यह एंड आफ एनोसेंस है (उदय प्रकाश का साक्षात्कार-2)


दिनेश श्रीनेत- आज की तारीख में या पहले भी आप रचनात्मक स्तर पर कब इतना दबाव महसूस करते हैं कि यह लगने लगे कि अब कुछ लिख ही देना चाहिए।

उदय प्रकाश- मैं तो शायद यह कहूं कि लेखक जो होता है वह 24 घंटे लेखक होता है।अगर कोई एसी व्यवस्था हो... जैसे लुई बुनुएल की बहुत अच्छी आत्मकथा है- माई लास्ट ब्रेथ। उसमें लुई ने कहा था कि 24 घंटे में आदमी को 20 घंटे सोना चाहिए व स्वप्न देखना चाहिए। बाकी चार घंटे उसे काम करना चाहिए। यह सच है कि सृजन एक स्वप्न है। येहूदा आमीखाई ने लेखक के बारे में लिखा है कि बहुत सक्रिय सर निष्क्रिय धड़ पर रखा है। जब भाषा अधिक हो जाए तो वह चैटर में बदल जाती है। हर कोई बोल रहा है। बड़बड़ा रहा है।

साहित्य में भी यह कल्ट आया है। चैटर में सारे, विशेषण, शब्द व अनुप्रास खप जाते हैं। लेकिन गंभीर डिस्कोर्स जिसमें साहित्य भी एक है। वहां भाषा खर्च नहीं हो रही है। हमारे यहां हो यह रहा है कि कोई समाजशास्त्र पर लिख रहा है तो उसे शरद जोशी सम्मान दिया जा रहा है तथा कोई पुलिस डिपार्टमेंट पर लिख कर शमशेर सम्मान पा रहा है। खेती पर लिखने वाले को मुक्तिबोध सम्मान दिया जा रहा है।

दिनेश श्रीनेत- अगर आप यह मानते हैं कि यह हमारे साहित्य का मौजूदा परिदृशय है तो फिर कहीं न कहीं हमें उसके कारणों की तरफ भी तो जाना होगा। आपके मुताबिक वे कौन से कारण हैं।

उदय प्रकाश- दरअसल एसा परिदृष्य रचा जा रहा है जिसमें साहित्यकारों के स्थान पर फेक्स को स्थापित किया जा रहा है। पहले अच्छे रचनाकार गंभीर संकटों में जीवन बिता रहे थे। अचानक साहित्यिक संस्थानों कल्चरल सेंटर के पास भरपूर पैसा आने लगा है तो उसे लपकने वालों की तादाद भी बढ़ रही है। आइडियोलाजी को दरकिनार कर वामपंथ, दक्षिणपंथ, जनवाद, प्रगतिवाद सब का मकसद है किसी तरह संस्था पर कब्जा जमाना व मनमाफिक खर्च करना। अच्छे खासे संस्थानों में हिंदी साहित्यकारों के गिरोह हैं। हालांकि गंभीर साहित्यकार उसमें शामिल नहीं हैं। यह झुंड आपस में पुरस्कार बांटता मौज मस्ती करता है।

बीते १० सालों में सवा लाख किसान आत्महत्या कर लेते हैं तो कम से कम एक लेखक को तो उत्सव नहीं मनाना चाहिए। यह एज एंड आफ एनोसेंस की है। जनता अब बेवकूफ नहीं हैं। मामूली व्यक्ति भी जानता है कि आप क्या कर रहे हैं। लेखक का काम है लिखना वह सचिन नहीं बन सकता। वह हाशिए पर रहने वाला, एकांत में कागज कलम या कम्प्यूटर पर काम करने वाला व्यक्ति है।

-(.... जारी)-

जो कमजोर हैं वो मारे जाएंगे (उदय प्रकाश का साक्षात्कार -1)


हमारे समय के सबसे सशक्त कथाकारों में से एक उदय प्रकाश का यह साक्षात्कार दिनेश श्रीनेत ने लिया है। साक्षात्कार का प्रकाशन संदर्श (अंक-14 2009) में हुआ है। हाल ही में इस पर मेरी नजर पड़ी। उदय प्रकाश की पहली रचना जो मैंने पढ़ी थी वह थी इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी में छपी कहानी पाल गोमरा का स्कूटर। उसके बाद एक सिलसिला चल निकला जो अब तक जारी है। साक्षात्कार बड़ा है अत: उसको संपादित कर आपके लिए पेश कर रहा हूं इस कोशिश के साथ की उसकी आत्मा बरकरार रहे।

