हिंदुस्तान में मौजूद हैं कितने ही गज़ा !

वरिष्ठ पत्रकार सुनील कुमार का यह आलेख बीबीसी हिंदी डॉट कॉम से साभार - ब्लॉगर

दिल्ली से गज़ा तक के सफर में जिस गज़ा की हम कल्पना करते पहुंचे थे, वह कुछ मायनों में उससे बेहतर था और कुछ में बदतर.
एक तो हमलों के निशाने पर बिरादरी, दूसरी तरफ आसपास के कुछ मुस्लिम पड़ोसी देशों की भी हमदर्दी उसके साथ नहीं है. संयुक्त राष्ट्र जितनी राहत करना चाहता है, वह भी इसराइल की समुद्री घेरेबंदी की वजह से मुमकिन नहीं है. लेकिन उम्मीद से बेहतर इस मायने में था कि कई नए मकान और नई इमारतें बनती दिख रहीं थीं और बच्चे स्कूल-कॉलेज जाते हुए भी.

गज़ा में हम एक ऐसे मुहल्ले में गए जहां एक ही कुनबे के 28-29 लोग हवाई हमले में मारे गए थे. पूरा इलाक़ा अब मैदान सा हो गया है और वहीं एक परिवार कच्ची दीवारें खड़ी करके प्लास्टिक की तालपत्री के सहारे जी रहा है. इस बहुत ही ग़रीबी में जी रहे परिवार ने तुरंत ही कॉफ़ी बनाकर हम सबको पिलाई.

परिवार की एक महिला को कसीदाकारी करते देखकर मैंने पूछा कि इसका क्या होता है? पता लगा कि बाजार में उसे बेच देते हैं. मेरी दिलचस्पी और पूछने पर उसने कुछ दूसरे कपड़े दिखाए जिन पर कसीदा पूरा हो गया था. लेकिन कई कपड़े फटे-पुराने दिख रहे थे जो कि इसराइली हवाई हमले में जख्मी हो गए थे.

मैंने ज़ोर डालकर दाम देकर ऐसा एक नमूना लिया. परिवार की महिलाओं की आंखों में आंसू थे और आगे की ज़िंदगी का अंधेरा भी.

यह शहर मलबे के बीच उठते मकानों और इमारतों का है, जिनके ऊपर जाने किस वक़्त बमबारी हो जाए. कहने को फ़लीस्तीनी लोग भी घर पर बनाए रॉकेटों से सरहद पर हमले करते हैं, लेकिन आंकड़े देखें तो फ़लीस्तीनी अगर दर्जन भर को मारते हैं तो इसराइली हजार से अधिक. एक ग़ैरबराबरी की लड़ाई वहां जारी है.

कहाँ है हिंदुस्तान?
फ़लीस्तीनी इलाक़े में अब सिवाय इतिहास के, कोई हिन्दुस्तान की दोस्ती का नाम नहीं जानता था. उनकी आख़िरी यादें इंदिरा गांधी की हैं जिस वक्त यासर अराफ़ात के साथ उनका भाई-बहन सा रिश्ता था. अब तो इस दबे-कुचले ज़ख़्मी देश से भारत का कोई रिश्ता हो, ऐसा गज़ा में सुनाई नहीं पड़ता.


उनकी ज़िंदगी में अब सिर्फ़ यही रंग बचे हुए हैं
गज़ा के इस्लामिक विश्वविद्यालय में एक विचार-विमर्श के बाद, बमबारी के मलबे के बगल खड़े हुए दो युवतियों से भारत के बारे में मैंने पूछा, एक का कहना था इंदिरा गांधी को अराफ़ात महान बहन कहते थे.

दूसरी युवती का कहना था कि वह पढऩे के लिए भारत आना चाहती हैं लेकिन कोई रास्ता नहीं है.

ऐसा भी नहीं कि फ़लीस्तीनी इलाक़े में इंटरनेट नहीं है. तबाही के बीच भी धीमी रफ्तार का इंटरनेट है और नई पीढ़ी ठीक-ठाक अंग्रेज़ी में तक़रीबन रोज़ ही मुझसे लिखकर बात कर लेती है.

लेकिन नई पीढ़ी ने सिर्फ़ ऐसे कारवां को भारत से आते और जाते देखा है. इस कारवां से परे भारत की हमदर्दी का उसे कोई एहसास नहीं है और मुझसे पूछे जाने पर जब जगह-जगह मैंने कहा कि लगभग पूरा हिन्दुस्तान फ़लीस्तीनी लोगों के मुद्दों से नावाकिफ़ है तो इससे वे लोग कुछ उदास जरूर थे.

