यौन कुंठित कट्टरपंथी हैं हुसैन

आज दोपहर ओम भाई से हुसैन साहब के बारे में बात हो रही थी। उन्होंनेएक बात कही कि हुसैन के लिए भारत की नागरिकता का त्याग करनाइतना ही महत्व रखता है जितना कि उनका जूताचप्पल पहनना हुसैन अच्छे कलाकार हैं. ढेर सारे दूसरे कलाकारों की तरह. ये उठता हैकि हुसैन को किन वजहों से भारत और भारतीयता का त्याग करने मेंहिचक नहीं हुई और कौन सी वजहों से वे पिछले चार सालों सेस्वनिर्वासित जीवन बिता रहे थे, दुबई में।



1 क्या हुसैन के खिलाफ कोई फतवा जारी हुआ जान से मारने का?
2. क्या हुसैन पर देश में कभी कोई जानलेवा हमला किया गया?
3. क्या हुसैन ने देवी देवताओं के आपत्तिजनक चित्र नहीं बनाए?
4. क्या उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाइयों के अलावा कोई समांतर दबाव था?
5. क्या उनकी पीड़ा तसलीमा नसरीन से बड़ी थी?
6. क्या उनके सरोकार तसलीमा नसरीन से ज्यादा थे?

इन सारे सवालों का जवाब है। तो फिर हुसैन को भारत की नागरिकता क्यों छोड़नी पड़ी। तमाम असहमतियों केबावजूद भी मुझे अपने देश पर गुरूर होता है दोस्त, कुछ कुछ वैसा ही जैसा अपने मां बाप पर होता है। मुझे तो देशफांसी पर भी चढ़ा दे तो भी उसका मलाल नहीं होगा और हुसैन तो ऐसे कोई बौद्धिक और प्रगतिशील भी नहीं ठहरेकि उनका इन चीजों पर यकीन ही हो।

चित्रकला में अपनी सीमित समझ के लिए माफी मांगते हुए मैं कहना चाहूंगा की हुसैन ने अपनी कलासे देश को जोदिया और बदले में जो लिया उसका भी आकलन होना चाहिए।

मुझे अपनी ये राय सार्वजनिक करने में दुःख हो रहा है की दरअसल मकबूल फिदा हुसैन एक औसत दर्जे केकलाकर, कुंठित और अपने अंतस में कट्टरपंथी व्यक्तित्व का नाम है। मैंने हज़ार बार अपनी इस राय को बदलने कीकोशिश की होगी और हुसैन साहब ने अपनी हरकतों से लाख बार मुझे इससे रोक
दिया।

अपनों के बीच जाकर रहने के उनके फैसले पर मुझे कोई अचरज नहीं हुआ है। और मुझे उस सवाल के जवाब काआज भी इंतज़ार है की मुस्लिम प्रतीकों के इस्तेमाल के दौरान हुसैन साहब की प्रगतिशीलता और कल्पनाशीलताकहाँ घुस जाती है।

पुनीत की कवितायेँ


आप पुनीत से मिलेंगे तो मेरे इस हंसमुख युवा दोस्त की आँखों में एक अजीब सा खलल दिखेगा आप को उसका एक मासूम सा सपना है जिसे करोडो आँखें अलग अलग समय में देखती रही हैं वो इस दुनिया से खुश नहीं है और एक दिन इसे बदल देना चाहता है पुनीत को पढना अच्छा लगता है। वहबहुत अच्छी कवितायेँ लिखता है, रंगकर्म उसे बहुत प्रिय है। इन दिनों वह मायएफएम इंदौर में स्क्रिप्टराईटर है
पुनीत ने मुझसे वादा किया है की वह मित्र कथाकार चन्दन पाण्डेय की कहानियों पर मेरे ब्लॉग के लिए कुछ लिखेगा उससे पहले पढ़िए पुनीत की कुछ छोटी लेकिन महत्वपूर्ण कवितायें-संदीप


तप



क्रांति का तप
इस तरह हो
कि कोई आपके कमंडलों को
गलाकर
बनाकर
उसकी कॉपर-टी
उसे लगा दे
क्रांति के योनिद्वार पे
और आपको
पता भी चले



