डॉ सेन : जरूरी सवाल उठाने की मिली सजा

बहुत खतरनाक समय है। बिनायक सेन सत्ता के दमन के ताज़ा उदाहरण नहीं बल्कि एक और उदाहरण भर रह गए हैं। क्या लिखा जाये? क्या कहा जाये? शर्म आती है यह कहते हुए की देश में लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार है। डॉ सेन का कुसूर क्या था यह अभी स्थापित होना बाकी है है और उनको हत्यारों अधमों को दी जाने वाली सज़ा सुना दी गयी है। दैनिक भास्कर में आज डॉ सेन पर एमजे अकबर और रामचंद्र गुहा के दो लेख प्रकाशित हुए हैं। उन्हें यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ - ब्लॉगर

जरूरी सवाल उठाने की मिली सजा
रामचंद्र गुहा
1991 में शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर दी गई। अब उनके साथी बिनायक सेन को आजीवन कैद का पुरस्कार दिया गया है। डॉ सेन ने जीवन में एक गोली भी नहीं दागी है। उन्हें तो यह भी नहीं पता होगा कि बंदूक थामते कैसे हैं।ती स साल पुराने अपने उस कृत्य पर मुझे आज भी खेद होता है, जब मैंने एक महान व्यक्ति को नींद से जगा दिया था। मैं नई दिल्ली में एक कांफ्रेंस में स्वयंसेवी के रूप में मौजूद था। हम छात्रों से कहा गया कि हम धनबाद के सांसद एके रॉय को बुलाकर लाएं, जो उस वक्त विट्ठलभाई पटेल हाउस स्थित अपने क्वार्टर में थे। खनन उद्योग धनबाद की अर्थव्यवस्था की बुनियाद है और इस शहर से रॉय निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीते थे। उनके चुनाव प्रचार के लिए खुद खनन श्रमिकों द्वारा राशि जुटाई गई थी। अपनी ईमानदारी के लिए पहचाने जाने वाले श्रमिक नेता रॉय ने दिल्ली के लुटियंस के किसी बंगले या साउथ एवेन्यू के शानदार फ्लैट में रहने के स्थान पर पार्लियामेंट स्ट्रीट पर स्थित इस भवन के एक कमरे में बसेरा बनाना उचित समझा था।हमने रिसेप्शन पर मिस्टर रॉय के कमरे का नंबर पूछा, लिफ्ट से ऊपर पहुंचे और उनके दरवाजे पर दस्तक दी। किसी ने जवाब नहीं दिया। हमने फिर दरवाजा खटखटाया। हमें वहां से लौट आना था और आयोजकों को कह देना था कि सांसद महोदय कमरे में नहीं हैं। लेकिन हम नौजवान थे और अपने उत्साह का प्रदर्शन करना चाहते थे। हम लगातार दरवाजा खटखटाते रहे। आखिर दरवाजा खुला। हमारे सामने खादी का कुर्ता-पायजामा पहने एक व्यक्ति खड़े थे और वे अपनी आंखें मल रहे थे। उन्होंने बड़ी शालीनता से हमारी बातें सुनीं और फिर हमें बताया कि उनके सांसद मित्र और मेजबान रॉय अभी-अभी कहीं बाहर गए हैं।जिन्हें हमने नींद से जगा दिया था, वे शंकर गुहा नियोगी थे और शायद एक लंबी ट्रेन यात्रा के बाद आराम कर रहे थे। गुहा नियोगी मूलत: बंगाल के थे। बाद में वे भिलाई चले आए और असंगठित श्रमिकों के साथ काम करने लगे। शोषण से पीड़ित श्रमिक गुहा नियोगी के नेतृत्व में एकजुट हुए और बेहतर वेतन की मांग करने लगे। गुहा नियोगी की चिंताओं का दायरा केवल आर्थिक मामलों तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने श्रमिकों के लिए अस्पताल और उनके बच्चों के लिए स्कूल खुलवाए। श्रमिकों की पत्नियों की सहायता से नशा विरोधी अभियान चलाया। गुहा नियोगी की गरिमा और उनकी प्रतिबद्धता के चलते मध्यवर्ग के कई पेशेवर उनसे जुड़े। इन्हीं में से एक थे बिनायक सेन। बिनायक सेन ने वैल्लोर विश्वविद्यालय के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज से स्वर्ण पदक प्राप्त किया था। 