लेकिन इसके साथ ही हिन्दुस्तान के बारे में कहने के लिए मेरे पास एक दूसरा यह सच भी था कि लगभग पूरा हिन्दुस्तान ख़ुद हिन्दुस्तान के असल मुद्दों से नावाकिफ़ है और सिर्फ़ अपनी ज़िंदगी के सुख या अपनी जिंदगी के दुख ही अमूमन उसके लिए मायने रखते हैं.

ऐसे में मैं न सिर्फ़ फ़लीस्तीनी नौजवान पीढ़ी बल्कि रास्ते के देशों में राजनीतिक चेतना के साथ उत्तेजित खड़े मिले नौजवानों से भी यह कहता गया कि ऐसी जागरूकता की ज़रूरत हिन्दुस्तान को भी बहुत अधिक है.

गड़बड़ा गया अनुपात
एक अनाथाश्रम बच्चों से भरा हुआ था जहां फेंके गए ज़िंदा बच्चे लाकर बड़े किए जा रहे थे.


फ़लस्तीनी इलाक़े में बड़ी संख्या में बच्चे अनाथालय में रहते हैं
फ़लीस्तीनी समाज में औरत-मर्द का संतुलन गड़बड़ा गया है, मर्द शहीद और औरतें अकेली.

मुस्लिम रीति-रिवाज़ ही क्यों, आज के भारत में ही कौन अकेली मां को उसके बच्चे पैदा करने पर बर्दाश्त कर सकता है? नतीजन ऐसे बहुत से बच्चे यतीमखाने में थे.

समाज में आबादी और पीढ़ी का अनुपात उसी तरह गड़बड़ा गया है जैसे विश्वयुद्धों के बाद कई देशों में गड़बड़ा गया था.

मानवीय सहायता पहुंचाने का मक़सद तो वहां पहुंचकर पूरा हो गया, पूरे रास्ते के देशों को देखना तो हो पाया था लेकिन एक अख़बारनवीस की हैसियत से फ़लीस्तीनी इलाक़ों को देखना बहुत कम हो पाया.

हमारे साथ वहां घूमते कुछ गैरसरकारी नौजवानों के बारे में भी हमारे एक साथी को शक था कि वे सत्तारूढ़ पार्टी हमास के लिए हमारी निगरानी करते हो सकते हैं. इतने कम वक्त में क्या पता चलता है?

हमें वहाँ चार दिन रहना था. और एक बात तय थी कि हमास और सरकार के लोग अपने कार्यक्रमों में हमारा वक़्त बरबाद करके हमें आम लोगों से दूर रखना चाहते थे. हो सकता है कि ख़तरों के बीच चौकन्नापन उनकी आदत बन गई हो.

नई फ़लीस्तीनी पीढ़ी के पास न वहां से बाहर निकलने की राहें हैं, न दुनिया के बहुत अधिक देशों में उनके स्वागत के लिए बाहें फैली हुई हैं.

बगल के देश सीरिया में जो फ़लीस्तीनी शरणार्थी आधी सदी से बसे हैं, वे जरूर दसियों लाख हैं और सीरिया की सरकार उनका ख़्याल रखती है, सरकारी नौकरी देती है.

लेकिन इसराइली घेरेबंदी की वजह से उनको अपनी ही ज़मीन पर आज तक लौटना नसीब नहीं हो पाया. इस तरह फ़लीस्तीनी इलाक़ों के भीतर रह गए लोग भीतर हैं और बाहर चले गए लोग बाहर.

मौतें और ज़ख़्म
जिस इसराइल ने हमारे पूरे कुनबे को मार डाला है, उसके पड़ोस में रहना या उसे पड़ोस में रहने देने का तो सवाल ही नहीं उठता
एक फ़लस्तीनी छात्रा
गज़ा में एक जगह हमलों में हुई मौतों और जख्मों की तस्वीरों की प्रदर्शनी लगी थी. इसमें हमारे साथ की कुछ भारतीय युवतियां बहुत विचलित सी दिखीं.

उनकी तस्वीर लेते हुए जब उनके चेहरों पर राख सी पुती दिखी तो उनका कहना था कि ऐसा नज़ारा उन्होंने कभी नहीं देखा था और ऐसे में मैं उनकी तस्वीर न लूं.