2

वो कबूतरों की बात करता है



वो कबूतरों की बात करता है
उसके कई कबूतरखाने हैं
वो अमन की बात करता है
उसकी छत पे भी कबूतर उड़ते है
वो लगातार अमन की बात
कर रहा है
और चाहता है कि
हर चीज़ अमन कि तरह सफ़ेद हो जाए
हमारा खून भी
घटना-स्थल पर फैला हुआ
सफ़ेद खून
पुलिस कि मार से मुँह से निकला
सफ़ेद खून
उसने खून को
दूध भी कह दिया है
वो लगातार अमन कि बात कर रहा है
हाँ,
उसका खून अमन कि तरह
सफ़ेद है
क्यूँकी वो सफ़ेद कबूतर खता है
हमारा खून क्रांति कि तरह
लाल
क्यूँकी हम लाल गेंहू खाते हैं
उसका अमन का सफ़ेद कबूतर अन्दर से
लाल निकलता है
हमारा क्रांति का लाल गेंहू
अन्दर से सफ़ेद
वो कबूतरों की बात करता है
उसके कई कबूतरखाने हैं
-

सचिन का दोहरा शतक, प्रभाष जी आप देख रहे हो न...




यह लेखअविनाश जी की डिमांड पर मोहल्ले के लिए जल्दबाजी में लिखा था। आप भी पढ़ें- संदीप

कभी कभी ही ऐसा होता है कि हम कर्मचारी से इंसान हो जाते हैं अचानक।

आज शाम जब ऑफिस पहुंचा, सचिन 165 पर खेल रहे थे। रेल बजट देखा रहाथा कि एक साथी ने बताया सचिन 175 पर पहुंच गया है। पीछे टीवी की ओरनजरें डाली। पूरा ऑफिस तल्लीन है। मैं भी देखने लगा। अचानक सचिन केदिसंबर में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ बनाये 175 रन याद आये और याद आये प्रभाषजी।

सचिन 196 पर पहुंच गये हैं। मैंने मोबाइल परसचिन के 200 रन पूरेका मैसेज तैयार कर कई दोस्तों के नामसेट कर दिये हैं।

एक दोस्त का फोन आता है किसी अननोन नंबर से। कहता है देहात में हूं, क्या सचिन के 200 रन पूरे हो गये। मैंकहता हूं, नहीं यार, एक रन चाहिए। ये धोनी का बच्चा स्ट्राइक ही नहीं दे रहा। वो कहता है मैं फोन पर रहूंगा। मुझेमहसूस करना है सचिन का दोहरा शतक।

आखिरी ओवर की तीसरी गेंद। सचिन का दोहरा शतक पूरा। दिल धड़ाके मार रहा है। तालियों की गड़गड़ाहट। शोरमें मैं संज्ञा शून्य हो गया हूं। आंख भर आयी है। प्रभाष जी कहां हो आपदेख रहे हो अपने लाडले का कमाल! सोच रहा हूं कल का जनसत्ता कैसा होगा? पढ़ भी पाऊंगा या नहीं।

एक बार एक साथी ने कहा था, प्रभाष जी की मौत को क्रिकेट से जोड़ कर तुम उनके योगदान का अपमान कर रहेहो। मैं उससे क्या कहताकि क्रिकेट और सचिन को लेकर उनकी आस्था और मोह सारे तर्कों से परे था।

मखमली आवाज का वो जादुई स्पर्श ।


संगीत की ताकत, उसके जादू के जिन किस्सों को हम बचपन से सुनते आए हैं। उनकी हकीकत से रूबरू होना हो तो तलत महमूद की मखमली आवाज से होकर गुजरना होगा। तलत साहब की आज 86वीं सालगिरह है।

1924 में लखनऊ के एक रवायती मुस्लिम परिवार में जन्में तलत महमूद को कुदरत ने रेशमी आवाज से नवाजा था। उनकी आवाज की अनोखी लरजिश ने उन्हें सिने – गजल गायिकी में एक अलग मुकाम दिलाया। मारिस म्यूजिक कालेज से संगीत की शिक्षा के दौरान महज 16 साल की उम्र में उन्हें आल इंडिया रेडियो पर गाने का मौका मिला। कहते हैं हीरे की परख जौहरी ही जानता है। 1941 में एचएमवी ने उनकी आवाज मे पहला एलबम निकाला सब दिन एक समान नहीं था। उनकी गजल तस्वीर ' तेरी दिल मेरा बहला न सकेगी... ने उनकी पहचान हिंदुस्तान के कोने-कोने में फैला दी।

तलत की पारंपरिक नायक की सी धज ने उन्हें हीरो बनने को प्रेरित किया। वे सिनेमा में नायक के रूप में भाग्य आजमाने कोलकाता के रास्ते मुंबई जा पहुंचे। मशहूर फिल्मकार एआर कारदार ने उन्हें अपनी फिल्म दिल ए नादां में नायक चुना। उस फिल्म में तलत का गाया गीत- जिंदगी देने वाले सुन उनकी पहचान बन गया। बहुत जल्द उन्हें महसूस हो गया कि वे अभिनय के लिए नहीं बने हैं।