80 के दशक के प्रारंभ में वे छत्तीसगढ़ चले आए थे। वे तभी से छत्तीसगढ़ में हैं और उन्होंने हर पृष्ठभूमि के मरीजों की देखभाल की है। बिनायक सेन ने अपने आदर्श गुहा नियोगी की ही तरह अन्य क्षेत्रों में भी काम किया। वे आदिवासियों के सामाजिक अधिकारों के प्रति सचेत हुए, जो बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे थे और जिनके बच्चे प्राथमिक शिक्षा तक से महरूम थे।वर्ष 1991 में शंकर गुहा नियोगी की हत्या कर दी गई। अब लगभग बीस सालों बाद उनके मित्र और साथी डॉ बिनायक सेन को आजीवन कैद का पुरस्कार दिया गया है। डॉ सेन ने अपने जीवन में कभी एक गोली भी नहीं दागी है। उन्हें तो शायद यह भी पता नहीं होगा कि बंदूक को थामा कैसे जाता है। उन्होंने माओवादियों की हिंसा की स्पष्ट भत्र्सना की है। उन्होंने सशस्त्र क्रांतिकारियों की गतिविधियों को ‘अमान्य और अस्थायी निदान’ भी बताया था। छत्तीसगढ़ सरकार की नजर में डॉ बिनायक सेन का कसूर यह है कि उन्होंने माओवादी विद्रोहियों को नियंत्रित करने के लिए अख्तियार किए जाने वाले भ्रष्ट और क्रूर तरीकों पर सवाल उठाने का साहस किया था। वर्ष 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा गठित की गई सतर्कता सेना ने दंतेवाड़ा, बीजापुर और बस्तर जिलों में कड़ा रुख अख्तियार किया था। नक्सलवाद से निपटने के नाम पर सेना ने घरों और कुछ मौकों पर तो पूरे गांव को फूंक दिया था। उन्होंने आदिवासी महिलाओं के साथ र्दुव्‍यवहार किया और पुरुषों को प्रताड़ना दी। नतीजा यह रहा कि हजारों आदिवासियों को अपना घरबार छोड़कर जाना पड़ा, जिनका माओवादियों से कोई ताल्लुक नहीं था।डॉ बिनायक सेन पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने सतर्कता सेना की ज्यादतियों के बारे में अवगत कराया था। डॉ सेन द्वारा लगाए गए आरोप गलत नहीं थे, क्योंकि मैंने स्वयं कुछ गणमान्यजनों (जिनमें बीजी वर्गीस, हरिवंश जैसे सम्मानीय संपादक और इंफोसिस पुरस्कार विजेता नंदिनी सुंदर भी शामिल हैं) के साथ उस क्षेत्र का दौरा किया था और सरकार के अपराधों को दर्ज किया था। डॉ सेन को एक ऐसे तंत्र द्वारा दोषी ठहराया गया है, जिसे मतिभ्रम के शिकार राजनेताओं द्वारा चंद भ्रमित पुलिस अफसरों की मदद से संचालित किया जाता है। निश्चित ही डॉ बिनायक सेन को सुनाई गई सजा को उच्चतर अदालतों में चुनौती दी जाएगी और ऐसा होना भी चाहिए। डॉ सेन की बहादुर पत्नी ने कहा है कि ‘एक तरफ जहां गैंगस्टर और घपलेबाज आजाद घूम रहे हों, वहां एक ऐसे व्यक्ति को देशद्रोही ठहराया जाना एक शर्मनाक स्थिति है, जिसने देश के गरीबों की तीस साल तक सेवा की है।’ मुझे लगता है सभी प्रबुद्ध भारतीय उनके इस मत से सहमत होंगे।