दिनेश श्रीनेत- जिस दौर में आप अपने कहानी संग्रह दरियाई घोड़ा की कहानियां लिख रहे थे- तब से लेकर हाल में प्रकाशित मैंगोसिल तक समय के फैलाव में आप क्या बदलाव देखते हैं? क्या आपको लगता है कि बतौर रचनाकार आपके लिए चुनौती उत्तरोत्तर कठिन हुई है? क्या बदलते परिवेश ने आपकी रचनात्मकता पर भी कोई दबाव डाला है?

उदय प्रकाश- कोई भी रचनाकार - कथाकार समय, इतिहास स्मृति के स्तर पर, खासकर टाइम एंड मेमोरी के स्तर पर लिखता है। दरियाई घोड़ा की कहानियां भी उसके प्रकाशन से बहुत पहले लिखी गई थीं। अगर आप इन कहानियों को देखें तो समय इनमें किसी इको की तरह है। लेकिन दरियाई घोड़ा बहुत निजी स्मृति की कहानी है। वह पिता की मृत्यु पर लिखी कहानी है। इंदौर के एक अस्पताल में मेरे पिता की मृत्यु हुई थी-कैंसर से-तो वह उस घटना के आघात से-उसकी स्मृति में लिखी कहानी है। चौरासी में छपा था संग्रह। तब से अब तक दो दशक का समय बड़े टाइम चेंज का समय रहा है। मेरा मानना है कि किसी भी रचनाकार को अपनी संवेदना लगातार बचा कर रखनी चाहिए। अपने आसपास के परिवर्तन के प्रति ग्रहणशीलता लगातार बनी रहनी चाहिए। जिस मोमेंट आप उसे खो देते हैं आपकी संवेदनशीलता खत्म हो जाती है। फिर आपके पास सिर्फ नास्टेल्जिया या स्मृतियां बचती हैं। उनके सहारे आप चिठ्ठी या पर्सनल डायरी तो लिख सकते हैं कोई रचना-कोई कहानी या कविता नहीं लिख सकते।

दिनेश श्रीनेत - लेकिन क्या ये सच नहीं है कि उस समय के रचनाकार के पास आस्था के कुछ केंद्र तो बचे ही थे। भले ही वे अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे थे। मगर क्या ये सच नहीं है कि आज का लेखक एक अराजक किस्म की अनास्था के बीच सृजन कर रहा है?

उदय प्रकाश- आपको याद होगा जिस वक्त मैंने तिरिछ लिखी थी - उसी दौरान इंदिरा की हत्या व राजीव का राज्यारोहण हुआ था। राजीव नया के बड़े समर्थक थे। जैसे हिंदी कहानी में नई कहानी, नया लेखन जैसे फैशन आते-जाते रहे। तो राजीव नई शिक्षा नीति, नई अर्थनीति का नया चेहरा के अगुआ थे। विशव बैंक -अंतरराष्टीय मुद्राकोष के प्रभुत्व व हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि बनने लगी थी। निजीकरण शुरू हो गया। लोगों के बीच डि-सेंसेटाइजेशन बढ़ने लगा। मैं दिनमान में काम करता था। जो पानवाल पहले बहुत हंसकर बोलता था अब वह कैजुअल हो गया। जो चपरासी पहले अपने पत्नी बच्चों का दुखड़ा रोता था उसकी जगह आया नया चपरासी काम की बातें करता था बस। लोगों ने निजी बातें बंद कर दीं। तब मैंने तिरिछ लिखी। शुरू में बड़ा विरोध हुआ। अफवाह फैलाई गई कि यह मारक्वेज की ए क्रानकिल डेथ फोरटोल्ड की नकल है। एक कथाकार - आलोचक सज्जन ने मुझे लगभग डराते हुए कहा कि हंस अपने अगले अंक में एक पन्ने पर ओरिजिनल कहानी व दूसरे पर तिरिछ छापने जा रहा है। यकीन कीजिए मैं चुप रहा मुझे हंसी भी आई। मुझे हिंदी समाज से कुछ मिला नहीं है उन्होंने मुझे गाली या अपमान के सिवा कुछ नहीं दिया है। मैं ईमानदारी से कहूं तो घृणा करता हूं इस समाज ठीक उतनी ही जितनी वे मुझसे करते हैं। तिरिछ एक मार्मिक कथा बन पड़ी इसलिए नहीं कि उसमें पिता की मौत हो गई। यह दरअसल सिविलाइजेशन टांजेशन था। मैं कहना चाह रहा था कि अब जो अरबनाइजेशन होगा जो एक पूरी दुनिया बनेगी उसमें एक मनुष्य जो बूढ़ा है कमजोर है जिसके सेंसेज काम नहीं कर रहे। उसकी नियति मृत्यु होगी। वह बचेगा नहीं अनजाने ही मार दिया जाएगा।