तलत की आवाज का मखमली कंपन उन्हें अपने समकालीन अन्य गायकों से अलग बनाता था लेकिन कुछ लोगों की नकारात्मक कमेंट से निराश तलत वैसी गायिकी से तौबा करने चले । बात पहुंची मशहूर संगीतकार अनिल बिस्वास तक। उन्होंने तलत को जमकर डांट लगाई। बिस्वास ने कहा कि आवाज की यही थिरकन उन्हें तलत महमूद बनाती है। वरना क्या गायकों की कमी है सिनेजगत में।

तलत साहब की गायिकी का अंदाजा लगाने के लिए एक एक्सरसाइज करते हैं। किसी भी लोकप्रिय फिल्मी गीत को याद करें। तत्काल दिमाग में गायक के साथ एक अभिनेता की छवि उभर आती है। अब तलत के गाए गीतों को याद करें। मैं दिल हूं इक अरमान भरा…, ए मेरे दिल कहीं और चल…जलते हैं जिसके लिए… शामे गम की कसम…हमसे आया न गया… ए दिल मुझे ऐसी जगह ले चल…आदि गीतों की लंबी फेहरिस्त है जिन्हें सुनते हुए कोई चेहरा याद नहीं आता केवल तलत की रसीली आवाज कानों में घुलती है।

हालांकि तलत की आवाज की यही खूबी उनकी सीमा भी थी। गजलों के अलावा उन्हें हर तरह के गीत गाने को नहीं मिले। 60 के दशक में राक एंड रोल तथा ओर्केस्ट्रा ने तलत जैसे गायक को चलन से लगभग बाहर कर दिया लेकिन परदे के बाहर उनके चाहने वालों की कमी थोड़े ही थी। वे 1956 में सिंगिंगकंसर्ट में विदेशा जाने वाले पहले भारतीय गायक बने। सन 1991 तक उन्होंने अफ्रीका, अमेरिका, यूके, वेस्ट इंडीज के अनेक देशों में आवाज का जादू बिखेरा। अमेरिका में तो जो फ्रैंकलिन ने अपने मशहूर टीवी शों में उनका परिचय फ्रैंक सिनात्रा आफ इंडिया के रूप में कराया।

9 मई 1998 को दुनिया से रुखसत हुए तलत साहब की याद उनके लाखों प्रशंसकों के दिलों में आज भी जिंदा है और हमेशा रहेगी।


असफल प्रेम और आत्महत्या


ज अखबार में छपे राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक देश में रोजाना कम से कम दस युवा असफल प्रेम के चलते जिंदगी से तौबा कर लेते हैं। ये आंकड़ा गरीबी व बेरोजगारी के कारण होने वाली खुदकुशी की घटनाओं की तुलना में कहीं ज्यादा है।

हम तब शायद 5-6 साल के थे। पड़ोस में रहने वाले 22 साल के एक नौजवान ने आत्महत्या कर ली थी। शाम का वक्त था जब उसके घर से पहली चीख गूंजी। उसके बाद तो रुदन की अनवरत धारा बह चली। हमें घर से बाहर निकलने नहीं दिया गया। रात में बाबूजी को अम्मा से कहते सुना बहुत हिकारत भरे स्वर में- “ साले को जवानी चढ़ी थी। आशिकी कर रहे थे जनाब। फिल्म देख देख कर ये लोग मुहब्बत करने लगते हैं। मां-बाप, घर द्वार सब भूलभाल कर ये किस चाह में पड़ जाते हैं कि अपना सबकुछ बौना लगने लगता है।”

वह लड़का हमारे पड़ोस में रहने वाली एक लड़की से प्रेम करता था। उनका अंतरजातीय प्रेम रास नहीं आया परिवार वालों को। बंदिशें बढ़ीं और एक दिन दोनों घर छोड़कर भाग निकले। दो तीन महीने बीते थे कि कहीं से लड़की के घर वालों को उनका ठिकाना मालूम हो गया। बताने की जरूरत नहीं कि लड़की सवर्ण् थी। जीप में भरकर उसके घरवाले गए उन्हें पकड़ने।
अगले दिन मुहल्ले के कुंए पर उस लड़की को सबके सामने नहलाया गया। मेरे मन में महिलाओं की सबसे क्रूर छवि वही है जब चार महिलाएं मिलकर कुंए पर उस लड़की की मांग में लगा सिंदूर धो रही थीं। वह चीख रही थी। चिल्ला रही थी और हर संभव प्रतिरोध कर रही थी. एक महीने बाद आननफानन में उसकी शादी कर दी गई।

