशा बने रहे, लेकिन वे अपनी राजनीतिक धारणाओं के प्रति भी हमेशा प्रतिबद्ध रहे। मैं उनके राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं, लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए। भारत धीरे-धीरे दोहरे मापदंडों वाले एक लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है। जहां विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए हमारा कानून उदार है, वहीं वंचित तबके के लोगों के लिए यही कानून पत्थर की लकीर बन जाता है। यह विडंबनापूर्ण है कि बिनायक सेन को सुनाई गई सजा की खबर क्रिसमस की सुबह अखबारों में पहले पन्ने पर थी। हम सभी जानते हैं कि ईसा मसीह का जन्म 25 दिसंबर को नहीं हुआ था। चौथी सदी में पोप लाइबेरियस द्वारा ईसा मसीह की जन्म तिथि 25 दिसंबर घोषित की गई, क्योंकि उनके जन्म की वास्तविक तिथि स्मृतियों के दायरे से बाहर रहस्यों और चमत्कारों की धुंध में कहीं गुम गई थी। क्रिसमस एक अंतरराष्ट्रीय त्यौहार इसलिए बन गया, क्योंकि वह जीवन को अर्थवत्ता देने वाले और सामाजिक ताने-बाने को समरसतापूर्ण बनाने वाले कुछ महत्वपूर्ण मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। ये मूल्य हैं शांति और सर्वकल्याण की भावना, जिसके बिना शांति का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। सर्वकल्याण की भावना किसी धर्म-मत-संप्रदाय से बंधी हुई नहीं है। क्रिसमस की सच्ची भावना का सबसे अच्छा प्रदर्शन पहले विश्व युद्ध के दौरान कुछ ब्रिटिश और जर्मन सैनिकों ने किया था, जिन्होंने जंग के मैदान में युद्धविराम की घोषणा कर दी थी और एक साथ फुटबॉल खेलकर और शराब पीकर अपने इंसान होने का सबूत दिया था। अलबत्ता उनकी हुकूमतों ने उन्हें जंग पर लौटने का हुक्म देकर उन्हें फिर से उस बर्बरता की ओर धकेल दिया, जिसने यूरोप की सरजमीं को रक्तरंजित कर दिया था।यदि काल्पनिक सबूतों के आधार पर बिनायक सेन जैसों को दोषी ठहराया जाने लगे तो हिंदुस्तान में जेलें कम पड़ जाएंगी। ब्रिटिश राज में गांधीवादी आंदोलन के दौरान ऐसा ही एक नारा दिया गया था। यह संदर्भ सांयोगिक नहीं है, क्योंकि हमारी सरकार भी नक्सलवाद के प्रति साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक रवैया अख्तियार करने लगी है।

जूलियन असांज होने का क्या मतलब है?


चंदन के ब्लाग नई बात पर जूलियन असांज पर एक शानदार पोस्ट है, यह बात वहां फौरी प्रतिक्रिया के तौर पर लिखी थी। यहां उसे थोड़ा विस्तार देने की कोशिश है।


जूलियन पॉल असांज के बारे में बात करने का इससेबेहतर समय नहीं हो सकता। एक ऐसे समय में जबकिदेश का घोटालाकाल और देश में पत्रकारिता जगत केस्वयंभू ) नायकों का पतनकाल पूरे चरम पर है। बरसों बरस में करीने से गढ़ीगई मूर्तियों का ऐसा काला कुरूपसच सामने रहा है कि देखते उबकाई आती है। दुनिया बदलने का सपना लेकर पत्रकारिता की दुनिया में आईएक पूरी पीढ़ी मजबूरन या तो तर्जुमे को जीवन का आखिरी सच मान बैठी है या फिर पीआर एजेंसी से मिलने वालीकैब और उसके सस्ते महंगे तोहफों को जाहिर है। जूलियन असांज नामक का आदमी दरअसल तराशा हुआ ऐसाचकाचौंध आईना है जिसमें हममें से कई अपनी काली शक्लें देखने में डर रहे हैं। सारी दुनिया में गंध मचाने वालेअमेरिका केलिए मेरे पास कोई गाली नहीं है तो यह भी उतना ही सच है कि असांज के जज्बे के बारे में कुछ भीकहने के लिए भी मेरे पास शब्दों का अभाव है। अगर कुछ है तो सिर्फ सम्मान है। असांज के काम को महज खोजीपत्रकारिता या ऐसे ही किसी और सनसनीखेज शब्द में नहीं बांधा जा सकता। उन्होंने जो जीवन स्वेच्छा से चुना हैउसे हममें से अधिकांश मजबूरी में भी जीना नहीं चाहेंगे। शायद यही अंतर उन्हें असांज बनाता है। (

