हम लड़ेंगे साथी


पाश की कविताएं हमारे साथ आखिर क्या करती हैं ...
वे हमारे रोजमर्रा की आवाजों के आदी कानों में सनसनाती हैं एक चीख की तरह...
कुछ देर की हलचल के बाद सब शांत हो जाता है पानी की तरह

हम लड़ेंगे साथी
उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी,
गुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िंदगी के टुकड़े।
हथौड़ा अब भी चलता है,
उदास निहाई पर
हल अब भी चलता है,
चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता,
प्रश्न नाचता है।
प्रश्न के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी।
कत्ल हुए जज्बों की कसम खाकर
बुझी हुई नज़रों की कसम खाकर
हाथ पर पड़े गड्ढों की कसम खाकर।
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे साथी तब तक
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूंघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति
जब तक युद्ध से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाइयों का गला घोंटने को मजबूर हैं
कि दफ्तर के बाबू जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की जरूरत है।
जब तक बंदूक न हुई,
तब तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगेकि अब तक लड़ क्यों नहीं
हम लड़ेंगेअपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए जो मर गए
उनकी याद जिंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी।

- पाश

हमारे सपनों का मर जाना






कोई भूमिका नही बस पाश की ये कविता पढिये ................



मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होनासब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है
सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता
सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।

पाश .........

बेदखली के लिए विनयपत्र


इन दिनों मन बहत उदास रहता है पता नही क्यों ???
पाश की चुनिन्दा कवितायें आप लोगों के लिए लाऊंगा बारी बारी से ...



मैंने उम्र भर उसके खिलाफ सोचा और लिखा है
अगर उसके अफसोस में पूरा देश ही शामिल है
तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें
मैं खूब जानता हूं नीले सागरों तक फैले हुए
इस खेतों, खानों,भट्ठों के भारत को
वह ठीक इसी का साधारण-सा एक कोना था
जहां पहली बार
जब दिहाड़ी मजदूर पर उठा थप्पड़ मरोड़ा गया
किसी के खुरदरे बेनाम हाथों में
ठीक वही वक्त था
जब इस कत्ल की साजिश रची गयी
कोई भी पुलिस नहीं खोज पायेगी इस साजिश की जगह
क्योंकि ट्यूबें सिर्फ राजधानी में जगमगाती हैं
और खेतों, खानों व भट्ठों का भारत बहुत अंधेरा है

और ठीक इसी सर्द अंधेरे में होश संभालने पर
जीने के साथ-साथ
पहली बार जब इस जीवन के बारे में सोचना शुरू किया
मैंने खुद को इस कत्ल की साजिश में शामिल पाया
जब भी वीभत्स शोर का खुरा खोज-मिटा कर
मैंने टर्राते हुए टिड्डे को ढूंढ़ना चाहा
अपनी पुरी दुनिया को शामिल देखा है

मैंने हमेशा ही उसे कत्ल किया है
हर परिचित की छाती में ढूंढ़ कर
अगर उसके कातिलों को इस तरह सड़कों पर देखा जाना है
तो मुझे भी मिले बनती सजा
मैं नही चाहता कि सिर्फ इस आधार पर बचता रहूं
कि भजनलाल बिशनोई को मेरा पता मालूम नहीं

इसका जो भी नाम है-गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं
मैं उस पायलट की
चालाक आंखों में चुभता भारत हूं
हां मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो।

पाश

मीडिया दक्षिणपंथी रुझान वाला है और ब्लॉग

दो दिन हुए नए जनादेश पर जानेमाने साहित्यकारों की राय पर लेकर मैंने एक खबर बनाई थी जिसे गिरींद्र ने अपने ब्लाॅग अनुभव पर प्रकाशित किया। मैं ये देखकर चकित रह गया कि आमतौर पर गिरींद्र की नन्हीं मुन्नी और यहां तक कि निशब्द पोस्टों (केवल चित्र) पर भी टिप्पणी करने वाले ब्लाॅगर इस बार एकदम गुमसुम रह गए।

मैं सोचने लगा कि आखिर क्या कारण हो सकता है इसके पीछे। क्या रपट इतनी बुरी बनी है? मैंने रिपोर्ट को दोबारा पढ़ा और मित्र कथाकार चंदन पांडेय की एक पंक्ति पर जाकर अटक गया। चंदन ने कहा है कि देश का अधिकांश मीडिया दक्षिणपंथी रुझान वाला है और वही लगातार इस चुनाव में राजग को मुकाबले में बता रहा था............... अब चूंकि अधिकांश ब्लोगर बंधू भी मीडिया से ही हैं (मुझ samet) तो मुझे गिरीन्द्र के लोकप्रिय ब्लॉग पर टिप्पणियां न आना अखर रहा है.