दोहरे मापदंडों वाला हमारा लोकतंत्र
एम जे अकबर

मैं बिनायक सेन के राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं, लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए। भारत दोहरे मापदंडों वाले लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है। भारत एक अजीब लोकतंत्र बनकर रह गया है, जहां बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है और डकैत खुलेआम ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते हैं। सरकारी खजाने पर डाका डालने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए भी सरकार को खासी तैयारी करनी पड़ती है। जब आखिरकार उन पर ‘धावा’ बोला जाता है, तब तक उन्हें पर्याप्त समय मिल चुका होता है कि वे तमाम सबूतों को मिटा दें। आखिर वह व्यक्ति कोई मूर्ख ही होगा, जो तीन साल पहले हुए टेलीकॉम घोटाले के सबूतों को इतनी अवधि तक अपने घर में सहेजकर रखेगा। तीन साल क्या, सबूतों को मिटाने के लिए तो छह महीने भी काफी हैं। क्योंकि इस अवधि में पैसा या तो खर्च किया जा सकता है, या उसे किसी संपत्ति में परिवर्तित किया जा सकता है या विदेशी बैंकों की आरामगाह में भेज दिया जा सकता है। राजनेताओं-उद्योगपतियों का गठजोड़ कानून से भी ऊपर है। अगर भारत का सत्ता तंत्र बिनायक सेन को कारावास में भेजने के बजाय उन्हें फांसी पर लटका देना चाहे, तो वह यह भी कर सकता है। बिनायक ने एक बुनियादी नैतिक गलती की है और वह यह कि वे गरीबों के पक्षधर हैं। हमारे आधिपत्यवादी लोकतंत्र में इस गलती के लिए कोई माफी नहीं है। सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और यकीनन रमन सिंह के लिए इस बार का क्रिसमस वास्तव में ‘मेरी क्रिसमस’ होगा। कांग्रेस और भाजपा दो ऐसे राजनीतिक दल हैं, जो फूटी आंख एक-दूसरे को नहीं सुहाते। वे तकरीबन हर मुद्दे पर एक-दूसरे से असहमत हैं। लेकिन नक्सल नीति पर वे एकमत हैं। नक्सल समस्या का हल करने का एकमात्र रास्ता यही है कि नक्सलियों के संदेशवाहकों को रास्ते से हटा दो। मीडिया इस गठजोड़ का वफादार पहरेदार है, जो उसके हितों की रक्षा इतनी मुस्तैदी से करता है कि खुद गठजोड़ के आकाओं को भी हैरानी हो। गिरफ्तारी की खबर रातोरात सुर्खियों में आ गई। प्रेस ने तथ्यों की पूरी तरह अनदेखी कर दी। हमें नहीं बताया गया कि बिनायक सेन के विरुद्ध लगभग कोई ठोस प्रमाण नहीं पाया गया था। अभियोजन ने गैर जमानती कारावास के दौरान बिनायक के दो जेलरों को पक्षविरोधी घोषित कर दिया था। सरकारी वकीलों की तरह जेलर भी सरकार की तनख्वाह पाने वाले नुमाइंदे होते हैं। लेकिन दो पुलिसवालों ने भी मुकदमे को समर्थन देने से मना कर दिया। एक ऐसा पत्र, जिस पर दस्तखत भी नहीं हुए थे और जो जाहिर तौर पर कंप्यूटर प्रिंट आउट था, न्यायिक प्रणाली के संरक्षकों के लिए इस नतीजे पर पहुंचने के लिए पर्याप्त साबित हुआ कि बिनायक सेन उस सजा के हकदार हैं, जो केवल खूंखार कातिलों को ही दी जाती है।बिनायक सेन स्कूल में मेरे सीनियर थे। वे तब भी एक विनम्र व्यक्ति थे और हमेशा बने रहे, लेकिन वे अपनी राजनीतिक धारणाओं के प्रति भी हमेशा प्रतिबद्ध रहे। मैं उनके राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं, लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए। भारत धीरे-धीरे दोहरे मापदंडों वाले एक लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है। जहां विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए हमारा कानून उदार है, वहीं वंचित तबके के लोगों के लिए यही कानून पत्थर की लकीर बन जाता है। यह विडंबनापूर्ण है कि बिनायक सेन को सुनाई गई सजा की खबर क्रिसमस की सुबह अखबारों में पहले पन्ने पर थी। हम सभी जानते हैं कि ईसा मसीह का जन्म 25 दिसंबर को नहीं हुआ था। चौथी सदी में पोप लाइबेरियस द्वारा ईसा मसीह की जन्म तिथि 25 दिसंबर घोषित की गई, क्योंकि उनके जन्म की वास्तविक तिथि स्मृतियों के दायरे से बाहर रहस्यों और चमत्कारों की धुंध में कहीं गुम गई थी। क्रिसमस एक अंतरराष्ट्रीय त्यौहार इसलिए बन गया, क्योंकि वह जीवन को अर्थवत्ता देने वाले और सामाजिक ताने-बाने को समरसतापूर्ण बनाने वाले कुछ महत्वपूर्ण मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है। ये मूल्य हैं शांति और सर्वकल्याण की भावना, जिसके बिना शांति का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। सर्वकल्याण की भावना किसी धर्म-मत-संप्रदाय से बंधी हुई नहीं है। क्रिसमस की सच्ची भावना का सबसे अच्छा प्रदर्शन पहले विश्व युद्ध के दौरान कुछ ब्रिटिश और जर्मन सैनिकों ने किया था, जिन्होंने जंग के मैदान में युद्धविराम की घोषणा कर दी थी और एक साथ फुटबॉल खेलकर और शराब पीकर अपने इंसान होने का सबूत दिया था। अलबत्ता उनकी हुकूमतों ने उन्हें जंग पर लौटने का हुक्म देकर उन्हें फिर से उस बर्बरता की ओर धकेल दिया, जिसने यूरोप की सरजमीं को रक्तरंजित कर दिया था।यदि काल्पनिक सबूतों के आधार पर बिनायक सेन जैसों को दोषी ठहराया जाने लगे तो हिंदुस्तान में जेलें कम पड़ जाएंगी। ब्रिटिश राज में गांधीवादी आंदोलन के दौरान ऐसा ही एक नारा दिया गया था। यह संदर्भ सांयोगिक नहीं है, क्योंकि हमारी सरकार भी नक्सलवाद के प्रति साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक रवैया अख्तियार करने लगी है।