रही बात अमेरिका की तो मुझे नहीं लगता कि उस नामुराद देश के पास इतना धैर्य है कि वह असांज को सजासुनाने के लिए किसी प्रक्रिया की प्रतीक्षा करेगा। किसी भी दिन असांज को गोली लगने या किसी दुर्घटना में उनकीमौत की खबर सकती है और हमें इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहना होगा।लेकिन एक फर्क तो आया हैइस दरमियान। दुनिया के किसी कोने में जब भी कभी,शोषण, सच्चाई, साहस की बात होगी तो वह दरअसलजूलियन असांज की बात होगी।हमेशा की तरह एक बार फिर वही चिरपरिचित खेल चालू हो गया है झूठ के साथसच्ची लड़ाई में कथित नैतिकता को हथियार बनाकर सच को परास्त कर देने काखेल। हमें उम्मीद करनी चाहिएकि हर बार की तरह जूलियन असांज एक बार फिर विजेता होकर निकलेंगे और अगर ऐसा नहीं भी होता है तो भीसच्चाई का जो पत्थर वो फेंक चुके हैं वह समय के गर्भ में जाकर ठहरेगा और एक ऐसी पूरी पीढ़ी तैयार करेगा जोझूठ और अन्याय की आंखों में आंखें डालकर उनका प्रतिकार करेगी।

नेहा का मरना खबर नहीं है

रायपुर की 16 साल की नेहा की मौत किसी के लिए खबर नहीं है। आज के अखबारों ने उसे एक कालम जगह बख्शी है। क्योंकि नीरा राडिया, बरखा दत्त एंड कंपनी के सामने नेहा की जान की कोई कीमत नहीं। मेरी इस पोस्ट का मकसद केवल इतना है कि नेहा की मौत की जो वजह है वह शायद हमारे महानगरों में रहने वाले बहुतेरे लोगों की समझ में ही न आए लेकिन मैं चाहता हूं यह खबर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे ताकि वे तय कर पाएं कि उनके अंदर कितनी इंसानियत बाकी है। यह जान लेना बहुत जरूरी है कि नेहा ने अपनी जान क्यों दे दी।

दरअसल रायपुर में रहने वाली 16 साल की नेहा हमारे आपके घर कि किसी भी किशोरी की तरह रही होगी। जिसकी आंखों में सपने होंगे दिल में उम्मीदें लेकिन एक अंतर था। वह देश के 40 करोड़ मध्यम वर्गीय लोगों में से नहीं थी। उसका परिवार बेहद गरीब था। इतना गरीब कि उसके घर में अपना बाथरूम तक नहीं था। नतीजतन नेहा के परिवार को खुले में नहाना पड़ता था। उसके पिता का देहांत हो चुका था। घर में मां के अलावा छोटा भाई था। समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों के मुताबिक नेहा के साथ पढ़ने वाले दो छात्र उसे लगातार छेड़ा करते थे जिन्हें रोकने वाला कोई नहीं था। बहरहाल समाचार पत्रों में घटना के पीछे दिए गए एक दूसरे कारण को पढ़कर मुझे अपनी बेबसी पर बहुत गुस्सा आया। इन दोनों हरामजादों के साथ साथ पूरे मोहल्ले के मर्दों को रोज सुबह उसी समय छत की सैर का ध्यान आया करता था जिस समय नेहा खुले में नहा रही होती थी। रोज रोज की इस शर्मिंदगी की कीमत नेहा ने अपनी जान देकर चुकाई

