सिनेमा और मैं, भाग-1


जब से मैं पैदा हुआ मैंने घर में बीबीसी की आवाज ही सुनी है। हमारे घर में लंबे अरसे तक टीवी नहीं था क्योंकि पिताजी की नजर में वो सबसे कम जरूरी चीज थी जिसे घर में होना चाहिए था.


मैं शायद नौ या दस साल का रहा होउंगा॥ रविवार को कौन सी फ़िल्म आ रही है इसकी जानकारी स्कूल में दोस्तों से मिल जाती थी। मन में चिंता समा जाती की कैसे देखूंगा??


पड़ोस में टीवी देखने जाना होता तो एक दिन पहले से ही माहौल बनाना पङता घूम घूम कर खूब पढता ताकि ज्यादातर समय पिताजी की नजर पड़े तो मेरे हाथ में किताब हो। शाम को मां के सामने अर्जी लगाता " मां मैं फलाने के यहाँ टीवी देखने जाऊं... मां पिताजी से सिफारिश करती जाने दीजिये न सुबह से पढ़ रहा है. पिताज़ी की इच्छा पर मेरी एक एक साँस टंगी रहती की वो हाँ कहेंगे या न.....ज्यादातर मौकों पर तो मना ही कर देते. कभी कभी पूछते कौन सी फ़िल्म है........और मैं डरते-डरते नाम बताता.


तो कुछ इस अंदाज में सिनेमा से मेरा पहला परिचय हुआ।
तस्वीर -साभार गूगल

रहामान का जादू वाया स्लमडॉग मिलियनेयर




स्लमडॉग मिलियनेयर की जय जयकार दिगदिगंत में गूँज रही है. फ़िल्म को दस ऑस्कर नोमिनेशन मिले हैं. बॉलीवुड के निर्माता निर्देशक कुढ़ रहे हैं की हम क्यों नही ऐसी फिल्में बना पाते, रहमान ग्लोबल हो गए हैं. इस फ़िल्म में उन्होंने न भूतो न भविष्यति किस्म का संगीत दे दिया है एसा टीवी चैनलों का कहना है.....
मैंने फ़िल्म तो नही देखी इसके गीत जरूर सुने हैं. यकीनन रहमान ने कोई पारलोकिक संगीत नही दिया है. इस फ़िल्म में उनका संगीत अपनी ख़ुद की कुछ श्रेष्ठ रचनाओं के आसपास भी नही फटकता.
याद कीजिये..........बॉम्बे, रोजा, ताल. स्वदेश, लगान, गुरु, और ऐसी ही अनेक फिल्मों को....
ऐ हैरते आशिकी....नही सामने.....जिया जले.......तू ही रे............ इनमें से कौन सा गाना है जो जय हो से उन्नीस ठहरता है.
तो फ़िर ये जनज्वार किसलिए किसकी मान्यता के लिए भावविभोर हो रहे हैं हम. उस ऑस्कर के लिए जो हॉलीवुड का अंदरूनी पुरस्कार है जिसमें बाहरी फिल्मों के लिए सिर्फ़ एक श्रेणी है, " बेस्ट फोरेन लैंगुएज फ़िल्म "
और फ़िर स्लमडॉग मिलियनेयर तो अपन ने बनाई भी नही यार, फ़िर ये मारामारी किसलिए क्या कभी एसा होगा की हम हॉलीवुड की नक़ल पर रखे नाम बॉलीवुड की जगह कोई असली नाम ढूंढ पाएंगे...................तब तक के लिए हैं ऑस्कर नोमिनेशन पर खुश होना बंद कर देना चाहिए................



तस्वीर साभार -गूगल

मेरा एक सपना है


''मेरा
एक सपना है कि
मेरे बच्चे एक ऐसे समाज में रहें
जहाँ उन्हें उनकी त्वचा के रंग से नही
बल्कि उनके चरित्र से पहचाना जाए.........''
१९ जनवरी को मार्टिन लूथर किंग जूनियर का ८० वां जन्मदिन था ।
तस्वीर-साभार गूगल