‘शादी के कुछ ही दिनों बाद उसका प्रेमी लौट आया। वह बहुत उदास रहता, उसकी आंखों में देखकर लगता वहां आंसुओं की कोई नदी ठहरी हुई है । कुछ दिन बीते और उसने उसी नदी में डूबकर जान दे दी। उसने फांसी लगा ली।

तब बहुत अचरज लगता था कि कैसे कोई अजनबी आपके जीवन में इतनी गहरी पैठ बना लेता है कि आप उसके लिए जीने मरने लगते हैं। प्यार करना बहुत ग्लैमरस काम था उन दिनों। हम अपनी किशोरावस्था में उन साथियों को बड़े रश्क से देखते जिनकी अपनी गलर्फ्रैंड थीं।

हमारे लिए वे नायक थे। हम अपने आपको उनके सामने बौना महसूस करते। हम तो उनके साथ कोई खेल बिना खेले ही हार जाते थे। क्योंकि हमें पता था कि कुछ तो बात है इसमें तभी तो वह खूबसूरत सी लड़की जो मुझे देखती भी नहीं वह इसकी साइकिल पर बैठने में गुरेज नहीं करती इतना ही नहीं इसके लिए चाकलेट तक खरीदकर लाती है। अपनी पाकेट मनी के पैसे से ।

वह लड़की अब भी अपने मायके आती है। उसके दो बच्चे हैं। पता नहीं वह अपने प्रेमी के घर की ओर देखती भी है अथवा नहीं लेकिन उसकी सिक्कों सी खनखनाती हंसी की आवाज अब कभी सुनाई नहीं देती।

--

प्रेम के लिए दो मिनट का मौन






कल वैलेंटाइन डे है। कुछ साल पहले जब मैं भोपाल में था तब वहां इसका ताजा-ताजा विरोध शुरू हुआ था। उन दिनों मैंने यह कविता लिखी थी। एक बार ब्लाग पर डाल चुका हूं आज दोबारा पोस्ट कर रहा हूं।




फागुन के पागल महीने में
हम चाह ही रहे थे गाना बसन्ती गीतकी आ गया
नए सांस्कृतिक रथ पर सवार वैलेंटाइन डे

अकेले नही आया है
प्रेम का ये त्यौहार
इसके ऑफर पैक में मिले हैं
रोज डे ,फ्रेंडशिप डे और जाने क्या क्या ??

अब तो लगता है
की जैसे इसके आने से पहले
बिना प्रेम के रह लिए हम हजारों साल
वसंतोत्सव ?
जैसे वैलेंटाइन डे का कोई उपनिवेश
पीले वस्त्रों में लिपटा सौंदर्य
मानुस प्रेम
सरसों के खेत
जैसे बीते युग की कोई बात

इन्हे तो भुलाना ही था हमें
क्यूंकि वसंतोत्सव को
सेलिब्रेट नही कर सकते
कोक और पिज्जा के साथ
ठीक नही लगता ना

सुना तुमने
वैलेंटाइन डे आ रहा है
टीवी चॅनल पढेंगे
उसकी शान में कसीदे
और कहेंगे
देश के लोगों खरीदो
मंहगे उपहार
क्यूंकि वही होंगे तुम्हारे प्रेम के यकीन
भावनाएं तो शुरुआत भर होती हैं
ओछी और सारहीन

१४ फरवरी को अचानक याद आयेगा प्रेम
और हम नोच डालेंगे बगिया के सारे फूल
घूमेंगे सडकों, बाजारों, परिसरों में
जहाँ भी दिखें प्रेमिकाएँ
जो थीं १३ तारिख तक महज लडकियां

मुर्दा संगठनों में नयी जान फून्केगा
वैलेंटाइन डे
निकल पड़ेंगे सडकों पर उनके लोग
लाठी डंडों और राखियों से लैस
जब उन्हें दिखाई देंगे
अपने ही भाई -बहन
दूसरों की गाड़ियों पर चिपके हुए
तो वे निपोरेंगे खीस
और दिल ही दिल में स्वीकारेंगे
परिवर्तन की बात
सोचता हूँ की अगर ये है प्रेम का प्रतीक
तो क्यों लाता है आँगन में बाजार
जीना सिखाता है सामानों के साथ