क्या कहना चाहते हैं टाटा

समें कोई शक नहीं कि रतन टाटा देश के सबसे प्रतिष्ठिïत उद्योगपतियों में से एक हैं। ऐसे में जब वह कहते हैं कि एक निजी विमानन कंपनी को सरकारी स्वीकृति दिलाने के लिए उन्हें एक केंद्रीय मंत्री को 15 करोड़ रुपये बतौर घूस देने की सलाह दी गई थी तो जाहिर है कि इससे जुड़ा हर व्यक्ति बात को गंभीरता से लेगा। यह कोई हल्की टिप्पणी नहीं है।
बहरहाल दुखद पहलू यह है कि मीडिया के कुछ हलकों में चर्चा है कि यह भ्रष्टाचार को उजागर करने का मामला है, मगर ऐसा कतई नहीं है। अगर टाटा ने उस मंत्री का नाम लिया होता और उस मांग को उसी समय सार्वजनिक कर दिया होता तो जरूर ऐसा माना जा सकता था। टाटा अब भी वैसा कुछ नहीं कर रहे हैं, उनकी कही बात को महज शिकायत के तौर पर लिया जा सकता है जिसके जरिए वह अपना नैतिक स्तर ऊंचा बनाए रखना चाहते हैं।
अगर टाटा संबंधित मंत्री का नाम लेते तो उन्हें इसका श्रेय मिलता और उन छोटे कारोबारियों तथा आम नागरिकों का नैतिक साहस बढ़ता जो रोज ऐसी परिस्थितियों से दो चार होते हैं। मौजूदा सरकार के एक मंत्री से भी टाटा को शिकायत है लेकिन उन्होंने यहां भी उसे सार्वजनिक नहीं करने का फैसला किया। अब अगर टाटा के कद के कारोबारी ऐसे लोगों पर हमला तो करना चाहते हैं मगर चोट खाने से डरते हैं तो फिर आम आदमी से क्या उम्मीद की जाए? इन दिनों अनेक उद्योगपति निजी बातचीत में सार्वजनिक जीवन के भ्रष्टाचार का जिक्र करते हैं लेकिन किसी का नाम लेने से बचते हैं। ऐसे संस्थान जो निजी तौर पर मंत्रियों द्वारा घूस मांगने की शिकायत करते हैं, किसी न किसी तरह उन्हीं मंत्रियों को सम्मानित कर गौरवान्वित महसूस करते हैं। हर घूस लेने वाले को आखिर कोई न कोई तो घूस देता ही है। वह भी समान रूप से दोषी है। आम लोगों के मामले में तो यह बात समझ में आती है कि सत्ता में बैठे लोगों से डर लगता है लेकिन कम से कम प्रभावी और ताकतवर अग्रणी कारोबारी तो बिना किसी भय अथवा पक्षपात के भ्रष्ट लोगों के खिलाफ बिगुल फूंक ही सकते हैं। अगर प्रमुख कारोबारी मिलकर यह निर्णय ले लें कि वे रिश्वत नहीं देंगे और रिश्वत मांगने वालों को सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करेंगे तो शायद इसका रिश्वत लेने और देने वाले लोगों पर असर पड़ता। उदाहरण के लिए अगर टाटा समय पर संबंधित मंत्री का नाम ले लेते और उसके बाद अपनी निजी विमानन कंपनी लाते तो इससे ऐसे दूसरे मंत्रियों को रोकने में मदद मिलती जो करदाता के पैसों से दूसरों को अनुचित लाभ पहुंचाकर किसी तरह बच निकले होंगे। खामोश रहकर टाटा ने न तो कोई बहादुरी का काम किया, न ही बेहतर प्रशासन की दिशा में कोई मदद पहुंचाई। इस सप्ताह उनकी ऊपरी तौर पर की गई टिप्पणी और उसके बाद सफाइयां भी आई हैं, इससे उनका कद छोटा हुआ है।भ्रष्टाचार के हालिया खुलासों और उसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कुछ निर्णायक कदमों ने देश के लोगों में प्रशासनिक पारदर्शिता की इच्छा जगा दी है। देश के मध्यवर्ग में क्रोध की लहर चल रही है। सार्वजनिक जीवन और ऊंचे स्तर पर भ्रष्टाचार की बात उजागर होने पर और कई लोगों की गरदन नप सकती है। वक्त आ गया है कि भारतीय उद्योग जगत से जुड़े प्रमुख लोग जो बेहतर प्रशासन में यकीन रखते हैं, मुंह खोलें और सरकार में उन लोगों का हाथ मजबूत करें जो कार्रवाई तो करना चाहते हैं लेकिन उनके पास इसके लिए जरूरी सूचना नहीं होती। भ्रष्टाचार उजागर करने के मामले में श्री टाटा जैसे उद्योगपतियों को अब निर्भय होकर स्पष्ट रुख अपना लेना चाहिए।
संपादकीय
बिजनेस स्टैंडर्ड