मंटो किसी अफ़साने का नाम है



आज 11 मई है मेरे महबूब अफसाना निगार सआदत हसन मंटो का जन्मदिन। मंटो की एक पंक्ति है-‘‘ मिट्टी के नीचे दफन सआदत हसन मंटो आज भी यह सोचता है कि सबसे बड़ा अफसाना निगार वह खुद है या खुदा। ’’
ये इबारत पढ़कर एकबारगी आपको लगता है कि यह आदमी कितना दंभी और गुरूर में जीने वाला इंसान रहा होगा लेकिन मंटो के चाहने वाले और उन्हें जानने वालों को पता है कि वह निहायत सीधे शरीफ इंसान थे और अगर उनमें कोई चीज ज्यादा थी तो वह थी शायद जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास ।
मंटो से मेरा परिचय जिस समय हुआ उस समय मेरी उम्र इतनी नहीं थी कि मैं उनके अफसानों को समझ पाता। मैंने 13 वर्श की अवस्था में अपने शहर के राजकीय पुस्तकालय से किताब निकलवाई ‘‘ मंटो मेरा दुश्मन’’ जिसे लिखा था उपेंद्रनाथ अश्क ने। इस पुस्तक में मंटो कि कुछ कहानियों के अलावा उनके बारे में अश्क साहब और कृशन चंदर के संस्मरण थे। मंटों की कहानियां उस समय समझ तो नहीं आईं लेकिन उन्होंने जीवन के उस पहलू से परिचय कराया जो कम से कम हमारे समाज में चर्चा के काबिल नहीं समझा जाता। थोड़ा बड़े हुए तो मंटो की कहानियों पर अपने शहर में एक चर्चा आयोजित करवाई जिसका उद्देश्य ही था उनकी कहानियों को समझना। कालेज पहुंचे तो उनकी कहानी टोबा टेक सिंह को आधार बनाकर एक नाटक यूथ फेस्टिवल में खेला गया, उसमें शायद थोड़ा इनपुट खुशवंत सिंह की ट्रेन टु पाकिस्तान से भी लिया था।
बहरहाल यहां इरादा मंटो की जीवनी सुनाने का नहीं है और उनके बारे में बाते करते हुए जाने कितने पन्ने रंगने तो बस उनके जन्मदिन पर लगा कि उन्हें याद कर लिया जाए मेरी ओर से यही उन्हें श्रद्धांजलि।

तमाम उम्र शराबनोशी ....शबाब...और अश्लील कहानियां लिखने के के आरोपों के चलते जीते जी दंतकथाओं के नायक बन गए मंटो १२ जनवरी १९५५ को नही रहे और अब तो लगता है की मंटो किसी अफ़साने का नाम था या हकीकत ....



बीबीसी के सौजन्य से मंटो की कुछ लघु कथाएं

आदत हसन मंटो की कहानियों की जितनी चर्चा बीते दशक में हुई है उतनी शायद उर्दू और हिंदी और शायद दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की कम ही हुई है.
जैसा कि राजेंद्र यादव कहते हैं चेख़व के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली यानी उन्होंने कोई उपन्यास नहीं लिखा.
कमलेश्वर उन्हें दुनिया का सर्वश्रेष्ठ कहानीकार बताते हैं.
अपनी कहानियों में विभाजन, दंगों और सांप्रदायिकता पर जितने तीखे कटाक्ष मंटो ने किए उसे देखकर एक ओर तो आश्चर्य होता है कि कोई कहानीकार इतना साहसी और सच को सामने लाने के लिए इतना निर्मम भी हो सकता है लेकिन दूसरी ओर यह तथ्य भी चकित करता है कि अपनी इस कोशिश में मानवीय संवेदनाओं का सूत्र लेखक के हाथों से एक क्षण के लिए भी नहीं छूटता.
प्रस्तुत है उनकी पाँच लघु कहानियाँ -
बेख़बरी का फ़ायदा
लबलबी दबी – पिस्तौल से झुँझलाकर गोली बाहर निकली.खिड़की में से बाहर झाँकनेवाला आदमी उसी जगह दोहरा हो गया.लबलबी थोड़ी देर बाद फ़िर दबी – दूसरी गोली भिनभिनाती हुई बाहर निकली.सड़क पर माशकी की मश्क फटी, वह औंधे मुँह गिरा और उसका लहू मश्क के पानी में हल होकर बहने लगा.लबलबी तीसरी बार दबी – निशाना चूक गया, गोली एक गीली दीवार में जज़्ब हो गई.चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी, वह चीख़ भी न सकी और वहीं ढेर हो गई.पाँचवी और छठी गोली बेकार गई, कोई हलाक हुआ और न ज़ख़्मी.गोलियाँ चलाने वाला भिन्ना गया.दफ़्तन सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता हुआ दिखाई दिया.गोलियाँ चलानेवाले ने पिस्तौल का मुहँ उसकी तरफ़ मोड़ा.उसके साथी ने कहा : “यह क्या करते हो?”गोलियां चलानेवाले ने पूछा : “क्यों?”“गोलियां तो ख़त्म हो चुकी हैं!”“तुम ख़ामोश रहो....इतने-से बच्चे को क्या मालूम?”
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करामात
लूटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरु किए.लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अंधेरे में बाहर फेंकने लगे,कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौक़ा पाकर अपने से अलहदा कर दिया, ताकि क़ानूनी गिरफ़्त से बचे रहें.एक आदमी को बहुत दिक़्कत पेश आई. उसके पास शक्कर की दो बोरियाँ थी जो उसने पंसारी की दूकान से लूटी थीं. एक तो वह जूँ-तूँ रात के अंधेरे में पास वाले कुएँ में फेंक आया, लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा ख़ुद भी साथ चला गया.शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गये. कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं.जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया.लेकिन वह चंद घंटो के बाद मर गया.दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए उस कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था.रहे रात उस आदमी की क़ब्र पर दीए जल रहे थे.
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ख़बरदार
बलवाई मालिक मकान को बड़ी मुश्किलों से घसीटकर बाहर लाए.कपड़े झाड़कर वह उठ खड़ा हुआ और बलवाइयों से कहने लगा :“तुम मुझे मार डालो, लेकिन ख़बरदार, जो मेरे रुपए-पैसे को हाथ लगाया.........!”

जनहित में जारी......


दोस्तों अभी अभी एक दोस्त ने ये तस्वीर भेजी है सोचा आपसे साझा करूँ...........