जूलियन असांज होने का क्या मतलब है?


चंदन के ब्लाग नई बात पर जूलियन असांज पर एक शानदार पोस्ट है, यह बात वहां फौरी प्रतिक्रिया के तौर पर लिखी थी। यहां उसे थोड़ा विस्तार देने की कोशिश है।


जूलियन पॉल असांज के बारे में बात करने का इससेबेहतर समय नहीं हो सकता। एक ऐसे समय में जबकिदेश का घोटालाकाल और देश में पत्रकारिता जगत केस्वयंभू ) नायकों का पतनकाल पूरे चरम पर है। बरसों बरस में करीने से गढ़ीगई मूर्तियों का ऐसा काला कुरूपसच सामने रहा है कि देखते उबकाई आती है। दुनिया बदलने का सपना लेकर पत्रकारिता की दुनिया में आईएक पूरी पीढ़ी मजबूरन या तो तर्जुमे को जीवन का आखिरी सच मान बैठी है या फिर पीआर एजेंसी से मिलने वालीकैब और उसके सस्ते महंगे तोहफों को जाहिर है। जूलियन असांज नामक का आदमी दरअसल तराशा हुआ ऐसाचकाचौंध आईना है जिसमें हममें से कई अपनी काली शक्लें देखने में डर रहे हैं। सारी दुनिया में गंध मचाने वालेअमेरिका केलिए मेरे पास कोई गाली नहीं है तो यह भी उतना ही सच है कि असांज के जज्बे के बारे में कुछ भीकहने के लिए भी मेरे पास शब्दों का अभाव है। अगर कुछ है तो सिर्फ सम्मान है। असांज के काम को महज खोजीपत्रकारिता या ऐसे ही किसी और सनसनीखेज शब्द में नहीं बांधा जा सकता। उन्होंने जो जीवन स्वेच्छा से चुना हैउसे हममें से अधिकांश मजबूरी में भी जीना नहीं चाहेंगे। शायद यही अंतर उन्हें असांज बनाता है। (