दिनेश श्रीनेत- और बाद के दौर में लगभग यही संवेदनहीनता हम सबके सामने आई और यह भयावह भी होता गया।

उदय प्रकाश- बिल्कुल। अगर आप मोहनदास को देखें तो आप पाएंगे कि वह जो ग्राफ है।उत्तरोत्तर बढ़ता गया है। तो दिनेश जी मैं यह कहना चाहूंगा कि मैंने अपने समय के मनुष्य से कभी अपनी आंखें नहीं हटाईं। मेरे पास कोई पावर नहीं, कोई सत्ता नहीं, कोई पत्रिका नहीं निकालता मैं, कहीं का अफसर नही हूं। तो मैंने देखा कि सामान्य जनता के प्रति ब्यूरोक्रेसी का जो व्यवहार होता है। वही साहित्य के अंदर ब्यूरोक्रेट्स मेरे प्रति करते हैं। यदि रविभूषण यह कहते हैं कि इसने पीली छतरी वाली लड़की मे बोर्खेज की नकल की है.. उस समय मैं बीमार था और पहली बार शायद संयम खोया । पहली बार मैंने अदालत में जाने की पहल की तो ये कहने लगे कि उदय मुकदमेबाज है। तो यातो आप नकल करना स्वीकार कर लीजिए या फिर मुकदमेबाज कहलाइए। यू लेफ्ट रिव्यू और क्रिटकिल इंक्वायरी में लिखने वाले अमिताभ कुमार जो संसार के सबसे विशवसनीय माक्र्सवादी आलोचकों में से हैं वो यदि पाल गोमरा का स्कूटर, तिरिछ और मोहनदास की तारीफ करते हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह हिंदीवालों का गैंग क्या करता है।

(साक्षात्कार लंबा है इसका दूसरा हिस्सा अगले कुछ दिनों में ....)

हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही जा रही है


हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट पकड़ ली जाएगी
और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख्स शर्म में शामिल नहीं
और मारे जाओगे

हँसते हँसते किसी को जानने मत दो किस पर हँसते हो
सब को मानने दो कि तुम सब की तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाए

जितनी देर ऊंचा गोल गुंबद गूंजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से
गूंज थमते थमते फिर हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फंसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे

हँसो पर चुटकलों से बचो
उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हो जो किसी ने सौ साल साल पहले दिए हों

बेहतर है कि जब कोई बात करो तब हँसो
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो
जो कि अनिवार्य हों
जैसे ग़रीब पर किसी ताक़तवर की मार
जहां कोई कुछ कर नहीं सकता
उस ग़रीब के सिवाय
और वह भी अकसर हँसता है

हँसो हँसो जल्दी हँसो
इसके पहले कि वह चले जाएं
उनसे हाथ मिलाते हुए
नज़रें नीची किए
उसको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे !

-रघुवीर सहाय

भगत सिंह की याद में


उनकी शहादत के 75 वर्ष पूरे होने पर

ब्रिटिश सरकार ने 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फाँसी दी तो वे केवल तेईस साल के थे। लेकिन आज तक वे हिन्दुस्‍तान के नौजवानों के आदर्श बने हुए हैं। इस छोटी सी उम्र में उन्होंने जितना काम किया और जितनी बहादुरी दिखायी, उसे केवल याद कर लेना काफी नहीं है। हम उन्हें श्रध्दांजलि देते हैं। 1926 में भगत सिंह ने नौजवान भारत सभा का गठन किया। नौजवानों का यह संगठन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शोषण के कारनामे लोगों के सामने रखने के लिए बनाया गया था। मुजफ्फर अहमद, जो कि कम्युनिस्ट पार्टी के स्थापना सदस्य थे, अठारह साल के भगत सिंह के साथ अपनी मुलाकात को याद करते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1925 में कानपुर में हुआ था और कानपुर बोल्शेविक कान्‍स्पिरेसी केस के तहत अब्दुल मजीद और मुजफ्फर अहमद गिरफ्तार कर लिए गये थे। भगत सिंह कॉमरेड अब्दुल मजीद के घर उन दोनों का सम्मान करने गये। जाहिर है, अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत से ही भगत सिंह का रुझान कम्युनिस्ट आंदोलन की तरफ था।

1930 में जब भगत सिंह जेल में थे, और उन्हें फाँसी लगना लगभग तय था, उन्होंने एक पुस्तिका लिखी, मैं नास्तिक क्यों हूँ। यह पुस्तिका कई बार छापी गयी है और खूब पढ़ी गयी है। इसके 1970 के संस्करण की भूमिका में इतिहासकार विपिन चंद्र ने लिखा है कि 1925 और 1928 के बीच भगत सिंह ने बहुत गहन और विस्‍तृत अध्ययन किया। उन्होंने जो पढ़ा, उसमें रूसी क्रांति और सोवियत यूनियन के विकास संबंधी साहित्‍य प्रमुख था। उन दिनों इस तरह की किताबें जुटाना और पढ़ना केवल कठिन ही नहीं बल्कि एक क्रांतिकारी काम था। भगत सिंह ने अपने अन्य क्रांतिकारी नौजवान साथियों को भी पढ़ने की आदत लगायी और उन्हें सुलझे तरीके से विचार करना सिखाया।

1924 में जब भगत सिंह 16 साल के थे, तो वे हिन्दुस्‍तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) में शामिल हो गये। यह एसोसिएशन सशस्त्र आंदोलन के जरिये ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खत्‍म करना चाहता था। 1927 तक HRA के अधिकतर नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे और कुछ तो फाँसी के तख्‍ते तक पहुँच चुके थे। HRA का नेतृत्‍व अब चंद्रशेखर आजाद और कुछ अन्य नौजवान साथियों के कंधों पर आ पड़ा। इनमें से प्रमुख थे भगत सिंह। 1928 बीतते भगत सिंह और उनके साथियों ने यह तयk कर लिया कि उनका अंतिम लक्ष्‍य समाजवाद कायम करना है। उन्होंने संगठन का नाम HRA से बदलकर हिन्दुस्‍तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) रख लिया। यह सोशलिस्ट शब्द संगठन में जोड़ने से एक महत्त्वपूर्ण तब्‍दीली आयी और इसके पीछे सबसे बड़ा हाथ था भगत सिंह का। सोशलिज्म शब्द की समझ भगत सिंह के जेहन में एकदम साफ थी। उनकी यह विचारधारा मार्क्सवाद की किताबों और सोवियत यूनियन के अनुभवों के आधार पर बनी थी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ तब तक जो सशस्त्र संघर्ष हुए थे, उन्हें भगत सिंह ने मार्क्सवादी नजरिये से गहराई से समझने की कोशिश की।

दिल्ली असेम्बली में बम फेंकने के बाद 8 अप्रैल 1929 के दिन भगत सिंह बटुकेश्वर दत्त के साथ जेल पहुँचे। बम फेंककर भागने के बजाय उन्होंने गिरफ्तार होने का विकल्प चुना। जेल में उनकी गतिविधियों का पूरा लेखा-जोखा आज हमें उपलब्ध है। उन दिनों भगत सिंह का अध्ययन ज्यादा सिलसिलेवार और परिपक्व हुआ। लेकिन अध्ययन के साथ-साथ भगत सिंह ने जेल में राजनैतिक कैदियों के साथ होने वाले बुरे सलूक के खिलाफ एक लम्बी जंग भी छेड़। यह जंग सशस्त्र क्रांतिकारी जंग नहीं थी, बल्कि गांधीवादी किस्म की अहिंसक लड़ाई थी। कई महीनों तक भगत सिंह और उनके साथी भूख हड़ताल पर डटे रहे। उनके जेल में रहते दिल्ली एसेम्बली बम कांड और लाहौर षडयंत्र के मामलों की सुनवाई हुई। बटुकेश्वर दत्त को देशनिकाले की और भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरू को फाँसी की सजा हुई।