डरता हूँ
इस अंधी दौड़ में बसंतोत्सव
की तरह
हम मांग ना लायें होली और दीवाली के भी विकल्प

इस कठिन समय में जब प्रेम
आत्महंता तेजी से उतर रहा है
भावना से शरीर पर

आइये करें थोडी सी प्रार्थना
ताकि प्रेम बचा रहे
हमारे भीतर की गहराइयों में
ताकि हमें रखना न पड़े
प्रेम के लिए दो मिनट का
मौन

मुहाजिरनामा


मुहाजिर का अर्थ है एक जगह से उखड़कर दूसरी जगह नए सिरे से बसने वाला। इस तरह देखें तो हम सब के भीतर कहीं एक मुहाजिर बैठ हुआ है। मुंबई से मालवा तक मुहाजिरों की एक परंपरा सी बन गयी है. कोई बाखुशी मुहाजिर का चोला ओढ़ रहा है तो किसी के के लिए शब्द मजबूरी और शर्म का सबब है.
मुनव्वर राना की नज़्म मुहाजिर का एक हिस्सा पेशे नजर है मेरे दिल के बेहद करीब है ये नज़्म-



मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं

कहानी का ये हिस्सा आजतक सब से छुपाया है
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं

अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं

किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं

पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं

यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं

हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं

हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं

सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं

हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं

हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं

किसका जूता, किसका सर...


पहली बार नहीं हुआ है और हर बार नजरअंदाज किया गया हैं फर्क सिर्फ यह है कि इस मर्तबा ‘इस बार बार की गलती’ के साथ ऐसी शख्सियत का नाम जुड़ा है जिसे हम गुलजार के नाम से जानते हैं और जो हमारी नजरों में पाकीजा एहसास की तरह दर्ज रहा है। बिल्कुल उनके लिखे गीत की मानिंद हमने उन आंखों की महकती खुशबू देखी है हम उससे मुतासिर भी हुए र्हैं। बहरहाल इस दफा उस खुशबू में संदेह की परत चढ़ गई है। यह शक इतना पुख्ता जान पड़ता है कि उसने यकीन की शक्ल अख्तियार कर ली है। यकीन जो एक शख्सियत के लिए हमारी सिलसिलेवार मुहब्बत को छलनी कर रहा है।

अब आप लाख दिलासा दें कि आपके गुलजार यकीनन हिंदी सिनेमा के अकेले चश्मो-चिराग हैं जिसकी रोशनी में हमने अपने गमों की चादर को धोया है लेकिन आज वह रोशनी ध्ब्बे में तब्दील हो गई है। हमारे गमों से ज्यादा उस रोशनी का सच तकलीफदेह लग रहा है। भले ही बहस के दो दालान में बिछी चारपाई कुछ समय बाद दो पैरों पर खड़ी कर दी जाने वाली है मगर यह जिद्दी सवाल तो तब भी जस का तस रहेगा कि एक आलातरीन अदीब ऐसा कैसे कर सकता है।

अगर इलाहाबाद के कुछ जागरुक अदीबों ने यह मसला न उठाया होता तो साहित्य के ताबूत में एक कील और ठुक जाती। मार्क ट्वेन ने सच कहा है कि जब सच अपने जूते के तश्मे बांध रहा होता है तब तक झूठ के कदम कई मील दूर जाकर ठहर चुके होते हैं। लेकिन झूठ ने इस बार इब्नेबतूता के जूते पहने थे और जूते खुद अपना राज खोल गए।
इब्नेबतूता हैं... उनका जूता है... सर्वेश्वररदयाल सक्सेना हैं और गुलजार हैं। सबकुछ तो धुले आसमान की तरह साफ है। कविता का जो इंद्रधनुष साठ - सत्तर के दशक में रचा गया उसमें रंगों का हेरफेर करके आप मालिकाना हक कैसे जता सकते हैं। गुलजार ने तो सफाई देने की जहमत तक नहीं उठाई वह अपने कद्दावर बुत के भरोसे समूचे आसमान को निगलने की फिराक में थे।

गुलजार ने पहले भी गालिब का मतला उठाया था और तब गालिब तो इस कदर लाल-पीले नहीं हुए। जनाब! तब बाकायदा गुलजार ने इस उठाइगीरी की सूचना जाहिर की थी और कौन जाने उन्हें गालिब की लोकप्रियता का इल्म न होता तो शायद ऐसा न करते वे ।