धूमिल का जन्मदिन

अभी अभी एक फेसबुक मित्र ने याद दिलाया कि आज जनकवि धूमिल का जन्मदिन है। ज्यादा भूमिका बांधने की इच्छा नहीं है: पढ़िए उनकी एक कविता मोचीराम

राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।

और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।

यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।

‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो।’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।

एक जूता और है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ
…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।

मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है
सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

मारियो वर्गास लिओसा को साहित्य का नोबेल

पेरू के लेखक मारियो वर्गास लिओसा को इस साल साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है.
74 वर्षीय लिओसा उपन्यासकार, समालोचक और पत्रकार हैं.
वो लातिन अमरीका के सबसे लोकप्रिय साहित्यकारों में से एक हैं.
नोबेल समिति ने उनके साहित्यिक योगदान की जमकर तारीफ़ की है और उन्हें जन्मजात प्रतिभाशाली कहानी लेखक बताया है.
उसका कहना है कि उनका लेखन पाठकों के दिल को छू जाता है.
मारियो वर्गास लिओसा ने कहा कि उन्हें पुरस्कार का समाचार पाकर थोड़ा अचंभा हुआ क्योंकि इसके पहले भी उन्हें कई बार इसके लिए नामांकित किया गया था.
उनका कहना था कि उन्होंने सोचा कि शायद ये एक मजाक हो.
लिओसा टाइम ऑफ़ द हीरो और कंवेर्शेसन इन कैथ्रेडल जैसे रचनाओं से 1960 में दुनिया की नज़र में आए.
उन्होंने 30 से अधिक उपन्यास और लेख लिखे हैं. इसके अलावा एक स्तंभकार के रूप में भी उन्होंने वंचित तबके को स्वर देने की कोशिश की है.
एक दौरे में वो पेरू में राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल थे, लेकिन 1993 में उन्होंने स्पेन की नागरिकता ग्रहण कर ली।
(बीबीसी हिंदी से साभार)

इंटरनेट पर फैल रहा है हिंदी का संसार

अंतरजाल से हिंदी मिला रही है कदमताल। अंतरजाल यानी इंटरनेट जिसे आमतौर पर 'नेट के नाम से जाना जाता है, उसने हिंदीभाषियों को एक बेहतरीन तोहफा भेंट किया है। इंटरनेट ने दुनिया भर की कई भाषाओं को समृद्घ किया है और हिंदी भी इसी प्लेटफॉर्म पर सवार होकर विकास की नई रफ्तार पकड़ रही है। जो लोग गला-फाड़ अंदाज में हिंदी के खात्मे की बात करते हैं, इंटरनेट पर हिंदी के प्रसार ने उनकी जुबान बंद करने में मदद की है।

एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक हिंदी बहुत जल्द इंटरनेट पर अंग्रेजी और चीनी (मंदारिन) भाषा के बाद सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली भाषा बन जाएगी। इसके तेज विकास का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अभी तक यह इंटरनेट पर इस्तेमाल की जाने वाली शीर्ष 10 भाषाओं में भी नहीं है। ङ्क्षहदी ने इस नए माध्यम पर कई प्रतिमान स्थापित किए हैं। इंटरनेट पर हिंदी की लोकप्रियता बढ़ाने में ब्लॉगिंग का अहम योगदान रहा है। वर्ष 2003 में जहां ङ्क्षहदी भाषा का पहला ब्लॉग आलोक कुमार नाम के एक तकनीकी विशेषज्ञ ने '9-2-11 नाम से बनाया। आज इनकी संख्या एक लाख से ऊपर निकल चुकी है। इन ब्लॉगों में से 15-20 हजार को सक्रिय और 5 से 6 हजार को अतिसक्रिय की श्रेणी में रखा जा सकता है। ब्लॉगों ने व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के माध्यम से कहीं आगे बढ़कर कई मकसदों के लिए सामाजिक मंच बनने तक की दूरी तय कर ली है। मौजूदा दौर में हिंदी में सामुदायिक ब्लॉगों के अलावा साहित्य, संस्कृति और सिनेमा जैसे विषयों पर कई ब्लॉग सक्रिय हैं। इन ब्लॉगों पर सामाजिक मुद्दों की भी खूब धूम रहती है।


माइक्रोसॉफ्ट मोस्ट वैल्युएबल प्रोफेशनल पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके वरिष्ठï चिठ्ठाकार रविशंकर श्रीवास्तव के मुताबिक दुनिया भर में बड़ी संख्या में हिंदी भाषियों और हिंदी सेवियों की मौजूदगी को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इंटरनेट पर हिंदी का भविष्य उज्जवल है। श्रीवास्तव इंटरनेट पर हिंदी के प्रसार के काम में लगे हैं। यह हिंदी की ताकत ही है जिसने तमाम अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं को अपने तमाम अंकों को इंटरनेट पर जारी करने के लिए मजबूर कर दिया है। 'हंस, 'कथादेश, 'तद्भव नया ज्ञानोदय समेत तमाम प्रकाशित होने वाली गंभीर साहित्यिक पत्रिकाओं के ई संस्करणों के अलावा 'अभिव्यक्ति, 'अनुभूति 'रचनाकर, 'हिंदीनेस्ट, 'कविता कोश सहित हिंदी ब्लॉग और वेबसाइटों पर तमाम स्तरीय देशी विदेशी साहित्य महज एक क्लिक की दूरी पर उपलब्घ है।

आमतौर पर वेब पत्रिकाओं में पहले से छपी हुई सामग्री ही पढऩे को मिलती है। इस मिथक को तोड़ते हुए ज्ञानपीठ युवालेखन पुरस्कार से सम्मानित युवा कथाकार चंदन पांडेय ने अपनी नई कहानी 'रिवॉल्वर एक वेब पत्रिका 'सबद पर जारी कर एक नई पहल की।

सोशल नेटवर्किंग और मोबाइल- ऑर्कुट, फेसबुक के अलावा तमाम नेटवर्किंग वेबसाइट पर हिंदी का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है।मोबाइल में हिंदी सॉफ्टवेयर की उपलब्धता ने लोगों का काम और अधिक आसान कर दिया है। सीएसडीएस (सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज) ने भी इंटरनेट पर हिंदी के शुरुआती विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है। सीएसडीएस के भाषायी विकास कार्यक्रम से जुड़े इतिहासकार रविकांत शर्मा के मुताबिक शुरुआत में इंटरनेट पर हिंदी देखने के लिए जहां किसी भी फॉन्ट की इमेज (पीडीएफ) ही इस्तेमाल की जा सकती थी।

जिस समय इंटरनेट पर हिंदी के लिए काम कर रहे सरकारी संस्थान टीआईडीएल (टेक्नोलॉजी डेवलपमेंट फॉर इंडियन लैंग्वेज) और सी-डैक जैसे सरकारी विभाग तमाम अव्यावहारिक कोशिशें कर रहे थे, उस दौरान सीएसडीएस ने हिंदी के इस्तेमाल से संबंधित तमाम सॉफ्टवेयर बनाकर उनका मुफ्त वितरण शुरू कर दिया था।