बेहिसाब क्रूरता के बावजूद ब्रिटिश सरकार उनके हौसलों कोस्‍त नहीं कर पायी। सुश्री राज्यम सिन्हा ने अपने ति विजय कुमार सिन्हा की याद में एक किता लिखी। किताब का नाम है एक क्रांतिकारी के बलिदान की खोज। इस पुस्‍तक में उन्होंने विजय कुमार सिन्हा और उनके दोस्‍त भगत सिंह के बारे में कुछ मार्मिक बातें लिखी हैं। इन क्रांतिकारी साथियों ने कोर्ट में हथकड़ी पहनने से इन्कार कर दिया था। कोर्ट मान भी गयी, लेकिन अपने दिये हुए वादे का आदर नहीं कर पायी। जब कैदी कोर्ट में घुसे तो झड़प शुरू हो गयी और फिर बेहिसाब क्रूरता और हिंसा हुई। - जब पुलिस को यह लगा कि उनकी इज्ज पर बट्टा लग रहा है तो पठान पुलिस के विशेषस्‍ते को बुलाया गया जिन्होंने निर्दयता के साथ कैदियों को पीटना शुरू किया। पठान पुलिस दस्‍ता अपनी क्रूरता के लिए खास तौर पर जाना जाता था। भगत सिंह के ऊपर आठ पठान दरिंदे झपटे और अपने कँटीले बूटों से उन्हें ठोकर मारने लगे। यही नहीं, उनपर लाठियाँ भी चलाई गयीं। एक यूरोपियन अफसर राबर्टस ने भगत सिंह की ओर इशारा करते हुए कहा कि यही वो आदमी है, इसे और मारो। पिटाई के बाद वे इन क्रांतिकारियों को घसीटते हुए ऐसे ले गये, जैसे भगत सिंह लकड़ी के ठूँठ हों। उन्हें एक लकड़ी की बेंच पर पटक दिया गया। ये सारा हँगामा कोर्ट कंपाउंड के भीतर बहुतेरे लोगों के सामने हुआ। मजिस्ट्रेट खुद भी यह नजारा देख रहे थे। लेकिन उन्होंने इसे रोकने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने बाद में बहाना यह बनाया कि वे कोर्ट के प्रमुख नहीं थे, इसलिए पुलिस को रोकना उनकी जिम्मेदारी नहीं थी।

शिव वर्मा, जो बाद में सीपीएम के सीनियर कॉमरेड बने और अजय कुमार घोष, जो सीपीआई के महासचिव हुए, इस वारदा में बेहोश हो गये। तब भगत सिंह उठे और अपनी बुलंद आवाज में कोर्ट से कहा, मैं कोर्ट को बधाई देना चाहता हूँ ! शिव वर्मा बेहोश पड़े हैं। यदि वे मर गये तो ध्यान रहे, जिम्मेदारी कोर्ट की ही होगी।

भगत सिंह उस समय केवल बाईस वर्ष् के थे लेकिन उनकी बुलंद शख्सियत ने ब्रिटिश सरकार को दहला दिया था। ब्रिटिश सरकार उन आतंवादी गुटों से निपटना तो जानती थी, जिनका आतंकवाद उलझी हुई धार्मिक व राष्ट्रवादी विचारधारा पर आधारि होता था लेकिन जब हिन्दुस्‍तान रिपब्लिक एसोसिएशन का नाम बदलकर हिन्दुस्‍तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन हो गया और भगत सिंह उसके मुख्य विचारक बन गये तो ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार दहश में आ गयी। भगत सिंह के परिपक्व विचार जेल और कोर्ट में उनकी निर्भीक बुलंद आवाज के सहारे सारे देश में गूँजने लगे। देश की जनता अब उनके साथ थी। राजनीतिक कैदियों के साथ जेलों में जिस तरह का अमानवीय बर्ताव किया जाता था, उसके खिलाफ भगत सिंह ने जंग छेड़ दी और बार-बार भूख हड़ताल की। उनका एक प्यारा साथी जतिन दास ऐसी ही एक भूख हड़ताल के दौरान लाहौर जेल में अपने प्राण गँवा बैठा। जब उसके शव को लाहौर से कलकत्ता ले जाया गया, तो लाखों का हुजूम कॉमरेड को आखिरी सलामी देने स्टेशन पर उमड़ आया।