सर्वेश्वरदयाल जैसे हिंदी के कवि के बारे में गलतफहमी उन्हें भारी पड़ गई। वह अरसा पहले लिखी इस कविता को शिनाख्त से कमतर मानकर चल रहे थे। यदि उन्होंन गीत के बाजार में आने के साथ ही मूल रचनाकार को याद कर लिया होता तो कोई बात ही नहीं थी। गुलजार इतने संजीदा शख्स हैं कि उनसे कोई सफाई देते भी नहीं बन रही। इस संजीदगी को रचना की आत्मा के साथ हेराफेरी के वक्त भी कायम रखा जाना चाहिए थे।

इब्नेबतूता आम नाम नहीं है। इस नाम में एक लय है एक ताल है। ग्लैमर की दुनिया इसकी कीमत देती है। गुलजार इसे अपनी आत्मा बेचकर हासिल करना चाहते थे। उन्होंने जो किया उसे आप साहित्यिक बाल टेंपरिंग कह सकते हैं.

(प्रभात किरण के इंदौर संस्करण के ६ फरवरी के सम्पादकीय पेज से साभार. लेखक - राहुल ब्रजमोहन )
नोट- मूल लेख को संपादित किया गया है.

धर्म की नितांत दार्शनिक व्याख्या क्यूं।



अजीत कुमार

धर्म को लेकर अपने अपने समय में दार्शनिकों की घोषणाएं चाहे जो भी रही हो। व्यवहारिकता के धरातल पर धर्म की अपरिहार्यता समाज में पहले भी थी और आगे भी रहेगी। ईश्वर को मृत मानने की नीत्शे की घोषणा से लेकर विचार और इतिहास के अंत तक की कई घोषणाएं की जा चुकी है। लेकिन क्या वास्तव में उन घोषणाओं के बाद धर्म , विचार और इतिहास का अंत हो गया या आने वाले समय में आपको लगता है कि क्या इसका अंत हो सकता है।

दरअसल समाज की जटिलता और समय के व्यापक अंतर्विरोध् को लेकर किसी ऐसे ठोस विचार की घोषणा संभव नहीं है। जो एक ही साथ समाज के उपर अपना व्यापक असर दिखा सके। दरअसल बौद्विकों और दार्शनिकों के यहां अपनी विशिष्ट राय स्थापित करने की या कहें तो पूर्व की अवधारणाओं को तोडने की जल्दीबाजी ही इस तरह की असमय दम तोडती घोषणाओं के लिए जिम्मेदार हैं। खैर यहां पर मैं दर्शन की सत्ता को चुनौती नहीं दे रहा हूं और न मेरे लेखन के पीछे इस तरह की कोई मंशा है।

दरअसल धर्म, जाति, भाषा व विचार ऐसे व्यापक जटिल और संश्लिष्ट मुद्दे हैं जो हमेशा से विमर्श के केंद्र में रहे हैं और मेरे हिसाब से लगातार इसके विमर्श में रहने की जरूरत भी है।

लेकिन सबसे प्रमुख मुद्दा है,धर्म जो वैश्विक परिप्रेक्ष्य में आज भी गहन विमर्श की अपेक्षा रखते हैं। धर्म को लेकर जहां सभ्यताओं के संघर्ष तक की बातें आ चुकी है। वहीं इसके जबाव में यूरोप के प्राच्यवादी सोच की बखिया उधेड़ने में भी कोई कोर कसर नहीं छोडी गई है। मगर इन दोनों विपरीत ध्रुवों के बीच कहीं विमर्श यहां तक आकर क्यूं नहीं ठहरता है कि अगर एडवर्ड सईद की किताब प्राच्यवाद की बहुत सारी बातें विचारणीय हो सकती है तो सैम्युअल हटिंगटन की सभ्यताओं के संघर्ष की तमाम स्थापनाओं को भी यकबारगी झुठलाया नहीं जा सकता है।

धर्म को लेकर अतिवाद से ग्रस्त इन दोनों विचारों को लेकर दुर्भाग्य से विश्वस्तर पर ही क्या भारत में भी आज कमोबेश कुछ ऐसी ही स्थिति हैं। एक तरफ या तो धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाले वे लोग हैं जो गंगा जमुनी तहजीब को लेकर हद से ज्यादा रोमैंटिक हैं। तो दूसरी तरफ वे लोग हैं जिनके लिए राष्टीयता और धर्म एक दूसरे के पूरक हैं। एक दूसरे से नितांत अलग इन दो धरणाओं के बीच धर्म और राष्टीयता को लेकर जिस तरह की बहस होनी चाहिए। वह नहीं हो पाती है। मेरे हिसाब से इन्हीं दो भिन्न धरणाओं के प्रति अटूट आस्था और लग्गीबंधी के चलते ही इस देश में सामासिकता और सांस्कृतिक विविधता का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है।