रही बात अमेरिका की तो मुझे नहीं लगता कि उस नामुराद देश के पास इतना धैर्य है कि वह असांज को सजासुनाने के लिए किसी प्रक्रिया की प्रतीक्षा करेगा। किसी भी दिन असांज को गोली लगने या किसी दुर्घटना में उनकीमौत की खबर सकती है और हमें इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहना होगा।लेकिन एक फर्क तो आया हैइस दरमियान। दुनिया के किसी कोने में जब भी कभी,शोषण, सच्चाई, साहस की बात होगी तो वह दरअसलजूलियन असांज की बात होगी।हमेशा की तरह एक बार फिर वही चिरपरिचित खेल चालू हो गया है झूठ के साथसच्ची लड़ाई में कथित नैतिकता को हथियार बनाकर सच को परास्त कर देने काखेल। हमें उम्मीद करनी चाहिएकि हर बार की तरह जूलियन असांज एक बार फिर विजेता होकर निकलेंगे और अगर ऐसा नहीं भी होता है तो भीसच्चाई का जो पत्थर वो फेंक चुके हैं वह समय के गर्भ में जाकर ठहरेगा और एक ऐसी पूरी पीढ़ी तैयार करेगा जोझूठ और अन्याय की आंखों में आंखें डालकर उनका प्रतिकार करेगी।

नेहा का मरना खबर नहीं है

रायपुर की 16 साल की नेहा की मौत किसी के लिए खबर नहीं है। आज के अखबारों ने उसे एक कालम जगह बख्शी है। क्योंकि नीरा राडिया, बरखा दत्त एंड कंपनी के सामने नेहा की जान की कोई कीमत नहीं। मेरी इस पोस्ट का मकसद केवल इतना है कि नेहा की मौत की जो वजह है वह शायद हमारे महानगरों में रहने वाले बहुतेरे लोगों की समझ में ही न आए लेकिन मैं चाहता हूं यह खबर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे ताकि वे तय कर पाएं कि उनके अंदर कितनी इंसानियत बाकी है। यह जान लेना बहुत जरूरी है कि नेहा ने अपनी जान क्यों दे दी।

दरअसल रायपुर में रहने वाली 16 साल की नेहा हमारे आपके घर कि किसी भी किशोरी की तरह रही होगी। जिसकी आंखों में सपने होंगे दिल में उम्मीदें लेकिन एक अंतर था। वह देश के 40 करोड़ मध्यम वर्गीय लोगों में से नहीं थी। उसका परिवार बेहद गरीब था। इतना गरीब कि उसके घर में अपना बाथरूम तक नहीं था। नतीजतन नेहा के परिवार को खुले में नहाना पड़ता था। उसके पिता का देहांत हो चुका था। घर में मां के अलावा छोटा भाई था। समाचार पत्रों में प्रकाशित खबरों के मुताबिक नेहा के साथ पढ़ने वाले दो छात्र उसे लगातार छेड़ा करते थे जिन्हें रोकने वाला कोई नहीं था। बहरहाल समाचार पत्रों में घटना के पीछे दिए गए एक दूसरे कारण को पढ़कर मुझे अपनी बेबसी पर बहुत गुस्सा आया। इन दोनों हरामजादों के साथ साथ पूरे मोहल्ले के मर्दों को रोज सुबह उसी समय छत की सैर का ध्यान आया करता था जिस समय नेहा खुले में नहा रही होती थी। रोज रोज की इस शर्मिंदगी की कीमत नेहा ने अपनी जान देकर चुकाई