कांग्रेस पार्टी का तिहास लिखने वाले बी. ट्टाभिरमैया के अनुसार इस दौरान भगत सिंह और उनके साथियों की लोकप्रियता तनी ही थी, जितनी महात्‍मा गांधी की !

जेल में अपनी जिन्दगी के आखिरी दिनों में भगत सिंह ने बेहिसाब पढ़ाई की। यह जानते हुए भी कि उनके राजनीतिक कर्मों की वजह से उन्हें फाँसी होने वाली है, वे लगाता पढ़ते रहे। यहाँ तक कि फाँसी के तख्‍ते पर जाने के कुछ समय पहले तक वे लेनिन की एक किता पढ़ रहे थे, जो उन्होंने अपने वकील से मँगायी थी। पंजाबी क्रांतिकारी कवि पाश ने भगत सिंह को श्रध्दांजलि देते हुए लिखा है, लेनिन की किताब के उस पन्ने को, जो भगत सिंह फाँसी के तख्‍ते पर जाने से पहले अधूरा छोड़ गये थे, आज के नौजवानों को पढ़कर पूरा करना है। गौरतलब है कि पाश अपने प्रिय नेता के बलिदान वाले दिन, 23 मार्च को ही खालिस्‍तानी आतंकवादियों द्वारा मार दिये गये।

भगत सिंह ने जेल में रहते हुए जो चिट्ठियॉं लिखते थे, उनमें हमेशा किताबों की एक सूची रहती थी। उनसे मिलने आने वाले लोग लाहौर के द्वारकादास पुस्‍तकालय से वे पुस्‍तकें लेकर आते थे। वे किताबें मुख्य रूप से मार्क्सवाद, अर्थशास्त्र, तिहास और रचनात्‍मक साहित्‍य की होती थीं। अपने दोस्‍त जयदेव गुप्‍ता को 24 जुलाई 1930 को जो ख़त भगत सिंह ने लिखा, उसमें कहा कि अपने छोटे भाई कुलबीर के साथ ये किताबें भेज दें : 1) मिलिटेरिज्‍म (कार्ल लाईबनि), 2) व्हाई मेन फाईट (बर्न्टेड रसेल), 3) सोवियत्‍स ऐट वर्क 4) कॉलेप्स ऑफ दि सेकेण्ड इंटरनेशनल 5) लेफ्ट विंग कम्यूनिज्म (लेनिन) 6) म्युचुअल एज (प्रिंस क्रॉप्टोकिन) 7) फील्ड, फैक्टरीज एण्ड वर्कशॉप्स, 8) सिविल वार इन फ्रांस (मार्क्स), 9) लैंड रिवोल्यूशन इन रशिया, 10) पंजाब पैजेण्ट्स इन प्रोस्पेरिटी एण्ड डेट (डार्लिंग) 11) हिस्टोरिकल मैटेरियलिज्म (बुखारिन) और 12) द स्पाई (ऊपटॉन सिंक्लेयर का उपन्यास)