प्राच्यवाद के साथ साथ धर्म को लेकर मार्क्सवादी अवधरणा के जोर ने भी धर्म राष्टीयता और राज्य के विषय को नेपथ्य में डाल दिया है। हालांकि राज्य की उत्पत्ति को लेकर मार्क्सवादी अवधरणा ज्यादातर संदर्भों में विचारणीय हैं। लेकिन धर्म को लेकर जिस तरह का नकार मार्क्सवादियों में रहा है। उससे कहीं न कहीं धर्म को लेकर उनके अंतर्विरोध् ही जगजाहिर हुए हैं।

हालांकि ज्ञान मीमांसा के इस दौर में सामाजिक संबंधों और संस्थाओं की सत्ता को सर्वाधिक् चुनौतियां मिल रही है। बावजूद यही वह समय है जब विश्व स्तर पर इन संबंधों और संस्थाओं की ओर लोगों का झुकाव बढा है। खासकर उस पश्चिम में भी लोग अब अपनी स्वछंद उन्मुक्तता के रास्ते से हटकर सामाजिक ताने बाने में फिर से लौट आने की कोशिश कर रहे हैं। जहां तत्व मीमांसा की लहर को रोककर ज्ञान मीमांसा ने सर्वप्रथम परचम लहाराने की कोशिश की थी। संयोग से धर्म फिर से बन रहे सामाजिक ताने बाने की सबसे महत्वपूर्ण कडी है। उदाहरण के तौर पर पश्चिम में योग की बढती लोकप्रियता को ले लें। यह सीमाविहीन से सीमाबद्व होने की प्रक्रिया नहीं तो और क्या है।

सिपर्फ अमेरिका ही क्या यूरोप और अन्य देशों में भी धर्म की तरफ झुकाव फिर से बढ रहा है। आखिर प्रश्न उठता है वैज्ञानिकता के सहारे धर्म के संहार की घोषणा क्यूं नहीं रंग ला पा रही है। जबकि वैज्ञानिक उपलब्धियों को लेकर हम पहले की तुलना में मीलों आगे बढ गए हैं। दरअसल वैज्ञानिकता और ज्ञान मीमांसा का धर्म को लेकर कोई द्वैध् है ही नहीं। यह तो सिर्फ तर्कों और प्रस्थापनाओं की देन रही है।


बिहार के नालंदा जिले में जन्मे अजीत कुमार ने अपने करियर की शुरुआत सीएनबीसी टीवी 18 मुंबई से की। दिल्ली में आईएएनएस, ईटी हिंदी के बाद इन दिनों एक ब्रोकरेज हाउस में काम कर रहे हैं। अजीत जी से aboutajeet@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

पत्रकार की छंटनी पर हल्ला क्यों नहीं

मृत्युंजय कुमार झा

अनिल चमड़िया की महात्मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में नियुक्ति रद्द किये जाने को लेकर ब्लॉग पर हाय तौबा मची हुई है। इतना ही नहीं अब इसको लेकर ह्स्ताक्षर अभियान भी चलाया जा रहा है। अनिल चमड़िया की नियुक्ति वैध थी या अवैध, निकालने का आधार ग़लत था या सही, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता। बेशक इस पर चर्चा होनी चाहिए, लेकिन हजारों पत्रकारों को आनन- फानन में ही बाहर का रास्ता दिखा जाता है, इस पर हमारी कलम मौन क्यों हो जाती है। ऐसा भी नहीं कि इन पत्रकारों को निकालने का तरीका, या निकालने के पीछे की वजह अनिल चमड़िया की नियुक्ति रद्द किये जाने से भिन्न है। तरीका भी वही, वजह भी वही, फिर चर्चा और विरोध में सौतेलापन क्यों।