लेकिन मैंने उन्हें समझाया कि मौतों के ऐसे मंज़र को देखकर तो इंसान विचलित होंगे ही और यह तस्वीर सिर्फ़ उसी को क़ैद कर रही है.

लेकिन अपनी ही साथी इस लड़की से बात करते-करते मैं यह सोचता रहा कि जिस फ़लीस्तीनी इलाक़े में आए वक़्त लोग असल मौतों को न सिर्फ़ देखते हैं बल्कि भुगतते भी हैं, जहां घायलों को उठाते हुए गर्म लहू की तपन हाथों को लगती है, जहां लहू की गंध भी देर तक सांसों में बसी रहती है, वहां की नौजवान पीढ़ी कितनी विचलित होती होगी.

यही वजह थी कि विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में एक हिन्दुस्तानी सवाल के जवाब में एक फ़लीस्तीनी छात्रा का कहना था, "जिस इसराइल ने हमारे पूरे कुनबे को मार डाला है, उसके पड़ोस में रहना या उसे पड़ोस में रहने देने का तो सवाल ही नहीं उठता."

तकलीफ़देह ज़िंदगी
गज़ा में एक कार्यक्रम में ऐसी औरतों और ऐसे बच्चों की भीड़ थी जो इसराइली जेलों में बंद अपने घर वालों की तस्वीरें लिए बंदी थीं.

डेढ़-दो महीने से फ़लीस्तीन के बारे में सोचते-सोचते अब आत्ममंथन से यह भी दिख रहा है कि हिन्दुस्तान के भीतर भी दबे-कुचले तबकों के बेइंसाफी वाले कितने ही फ़लीस्तीनी इलाक़े जगह-जगह बिखरे हुए हैं.अगर यह कारवां गज़ा के ज़ख्मों के देखने के बाद भारत के भीतर के 'फ़लीस्तीनियों' के ज़ख्म देख पाता है तो वह कारवां की कामयाबी होगी
एक कार्यक्रम में लेखक का वक्तव्य
इनमें कुछ ऐसे लोगों के घरवाले भी थे जो इसराइस के साथ युद्ध में मारे गए थे. लेकिन हिन्दुस्तान में भी पंजाब आदि में ऐसी तकलीफ़देह ज़िंदगियाँ होंगीं जिन्हें देखने का अवसर मुझे अब तक नहीं मिल पाया है.

दिल्ली में कश्मीरी पंडि़तों के शरणार्थी शिविरों तक जाना भी अभी नहीं हो पाया है और बस्तर में हिंसा से बेदखल लोगों के बीच में महज़ एक बार मेरा जाना हुआ है.

इसलिए गज़ा में जब एक टेलीविजन कार्यक्रम में मुझसे पूछा गया कि इस कारवां की मैं क्या कामयाबी मानता हूं? तो सोचकर मैंने कहा, "डेढ़-दो महीने से फ़लीस्तीन के बारे में सोचते-सोचते अब आत्ममंथन से यह भी दिख रहा है कि हिन्दुस्तान के भीतर भी दबे-कुचले तबकों के बेइंसाफी वाले कितने ही फ़लीस्तीनी इलाक़े जगह-जगह बिखरे हुए हैं.अगर यह कारवां गज़ा के ज़ख्मों के देखने के बाद भारत के भीतर के 'फ़लीस्तीनियों' के ज़ख्म देख पाता है तो वह कारवां की कामयाबी होगी."

बिना इसराइली बमबारी और गोलीबारी के भी हिन्दुस्तान के कमज़ोर तबकों पर रोज़ हमले हो रहे हैं और बेइंसाफी जारी है.

मतलब यह कि सिर्फ़ अमरीकी या इसराइली हमलों से गज़ा घायल नहीं होता, वह हिन्दुस्तान के भीतर लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकारों के हमलों से भी घायल होता है और यहां की बाज़ारू ताक़तों के हमलों से भी.

पांच हफ़्तों के इस सफ़र में दूसरों के ज़ख्म देखते हुए अपनों के ज़ख्मों के बारे में भी सोचने का कुछ मौक़ा मिला और शायद कारवां कुछ दूसरी तरफ़ भी जा सकेंगे.

गज़ा और रास्ते के सफ़र से जुड़ी और बातें फिर कभी, किसी और शक्ल में.

समाप्त.
(सुनील कुमार 'छत्तीसगढ़' अख़बार के संपादक हैं और इस पूरी लेख श्रृंखला में व्यक्त किए गए विचार उनके निजी विचार हैं बीबीसी के नहीं.)