भगत सिंह औपचारिक रूप से ज्या पढ़ाई या प्रशिक्ष हासिल नहीं कर पाए थे, फिर भी उन्हें चार भाषाओं का अच्छा ज्ञा था। उन्होंने पंजाबी, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में लिखा है। जेल से मिले उनके नोटबुक में 108 लेखकों के लेखन और 43 किताबों में से चुने हुए अंश मौजूद हैं। ये अंश मुख्य रूप से मार्क्स और एंगेल्स के लेखन से लिए गए हैं। उनके अलावा उन्होंने थॉमस पाएन, देकार्ट, मैकियावेली, स्पिनोजा, लार्ड बायरन, मार्क ट्वेन, एपिक्यूरस, फ्रांसिस बेकन, मदन मोहन मालवीय और बिपिन चंद्र पाल के लेखन के अंश भी लिए हैं। उस नोटबुक में भगत सिंह का मौलिक एवं विस्‍तृत लेखन भी मिलता है, जो दि साईंस ऑफ दि स्टेट शीर्षक से है। ऐसा लगता है कि भगत सिंह आदिम साम्यवाद से आधुनिक समाजवाद तक समाज के राजनीतिक तिहास पर कोई किताब या निबंध लिखने की सोच रहे थे।

जिस बहादुरी और दृढ़ता के साथ भगत सिंह ने मौ का सामना किया, आज के नौजवानों के सामने उसकी दूसरी मिसाल चे ग्वारा ही हो सकते हैं। चे ग्वारा ने क्रांतिकारी देश क्यूबा में मंत्री की सुरक्षित कुर्सी को छोड़कर बोलिविया के जंगलों में अमेरिकी साम्राज्यवाद से लड़ने का विकल्प चुना। चे ग्वारा राष्ट्रीय सीमाएँ लाँघकर लातिनी अमेरिका के लोगों को पढ़ना-लिखना सिखाते थे। ये सच है कि चे ग्वारा का व्यक्ति अनुभव भगत सिंह की तुलना में हुत ज्यादा विस्‍तृत था, और उसी वजह से उनके विचार भी अधिक परिपक्व थे। लेकिन क्रांति के लिए समर्पण और क्रांति का उन्माद दोनों ही नौजवान साथियों में एक जैसा था। दोनों ने साम्राज्यवाद और पूँजीवादी शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ी। दोनों ने ही अपने उस मकसद के लिए जान दे दी, जो उन्हें अपनी जिन्दगी से भी ज्यादा प्यारा था।

20 मार्च 1931 को, अपने शहादत के ठीक तीन दिन पहले भगत सिंह ने पंजाब के गवर्नर को एक चिट्ठी लिखी, हम यह स्पष्ट घोषणा करें कि लड़ाई जारी है। और यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक हिन्दुस्‍तान के मेहनतकश इंसानों और यहाँ की प्राकृतिक सम्पदा का कुछ चुने हुए लोगों द्वारा शोषण किया जाता रहेगा। ये शोषक केवल ब्रिटिश पूँजीपति भी हो सकते हैं, ब्रिटिश और हिन्दुस्‍तानी एक साथ भी हो सकते हैं, और केवल हिन्दुस्‍तानी भी। शोषण का यह घिनौना काम ब्रिटिश और हिन्दुस्‍तानी अफसरशाही मिलकर भी कर सकती है, और केवल हिन्दुस्‍तानी अफसरशाही भी कर सकती है। इनमें कोई फर्क नहीं है। यदि तुम्हारी सरकार हिन्दुस्‍तान के नेताओं को लालच देकर अपने में मिला लेती है, और थोड़े समय के लिए हमारे आंदोलन का उत्‍साह कम भी हो जाता है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि हिन्दुस्‍तानी आंदोलन और क्रांतिकारी पार्टी लड़ाई के गहरे अँधियारे में एक बार फिर अपने-आपको अकेला पाती है, तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लड़ाई फिर भी जारी रहेगी। लड़ाई फिर से नये उत्‍साह के साथ, पहले से ज्यादा मुखरता और दृढ़ता के साथ लड़ी जाएगी। लड़ाई तबतक लड़ी जाएगी, जबतक सोशलिस्ट रिपब्लिक की स्थापना नहीं हो जाती। लड़ाई तब तक लड़ी जाएगी, जब तक हम इस समाज व्यवस्था को बदल कर एक नयी समाज व्यवस्था नहीं बना लेते। ऐसी समाज व्यवस्था, जिसमें सारी जनता खुशहाल होगी, और हर तरह का शोषण खत्‍म हो जाएगा। एक ऐसी समाज व्यवस्था, जहाँ हम इंसानियत को एक सच्ची और हमेशा कायम रहने वाली शांति के दौर में ले जाएँगे......... पूँजीवादी और साम्राज्यवादी शोषण के दिन अब जल्द ही खत्‍म होंगे। यह लड़ाई न हमसे शुरू हुई है, न हमारे साथ खत्‍म हो जाएगी। इतिहास के इस दौर में, समाज व्यवस्था के इस विकृत परिप्रेक्ष्‍य में, इस लड़ाई को होने से कोई नहीं रोक सकता। हमारा यह छोटा सा बलिदान, बलिदानों की श्रृंखला में एक कड़ी होगा। यह श्रृंखला मि. दास के अतुलनीय बलिदान, कॉमरेड भगवतीचरण की मर्मांतक कुर्बानी और चंद्रशेखर आजाद के भव्य मृतयुवरण से सुशोभित है।