मैं यहां पर कुछ उदाहरण पेश करना चाहुंगा। हाल ही में अमर उजाला बरेली से पांच प्रशिक्षु पत्रकारों को स्थानीय संपादक प्रभात सिंह ने सिर्फ इसलिए निकाल दिया कि उनकी नियुक्ति उनके विरोधी संपादक ने की थी। ख़बर है कि अमर उजाला बनारस से भी चार जूनियर पत्रकारों को बाहर निकाल दिया गया है। ये सारी नियुक्तियां अमर उजाला के तत्कालीन ग्रुप एडिटर शशि शेखर ने की थी। अपने आपको प्रतिष्ठत मीडिया संस्थान कहने वाले नेटर्वक 18 ग्रुप ने एक झटके में ही सीएनबीसी और सीएनबीसी आवाज़ चैनेल के करीब 250 पत्रकारों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। voice of india चैनल से एक पत्रकार को सिर्फ इसलिए बाहर कर दिया गया क्योंकि उन्होंने सैलरी मांगने की गुस्ताखी की। ये महज चंद उदाहरण हैं। मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूं जो या तो इसलिए निकाल दिये गए क्योंकि या तो ये संपादक के चमचों के लॉबी के नहीं थे, या फिर सिर्फ काम करते थे। इनमें से कइयों की पारिवारिक जिम्मेदारी अनिल चमड़िया जी से बहुत ज़्यादा होगी। लेकिन इन मसलों पर या तो बहुत कम कलम चली, या चली भी तो बहुत संतुलित, ख़बर बताने के लहजे में। आखिर ऐसा क्यों होता है कि जो मीडिया जेट एयरवेज के मैनेजमेंट को बर्खास्त कर्मचारियों को फिर से बहाल करने पर मजबूर कर देता है, अपने ही घर का आग नहीं बुझा पाता।

दरअसल हमारी फितरत ऐसी है कि हम गलेमरस और बोद्धिक मामलों में कूद कर अपनी बौद्दिकता साबित करना चाहते हैं। ऐसे में हम जिस सरकोर का ढिंढोरा पीटते हैं उसके मायने भी बदल दिये जाते हैं। इसलिए अनिल चमड़िया की नियुक्ति रद्द होना हमें बड़ा मुद्दा लगता है, लेकिन नये पत्रकारों को निकाले जाने पर अपनी कलम चलाने में हम अपनी तौहीन समझते हैं। अमर उजाला के नये पत्रकारों को इस आधार पर निकाला जा रहा है कि व योग्य नहीं हैं। आख़िर योगयता का पैमाना क्या है और योग्यता कौन तय करता है, ऐसा व्यक्ति जो ख़ुद अपने विवादित आचरण के चलते उजाला से बाहर निकाला जा चुके हैं! या फिर अगर ये बच्चे योगय नहीं हैं तो नियुक्ति के समय इस बात का ख्याल क्यों नहीं रखा गया। दरअसल अपने नीजी स्वार्थों और वय्क्तिगत दुश्मनी का बदला लेने के लिए इस तरह के नौनिहालों को बलि का बकरा बनाया जाता है।

बिहार के अररिया जिले में जन्मे मृत्युंजय कुमार झा फिलहाल ज़ी बिज़नेस न्यूज चैनल में एंकरिंग और रिपोर्टिंग करते हैं।)

जानलेवा खेल

रात एक बजे
जाने किस मूड में भेजे गए उस इमेल को
सुबह संभलने के बाद उसने ख़ारिज कर दिया है

ये जिन्दगी है
लव आज कल नहीं
वह कहती है
मैं कहना चाहता हूँ की जिन्दगी
राजश्री बैनर का सिनेमा भी तो नहीं

प्यार चाहे मुख़्तसर सा हो या लम्बा
उससे अपरिचित हो पाना बस का नहीं
चाहे वो शाहिद करीना हों या मैं और वो

तुम शादी कर लो
उसने प्रक्टिकल सलाह दी थी
उंहू...
पहले तुम मैंने कहा था

हमारा क्या होगा
ये सवाल हमारे प्यार करने की ताकत छीन रहा था
हमने अपनी आंखों में आशंकाओं के कांटे उगा लिए थे
आकाश में उड़ती चील की तरह कोई हम पर निगाहें गडाए था
मेरे लिए अब उसे प्यार करने से ज्यादा जरूरी
उस चील के पंख नोच देना हो गया था
लेकिन मैं कुछ भी साबित नहीं करना चाहता था
न अपने लिए न उसके लिए

मुझे अब इंतज़ार था
शायद किसी दिन वो वह सब कह देगी
मैं शीशे के सामने खड़ा होकर अभिनय करता
की कैसे चौकना होगा उस क्षण
ताकि उसे ये न लगे की
अप्रत्याशित नहीं ये सब मेरे लिए

हर रोज जब वो मुझसे मिलती
मेरी आँखों में एक उम्मीद होती
लेकिन वह चुप रही
जैसे की उसे पता चल गया था सारा खेल

ये जानलेवा खेल
बर्दाश्त के बाहर हो रहा है
उम्मीद भी अँधा कर सकती है
ये जान लेने के बाद मेरी घबराहट बढ़ गयी है...
(अधूरी...)