असफलताएं



असफलताएं सिर्फ़ तोड़ती नही हैं

बल्कि वो देती हैं


बहुत कुछ जोड़े रखने का साहस


हर बार हम असफल प्रेम से सीख पाते हैं


की गहन दुःख के क्षणों में मुस्कराया कैसे जाता है

इसी तरह हमारे भीतर का अवसाद

निकल कर बिखर जाता है अचानक

जब हम बीच सड़क पर फिसल जाते हैं

अनायास


ठीक ऐसे ही हम कह सकते हैं की


सबसे गहरे और अभिन्न मित्रों के बीच


सबसे मजबूत सेतु की तरह होती हैं


उनकी एक सी असफलताएं

सुनो साथियों

ये जो आदमी नाम का जीव है न मेरे भाई
सचमुच बड़ा अनोखा है
और चूंकि उसे पहचानना मेरा पेशा है
तो मैंने कोशिश की है और नतीजे आप को सुनाता हूँ..............
तो मुलाहिजा हो साहिबान
यहाँ कुछ लोग दुष्यंत कुमार के चेले हैं,
पूरी जवानी अपनी गुंडई और हरामीपने को
दुष्यंत की कविताओं की आड़ देने वाले ये लोग
साए में धूप को छाती से चिपकाये हुए
सुविधाओं से लैस जीवन के बीच कभी -कभी दौरा पड़ने पे
व्यवस्था के ख़िलाफ़ वमन करते हैं और सो जाते हैं
कुछ extreemist मार्क्स के चेले हैं
उन्होंने खोल रखे हैं एनजीओ
सरकारी दफ्तर में ग्रांट के लिए बाबू को तेल लगाने के बाद जो
उर्जा बच जाती हैउसका उपयोग वे रात में बिस्तर पर
स्वयमसेविकाओं के साथ क्रांति करने में करते हैं
ये क्रांतिकारी लिखते हैं प्रेम की कवितायें
जिनमें होता है अफ़सोस अतृप्त कामनाओं पर
उनमें के एक दारु पीकर बड़ी मासूम सी कसम खाता है
की उसने अपनी प्रेमिका के साथ
(जो अब किसी और की ब्याहता है) कभी सम्भोग नही
किया बगल में रहता है एक समाजवादी
जो साम्यवाद और समाजवाद पर रिसर्च कर रहा है
वो बहुत तार्किक है और चीजों के प्रति निरपेक्ष नजरिया रखता है
उसकी प्रेमिका ने दहेज़ के चलते उसके सबसे करीबी दोस्त के विवाह कर लिया है
इसे वह चयन की स्वतन्त्रता का मामला बताता है
और भविष्य को लेकर बहुत आशान्वित है
एक धडा कट्टरपंथियों का है जिनको गान्ही से समस्या है
गान्ही बाबा ने उनको पचास साल पीछे धकेल दिया
एसा उनका आरोप है बहरहाल शहर में बाकी सब ठीकठाक है .........

क्या अक्षरधाम मन्दिर एक धार्मिक मॉल है


कल शाम मैं अक्षरधाम मन्दिर गया था. लंबे समय से आते-जाते इस मन्दिर को देखता था और इसकी भव्यता मुझे आकर्षित करती थी लेकिन मन्दिर परिसर में जाकर जाने क्यों मुझे उस भव्यता से डर लग रहा था.
किसी परिचित प्रतीक की अनुपस्थिति में आस्था को आसरा नही मिला और उसकी भव्यता, फ़ूड कोर्ट और थिएटर मिलकर किसी धार्मिक मॉल का सा वातावरण तैयार कर रहे थे. मैं वहाँ अपने दो मित्रों के साथ गया था. हमारे बीच बहस की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी.
हम बात कर रहे थे की क्या मन्दिर की भव्यता किसी की आस्था पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है...
हम बात कर रहे थे की क्या छोटे कपडों में बड़ी आस्था समेटे ये बालाएं जिनके हाथ में पेटीस और बत्तरस्कॉच आइसक्रीम का कोने था पिकनिक पर हैं...और क्यों हमारा ध्यान मन्दिर से ज्यादा इनकी हरकतों पर है...
हम बात कर रहे थे की क्यों दूसरे सम्प्रदायों के स्थान हमें अपेक्षाकृत अधिक सम्मोहित करते हैं...
हम बात कर रहे थे की वो कैसी आस्था है जो लोगों को अपने गुरु का जूठा या उनका नहाया हुआ पानी पीने को मजबूर करती है...
खैर अक्षरधाम मुझे मेरे देखे कुछ पुराने भव्य मंदिरों का मॉल संस्करण लगा. मैं सोच रहा था की इस मन्दिर की भव्यता के पीछे कितनी कहानियां दफ़न होंगी, की आने वाली पीढियां इस मन्दिर को कैसे याद रखना चाहेंगी...व्यक्तिगत रूप से मुझे इस खर्च की कोई उपादेयता नही नजर आयी जाने क्यों वो मन्दिर मुझे भयभीत कर रहा था।
तस्वीर - साभार गूगल