उसी 20 मार्च्र के दिन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने दिल्ली की एक आम सभा में कहा, आज भगत सिंह इंसान के दर्जे से ऊपर उठकर एक प्रती बन गया है। भगत सिंह क्रांति के उस जुनून का नाम है, जो पूरे देश की जनतापर छा गया है।

फ्री प्रेस जर्नल ने अपने 24 मार्च 1931 के संस्करमें लिखा, शहीद भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव आज जिन्दा नहीं हैं। लेकिन उनकी कुर्बानी में उन्हीं की जी है, यह हम सबको ता है। ब्रिटिश अफसरशाही केवल उनके नश्वर शरीर को ही त्‍म कर पायी, उनका जज्बा आज देश के हर इंसान के भीतर जिन्दा है। और इअर्थ में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव अमर हैं। अफसरशाही उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। इस देश में शहीद भगत सिंह और उनके साथी स्वतंत्रता के लिए दी गयी कुर्बानी के लिए हमेशा याद किए जाएँगे। सचमुच, 1931 के ब्रिटिश राज के उन आकाओं और कारिंदों की याद आज किसी को नहीं, लेकिन तेईस साल का वह नौजवान, जो फाँसी के तख्‍ते पर चढ़ा, आज भी लाखों दिलों की धड़कन है।

आज अगर हम भगत सिंह की जेल डायरी और कोर्ट में दिये गये वक्‍तव्य पढ़ें, और उसमें से केवल ब्रिटिश शब्द को हटाकर उसकी जगह अमेरिकन डाल दें, तो आज का परिदृश्य सामने आ जाएगा। भगत सिंह के जेहन में यह बा बिल्कुल साफ थी, कि शोषक ब्रिटिश हों या हिन्दुस्‍तानी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आज लालच के मारे हिन्दुस्‍तानी नेता और अफसर अमरीकी खेमे में जा घुसे हैं। लेकिन भगत सिंह के ये शब्द हमारे कानों में गूँज रहे हैं - लड़ाई जारी रहेगी। आज के बोलिविया में चे ग्वारा और अलान्दे फिर जीवित हो उठे हैं। लातिनी अमेरिका की इस नयी क्रांति से अमरीका सहम गया है। उसी तरह हिन्दुस्‍तान में भगत सिंह के फिर जी उठने का डर बुशों और ब्लेयरों को सताता रहे।

विपिन चंद्र ने सही लिखा है कि हम हिन्दुस्‍तानियों के लिए यह बड़ी त्रासदी है कि इतनी विलक्ष सोच वाले व्यक्ति के बहुमूल्य जीवन को साम्राज्यवादशासन ने इतनी जल्दीत्‍म कर डाला। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद ऐसे घिनौने काम करता ही है, चाहे हिन्दुस्‍तान हो या वियतना, इराक हो, फिलीस्‍तीन हो या लातिन अमरीका। लेकिन लोग इस तरह के जुर्मों का बदला अपनी तरह से लेते हैं। वे अपनी लड़ाई और ज्यादा उग्रता से लड़ते हैं। आज नहीं तो कल, लड़ाई और ते होगी, और तावर होगी। हमारा काम है क्रांतिकारियों की लगाई आग को अपने जेहन में ताजा बनाए रखना। ऐसा करके हम अपनी कल की लड़ाई को जीने की तैयारी कर रहे होते हैं।

--लेखक, श्री चमनलाल, प्राध्यापक, जे एन यू, दिल्ली

अनुवादक डा. जया मेहता